आत्मा साकार है, या निराकार?
काफी लंबे समय से कुछ लोगों द्वारा, इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि आत्मा साकार है।
हम उन्हें अनेक वर्षों से समझा रहे हैं, कि आपका विचार ऋषियों के अनुकूल नहीं है। फिर भी वे इतने हठी लोग हैं, कि अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं हैं, और सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
मुझे अनेक विद्वानों तथा श्रद्धालु व्यक्तियों ने प्रेरित किया, कि आप इस विषय में ऋषियों का विचार प्रस्तुत करें। उनके सुझाव का सम्मान करते हुए, सर्वहित के लिए मैं कुछ निवेदन कर रहा हूं।
ऐसे लोगों का यह कहना है कि--
आत्मा साकार है। एकदेशी होने से । जो जो वस्तु एकदेशी होती है, वह वह साकार होती है। जैसे स्कूटर कार इत्यादि । आत्मा भी एकदेशी है। इसलिए आत्मा भी साकार है।
इन लोगों ने जो अपनी बात रखी है, इसमें इनका हेतु गलत है। हेतु का अर्थ है, अपनी बात को सिद्ध करने के लिए सही कारण बताना। इन्होंने जो कारण बताया, वह गलत है। न्यायदर्शन की भाषा में, गलत कारण को हेत्वाभास कहते हैं। इन्होंने जो कारण बताया है, यह सव्यभिचार नामक हेत्वाभास है। अर्थात् जो हेतु दोनों पक्षों में चला जाए, वह सव्यभिचार हेत्वाभास कहलाता है। (इसी को अनैकांतिक हेत्वाभास के नाम से भी कहते हैं।)
इनका हेतु यह था कि एकदेशी होने से, आत्मा साकार है। यह हेतु गलत इसलिये है, क्योंकि यह हेतु दोनों पक्षों में जाता है। अर्थात् एकदेशी वस्तुएं भी साकार हैं, और व्यापक वस्तुएं भी साकार हैं। ऐसी वस्तुएं भी हैं, जो पूरे ब्रह्मांड में व्यापक हैं, फिर भी वे साकार हैं। जैसे प्रकृति। सत्यार्थ प्रकाश के नौवें समुल्लास में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने प्रकृति को विभु अर्थात व्यापक लिखा है।
महर्षि दयानंद जी के वचन ये हैं --
"तीसरा कारण (शरीर) जिस में सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है, वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है।"
तो एकदेशी होने से साकार नहीं हुआ, व्यापक होने पर भी वस्तुएँ साकार हैं। इसलिए इनका हेतु गलत है। हेतु गलत होने से इनका पक्ष सिद्ध नहीं होता, कि आत्मा साकार है।
दूसरी बात - इनको अपने पक्ष की सिद्धि में कोई शब्द प्रमाण देना चाहिए था। इन्होंने आत्मा को साकार सिद्ध करने के लिए एक भी शब्द प्रमाण नहीं दिया। न कोई वेदवचन दिया, न कोई ऋषिवचन दिया, जिससे सीधा या अर्थापत्ति से सिद्ध होता हो, कि आत्मा साकार है। इसलिए इनकी बात सिद्ध नहीं होती। अर्थात् आत्मा को साकार कहना उचित नहीं है।
तीसरी बात -- एक वस्तु में अनेक गुण कर्म होते हैं । वे सभी गुण कर्म एक वस्तु में होते हुए भी, एक दूसरे को सिद्ध नहीं करते। क्योंकि उन सभी गुण कर्मों में, परस्पर साध्यसाधनभाव (कार्यकारणसंबंध) नहीं होता। यहां लोग गलती यह करते हैं, कि किसी भी गुण को लेकर किसी भी बात को वे सिद्ध करना चाहते हैं। जो कि साध्यसाधनभाव नियम के विरुद्ध है।
जैसे एक उदाहरण ---
एक मनुष्य संगीत कला जानता है। वह पाक विद्या भी जानता है। वह भोजन भी बनाता है। वह सैर भी करता है। कार भी चलाता है। वह सो भी जाता है। तो उसमें इस प्रकार से अनेक गुण कर्म होते हैं।।
अब कोई यह कहे कि क्योंकि यह मनुष्य संगीत कला जानता है , इस कारण से यह बहुत अच्छा भोजन बनाता है।
तो अब आप सोचिए, यह अच्छा भोजन बनाने का जो कारण संगीत कला को बताया गया है, क्या यह ठीक है? क्या संगीत कला जानना, भोजन बनाने का कारण है?
इस सरल सी बात को छोटा बच्चा भी समझ लेगा, कि यह कारण गलत है। भले ही उस मनुष्य में भोजन बनाने की कला भी है, संगीत कला भी है, और वह अच्छा भोजन बनाता भी है। फिर भी भोजन बनाना जो कार्य है, उसका कारण संगीत कला नहीं है। उसका कारण पाकविद्या है।
ठीक इसी प्रकार से आत्मा में भी अनेक गुण कर्म हैं। वह एकदेशी भी है, निराकार भी है, चेतन भी है, यज्ञादि कर्म भी करता है, खाता पीता सोता भी है। परंतु इन सबका आपस में कारण कार्य संबंध नहीं है। क्योंकि जहां जहां आप कारणकार्यसंबंध बताएंगे, वहां वहां उनमें साध्यसाधनभाव होना चाहिए, जैसा ऊपर के उदाहरण में बताया गया है।
तो जैसे संगीत कला से भोजन नहीं बनता, वैसे ही एकदेशी होने से साकार भी नहीं होता। यदि एकदेशी होने से साकार होता, तो अर्थापत्ति प्रमाण से व्यापक होने से निराकार होना चाहिए। जबकि प्रकृति व्यापक है, तो भी साकार है। इसलिए एकदेशी होना और साकार होना, इन दोनों में कारणकार्यसंबंध या साध्यसाधनभाव नहीं है। इसलिए आत्मा को, एकदेशी होने से साकार मानना गलत है।
चौथी बात --- हम यह कहते हैं कि चलिये, थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए, कि आत्मा साकार है। तो ऐसा मानने से एक समस्या उत्पन्न होती है। और वह है, कि - साकार होने का, जड़ होने के साथ साध्यसाधनभावहै। इसलिए जितनी भी साकार वस्तुएं होती हैं, वे सब जड़ होती हैं। जैसे सूर्य पृथ्वी स्कूटर कार इत्यादि। और जितनी भी चेतन वस्तुएं होती हैं, वे सब निराकार होती हैं। जैसे ईश्वर।
यदि आत्मा को भी साकार माना जाए, तो क्या आप उसे स्कूटर कार आदि के समान जड़ वस्तु भी मानेंगे?
हमारे इस प्रश्न का उत्तर वे कुछ नहीं देते। जब वे कुछ उत्तर नहीं देते, तो इस स्थिति को न्यायदर्शन में निग्रहस्थान के नाम से कहा जाता है , अर्थात जब व्यक्ति, विपक्षी के प्रश्न का उत्तर नहीं देता, तो इसका अर्थ है उसका पक्ष झूठ है, और बात यहीं खत्म हो जाती है।
परंतु वे हठ पकड़ कर बैठे हैं, वे मानते नहीं।
और हमें कहते हैं, आप आत्मा को निराकार सिद्ध करें।
ठीक है, हम आत्मा को निराकार सिद्ध करते हैं। कि ----
आत्मा निराकार है। चेतन होने से। जो जो वस्तु चेतन होती है, वह निराकार होती है। जैसे ईश्वर। आत्मा भी ईश्वर के समान चेतन है। इसलिए चेतन होने से आत्मा निराकार है।
हमारी इस बात के उत्तर में वे लोग चालाकी से ऐसा कहते हैं। यदि आप आत्मा को निराकार मानेंगे, तो उसे सर्वव्यापक भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जैसे चेतन ईश्वर सर्वव्यापक है, ऐसे चेतन आत्मा भी सर्वव्यापक होना चाहिए। अब आप आत्मा को सर्वव्यापक सिद्ध करें।
वास्तव में यह उनकी चालाकी है। इस चालाकी को समझने के लिए आपको थोड़ा न्याय दर्शन का अध्ययन करना होगा। क्योंकि बातचीत करने के नियम और बातचीत करने में 54 प्रकार की गलतियाँ भी विस्तार से न्याय दर्शन में ही लिखे हैं।
(न्यायदर्शन में बातचीत करने के चार प्रकार बताए हैं। वाद, जल्प, वितंडा और शंका समाधान।
बातचीत के प्रथम प्रकार - वाद में दोनों पक्ष वाले अपने अपने पक्ष की स्थापना करते हैं। प्रमाण एवं तर्क से अपने पक्ष की सिद्धि और दूसरे का खंडन करते हैं। अपने सिद्धांत के विरुद्ध नहीं बोलते। और आवश्यकता पड़ने पर पंचावयव का प्रयोग भी करते हैं।
वाद का उद्देश्य सत्य असत्य की खोज करना है। यह शुद्ध बातचीत होती है। इसमें कोई झूठ छल कपट चालाकी बेईमानी नहीं की जाती। ईमानदार लोगों के लिए इसी प्रकार से बातचीत करने का विधान है।
दूसरा प्रकार है - जल्प। इसमें ऊपर बताए वाद के सारे नियम लागू होते हैं , तथा इसके अतिरिक्त इसमें झूठ छल कपट चलाकी बेईमानी सब कुछ किया जाता है। और इसका उद्देश्य होता है - अपनी बात को जैसे-तैसे जिताना और दूसरे को हराना, चाहे कितना भी छल कपट बेईमानी चालाकी आदि करनी पड़े। बातचीत का यह प्रकार अच्छा नहीं है। न्याय दर्शन में सत्य की खोज करने वालों के लिए इसका निषेध है।
बातचीत का तीसरा प्रकार है - वितंडा। इसमें जल्प के सारे नियम लागू होते हैं । बस अंतर इतना है कि वितंडा करने वाला व्यक्ति अपने पक्ष की स्थापना स्पष्ट रूप से नहीं करता , कि वह क्या मानता है? केवल दूसरे पक्ष पर आक्रमण ही करता जाता है। यह भी अच्छी बातचीत नहीं है । इसका उद्देश्य भी वही है जो जल्प का है। न्याय दर्शन में सत्य की खोज करने वालों के लिए इसका भी निषेध है।
सत्य की खोज करने वाले सज्जन लोगों के लिए न्याय दर्शन में बताया है कि वे केवल वाद का ही प्रयोग करें । जल्प और वितंडा से बचें। क्योंकि वह शुद्ध बातचीत नहीं है।
बातचीत का चौथा प्रकार - शंका समाधान है। उसमें एक व्यक्ति नम्रता और जिज्ञासा भाव से प्रश्न पूछता जाता है, और दूसरा व्यक्ति भी सत्य को समझाने के उद्देश्य से उसका उत्तर देता जाता है। उसमें वादी प्रतिवादी बनकर बातचीत नहीं की जाती। केवल जिज्ञासा भाव से प्रश्नोत्तर किए जाते हैं। अस्तु।)
अब हम विवादित विषय के संबंध में पुनः विनम्र निवेदन करते हैं। जिन लोगों ने यह सिद्धांत चलाया है कि आत्मा साकार है, वे लोग न्याय दर्शन में कुशल नहीं हैं। न तो उन्होंने न्याय दर्शन का अध्ययन ठीक प्रकार से किया है। और न ही उन्हें वाद करना आता है।
वे वाद नहीं कर रहे। जिससे बातचीत करनी चाहिए। क्योंकि यह बातचीत का शुद्ध प्रकार है।
बल्कि वे लोग जल्प का प्रयोग कर रहे हैं। जिसका निषेध है। क्योंकि इसमें झूठ छल कपट चालाकी का प्रयोग होता है।
तो न्याय दर्शन में बताया है, कि जल्प और वितंडा में बोलने में व्यक्ति 54 प्रकार की गलतियां करता है।
उनमें से 24 प्रकार की जातियां (चालाकी) हैं.
22 प्रकार के निग्रहस्थान (बात का उत्तर गलत देना या चुप रहना) हैं.
3 प्रकार का छल (वक्ता के अभिप्राय को तोड़ मरोड़ कर उसका खंडन करना) है.
और 5 प्रकार के हेत्वाभास (गलत कारण बताना) हैं.
ये कुल मिलाकर 54 प्रकार की गलतियां होती हैं, जो न्याय दर्शन में बताई गई हैं। ( चालाक और बेईमान लोग जल्प और वितंडे में इस प्रकार की 54 में से कुछ गलतियां करते हैं। वाद में इनका प्रयोग नहीं किया जाता।)
इन लोगों ने इन गलतियों में से जो गलती की है, वह है जाति = चालाकी = धोखाधड़ी। जिस कारण से उन्होंने सब लोगों में यह भ्रांति फैला दी, कि आत्मा साकार है.
आप इसे पढ़ना चाहें तो न्याय दर्शन के पांचवें अध्याय में प्रथम आह्निक के सूत्र संख्या 4 में पढ़ सकते हैं। वहां पर एक जाति का नाम है, उत्कर्षसमा जाति।
इनके कथन में उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग है।
ये लोग जो कह रहे हैं कि यदि आत्मा ईश्वर के समान निराकार है, तो वह ईश्वर के समान सर्वव्यापक भी होना चाहिए.
इसमें जाति मतलब चालाकी या धोखाधड़ी यह है, कि जो दृष्टांत ईश्वर का दिया गया है, उस दृष्टांत की एक विशेषता = व्यापकता को, साध्य अर्थात जीवात्मा में बढ़ा करके दिखलाना, यह उत्कर्षसमा जाति है।
उन्होंने यही आरोप लगाया है , कि
दृष्टांत = ईश्वर के तुल्य, साध्य =आत्मा भी सर्वव्यापक होना चाहिए.
यह उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग है। चालाकी से सत्य का खंडन किया जा रहा है। जो कि ईमानदारी नहीं, बल्कि धोखाधड़ी है।
इसलिये इसे शुद्ध बातचीत नहीं कहा जा सकता।
यदि आपकी इच्छा हो, तो न्याय दर्शन में अध्याय 5, आह्निक 1, सूत्र 4 में देख लीजिए। बुद्धिमानों को समझ में आ जाएगा, कि वास्तव में यह चालाकी से सत्य का खंडन किया जा रहा है। यह ईमानदारी नहीं है।
अब आत्मा निराकार है। इस विषय में महर्षि दयानंद सरस्वती जी के प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं।
प्रमाण -- 1.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने पूना में कुछ प्रवचन किए थे । उन प्रवचनों की पुस्तक बनी, जिसे लोग "उपदेश मंजरी" के नाम से जानते हैं। उन प्रवचनों में उन्होंने प्रथम उपदेश में कहा कि जीवात्मा निराकार है। उनके शब्द इस प्रकार से हैं।
क्योंकि शरीर स्थित जो जीव है, वह भी आकार रहित है। यह सब कोई मानते हैं, अर्थात वैसा आकार न होते हुए भी हम परस्पर एक-दूसरे को पहचानते हैं।
इस वचन में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने स्पष्ट ही जीवात्मा को आकार रहित अर्थात् निराकार स्वीकार किया है । फोटो संलग्न है।
प्रमाण -- 2.
इसी प्रकार से उपदेश मंजरी के चतुर्थ उपदेश में भी कहा है। वहां उनके वचन इस प्रकार से हैं।
जीव का आकार नहीं, तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं? ज्ञान सुख-दुख इच्छा द्वेष प्रयत्न ये नष्ट होते ही जीव निकल जाता है, यह किसान भी समझता है।
इस वचन में भी महर्षि दयानंद जी ने जीव को आकार रहित अर्थात् निराकार ही माना है। फोटो संलग्न है।
प्रमाण -- 3.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी का एक हस्तलिखित पत्र का फोटो भी मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। उनके पत्रों की कोई पुस्तक छपी होगी । उसका फोटो भी मैं भेज रहा हूं । उस पत्र में भी उन्होंने स्वीकार किया है, कि आत्मा निराकार है।
यच्चेतनवत्त्वं तज्जीवत्त्वम्। जीवस्तु खलु चेतनस्वभावः। अस्येच्छादयो धर्मास्तु निराकारोsविनाश्यनादिश्च वर्तते।
अर्थात जो चैतन्य गुणवाला है, वह जीवात्मा है। जीवात्मा चेतन स्वभाव वाला है। इसके इच्छा आदि धर्म हैं। यह निराकार है, अविनाशी = नष्ट न होने वाला और अनादि है।
इस पत्र में भी महर्षि दयानंद जी ने आत्मा को निराकार माना है।
प्रमाण -- 4.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में यह लिखा है। फोटो संलग्न है।
वहाँ प्रश्न है -- ईश्वर साकार है वा निराकार?
इसके उत्तर में -- उन्होंने लिखा है, निराकार। वह पूरा अनुच्छेद पढ़ें। वहाँ जिस वाक्य के नीचे लकीर लगी है, वह वाक्य यह है।
क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिए।
इस वाक्य को विशेष ध्यान से पढ़ें।
यद्यपि वहां यह कथन ईश्वर के संबंध में है। परंतु यदि उसे ऊहा से जीवात्मा पर भी लागू करें, तो वह जीवात्मा पर भी लागू होता है।
इस वाक्य के अनुसार यदि ईश्वर चेतन होते हुए परमाणुओं का संयोग करके सृष्टि को बनाता है, और वह निराकार है।
तो इसी प्रकार से आत्मा भी चेतन होते हुए लोहा लकड़ी आदि वस्तुओं का संयोग करके स्कूटर कार रेल आदि वस्तुएँ बनाता है, तो वह भी निराकार सिद्ध होता है। जब चेतन ईश्वर वस्तुओं का निर्माता होने से निराकार है, तो चेतन आत्मा, ईश्वर के समान वस्तुओं का निर्माता होने से निराकार क्यों नहीं?
यहां स्पष्ट लिखा है निराकार चेतन है।
जब आत्मा चेतन है, तो सिद्ध हुआ कि वह निराकार है।
हमने आत्मा को निराकार सिद्ध करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती जी के 4 प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। परंतु साकार मानने वालों ने 1 भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया, जिसमें सीधा साकार लिखा हो, अथवा अर्थापत्ति आदि से भी साकार सिद्ध होता हो।
ये लोग आत्मा को एकदेशी ही सिद्ध करते रहे, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि आत्मा को एकदेशी तो हम भी मानते हैं । इस विषय में तो कोई विवाद था ही नहीं । आत्मा को एकदेशी सिद्ध नहीं करना था, बल्कि साकार सिद्ध करना था, जो कि इन्होंने नहीं किया।
ये लोग एकदेशी होने से आत्मा को साकार कहते रहे। जो कि सिद्ध नहीं हो पाया।
क्योंकि यह अनैकांतिक हेत्वाभास है।
इन लोगों की भ्रांति का कारण ---
इसके अतिरिक्त एक और बात कहना चाहता हूँ, जिसके कारण ये लोग भ्रांति में हैं।
इनको भ्रांति यह है, कि ये लोग आकार गुण तथा परिमाण गुण दोनों में अंतर नहीं समझ रहे हैं। ये परिमाण गुण को आकार गुण समझ रहे हैं। यह इनकी सबसे बड़ी भूल है, जिसके कारण इन्हें भ्रांति पैदा हुई।
जबकि वैशेषिक दर्शन में 24 गुणों में, परिमाण गुण को अलग बताया है और आकार (रूप) गुण को अलग बताया है।
आकार का अर्थ क्या है? श्री वामन शिवराम आप्टे, इस विद्वान का लिखा हुआ "संस्कृत हिंदी कोष", शिक्षा जगत में एक प्रामाणिक कोष है। इस कोष में आकार शब्द का अर्थ देखिए। वे लिखते हैं.... आ+ कृ + घञ् = आकारः। इस शब्द में आ उपसर्ग , कृ धातु, और घञ् प्रत्यय है। इस प्रकार से आकार शब्द बनता है। और इसका अर्थ आप्टे कोष में लिखा है= रूप, शक्ल, आकृति।
इस प्रकार से आकार शब्द का अर्थ हुआ कोई रूप हो, शक्ल हो, आकृति हो, उसका नाम आकार है। फोटो संलग्न है।
ये लोग आत्मा को साकार बता रहे हैं। अब बुद्धिमान लोग विचार करें, क्या आत्मा का कोई रूप है, कोई शक्ल है, कोई आकृति है? यदि नहीं है, तो साकार कैसे हुआ?
इतनी मोटी बात भी ये लोग नहीं विचार कर सके। आप इसी बात से इनकी बुद्धि का अनुमान कर सकते हैं।
वैशेषिक दर्शन में रूप गुण को अलग बताया है, और परिमाण गुण को अलग बताया है। इस प्रकार से रूप का नाम जब आकार है, तो आकार और परिमाण दोनों अलग-अलग गुण हुए।
अब ऋषियों का यह सिद्धांत है कि जिस वस्तु में रूप है, अर्थात आकार है, वह साकार वस्तु है। जिस वस्तु में रूप नहीं, आकार नहीं, वह निराकार वस्तु है। परंतु परिमाण गुण दोनों में है, साकार में भी और निराकार में भी।
जैसे कि पृथ्वी सूर्य आदि पदार्थों में आकार गुण भी है और बड़ा आकार होने से महत्परिमाण भी है। तो यह हो गया साकार द्रव्यों में परिमाण गुण।
अब आत्मा और ईश्वर, ये दोनों निराकार द्रव्य हैं, इनमें किसी में भी रूप गुण या आकार गुण नहीं है, परंतु परिमाण गुण इन दोनों में भी है।
कठोपनिषद में लिखा है.. अणोरणीयान् महतोमहीयान्...।। अर्थात ईश्वर अणु से भी अणु है और महत् से भी महत् है। अर्थात छोटे से छोटा है और बड़े से बड़ा पदार्थ है। इस प्रकार से निराकार ईश्वर में परिमाण गुण स्वीकार किया है।
तथा निराकार आत्मा में भी परिमाण गुण है । मुंडक उपनिषद 3/1/9 में आत्मा को अणु कहा है। एषोsणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पंचधा संविवेश।। यह आत्मा अणु अर्थात् सूक्ष्म/छोटा है। यहाँ परिमाण बताया है, न कि आकार।
वैशेषिक दर्शन में भी ईश्वर एवं आत्मा को परिमाण गुण वाला स्वीकार किया है।
विभवान्महानाकाशः।। तथा चात्मा।। तदभावात् अणु मनः।। तथा चात्मा।।
अर्थात् व्यापक होने से आकाश महत्परिमाण वाला है।। और इसी हेतु से अर्थात व्यापक होने से ही ईश्वर भी महत्परिमाण वाला है।। व्यापक न होने से मन अणु अर्थात् एकदेशी है ।। और इसी हेतु से अर्थात व्यापक न होने से आत्मा भी अणु परिमाण अर्थात् एकदेशी है।।
इन सूत्रों में भी आत्मा तथा ईश्वर को परिमाण गुण वाला बताया है, साकार नहीं। यदि आप आत्मा को अणु का अर्थ एकदेशी, और एकदेशी होने से साकार कहेंगे, तो कठोपनिषद एवं वैशेषिक दर्शन के प्रमाणों के आधार पर आपको ईश्वर को भी साकार मानना पड़ेगा। क्योंकि परिमाण तो इन दोनों में बताया गया है।
तो सार यह हुआ कि ये लोग परिमाण और आकार गुण में अंतर नहीं समझ रहे। इसलिए इन्होंने परिमाण को भ्रांति से आकार मानकर जीवात्मा को साकार कहना आरंभ कर दिया। ईश्वर इन लोगों को सद्बुद्धि दे, ये लोग सत्य को समझ सकें। हमारी ओर से इनके लिए बहुत शुभकामनाएं।
इसलिए सब बुद्धिमानों को इस विषय में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, और यह निश्चय जानना चाहिए कि महर्षि दयानंद सरस्वती जी का सिद्धांत यही है कि आत्मा निराकार है।
विनम्रतापूर्वक धन्यवाद...
◼️वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा◼️
वेदज्ञान के स्वरूप का हमने जो ऊपर निरूपण किया, इसमें वेद तथा अन्य ऋषि-मुनियों की दृष्टि से भी पर्यालोचन करना लाभकारी होगा । वेद से पुराना ज्ञान वा ग्रन्थ संसार के पुस्तकालय में नहीं है, इसमें संसार के प्रायः आधुनिक विद्वान् भी सहमत हैं।
◾️(१) इस विषय में स्वयं वेद क्या कहता है सो प्रथम दर्शाते हैं
🔥तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजस्तस्मादजायत॥
य० ३१।७
उस सर्वपूज्य, सर्वोपास्य, पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामनेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए, अर्थात् उस परमेश्वर ने ही वेदों को प्रकाश किया है । यहाँ यह ध्यान रहे कि ऋग्-यजुः-साम में भी तो छन्द हैं, फिर मन्त्र में "छन्दांसि" का ग्रहण किसलिये किया ? "व्यर्थं सज्ज्ञापयति" इस नियम से "अथर्व" का ग्रहण ज्ञापक से निकलता है, ऐसा समझना चाहिये।
🔥यामादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखं
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ अथर्व० १०।७।२०
जिस सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर से ऋग्वेद उत्पन्न हुआ, जिस परब्रह्म से यजुर्वेद प्रादुर्भूत हुआ, सामवेद जिसके लोम के समान है और अथर्व जिसका मुखरूप है, अर्थात् जिससे सामवेद और अथर्ववेद प्रकाशित हुये, वह ब्रह्म कैसा है ? 🔥"बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रम्" (ऋ० १०।७१।१) इस मन्त्र के सम्बन्ध में हम प्रारम्भ में दर्शा चुके हैं कि वेदवाणी ही सृष्टि में सब से प्रथम वाणी होती है। संसार के सब पदार्थों के नाम कर्मादि का बोध उसी से होता है । वह श्रेष्ठ सर्वोत्कृष्ट होती है। सबके लिये समान परिश्रम-साध्य और प्रभु की प्रेरणा से ऋषियों की बुद्धि में निहित होकर प्रकाशित होती है। इसी सूक्त के तीसरे मन्त्र 🔥"यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्०" में यह बतलाया है कि वेद का ज्ञान पहले ऋषियों के हृदयों में प्रविष्ट होता है, तब पीछे मनुष्य उसको प्राप्त करते हैं। इस प्रकरण में ये दोनों मन्त्र स्पष्ट बतलाते हैं कि वेद में वेद का स्वरूप कैसे माना गया है । इन उपर्युक्त मन्त्रों पर विचार करने से स्पष्ट है कि वेद ज्ञान का प्रकाश तथा वाणी (भाषा) का प्रकाश उस परब्रह्म परमेश्वर से होता है। चारों वेदों का विभाग जगदीश्वर के द्वारा हुआ, तथा वह ज्ञान वा वाणी ऋषियों द्वारा ही मनुष्यों को प्राप्त होती है, यह वेद का सिद्धान्त है। यहाँ "अनु-अविन्दन्" पद विशेष ध्यान देने योग्य हैं। "ऋषिषु प्रविष्टाम्" से स्पष्ट है कि वह ऋषियों में प्रविष्ट हुआ ज्ञान वा वाणी है, ऋषियों की अपनी बनाई नहीं, अर्थात् उनका अपना ज्ञान नहीं।
🔥तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूपनित्याया।
वृष्ण चोदस्थ सुष्टुतिम् ॥ ऋ० ८७५॥६॥
इस मन्त्र में "वाचा विरूपनित्यया" इन पदों से वेदवाणी को नित्य कहा गया है। सायणाचार्य ने भी इसका ऐसा ही अर्थ किया है, यथा 🔥"नित्यया उत्पत्ति रहितया वाचा मन्त्ररूपया सुष्टुर्ति नूनमिदानी चोदस्व स्तुहि"- अर्थात् हे महर्षे ! उत्पत्तिरहित मन्त्ररूप वेदवाणी के द्वारा स्तुति किया कर।
◾️(२) शतपथ तथा ऐतरेयब्राह्मण -
वेद का प्रमाण उपस्थित करने के पश्चात् अब हम यह दर्शाना चाहते हैं कि परम्परा से ऋषि-मुनियों की दृष्टि में वेद का क्या स्वरूप है। शतपथब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी के संवाद में कहा है कि
▪️(क) 🔥"एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः" ॥ श० १४।५।४।१०॥
- अर्थात हे मैत्रेयि ! उस महान् परब्रह्म परमेश्वर से चारों वेद श्वासप्रश्वास की भाँति अनायास निःश्वसित अर्थात् प्रकाशित हुए।
▪️(ख) इसी शतपथब्राह्मण में आगे कहा है - 🔥"अग्ने ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः"। श० ११।५।८।३
अर्थात् (परमात्मा की प्रेरणा से) अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद का प्रादुर्भाव हुआ।
इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण २५७ में भी लिखा है -
🔥"ऋग्वेद एवाग्नेरजायत, यजुर्वेदो वायोः, सामवेद प्रादित्याव"।
◾️(३) निरुतकार यास्कमुनि -
▪️(क) 🔥“पुरुषविद्याऽनित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिमन्त्रो वेदे"। निरु० १।२
पुरुष की विद्या अनित्य होने से वेद ही सम्पूर्ण कर्मों का बोधक है।
▪️(ख) 🔥"नियतवाचो युक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति" । निरु० १।१६
वेदवाणी नित्य है, तथा उसकी आनुपूर्वी भी नित्य होती है, अर्थात् उसमें घटा बढ़ी नहीं हो सकती।
◾️(४) पाणिनि तथा पतञ्जलि -
ये दोनों आचार्य भी वेद को नित्य मानते हैं, अर्थात् इनकी आनुपूर्वी को नित्य बतलाते हैं । जहाँ पाणिनिमुनि ने 🔥“छन्दोब्राह्मणानि च तदक्वियाणि" (अ० ४।२।६६) इस सूत्र में तथा अन्य कई सूत्रों में ब्राह्मणों की वेद से भिन्नता स्वीकार की, वहाँ 'कृते ग्रन्थे' (अ० ४।३।११६) और "तेन प्रोक्तम्" (अ० ४।३।१०१) इन दोनों सूत्रों को पृथक्-पृथक् बना कर कृति और प्रवचन का भेद दर्शाया । "तेन प्रोक्तम्" सूत्र में भाष्यकार पतञ्जलिमुनि कहते हैं
🔥या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति काठकं कालापकं मोदकं पप्पलादक मिति ॥ अ० ४।३।१०१ भाष्ये ॥
इस में कठ-कलाप-पप्पलादादि शाखा-ग्रन्थों की आनुपूर्वी को महाभाष्यकार अनित्य मानते हैं, उधर वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि -
🔥"स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दस्य।
वर्णानुपूर्वी खत्वप्याम्नाये नियतास्यवामशब्दस्य"॥ महाभा० ५।२।५६
आम्नाय अर्थात् वेद की आनुपूर्वी तथा स्वर नित्य होते हैं, यह स्पष्ट यहाँ कहा गया है। यह स्वरूप है वेद का, पाणिनि और पतञ्जलि के मत में। पतञ्जलि का तो यह वचन ही है, वह जिस सूत्र की व्याख्या करता है, वा जिस सूत्र का यह भाष्य है, वह सूत्र पाणिनि का है, अत एव हम कहते हैं कि यह मत उपयुक्त दोनों आचार्यों का है। उस उप युक्त वचन से वेद की नित्यता सूर्य के प्रकाश की भाँति सिद्ध है।
◾️(५) मानवधर्मशास्त्र -
अब हम मनु महाराज की वेद के विषय में क्या धारणा है, सो दर्शाते -
🔥पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम् ।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः ॥१॥ मनु० १२।९४
वेद ज्ञानी, विद्वान् और मनुष्यों का सनातन चक्षु है, इसको कोई व्यक्ति बना नहीं सकता। यह (अङ्गोपाङ्गों के विना) जाना नहीं जा सकता।
🔥चातुर्वर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात प्रसिध्यति ॥२॥ मनु० १२।९७
चारों वर्ण, तीनों लोक, चारों आश्रम तथा भूत, वर्तमान और भविष्य की सब व्यवस्थायें, वेद से ही संसार में प्रचलित होती हैं, अर्थात् वेद ही इनका उद्गम स्थान है।
🔥बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम् ।
तस्मादेतत् परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम् ॥३॥ मनु० १२।९९
सर्वकाल से वर्तमान वेदशास्त्र द्वारा सम्पूर्ण जीवों का धारण वा पोषण होता है। प्राणिमात्र के लिये वेद को मैं (मनु) परमसाधन मानता हूं। 🔥"धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:" (मनु० २।१३) इसमें भी वेद को ही परम प्रमाण माना है।
🔥सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥४॥ मनु० १२।१००
सेनापत्य, राज्य तथा दण्डादि की सब व्यवस्था और सब लोकों पर आधिपत्य राज्य करने के लिये वेदशास्त्र का ज्ञाता सब से मुख्य अधिकारी होता है।
वेद का कैसा उत्तम स्वरूप भगवान मनु ने बतलाया ! इन उपयुक्त श्लोको में बार-बार वेद को नित्य. सनातन, सब विद्यानों का भण्डार और परमप्रमाण कहा गया है। "वेद सब सत्य विद्यायों का पुस्तक है", इस पर कई प्राशङ्का किया करते हैं; पाठक देख इस विषय में मनु महाराज क्या कहते हैं
🔥स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ॥५॥ मनु० २।७
वेद में सब धर्म अर्थात नियमों का प्रतिपादन किया गया है, क्योंकि वेद सर्वज्ञान का स्रोत है। दूसरे शब्दों में समस्त विद्यायें वा विज्ञान वेद में हैं। 'सर्वज्ञानमय' वेद को तभी कहा जा सकता है।
🔥उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित् ।
तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनतानि च ॥६।। मनु० १२।९६
वेद से भिन्न (विपरीत) अनेक ग्रन्थ बनते रहते हैं, और नष्ट होते रहते हैं। वे सब प्राचीन-परम्परा के अनुसार न होने से निष्फल और असत्यपूर्ण होते हैं।
वेद के विषय में कितने उत्कृष्ट विचारों से भरा यह वर्णन है, जो मनु महाराज के उपर्युक्त श्लोकों में हमें मिलता है। यह है वेद का स्वरूप जो ऋषियों ने समझा।
वेद किनके द्वारा प्रकाशित हुए, यह भी मनु महाराज ने बतलाया-
🔥अग्निवायुरविम्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥७॥ मनु० १।२३
ऋग, यजः आदि अग्नि, वायु आदि ऋषियों के द्वारा प्रकाशित हुए। इसी श्लोक की टीका में कुल्लूकभट्ट ने भी लिखा है
🔥"वेदापौरुषेयत्वपक्ष एव मनोरभिमतः। पूर्वकल्पे ये वेदास्त एव परमात्ममूर्तब्रह्मणः सर्वज्ञस्य स्मृत्यारूढाः। तानेव कल्पादौ अग्निवायुरविभ्य आचकर्ष......" । मनु० १।२३ टीका ॥
अर्थात् मनु महाराज वेदों को अपौरुषेय मानते हैं। जो वेद पूर्व कल्प में थे, वे ही अब भी वर्तमान हैं।
◾️(६) महाभारत -
🔥अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
आदौ वेदमयो दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः॥
महाभारत शान्तिपर्व प० २३२॥२४॥
सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयम्भू परमात्मा से ऐसी वाणी (वेद) का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका आदि वा अन्त नहीं, जो नित्य है, और जिसका कभी नाश नहीं होता, जो दिव्य है, उसी से संसार में सब प्रवृत्तियाँ चलती हैं। "अनादिनिधना" से यहाँ पर अक्रमारूढ़ ज्ञान समझना चाहिये, जिसके विषय में हम प्रारम्भ में पर्याप्त कह चुके हैं।
अब हम दर्शनकार ऋषियों के मत में वेद का क्या स्वरूप है, वे वेद को कैसा समझते हैं, इसका दिग्दर्शन अति संक्षेप से कराते हैं
◾️(७) वैशेषिक -
▪️(क) [१]🔥तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् ॥ वै० ११।३
ईश्वर का वचन होने से वेद की प्रामाणिकता सिद्ध है।
वेद ईश्वरोक्त हैं, इनमें सत्यविद्या और पक्षपातरहित धर्म का ही प्रतिपादन है । इससे चारों वेद नित्य हैं, ऐसा ही सब मनुष्यों को मानना उचित है, क्योंकि ईश्वर नित्य है, उसका वचन (विद्या) भी नित्य होने से प्रमाण है, यह कणादमुनि का मत है।
उदयनाचार्य ने भी इस सूत्र में "तत्' शब्द से ईश्वर का ग्रहण करते हुए कहा कि वेद ईश्वरोक्त होने से प्रमाण हैं, इसलिये वेदप्रमाणक धर्म के निरूपण की प्रतिज्ञा करने में कोई दोष नहीं।
⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. यहाँ, इस सूत्र का अर्थ करनेवालों ने 'तद्' शब्द से प्रायः 'धर्म' का ग्रहण किया है ? ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृ० ३२ में -
🔥"तवचनात् तयोर्धर्मेश्वरवचनाद् धर्मस्यैव कर्तव्यतया प्रतिपादनादीश्वरस्य वोक्तत्वादाम्नायस्य वेदचतुष्टयस्य प्रामाण्यं सर्वैनित्यत्वेन स्वीकार्यम्"।
विदित रहे कि वैशेषिक के टीकाकार शङ्करमिश्र ने अपने उपस्कार में 'तद्' शब्द से ईश्वर का ही ग्रहण किया है, जिसका उल्लेख हमने आगे किया है।
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▪️(ख) वैशेषिकदर्शन का टीकाकार शङ्कर मिश्र अपने उपस्कार में लिखता है
🔥तद्वचनादिति । तदित्यनुपक्रान्तमपि प्रसिद्धिसिद्धतयेश्वरं परामृशति, यथा "तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः” (न्या० २।१।५६) इति गौतमीयसूत्रे तच्छब्देनानुपक्रान्तोऽपि वेदः परामृश्यते। तथा च तवच नात तेनेश्वरेण प्रणयनादाम्नायस्य वेदस्य प्रामाण्यम्"॥
वै० १११३ उपस्कार पृ० ७
अर्थात् वैशेषिक के इस सूत्र में 'तद्' शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है । ईश्वर का वचन होने से वेद की प्रामाणिकता है।
▪️(ग) उदयनाचार्य कृत किरणावली (पृ० १३) में उद्धृत 🔥'तद्वचना दाम्नायस्य प्रामाण्यम्' सूत्र के विषय में “किरणावलीप्रकाश" में लिखा है- 🔥'तद्वचनादिति । तेनेश्वरेण वचनात् प्रणयनादाम्नायस्य प्रामाण्य मित्यर्थः'।
अर्थात् तद्वचन= ईश्वर का वचन होने या उसकी कृति होने से वेद का प्रामाण्य है।
▪️(घ) प्रशस्तपादभाष्य की व्याख्या किरणावली में उदयनाचार्य कहते
🔥"अविच्छेदे तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यमिति व्याकुप्येत।
लोकसन्तत्यविच्छेदे वेदसम्प्रदायस्याप्यविच्छेदात् ।" पृ० ८६ ॥
अर्थात्-यदि सृष्टि का प्रारम्भ नहीं मानें तो कणाद मुनि का 'ईश्वर वचन होने से वेद का प्रामाण्य है' कथन युक्तिसङ्गत नहीं ठहरता। क्यों कि यदि सृष्टि का प्रारम्भ और अन्त नहीं हो तो वेद का भी प्रारम्भ और अन्त न होगा, अतः सूत्रकार के मत में सृष्टि का प्रारम्भ है और उसी समय ऋषियों के अन्त:करण में ईश्वर वेद का ज्ञान देता है।
◾️(८) न्यायशास्त्र -
🔥मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् ॥ न्या. २०।१।६७
गौतममुनि कहते हैं- आप्तों द्वारा सदा से प्रामाण्य स्वीकार करते आने के कारण वेद का प्रामाण्य मानना चाहिये, जैसा कि मन्त्र (विचार) और आयुर्वेद का प्रमाणत्व स्वीकार करना ही पड़ता है।
न्यायभाष्यकार कहते हैं- 🔥“य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारःप्रवक्तारमच त एवायुर्वेदप्रभृतीनाम् ।" न्या० भा० २।१।६७॥ पृ० १६७
अर्थात्-आप्त (ऋषि) लोग वेद के प्रवक्ता (प्रवचन करनेवाले) तथा द्रष्टा हुए, न कि कर्ता।
आगे फिर लिखते हैं – 🔥'मन्वन्तरयुगान्तरेषु चातीतानागतेषु सम्प्रदायाभ्यासप्रयोगाविच्छेदो वेदानां नित्यत्वम् । प्राप्तप्रामाण्याच्च प्रामाण्यं लौकिकेषु शब्देषु चैतत् समानमिति' । पृ० १६८
अतीत वा अनागत मन्वन्तर वा युगान्तरों से वेद अविच्छिन्न चले आयरहे हैं, अतः नित्य हैं।
◾️(९) सांख्य -
सांख्यशास्त्र के पञ्चमाध्याय में वेद के नित्यत्व तथा अपौरुषेयत्व विषय में कई एक सूत्र दिये हैं। जिनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं
🔥न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुतेः । सां० ५।४५
वेद नित्य नहीं, क्योंकि उनके विषय में "उत्पन्न हुये" आदि शब्दों का व्यवहार अर्थात् उनके कार्य होने का उपदेश स्वयं वेद में पाया जाता है, जैसा कि 🔥"तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे" (यजुः ३१।७) इत्यादि।
इस पूर्वपक्ष का उत्तर अगले ही सूत्र में देते हैं
🔥न पौरुषेयत्वं तर्त्कु: पुरुषस्याभावात् ।। सां० ५।४६
वेद किसी पुरुष के बनाये नहीं, क्योंकि उनका बनानेवाला आज तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
अतः वेद की उत्पत्ति को प्रवाह से अनादि मानने में कोई दोष नहीं आता।
यही बात मीमांसाभाष्य की व्याख्या में भट्टकुमारिल ने भी कही है 🔥"कर्त्तुः स्मरणाभावादपौरुषेया वेदा इति"।(तन्त्रवात्तिक पृ० १०१)।
यदि कहो कि मुक्त पुरुष बना लेंगे, सो भी ठीक नहीं।
🔥मुक्तामुक्तयोरयोग्यत्वात् । सां० ५।४७
मुक्त और अमुक्त दोनों ही वेद का निर्माण नहीं कर सकते, क्योंकि मुक्त तो आनन्द भोगने में रहता है, वह उस समय करता कुछ नहीं, अमुक्त अज्ञानी होने से नहीं बना सकता।
अन्त में कहते हैं-
🔥निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम् ॥ सां० ५।५१
ईश्वर की स्वाभाविक शक्ति द्वारा प्रकाशित होने से वेद स्वत:प्रमाण है।
◾️(१०) योगशास्त्र -
🔥क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामुष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः। यो० १।२४
क्लेश, कर्म, विपाक, आशय इनसे रहित जो पुरुषविशेष है, उसको ईश्वर कहते हैं।
इस सूत्र पर व्यासभाष्य में लिखा है -
🔥"तस्य शास्त्रं निमित्तम् । शास्त्रं पुनः किनिमित्तम् ? प्रकृष्टसत्त्वनि मित्तम् । एतयोः शास्त्रोत्कर्षयोरीश्वरसत्त्वे वर्तमानयोरनादिसम्बन्धः । एतस्मादेतद् भवति सदैवेश्वरः सदैव मुक्त इति"।
योगभाष्य १।२४, पृ० २८, २९
उस उत्कर्ष (उत्कृष्टता) का निमित्त शास्त्र है। शास्त्र का निमित्त क्या है ? इस पर कहते हैं कि प्रकृष्ट सत्त्व अर्थात् सर्वोत्कृष्ट ज्ञान शास्त्र का निमित्त है। ईश्वर के ज्ञान में वर्तमान इस शास्त्र और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान का सम्बन्ध अनादि है । इस कारण से वह सदा ऐश्वर्यवाला तथा सदैव मुक्त कहा जाता है ।
यहाँ वाचस्पति मिश्र भी यही कहते हैं
🔥"तथा चाभ्युदयनिःश्रेयसोपदेशपरोऽपि वेदराशिरीश्वरप्रणीतस्तद् बुद्धिसत्त्वप्रकर्षादेव भवितुमर्हतितत्सिद्ध प्रकृष्ट सत्त्वनिमित्तं शास्त्र मिति" ॥
लौकिक और पारलौकिक सुख के साधनों का उपदेश करनेवाला ईश्वर का रचा हुआ वेद भी उसके उत्कृष्ट ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।… इससे सिद्ध हुआ कि वेद का निमित्त ईश्वर का उत्कृष्ट ज्ञान ही है।
◾️(११) वेदान्त
▪️(१) 🔥शास्त्रयोनित्वात् ।। वेदा० १।१।३
ऋग्वेदादि-शास्त्र का कारण होने से ब्रह्म सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान है। इसी सूत्र के भाष्य में श्री स्वामी शङ्कराचार्यजी महाराज लिखते हैं
🔥"महत ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । नहीदृशस्य शास्त्रस्यर्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः सम्भवोऽस्ति" ॥
वेदा० शां० भा० १।१।३
अर्थात अनेक विद्याओं से परिपूर्ण, प्रदीप के समान सब पदार्थों का प्रकाश करनेवाले महान् ऋग्वेदादिशास्त्र का कारण ब्रह्म ही है। सर्वज्ञ ब्रह्म को छोड़कर और कोन है जो ऐसे शास्त्र को बना सकता हो?
▪️(२) 🔥अत एव च नित्यत्वम् ॥ वेदा० १।३।२९
परब्रह्म परमेश्वर से प्रकाशित होने से वेद नित्य हैं ।
इसी सूत्र के शाङ्कर भाष्य में लिखा है
🔥"यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्न षिष प्रविष्टाम् (ऋ० १०।७१।३) इति स्थितामेव वाचमनुविन्नां दर्शयति । वेदव्यासश्च वमेव स्मरति -
🔥युगान्तेऽन्तहिंतान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः ।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा॥इति" (महाभारत)
अर्थात् नित्य वेदवाणी को जो ऋषियों में प्रविष्ट होती है, पश्चात् अन्य मनुष्य प्राप्त करते हैं। व्यासजी भी यही कहते हैं कि वेद स्वयम्भ परमात्मा से प्रकाशित होते हैं।
नित्य प्रभु से प्रकाशित होने वाला वेद भी नित्य है, इतना दर्शाना यहाँ अभिप्रेत है।
◾️(१२) मीमांसा -
जैमिनि मुनि भी अपने मीमांसाशास्त्र के प्रथमाध्यायस्थ प्रथम पाद के पञ्चमाधिकरण में वेद का प्रामाण्य सिद्ध करके षष्ठाधिकरण में शब्द की नित्यता का प्रतिपादन करते हुए -
▪️(१) 🔥नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात्। मी० १।१।१८
इस सूत्र में शब्द का नित्यत्व स्वीकार करते हैं। जब लौकिक शब्द तक नित्य हैं, तो भला वैदिक शब्दों का तो कहना ही क्या !
आगे पाठवें अधिकरण में वेदापौरुषेयत्व विषय का निरूपण करते -
▪️(२) 🔥वेदांश्चैके सन्निकर्ष पुरुषाख्या । मी० १।१।२७
जैमिनि मुनि इस सूत्र में पूर्वपक्ष उठाते हैं, कि वेदों के साथ पुरुष का सम्बन्ध अर्थात् समाख्या (नाम) देखा जाता है (जैसे शाकलादि), अत: वेद अनित्य हैं।
इसका उत्तर स्वयं देते हैं-
🔥उक्तं तु शब्दपूर्वत्वात् ॥ मी० १।१।२९
इसका उत्तर हम पहले (शब्द नित्यताधिकरण में) दे चुके हैं। यहाँ समाख्यामात्र का परिहार करते हैं -
🔥आख्या प्रवचनात् ।। मी० १।१।३०
आख्या (समाख्या) प्रवचन के कारण से है। पदपाठादि के प्रवचन द्वारा भी इनकी समाख्या पुरुष के सम्बन्ध को लेकर चली है।
▪️(३) इस विषय में मीमांसा के प्राचार्य कुमारिलभट्ट आदि ने भी वेद की नित्यता को स्वीकार किया है । वह मीमांसा १।१।२९ की व्याख्या 'तन्त्रवात्तिक' में लिखते हैं
🔥"सर्वे हि यथैव गुरुणाधोतं तथवाधिजिगांसन्ते, न पुनः स्वातन्त्र्येण कश्चिदपि प्रथमोऽध्येता वेदानामस्ति, यः कर्ता स्यात् । तस्मात् कत. स्मरणाभावादपौरुषेया वेदा इति भावः । एवं च पूर्वमेव वेदापौरुषेयत्वस्य सिद्धत्वात् तद्विषये पुनः प्रयत्नो न करणीय इति केवलं समाख्याद्यवलम्बनेन कृतस्याक्षेपस्य परिहारो वक्तव्योऽभिधीयते"।
अर्थात् विना अध्ययन के वेदों का ज्ञान हो नहीं सकता। वेद किसी ने बनाये, यह किसी ने आज तक नहीं कहा। अतः स्पष्ट है कि वेद अपौरुषेय हैं। यहां यह भी बतलाया कि पूर्वसूत्र 🔥'वेदांश्चके सन्निकर्ष पुरुषाख्या' (मी० १।१।२९) में जो पूर्वपक्ष उठाया गया है, वह केवल समाख्या (संज्ञा, शाकलादि नाम) को लेकर ही उठाया गया है, ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि वेद की अपौरुषेयता पहले ही सिद्ध की जा चुकी है। इससे सिद्ध है कि कुमारिल भट्ट भी यहाँ पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष के सूत्रों से जैमिनि के मत में वेद की अपौरुषेयता मानकर केवल शाकलादि समाख्या (संज्ञा) को लक्ष्य में रखकर ही पूर्व पक्ष उठाया गया है, ऐसा मानते हैं।
◾️(१३) शाङ्ख्यायन-श्रौतसूत्र-भाष्य -
🔥"कथं वेदस्य प्रामाण्यम् ? अपौरुषेयत्वाद, अर्थप्रत्यायकत्वात्, बाधकप्रत्ययाभावात्"। (आनर्त्तीय भा० पृ० १)।
इसी प्रकार अन्य श्रौतसूत्रों के भाष्यकारों ने भी वेद को अपौरुषेय माना है।
इसी प्रकार निरुक्त के टीकाकार स्कन्दस्वामी, दुर्गाचार्य तथा अन्य, भर्तृहरि, उदयनाचार्य, विज्ञान भिक्षु, वाचस्पति मिश्रादि प्रायः सभी विद्वान् वेद को अपौरुषेय तथा नित्य मानते हैं। प्रायः सभी श्रोत-गृह्य तथा धर्मसूत्रकार और उनके टीकाकार भी मानते हैं, यहाँ इतना ही पर्याप्त होगा।
ये सब प्रमाण उपस्थित करने का हमारा अभिप्राय इतना ही है कि वेद परमपिता परमात्मा की वाणी है, वेद किसी पुरुष की कृति नहीं, अपितु अपौरुषेय है, नित्य प्रभु का नित्य प्रकाश (ज्ञान) है। 'वेदनित्यत्व' विषय की विशेष विवेचना पाठकों को ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में अवश्य देखनी चाहिये।