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Friday 5 June 2020

Mulniwashi kon ? Dalit Muslim Brahmin Jat Rajput Gurjar Yadav Jatav Pathan Meena etc ?



मूल निवासी कौन ?

कई दिनों से देख रहा हूँ कुछ अम्बेडकरवादी लोग आर्यों को विदेशी कह रहे है। ये कहते हैं कि कुछ साल पहले ( 1500 BC लगभग ) आर्य बाहर से ( इरान/ यूरेशिया या मध्य एशिया के किसी स्थान से) आए और यहाँ के मूल निवासियों को हरा कर गुलाम बना लिया. तर्क के नाम पर ये फ़तवा देते हैं कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि सभी विदेशी है. क्या आर्य विदेशी है?

बाबा भीमराव अम्बेडकर जी के ही विचार रखूंगा जिससे ये सिद्ध होगा की आर्य स्वदेशी है।

1) डॉक्टर अम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस खंड 7 पृष्ट में अम्बेडकर जी ने लिखा है कि आर्यो का मूलस्थान(भारत से बाहर) का सिद्धांत वैदिक साहित्य से मेल नही खाता। वेदों में गंगा,यमुना,सरस्वती, के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदी के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नही कर सकता।

2) डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन"? Who were shudras? में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखको की आर्यो के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यताओ का खंडन किया है। डॉ अम्बेडकर लिखते है--

1) वेदो में आर्य जाती के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही है।

2) वेदो में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नही है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यो ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूलनिवासियो दासो दस्युओं को विजय किया।

3) आर्य,दास और दस्यु जातियो के अलगाव को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य वेदो में उपलब्ध नही है।

4)वेदो में इस मत की पुष्टि नही की गयी कि आर्य,दास और दस्युओं से भिन्न रंग के थे।

5)डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से शुद्रो को भी आर्य कहा है(शुद्र कौन? पृष्ट संख्या 80)

अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातो को माने।

वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियो की हिंसा करने से कोई आर्य नही कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व् धर्मात्मा कहलाता है।

यहाँ हम धम्मपद के उपरोक्त बुध्वचन का Maha Bodhi Society, Bangalore द्वारा प्रमाणित अनुवाद देना आवश्यक व् उपयोगी समझते है।.
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विदेशी यात्रिओं के प्रमाण -
अम्बेडकरवादी सभी संस्कृत ग्रंथों को गप्प कहते हैं इसलिए कुछ विदेशी यात्रिओं के प्रमाण विचारणीय हैं...
1- मेगस्थनीज 350 ईसापूर्व - 290 ईसा पूर्व) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त के दरबार में आया था। वह कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने जो कुछ भारत में देखा, उसका वर्णन उसने "इंडिका" नामक पुस्तक में किया है। उसमे साफ़ साफ़ लिखा है कि भारतीय मानते हैं कि ये सदा से ही इस देश के मूलनिवासी हैं.
2- चीनी यात्री फाह्यान और ह्यून्सांग- इन दोनों ने एक शब्द भी नहीं लिखा जो आर्यों को विदिशी या आक्रान्ता बताता हो. ये दोनों बौद्ध थे.
3- इतिहास के पितामह हेरोड़ेट्स - इन्होने भी अपने लेखन में भारत का कुछ विवरण दिया है.परन्तु इन्होने भी एक पंक्ति नहीं लिखी भारत में आर्य आक्रमण पर.
4- अलबेरूनी - यह मूलतः मध्य पूर्व ( इरान+अफगानिस्तान) से महमूद गजनवी के साथ आया. लम्बे समय तक भारत आया. भारत के सम्बन्ध में कई पुस्तकें लिखी. परन्तु एक शब्द भी नहीं लिखा आर्यों के बाहरी होने के बारें में.
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वेद क्या कहता है शूद्र से सम्बन्ध के बारे में

1- हे ईश्वर - मुझको परोपकारी विद्वान ब्राह्मणो मे प्रिय करो, मुझको शासक वर्ग मे प्रिय करो, शूद्र और वैश्य मे प्रिय करो, सब देखनों वालों मे प्रिय करो । अथर्व वेद 19/62/1
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2- हे ईश्वर - हमारे ब्राह्मणों मे कान्ति, तेज, ओज, सामर्थ्य भर दो, हमारे शासक वर्ग (क्षत्रियों) मे तेज, ओज, कान्ति युक्त कर दो, वैश्यो तथा शूद्रों को कान्ति तेज ओज सामर्थ्य युक्त कर दो। मेरे भीतर भी विशेष कान्ति, तेज, ओज भर दो। यजुर्वेद 18/48


Thursday 4 June 2020

Seven stars logic ( सप्तर्षि )



*हर मनवंतर काल में रहे हैंअलग-अलग सप्तर्षि!!!!*

*जानिए कौन किस काल में हुए सप्तर्षि*

आकाश में 7 तारों का एक मंडल नजर आता है। 
उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सप्तर्षि से उन 7 तारों का बोध होता है, जो ध्रुव तारे.की परिक्रमा करते हैं। 

उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान 7 संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। ऋषियों की संख्या सात ही क्यों? ।।

प्रत्येक मन्वन्तर में 7 भिन्न कोटि के सप्तऋषि होते हैं 
''सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:, कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:''

अर्थात : 1.
ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5.
काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं इसलिए इन्हें सप्तर्षि कहते हैं।

भारतीय ऋषियों और मुनियों ने ही इस धरती पर धर्म, समाज, नगर, ज्ञान, विज्ञान, खगोल, ज्योतिष, वास्तु, योग
आदि ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। 

दुनिया के सभी धर्म और विज्ञान के हर क्षेत्र को भारतीय ऋषियों का ऋणी होना चाहिए।  

उनके योगदान को याद किया जाना चाहिए। उन्होंने मानव मात्र के लिए ही नहीं अपितु पशु-पक्षी, समुद्र, नदी, पहाड़ और वृक्षों सभी के बारे में सोचा और सभी के सुरक्षित जीवन के लिए कार्य किया। 

आओ, संक्षिप्त में जानते हैं
कि किस काल में कौन से ऋषि थे। भारत में ऋषियों और गुरु-शिष्य की लंबी परंपरा रही है। ब्रह्मा के पुत्र भी ऋषि थे तो भगवान शिव के शिष्यगण भी ऋषि ही थे।

प्रथम मनु स्वायंभुव मनु से लेकर बौद्धकाल तक ऋषि परंपरा के बारे में जानकारी मिलती है। 

हिन्दू पुराणों ने काल को मन्वंतरों में विभाजित कर प्रत्येक मन्वंतर में हुए ऋषियों के ज्ञान और उनके योगदान को परिभाषित किया है। 



प्रत्येक मन्वंतर में प्रमुख रूप से 7 प्रमुख ऋषि हुए हैं। विष्णु पुराण के अनुसारइनकी नामावली इस प्रकार है-

 1. प्रथम स्वयंभुव
मन्वंतर में- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ। 

2. द्वितीय स्वारोचिष मन्वंतर में-
ऊर्ज्ज,स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय और परीवान।

 3. तृतीय उत्तम मन्वंतर में- महर्षि वशिष्ठ के सातों पुत्र।

 4. चतुर्थ तामस मन्वंतर में- 
ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर।

 5. पंचम रैवत मन्वंतर में-
हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि।

 6. षष्ठ चाक्षुष मन्वंतर में- सुमेधा,विरजा, हविष्मान, उतम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु।

 7. वर्तमान सप्तम वैवस्वत मन्वंतर में- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।

भविष्य में – 1. अष्टम सावर्णिक मन्वंतर में- गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृप, ऋष्यश्रृंग और
व्यास। 

2. नवम दक्षसावर्णि मन्वंतर में- मेधातिथि, वसु, सत्य, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, सबन और भव्य।

 3. दशम ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर में- तपोमूर्ति, हविष्मान, सुकृत,सत्य, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु।

 4. एकादश धर्मसावर्णि मन्वंतर में- वपुष्मान्, घृणि, आरुणि,नि:स्वर, हविष्मान्, अनघ और अग्नितेजा।

 5. द्वादश रुद्रसावर्णि मन्वंतर में- तपोद्युति, तपस्वी, सुतपा,तपोमूर्ति, तपोनिधि, तपोरति और तपोधृति।

 6.त्रयोदश देवसावर्णि मन्वंतर में- धृतिमान, अव्यय, तत्वदर्शी, निरुत्सुक, निर्मोह, सुतपा और निष्प्रकम्प।

7. चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मन्वंतर में- अग्नीध्र, अग्नि, बाहु, शुचि, युक्त, मागध, शुक्र और अजित। 

इन ऋषियों में से कुछ कल्पान्त-चिरंजीवी, मुक्तात्मा और दिव्यदेहधारी हैं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ रचना काल के अनुसार 

1. गौतम,2. भारद्वाज, 3. विश्वामित्र, 4. जमदग्नि, 5. वसिष्ठ,6. कश्यप और 7. अत्रि।

 ‘महाभारत’ काल के अनुसार 1. मरीचि, 2 . अत्रि, 3. अंगिरा, 4. पुलह, 5. क्रतु, 6.
पुलस्त्य और 7. वसिष्ठ सप्तर्षि माने गए हैं।

 *महाभारत* में राजधर्म और धर्म के प्राचीन आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र,
सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज और गौरशिरस मुनि।

 *कौटिल्य के अर्थशास्त्र* रचना काल में
इनकी सूची इस प्रकार है- मनु, बृहस्पति, उशनस (शुक्र), भरद्वाज, विशालाक्ष (शिव), पराशर, पिशुन, कौणपदंत,
वातव्याधि और बहुदंती पुत्र।

 *वैवस्वत मन्वंतर* में वशिष्ठ ऋषि हुए। उस मन्वंतर में उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि मिली। वशिष्ठजी ने गृहस्थाश्रम की पालना करते हुए ब्रह्माजी के मार्गदर्शन में उन्होंने सृष्टि वर्धन, रक्षा, यज्ञ आदि से संसार को दिशाबोध दिया।

Wednesday 3 June 2020

Manusmriti


मनुष्य ने जब समाज व राष्ट्र के अस्तित्व तथा महत्त्व को मान्यता दी, तब उसके कर्तव्यों और अधिकारों की व्याख्या निर्धारित करने तथा नियमों के अतिक्रमण करने पर दंड-व्यवस्था करने की भी आवश्यकता उत्पन्न हुई। यही कारण है कि विभिन्न युगों में विभिन्न स्मृतियों की रचना हुई, जिनमें मनुस्मृति को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा दो हजार पाँच सौ श्लोक हैं, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, राजधर्म, प्रायश्चित्त आदि अनेक विषयों का उल्लेख है। ब्रिटिश शासकों ने भी मनुस्मृति को ही आधार बनाकर ‘इंडियन पीनल कोड’ बनाया तथा स्वतंत्र भारत की विधानसभा ने भी संविधान बनाते समय इसी स्मृति को प्रमुख आधार माना। व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास तथा सामाजिक व्यवस्था को सुनिश्चित रूप देने तथा व्यक्ति की लौकिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण का पथ प्रशस्त करने में मनुस्मृति शाश्वत महत्त्व का एक परम उपयोगी शास्त्र ग्रंथ है।.


मनुस्मृति और नारी जाति


भारतीय समाज में एक नया प्रचलन देखने को मिल रहा है। इस प्रचलन को बढ़ावा देने वाले सोशल मीडिया में अपने आपको बहुत बड़े बुद्धिजीवी के रूप में दर्शाते है। सत्य यह है कि वे होते है कॉपी पेस्टिया शूरवीर। अब एक ऐसी ही शूरवीर ने कल लिख दिया मनु ने नारी जाति का अपमान किया है। मनुस्मृति में नारी के विषय में बहुत सारी अनर्गल बातें लिखी है। मैंने पूछा आपने कभी मनुस्मृति पुस्तक रूप में देखी है। वह इस प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर एक नया कॉपी पेस्ट उठा लाया। उसने लिखा-

"ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी।"

मेरी जोर के हंसी निकल गई। मुझे मालूम था कॉपी पेस्टिया शूरवीर ने कभी मनुस्मृति को देखा तक नहीं है। मैंने उससे पूछा अच्छा यह बताओ। मनुस्मृति कौनसी भाषा में है? वह बोला ब्राह्मणों की मृत भाषा संस्कृत। मैंने पूछा अच्छा अब यह बताओ कि यह जो आपने लिखा यह किस भाषा में है। वह फिर चुप हो गया। फिर मैंने लिखा यह तुलसीदास की चौपाई है। जो संस्कृत भाषा में नहीं अपितु अवधी भाषा में है। इसका मनुस्मृति से कोई सम्बन्ध नहीं है। मगर कॉपी पेस्टिया शूरवीर मानने को तैयार नहीं था। फिर मैंने मनुस्मृति में नारी जाति के सम्बन्ध में जो प्रमाण दिए गए है, उन्हें लिखा। पाठकों के लिए वही प्रमाण लिख रहा हूँ। आपको भी कोई कॉपी पेस्टिया शूरवीर मिले तो उसका आप ज्ञान वर्धन अवश्य करना।

मनुस्मृति में नारी जाति

यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः। मनुस्मृति 3/56

अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं।

पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55

जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57

जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62

पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96

ऐश्वर्य की कामना करने हारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। मनुस्मृति

पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है।

पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार मनु ने माना है। मनु के अनुसार पुत्री भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में भागी है। यह प्रकरण मनुस्मृति के 9/130 9/192 में वर्णित है।

आज समाज में बलात्कार, छेड़खानी आदि घटनाएं बहुत बढ़ गई है। मनु नारियों के प्रति किये अपराधों जैसे हत्या, अपहरण , बलात्कार आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड एवं देश निकाला आदि का प्रावधान करते है। सन्दर्भ मनुस्मृति 8/323,9/232,8/342

नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये है।

पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4

मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है -सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य।

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।



Tuesday 2 June 2020

Dowry System , Girl Child Murder and Abusing , Murder of Bride , Fetal Death or Infant Death of Girl kid ... How can we stop those Ediction?





समाज मे लडकी आमतौर पर अधिकांश लोग पैदा  नही करना चाहते हां लडकी पैदा हो ऐसा दिखावा जरुर करते है... इसी वजह से सरकार की रोक के बावजूद भी लडकी भुर्ण हत्या हो रही है.. ये लडकी पैदा अपने घर नही होने देते ताकि दुसरो की बहन बेटियों के चरित्र पर कुछ भी टिप्पणी करने का अधिकार इनको मिल जाए ...


गरीब या बेरोजगार या कम रोजगार वाले लडके के घर मे शादी करने का ये बिलकूल मतलब नही है कि उस घर मे दहेज हत्या या घरेलू उत्पीडन नही होगा... 


आजकल अधिकांश लोगो को अपने घर की औरते/ लडकी सब देवी और दुसरो के घर की औरते/लडकी सब रंडी नजर आती है...दुसरो की बहन बेटियो को चरित्र प्रमाण पत्र तुरंत लोग दे देते है खासकर वे जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी ....आजकल ये भी देखा जा रहा है  कि जिनको पहली ही संतान लडका हो जाती है तो वे दुसरा बच्चा ही नही बनाते और उनकी तरफ से तर्क दिया जाता है महंगाई का.... जबकि काफी  समर्ध परिवार भी ऐसा कर रहे है कही ना कही दुसरी संतान लडकी ना हो जाए इस वजह से वे दुसरा बच्चा अधिकांशत नही बनाते ....


कोई दहेज कहकर नही मांगता क्योकि लडकियों की वैसे ही संख्या कम है परन्तु शादी होते समय और बाद मे मारपीट या हत्या तक दहेज के लिए कर दी जाती हैै... और लडकी के चरित्र को खराब बता दिया जाता है..


आजकल जहां लडकी वाले दबंग है वे भी कई बार उनकी लडकी को परेशानी होते ही उसके ससुराल वालो की मां बहन एक कर देते है....


दहेज, भात, पीलिया, सीधा कोथली, त्यौहारो आदि के नाम पर मान सम्मान के रुप मे लडकी वालो से रुपये लिये जाते है... लडकी पैदा होने का मतलब दान देना पुरी उमर समझा जाता है...


लडकी की मारपीट को जब उसे माइके वाले समाज मे इज्जत के खातिर नजरअन्दाज कर देते है तो बात हत्या तक पहुच जाती है... क्योकि यदि कोई मां बाप लडकी को पडताडित होने पर उसे अपने घर रख ले या घरेलू हिंसा का केस कर दे तो लडकी वालो को बोला जाता है कि ये तो लडकी का धंधा कर रहे है..... 


इन सारी समस्याओं का एक समाधान है अन्टा सन्टा शादी यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो... इस तरह की शादी मे गोत्र भी नही मिलते जोकि आमतौर पर देखा जाता है.. ना कुछ देना ना लेना... ना किसी पर कोई दबाव... लोग लडकी भी पैदा करेंगे क्योकि नही तो उनके लडके की भी शादी नही होगी...


जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी या जिनका काम-धंधा ही दहेज या रुढिवादी कुप्रथाओ आदि से चल रहा है वे तो इस शादी का विरोध करेंगे ही....


वैसे ये अदला बदली शादी काफी हो रही है और कामयाब भी है.....





Brahmin Pandit Kings ( Bhumihar / Tyagi Brahmins )





14वीं व 15वीं शताब्दी में यूपी के पूर्वांचल से जाकर बंगाल भूमि में अपनी रियासत स्थापित करने वाले सभी #कश्यप_गोत्रिय_राय_सरनेम वाली बहुचर्चित राजाओं को क्यूँ भूल जाता आज का हाईटेक भू समाज ..? 

■ #राजा_योगेन्द्र_नारायण_राय - लालगोला के बहुचर्चित राजा जिनके महल में "आनंदमठ" व राष्ट्रीय गीत "बन्देमातरम्" की रचना हुई ... देशभक्तों के आश्रयदाता 

■ #राजा_बीरेंद्र_नारायण_राय - लालगोला के राजा सह दिग्गज वामपंथी नेता , मुर्शिदाबाद ज़िले के #नाबाग्राम_विधानसभा क्षेत्र से वामदल/निर्दलीय 8 बार विधायक 

■ #राजा_भैरवेंद्र_नारायण_राय  - सिंहाबाद रियासत के राजा जिन्होंने बंगाल में कला संस्कृति व संगीत के क्षेत्र में नयी आधारशिला रखी ..

■ #राजा_रमाकांत_राय - नटौरा स्टेट के राजा जिन्होंने नटौरा को नया भौगोलिक आधार दिया ... इनकी पत्नी #रानी_भवानी बड़ी वीरांगना थी ... काशी नरेश से बेहद मधुर रिश्ते थे .. इनकी व इनकी पुत्री #तारा_सुंदरी के जीवन के आख़री दौर काशी नरेश के यंहा ही गुजरे ... बंगाल के सूबेदार सिराजोदौला द्वारा तारा सुंदरी को विवाह प्रस्ताव के बाद रानी भवानी गंगा जलमार्ग से ही बंगाल से काशी पहुँच गयी थी ... 

इन सबों के वंशजों ने बंगाली संस्कृति को adopt कर लिया है ... परन्तु इनके पुरखों का अपने परिवार व क्षेत्र गाजीपुर बनारस से गहरा जुराव हुआ करता था ... पूर्वांचल से लोग रियासत में 20वीं सदी तक कई पीढी से बड़ी जिम्मेदारी सँभालते मिले 😊 

अलग थलग पड़े #भू_समाज के इन हस्तियों को शत शत नमन 


#बंग_भूमि 

जैसा की सर्वज्ञात है गाजीपुर ज़िले के #कश्यप_किनवारों ने मुर्शिदाबाद में लालगोला और मालदा में सिंहाबाद रियासत की नींव रखी ..😊 

उसी तरह पश्चिम से आये एक एक अन्य ब्रह्मर्षि #कामदेव_भट्ट ने  15वीं शताब्दी में बंगाल के #नदीया_ज़िले में 
#ताहिरपुर_स्टेट की नींव रखी ... 

फिर #नदिया_और_नटौरा ज़िले में मुगल काल में इसी शाखा से .. 
#नटौरा_स्टेट 
#पोठिया_स्टेट
#नदिया_स्टेट की नींव रखी गयी .... 

पोठिया राज से उभरकर #राज_नटौरा ने एक समय में बेहद ख्याति  अर्जित की ... 
चूँकि कामदेव भट्ट #कश्यप_गोत्रिय_ब्रह्मर्षि थे इस लिए ताहिरपुर से उद्गमित रियासत "कश्यप" ही हुए ... 
 
नटौरा के #राजा_रमाकांत_राय की पत्नी #रानी_भवानी बहुचर्चित हुई ... 
काशी नरेश से रानी भवानी की जातिय रिश्ता होने की वजह से सम्बन्ध बेहद मधुर थे ... रानी भवानी ने काशी में दुर्गामन्दिर , धर्मशाला सहित कई गाँव दान में दिया था ... 

एक बार जब  बंगाल सूबेदार सिराजौदुल्ला रानी भवानी की पुत्री #तारा_सुंदरी से विवाह करना चाहता था और जबरदस्ती नटौरा को घेरे हुए था ... 
रानी भवानी जलमार्ग से ही बंगाल से काशी पहुँच गयी .... गंगा के राश्ते रानी के पहुँचने से पूर्व ही तारा सुंदरी ने #जल_समाधी ले ली थी ...

#काशी_और_नटौरा में अटूट रिश्ता था ... 
आजकल नटौरा महल बांग्लादेश का हिस्सा है .... इनके वंशजों ने पूर्ण बंगाली कल्चर adopt कर लिया है ... 
आज भी ये लोग बंगाल में कुलीन भूमिहार ब्राह्मण खुद को मानते हैं


 

मिथिला क्षेत्र के बहुचर्चित ओइनवार वंश में प्रतापी राजा शिवा सिंह हुए ... ओइनवार कश्यप गोत्रिय ब्राह्मण थे ...

#ओइनवारों_के_भूमिहार_ब्राह्मण_समाज_में_वंश 

■ #बरुआर - बरुआर कश्यप गोत्रिय भूमिहार ब्राह्मण होते हैं .. ओइनवार वंश की राजा भैरव सिंह ने 1480 ई में अपनी राजधानी बछौर परगने के "बरुआर गाँव" में बनायी थी ... राजा भैरव सिंह के पीढी से बरुआर डीह से आने वाले कश्यप गोत्रिय बरुआर भूमिहार कहलाये ■ 

ओइनवारों के वंशज के रूप में कश्यप गोत्रिय #बेतिया_राज को कई इतिहासकारों ने अपने मत के रूप में रखे हैं ... 

बेतिया राज की उतपत्ति के किस्से अब भी विवादित हैं ... कई मत हैं इनके प्रति ... 

■ बेतिया राज के संस्थापक मोहयाल शाखा के वैद क्लेन से आते थे जो कि विकिपीडिया भी दर्शा रहा .. 
मैं इसका खण्डन करता हूँ ... वैद क्लेन के गोत्र धन्वन्तरी होते हैं कश्यप नही ... बेतिया राज कश्यप थे .. 
भूमिहार शाखा में मोहयाल के बालि क्लेन से पराशर गोत्रिय #इकशरिया_भूमिहार ही सिर्फ हैं ... ■ 

■ एक किवदन्ती ये है कि "गोरख राय" पृथ्वीराज चौहान के सेनापति थे ... जो कि निराधार है 

■ सबसे महत्वपूर्ण मत जिसे कई इतिहासकारों ने सरहाया है ... वो है "ओइनवार वंश का विघटन व बेतिया (सुगौना) वंश का उदय .. कई शोधकर्ता मानते हैं .. ओइनवारों को चम्पारण क्षेत्र से बेहद लगाव हुआ करता था ...वँहा मजबूत सरदार की आवश्यकता होती थी ...चम्पारण क्षेत्र में ओइनवार अपने ही पीढी से लड़ाकू योद्धा को अपना सरदार नियक्त करते थे ... जिसमे "राजा पृथ्वी नारायण सिंहः देव" चम्पारण के बहुचर्चित सरदार थे (1436) ... वो भी ओइनवार के कश्यप कूल से थे ... 
ओइनवार कूल का विघटन होने के बाद इनकी पीढी ने अपना राज चम्पारण के हिस्से में कायम किया .... 
कलांतर में मुगल बादशाह अकबर को अफगानों के खिलाफ मदद की एवज में इनके पीढी के #उग्रसेन को राजा की उपाधि मुगलों द्वारा मिली ... उसके बाद उनके पुत्र गज सिंह बेतिया स्टेट के राजा हुए ...😊😊 

हालांकि कश्यप गोत्रिय ओइनवार और कश्यप गोत्रिय बेतिया राज के जुड़े इतिहास को लेकर मतभेद तो होना लाजमी है ... लेकिन ये मत सबसे पुख्ता प्रमाणिक भी सिद्ध होते हैं ... 
जुझौतिया (कश्यप) को लेकर भी यही मत है ... 



#च्यार_भूमिहार 

जब च्यार भूमिहारों के आदि पुरुष #महर्षि_च्यवन ने क्षत्रिय राजपुत्री सुकन्या से विवाह कर भृगु वंशी #चैयार_भूमिहार_वंश की नींव रखी ..😊 
#चयव्न्_प्रास औषधि की खोज इन्होंने ही की थी 

औरंगाबाद ज़िले के रफीगंज में #लट्टागढ़_स्टेट इन्ही च्यारों का था .... आज जे तारीख में ये ग्राम बेहद प्रभावशाली है ... यंहा च्यवन ऋषि का आश्रम है ..😊 

#लट्टागढ़_की_कथा 
 #ब्रह्मर्षि_च्यवन_आश्रम 
जहां आकर लोगों को एक सुकून और शांति मिलती है। जिला औरंगाबाद जिला मुख्यालय से 42 किमी दूर बसा है गांव लत्ता। इसी गांव मे वधूसरा नदी के किनारे अवस्थित है—महर्षि च्यवन आश्रम। इस आश्रम को महर्षि च्यवन की तपोस्थली माना जाता है। लोगों की मान्यता है कि इसी आश्रम में महर्षि च्यवन ने कुछ दिव्य जड़ी-बूटियों की खोजकर कायाकल्प की एक दवा तैयार की थी। इस दवा को आज च्यवनप्राश के रूप में जाना जाता है। यानी च्यवनप्राश का आविष्कार इसी च्यवन आश्रम में हुआ था। आश्रम में पर्व त्यौहार के मौके पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दराज से श्रद्धालु भाग लेते हैं। च्यवन ऋषि के आश्रम के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है, जिसका जिक्र कई धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। इस कथा के अनुसार महर्षि च्यवन ने लट्टा मे वधूसरा नदी के निकट अपना तपोस्थली बनाया था। इस के किनारे पर बैठकर वे गहन तपस्या में लीन हो गए। लगातार तप में लीन होने के कारण उनके शरीर पर मिट्टी का आवरण जमा हो गया था। एक दिन महान सूर्यवंशी राजा शर्याति अपने परिवार सहित नदी के किनारे पर भ्रमण के लिए आये। उनकी युवा पुत्री राजकुमारी सुकन्या भी उनके साथ थी। सुकन्या खेलते-खेलते उस स्थान पर आ गयी, जहां महर्षि च्यवन तपस्यारत थे। तपस्या की मुद्रा में बैठे च्यवन ऋषि की मिट्टी से ढकी आकृति में सरकंडे घुसा दिए। ये सरकंडे महर्षि च्यवन की आंखों में घुस गए। मिट्टी की आकृति से खून बहता देखकर राजकुमारी डर गयी और उसने अपने पिता राजा शर्याति को वहां बुलाया। जब शर्याति ने मिट्टी को वहां से हटाकर देखा तो उन्हें वहां महर्षि च्यवन बैठे दिखाई दिये, जिनकी आंखें राजकुमारी सुकन्या ने अज्ञानवश फोड़ दी थी। सच्चाई जानकर सुकन्या आत्मग्लानि से भर गयी। सुकन्या ने वहीं आश्रम में रहकर च्यवन ऋषि की पत्नी बनकर उनकी सेवा कर पश्चाताप करने का निर्णय लिया। बताया जाता है कि बाद में देवताओं के वैद्य आश्विन कुमारों ने अपने आशीर्वाद से महर्षि च्यवन को युवा बना दिया। युवावस्था प्राप्त कर महर्षि च्यवन ने उस क्षेत्र को अपने तप के बल पर दिव्य क्षेत्र बना दिया। आज महर्षि च्यवन आश्रम के कारण पूरा क्षेत्र प्रसिद्ध तीर्थस्थान के रूप में माना जाता है। यहां महर्षि च्यवन का प्राचीन मंदिर अवस्थित है, जिसमें महर्षि च्यवन, सुकन्या व ग्राम देवीकी मूर्तियां स्थित हैं। यहीं पर एक गुफा है, । इसके अतिरिक्त यहां स्थित चवधूसरा नदीभी आकर्षण का केंद्र है। इसका जिक्र महाभारत के वन पर्व में भी मिलता है। 

हाँ मैं संस्कार हूँ।
हाँ मैं च्यवनियार(चैयार) हूँ
भाष्कर संहिता का आधार हूँ
अश्वनी द्वय का अधिकार हूँ
भृगुकुल का उदगार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ।।

देवी भागवत का प्रचार हूँ।
राजा कुशिक पर प्रहार हूँ
च्यवन स्मृति का आधार हूँ
ब्रह्मर्षि वंश विस्तार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
हाँ मै च्यवनियार हूँ।।

पुलोमन का सँहार हूँ।
माँ सुकन्या का अभिसार हूँ
इन्द्र का स्तम्भकार हूँ
वेदों का पारावार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ

राजा शर्याति का सत्कार हूँ
ब्रह्मर्षि का संस्कार हूँ
सहजानंद का ग्रंथागार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ।।

वत्स भार्गव आप्रवान
जामदग्न्य का प्रचार हूँ
महर्षि च्यवन का वंशाधार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
है मैं भूमिहार हूँ।।


1857 की क्रान्ति में ब्राह्मणों का योगदान ( Bhumihar / Tyagi Brahmins )






1857 महासमर मे भूमिहार ब्राहमणों का योगदान! 



मध्य और दक्षिण बिहार, और आज के झारखंड-उड़ीसा तक, के इलाकों मे 1857 के महासमर मे भूमिहार-ब्राहमणो की भूमिका अद्भुत रही। 

नवादा-नालांदा-राजगीर-बिहारशरीफ 

14-15 अगस्त को भागलपुर मे 5वी घुड़सवार पलटन ने विद्रोह किया था। इस पलटन का बड़ा हिस्सा नालांदा और नवादा की तरफ बढ़ा। 24 अगस्त तक नवादा और नालंदा का बड़ा हिस्सा (हिलसा) क्रांतिकारियों के कब्ज़े मे आ गया। नवादा और फतेहपुर थानो के अंग्रेज़ अफसर और अंग्रेज़ परस्त पुलिस के अधिकारी मार डाले गये। नवादा जेल मे बंद कैदियों को रिहा किया गया। गरीब जनता ने कचहरी पर हमला कर कंपनी राज के कागज़ात जला दिये। हिलसा मे क्रूर महाजनों, सूदखोरों और ज़मींदारों को सज़ा दी गयी। अंग्रेज़ो के कारिंदों को मौत के घाट उतार दिये गये। 

नालंदा-नवादा की आग जल्द ही बिहारशरीफ, राजगीर, अरवल, जहानाबाद, अमरथू और गया पहुंच गयी। अक्टूबर मे देवघर स्थित 32वी पैदल सेना ने विद्रोह कर दिया। फिर क्या था--ऐसी लड़ाई हुई की अंग्रेज़ और उनके सामंत-महाजन पिट्ठू दुहाई भूल गये। 

1857 मे शुरू हुई जंग 1867--यानी दस साल--तक चली।

नाना सिंह और हैदर अली खान 

नालंदा, नवादा खास और राजगीर मे अंग्रेज़ विरोधी जंग का नेतृत्व हैदर अली खान और भूमिहार ब्राहमण नाना सिंह ने किया। मध्य दक्षिण बिहार मे कई जगह भूमिहार ब्राहमण 'सिंह' टाईटिल इस्तेमाल करते थे। इसी वजह से गदर के रिकार्डों मे अंग्रेज़ो ने यहां के भूमिहारों को 'राजपूत' लिख दिया है। पर नाना सिंह जैसे अनेक ज़मींदार, भूमिहार ब्राहमण थे। सब से खास बात है कि इस इलाके मे 1857 विद्रोह ने सामंतवाद विरोधी रूप ले लिया। भूमिहारों के नेतृत्व मे बड़ी संख्या मे आज की पिछड़ी-दलित जनता संहर्ष मे उतरे। 

नाना सिंह अमौन के थे।  अगस्त-सितंबर मे उनको पकड़ने की अंग्रेज़ो ने अथक प्रयास किया। पर नाना सिंह चकमा दे कर निकल गये। हैदर अली खान के साथ अहमद अली, मेंहदी अली, हुसैन बख्श खान, गुलाम अली खान, नक्कू सिंह (भूमिहार), फतेह अली खान जैसे दिग्गज योद्धा थे। 

हैदर अली खान और नक्कू सिंह (भूमिहार) की पूरी टीम अंतूपुर मे इकट्ठा हुई। कंपनी-अंग्रेज़ी राज के अंत की आधिकारिक घोषणा हुई। बहादुर शाह ज़फर को मुल्क का बादशाह और कुंवर सिंह को बिहार का राजा स्वीकृत किया गया। 

नवादा मे नामदर खान और वारसलीगंज मे कामगार खान के वंशजो ने भी विद्रोही बिगुल बजा दिया। 

8 सितंबर को भागलपुर से और एक भारतीय फौज नवादा पहुंची। उधर पटना से चली अंग्रेज़ फौज भी नवादा पहुंची। नवादा के प्रमुख विद्रोही भागलपुर की फौज के साथ मिल गये। नवादा कचहरी फूंक दी गयी। स्थानीय जनता ने अंग्रेज़ी राज के सभी चिन्ह मिटा दिये। 8 से 30 सितंबर तक विद्रोहियों का नवादा पर कब्ज़ा रहा।  30 सितंबर को अंग्रेज़ो और भारतीय फौजों मे भंयकर युद्ध हुआ। दलाल महाजनों और ज़मीदारों ने अंग्रेज़ो का साथ दिया। पर निचली जातियों के लड़ाके, अंग्रेज़ परस्त ज़मीदारों का विरोध कर, भारतीय फौज से जा मिले। 

नवादा की जंग इतनी भीषण थी कि गोला-बारूद मे अव्वल होने के बावजूद, अंग्रेज़ो आगे नही बढ़ सके। उनको भारी क्षति उठानी पड़ी। भारतीय विद्रोही गया की तरफ बढ़ गये। 

नवादा मे मुस्लिम क्रांतीकारी ज़्यादातर घुड़सवार थे।  वहीं भूमिहार नेतृत्व मे दलित-पिछड़े पैदल योद्धा एक-आध मैचलोक छोड़, तलवारों और भालों ही से लैस थे। इनकी समूह मे इकट्ठा हो कर हमला करने की बहादुराना नीति की अंग्रेज़ो ने भी तारीफ की। 

नादिर अली खान, जो रांची-झारखंड मे तैनात रामगढ़ बटालियन के नेता थे, और जो उस छेत्र मे 1857 बगावत के बड़े सूत्रधार बने, बिहारशरीफ के समीप चरकौसा गांव के निवासी थे। ये इलाका GT रोड के नज़दीक था। GT रोड से अंग्रेज़ कलकत्ता से बिहार/UP  के बाग़ी इलाकों तक रसद और कुमुक पहुंचाते थे। GT रोड अंग्रेज़ो के लिये नर्व-सेंटर थी। बिहारशरीफ के क्रांतीकारियों ने GT रोड पर कई दिनो तक अपना कब्ज़ा बनाये रखा। 

मांझी नादिरगंज मे दलित रजवारों की संख्या अच्छी-खासी थी। एक बड़ा क्रांतीकारी जत्था यहां से राजगीर की पहाड़ियों मे घुस गया। 

राजगीर विद्रोह का नेतृत्व हैदर अली खान करते रहे। उनकी गिरफ्तारी के बाद, 9 अक्टूबर को अंग्रेज़ो ने उन्हे  फांसी दे दी। राजगीर के मुहम्मद बख्श, ओराम पांडे (भूमिहार), दाऊद अली, सुधो धनिया, भुट्टो दुसाध, सोहराई रजवार, जंगली कहार, शेख जिन्ना, सुखन पांडे (भूमिहार), देगन रजवार और डुमरी जोगी को 14 साल की सज़ा हुई। हिदायत अली, जुम्मन, फरजंद अली और पीर खान की संपत्तियां जब्त हुईं। अंग्रेज़ परस्त कारिंदो को बड़े-बड़े पुरुस्कार दिये गये। 

गया-वज़ीरगंज की लड़ाई 

इस छेत्र मे जनवरी, 1858 से प्रारम्भ वज़ीरगंज का विद्रोह खास अहमियत रखता है। यहां भूमिहार लड़ाके खुशियाल सिंह, कौशल सिंह और राजपूत यमुना सिंह ने नेतृत्व संभाला। 

वज़ीरगंज की लड़ाई बिहार मे भूमिहार-राजपूत एकता की मिसाल बनी। यह इलाका आज गया जिले की एक विधान सभा है। वज़ीरगंज विद्रोह मे 15 से अधिक गांव शामिल थे। कौशल सिंह का गांव खबरा, क्रांतीकारी गतिविधियों का केन्द्र था। 

वज़ीरगंज महीनो आज़ाद रहा। यहां शहीदों और कालापानी भेजे जाने वालों की लिस्ट लंबी है: रणमस्त खान और नत्थे खान, ग्राम-समसपुर, थाना-बेलागंज; मनबोध दुसाध, ग्राम-ऐरू, थाना-वज़ीरगंज; मोती दुसाध, सहाय सिंह एवं चरण सिंह, ग्राम- बभंडी, थाना-वज़ीरगंज; बुल्लक सिंह, केवल सिंह, ग्राम-कढ़ौनी, थाना-वज़ीरगंज; बुधन सिंह एवं मोती सिंह, ग्राम-दखिनगांव, थाना-वज़ीरगंज; दुखहरण सिंह, ग्राम-सिंधौरा, थाना-वज़ीरगंज; चुलहन सिंह, ग्राम-प्रतापपुर, थाना-अतरी; अमर सिंह, ग्राम-दशरथपुर, थाना-वज़ीरगंज; मोती साव, ग्राम-दखिनगांव, थाना- वज़ीरगंज; जयनाथ सिंह, ग्राम-बेला, थाना-वज़ीरगंज; मिलन सिंह एवं नेउर सिंह, ग्राम-सिंगठिया, थाना-वज़ीरगंज; जिया सिंह, ग्राम-चमौर, थाना-वज़ीरगंज; जेहल सिंह, ग्राम-नवडीहा, थाना-वज़ीरगंज। इसके अलावा अन्य 40 की संपत्ती जप्त हुई। 

ग्राम पुरा, थाना-वज़ीरगंज के महावीर सिंह, जुमाली सिंह, रामदेव सिंह, विद्याधर पांडे, चमन पांडे और कोलहना को पीपल के पेड़ पर फांसी हुई। 

राजगीर की पहाड़ियों मे 1859 तक युद्ध चलता रहा। कई सिक्ख बटालियन के लोग भी विद्रोहियों से आ मिले! लोदवा और सौतार मे अंग्रेज़ परस्त कारिंदो और सामंतो को पीछे हटना पड़ा। अंग्रेज़ दरोगा 48 घंटे मे 90 मील तक मार्च करते रहे। पर विद्रोही, लखावर, किंजर और अरवल से होते हुए, सोन नदी के पास महाबलीपुर पहुंच गये! इस दौर के विद्रोहियों मे लक्ष्मण सिंह (राजपूत), भरत सिंह (राजपूत), लाल बर्न सिंह (भूमिहार), करमन सिंह (भूमीहार), हुलास सिंह (भूमिहार), जुम्मन खान और मेघू ग्वाला प्रमुख रहे। 

नवादा-अरवल-गया-जहानाबाद और दलित आंदोलन

नवादा-अरवल-गया-राजगीर मे 1857 ही वो घड़ी थी, जब दलित आंदोलन लिखित रूप मे दर्ज हुआ। इसके पहले, दलित विद्रोह का कोई रिकार्ड उपलब्ध नही है। इस छेत्र के दलित रजवार अंग्रेज़ो और सामंतो, दोनो के खिलाफ लड़े। उच्च और OBC जाति के विद्रोहियों ने दलितों का पूर्ण समर्थन किया। 

19 जून, 1857 को मौजा ओसदुरा, परगना गोह के सामंत इनामुल अली के घर रजवार लड़ाकों ने धावा बोला और 36 मन धान उठा ले गये। 5 अगस्त, 1857 को 30 सवार (राजपूत) और 300 रजवारों के दल ने मौजा साकची, परगना बिहार के अमीर भोजू लाल वकील के यहां रेड डाल कर 2019 रू की संपत्ती क्रांतीकारी खजाने मे जमा करने हेतु
उठा ली। 6 अगस्त, 1857 को रजवार गुरिल्ला squad ने घोसरनवा के सामंत के ठेकेदार गणेश दत्त के घर हमला किया। बिहार थाने का अंग्रेज़ो के लिये काम कर रहा दरोगा जब दल-बल के साथ यहां पहुंचा, तो 1200 ग्रामीणों से उसकी भिड़ंत हुई। कई घंटो तक लड़ाई चली। सामंत के आदमी दरोगा के पक्ष मे उतरे, तो क्रांतीकारियों ने आधा दर्जन लठैतों को मार गिराया। 

मौजा सत्तवार और हुसैपुर के ज़मींदारों ने जवाहर और एटवा रजवार नाम के दो गुरिल्ला units के नेताओं का समर्थन किया। 

20 सितंबर, 1857 के दिन, जमादार रजवार के नेतृत्व मे रजवारों ने मौजा उर्सा के गया प्रसाद और ख्वाजा वज़ीर के यहां हमला किया। सकरी नदी के किनारे, खरगोबीघा, खुरारनाथ, पुसई मे भीषण संग्राम हुऐ। रजवार इलाकों ने देवघर की विद्रोही 32वी पैदल पलटन का पूरा समर्थन किया। लड़ाई हज़ारीबाग तक चली जहां खड़गडीहा ग्राम मे मुखो और झूमन रजवार के नेतृत्व मे बाबू राम रतन नागी और नंदेर के आदमी सांमतो से भिड़ गये। और हज़ारीबाग मे पहली बार भूमि वितरण को अंजाम दिया। 

28 सितंबर 1857 को दोना के सामंत नंदकिशोर सिंह ने जवाहर रजवार की हत्या की साज़िश रची। जवाहर रजवार के साथ जो 5 अन्य शहीद हुऐ, उनमे भूमिहार ब्राहमण केवल सिंह, समझू ग्वाला और कान्यकुब्ज ब्राहमण बंसी दिक्षित प्रमुख थे। बंसी दिक्षित 7वी पैदल सेना के सिपाही थे। बक्सर के रहने वाले थे। जिनको राजा कुंवर सिंह ने खास मध्य बिहार मे क्रांती की ज्वाला भड़काने भेजा था। 

एकतारा के सामंत टीप नारायण अलग से रजवारों पर हमला करते रहे। इसी छेत्र के सांमत गंगा प्रसाद ने भी गद्दारी की। 

भूमिहारों/रजवारों को 'देखते ही गोली मारो' का आदेश 

रजवार-विरोधी अभियान जल्द ही भूमिहार-विरोधी अभियान बन गया। अंग्रेज़ अफसर वर्सली ने रजवारों के गांव के गांव जला डाले। भूमिहारों को देखते ही गोली मारने का आदेश पारित हुआ। वर्सली ने माना कि, "और कोई चारा नही था। भूभिहार ब्राहमणो ने इस इलाके (मगध) को बसाया है--यहां के जंगल साफ कर, खेती योग्य बनाया। इनका छोटी जातियों मे प्रभाव है। मुसलमानो से इनके रिश्ते अच्छे हैं। यह हमारी सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। यही काम सुल्तानपुर, फ़ैजाबाद और गोरखपुर मे सरयूपारी ब्राहमणो ने किया। सरयूपारियों ने  सुल्तानपुर-गोरखपुर बसाया। हमारी फौज मे भरती हुऐ। और हमारे खिलाफ विद्रोह कर दिया। कान्यकुब्ज ब्राहमणो तो और भी दोषी हैं। ये सबसे प्राचीन हैं। हमने इनपर भरोसा किया। बंगाल आर्मी की दिल्ली से पेशावर तक तैनात बड़ी-बड़ी रेजीमेंटो मे अवध और द्वाबा के कान्यकुब्जों का ही ज़ोर था। हमने इनपे सबसे अधिक विश्वास किया। और इन्होंने हमारे राज को धूल मे मिला दिया"। 

वर्सली ने मौजा ताजपुर और करनपुर जला कर राख कर दिया था। उसके जाने के बाद कैंपबल मध्य-बिहार आया। कैंपबल ने मुरई को आग के हवाले किया। जिसको पाया फांसी दे दी। फिर भी विद्रोह काबू मे नही आया। 24 मार्च 1858 को अपने सीनीयर अफसर को पत्र मे उसने माना कि "मै तीन महीने टेंट मे रह रहा हूं। रजवारों और भूमिहारों ने जीना हराम कर दिया है। कचहरी और मजिस्ट्रेट के बंगलो को जला दिया है। हम नई पुलिस चौकियां बनाते हैं और वे धवस्त कर देते हैं"। 

अंग्रेज़ो ने 4 छोटी कोठरियों मे सैंकड़ों कैदी ठूस दिये थे। कमरों के कोने मे मिट्टी पड़ी रहती, जिसमे कैदी पेशाब करते। पुआल भी नही पड़ा! इस भंयकर बदबू से कई कैदी बेहोश हो जाते। कई प्रतिष्ठित भूमिहार परिवारों के औरतें और बच्चों को अकथनीय यातना दी जाती। 

असाढ़ी गांव के रजवारों ने भूमिहारों और अपनी जाति पर हो रहे अत्याचार  का बदला लिया। नेहालुचक गांव के सांमतो पर हमला कर के! 

तब तक दिल्ली और लखनऊ दोनो गिर चुके थे। अप्रैल 1858 मे राजा कुंवर सिंह जगदीशपुर की अंतिम जंग जीत गये--पर वीरगति को प्राप्त हुऐ। नाना साहब पेशवा के नाम क्रांती आगे बढ़ रही थी। 

जून-जुलाई 1858 के बीच भूमिहारों-रजवारों और मुस्लिम लड़ाकों ने फिर तारतम्य बैठाया। अंग्रेज़ परस्त सामंतो पर फिर हमले तेज हुए। उत्तम दास की कचहरी पर हमला; पतरिहा के करामत अली की संपत्ती की लूट; भवानीबीघा, मोहनपुरवा, मौलानागंज, गोपालपुर, दौलतपुर, खुशियालबीघा मे लड़ाई--एक नया उबाल आ गया। रजवारो, भूमिहार, और कुछ कुर्मी, कुशवाहा तथा ग्वालों (यादव) के गांवो को जलाया गया। कैंपबल ने अपने एक पत्र मे साफ किया कि, "सिर्फ रजवारों को दोशी ठहराना ठीक नही है। इनके साथ बड़ी मात्रा मे राजपूत, भूमिहार तथा मुसलमान शामिल हैं"।

रजवार और अन्य क्रांतीकारीयों ने अंग्रेज़ो की नाक मे ऐसा दम किया कि ब्रिटिश प्रशासन मे आपसी विवाद पैदा हो गया। एटवा रजवार और कई कमांडर पुलिस की गिरफ्त मे आ ही नही रहे थे। गुरिल्ला दस्तों से निपटने के लिये 1863 मे 10 हज़ार की फौज मैदान मे उतारनी पड़ी! 

पश्चिम मे बसगोती और पूरब मे कौआकोल की ओर से घेराबंदी की गयी। सामंतो को हज़ारीबाग, दक्षिण की तरफ से हमला करना था। 

पर ये घेराबंदी फेल हो गयी। कई जगह क्रांतीकारियों के खिलाफ हिंदुस्तानी सिपाहियों ने हथियार चलाने से मना कर दिया। सौतार के सामंत फूल सिंह की सेना मे विद्रोह हो गया। एटवा रजवार फूल सिंह के एस्टेट का ही था। अंग्रेज़ो ने फूल सिंह को खिल्लत बख्शी थी। पर 1863 अभियान की असफलता के बाद, अंग्रेज़ फूल सिंह के 'दोहरे चरित्र' की बात करने लगे।

अवध और मगध

1867 तक मध्य बिहार-मगध के छेत्र मे अंग्रेज़-विरोधी/सामंतवाद विरोधी संहर्ष चलता रहा। अवध मे अंग्रेज़ो ने किसानो-ज़मीदारों की सारी ज़मीन जब्त कल ली। पर 1858 मे अंग्रेज़ो को घुटने टेक दिये--किसानो की जब्त ज़मीने लौटाईं--और पट्टीदारी व्यवस्था--जो सामंतवाद-विरोधी थी--बहाल की। 

अवध के बाद मगध ही मे अंग्रेज़ो को मुंह की खानी पड़ी। मगध-बिहार मे बंगाल की तर्ज पर, कुछ फेर-बदल के साथ, अंग्रेज़ो ने permanent settlement यानी यूरोपीय सामंतवाद लागू किया था। जहां अधिकतर किसान tenants थे। बंधुआ मज़दूरी और बेगार, कमियाटी प्रथायें चल निकली थी। 

मगध किसान विद्रोह और सामंतवाद विरोधी क्रांती 

अवध की तरह मगध की अपनी भाषा-संस्कृति रही है। मान-सम्मान का मनोवैज्ञानिक ढांचा और आत्म-सम्मान/राजनीतिक सत्ता का आर्थिक ढांचा सदियों से मौजूद रहा है। 

मगध किसान विद्रोह के बाद अंग्रेज़ो को अपने थोपे गये सामंतवाद मे सुधार लाना पड़ा। 1867 मे आये सुझावों के अनुसार: 
1. बंधुआ प्रथा खत्म होनी चाहिये। बाज़ार के दर पर मज़दूरी तय की जानी चाहिये। 
2. ज़बरदस्ती करने वाले सामंतो पर धारा 374 के हिसाब से कार्यवाही होनी चाहिये। 
3. किसानो के कर्ज़ के जो बांड्स (bonds) हैं, उन्हे एक वर्ष के अंदर खत्म किया जाना चाहिये। 
4. रजवारों और गरीब किसानो के लिये रोज़गार की व्यवस्था होनी चाहिये। 
मगध के अन्य क्रांतीकारीयों जिनको सज़ा हुई: 
जोधन मुसहर, उग्रसेन रजवार, घनश्याम दुसाध, गोविन्द लाल, पुनीत दुसाध, शिवदयाल, बंधु, रुस्तम अली, रज्जू कहार। 

अलीपुर कैदियों की लिस्ट यूं थी: 
लच्छू राय (भूमिहार-ब्राहमण), सीरू राय (भूमिहार-ब्राहमण), रामचरण सिंह (राजपूत), रातू राय (भूमिहार-ब्राहमण), बोरलैक (कुर्मी), हरिया (चमार), रामटहल सिंह (राजपूत), दुल्लू ( भोक्ता-जन जाति), झंडू अहीर, शिवन रजवार, भुट्ठो रजवार, सोनमा दुसाध, चुम्मन रजवार, कारू रजवार, दरोगा रजवार, मेघु रजवार, लीला मुसहर, गुनी कहार, गछमा कहार, गणपत सेवक, मनोहर (चमार), जेहल मुसहर, मेघन रजवार। 

 गया और जिवधर सिंह 

3 अगस्त 1857 से लेकर, करीब दस दिनो तक गया आजाद रहा। विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों की कचहरी-दफ्तर सब कुछ जला दिया। जेलखाना तोड़ दिया गया। अंग्रेज़ गया किले मे घुस गये। विद्रोहियों ने कई बार किले की घेराबंदी की। 8 सितंबर 1857 को अंग्रेज़ो और विद्रोहियों मे भिड़ंत हुई, जिसमे अंग्रेज़ो को भारी क्षति पहुंची। 

1857 की लड़ाई मे गया, नवादा, जहानाबाद, अरवल और औरंगाबाद मे अंग्रेज़ विरोधी लड़ाई के प्रमुख किरदार भूमिहार-ब्राहमण जिवधर सिंह थे। बिक्रम थाना क्षेत्र में जिवधर के भाई हेतम सिंह ने विद्रोह का झंडा बुलंद रखा। एक समय था जब आधे जिले पर जिवधर सिंह का सिक्का चलता था। कलपा के राम सहाय सिंह, सिद्धि सिंह और जागा सिंह, जिवधर सिंह के प्रमुख सहयोगी थे। टेहटा की सारी अफीम एजंसियों को जिवधर सिंह ने कब्ज़े मे कर लीं। जिवधर सिंह ने नालंदा मे हिल्सा तक कब्ज़ा जमाया। अंग्रेज़ो ने कालपा, टेहटा और कई गांव के गांव जला दिये। 

कंपनी-अंग्रेज़ राज के खात्मे के ऐलान के साथ, जिवधर सिंह ने कर वसूली की सामांतर व्यवस्था कायम की, जिससे किसानो को राहत मिली। वहीं सामंत वर्ग पर अंकुश लगा। अरवल, अनछा, मनोरा और औरंगाबाद के सीरीस परगने मे गरीब-भूमिहीन किसानो मे भूमि वितरण हुआ। 

29 जून 1858 को मद्रास आर्मी की बड़ी टुकड़ी जिवधर सिंह के खिलाफ भेजी गई। जिवधर सिंह पुनपुन नदी पार निकल गये। निमवां गांव मे विद्रोहियों ने अंग्रेज़ फौज को ऐसा रोका कि तीन अंग्रेज़ अफसर मारे गये! एक छोटे से गांव से अंग्रेज़ों ने ऐसे प्रतिरोध की उम्मीद नही की थी। 

अरवल घाट की लड़ाई मे भी अंग्रेज़ मात खा गये। जहानाबाद के दरोगा को जिवधर सिंह ने मार कर उसकी लाश को टांग दिया। 

अंग्रेज़ों ने जिवधर सिंह के गांव खोमैनी पर अंग्रेज़ों ने हमला किया। यहां भी जिवधर सिंह अंग्रेज़ों को हराने मे सफल रहे।  

सरयूपारी ब्राहमण लाल भूखंद मिश्र जिवधर सिंह के एक कमांडर थे। उस समय बिहार मे कान्यकुब्जों के मुकाबले, सरयूपारी संख्या मे कम थे। लाल भूखंद मिश्र बहादुरी से लड़ते हुऐ, वीरगति को प्राप्त हुऐ। 

जिवधर सिंह का पीछा अंग्रेज़ों ने पलामू के अंटारी गांव तक किया। पलामू मे क्रांति का नेतृत्व भूमिहार ब्राहमण नीलांबर-पीतांबर शाही और और चेरो जन जाति के सरदार कर रहे थे। 

जिवधर सिंह दाऊदनगर और पालीगंज तक लड़े। अनेक अंग्रेज़ बरकंदाज़ों और प्लांटरों को मार गिराया। अंग्रेज़ परस्त सामंत उनके खौफ से भाग खड़े हुऐ। आर. सोलांगो इंडिगो प्लांटर की पटना और गया-जहानाबाद मे फैक्ट्रियों को जला दिया गया। जिवधर सिंह ने शेरघाटी को liberated zone बनाया और कई वर्षो तक युद्ध किया।

झारखंड/छोटा नागपुर

वर्तमान झारखंड 1857 मे छोटा नागपुर ऐजंसी के रूप मे जाना जाता था। दानापुर, शाहबाद, सुगौली, सारण, सिवान, मुज़फ्फ़रपुर, भागलपुर, गया आदि मे विद्रोह का सीधा असर छोटा नागपुर मे पड़ा। 

इस इलाके मे 8वी पैदल सेना, जिसने 7वी, 40वी के साथ, 25 जुलाई को दानापुर मे विद्रोह कर बिहार मे अंग्रेज़-विरोधी लड़ाई की बागडोर राजा कुंवर सिंह के हाथ सौंपी, की एक टुकड़ी, हज़ारीबाग मे तैनात थी। बाकी चायबासा, पुरुलिया, रांची और संभलपुर मे रामगढ़ बटालियन सबसे बड़ी ताकत थी। 

रामगढ़ बटालियन मे भागलपुर, मुंगेर, सारण, शाहबाद-आरा-बक्सर और मगध के सिपाही ज़्यादा थे। 

30 जुलाई को हज़ारीबाग मे 8वी रेजीमेंट की टुकड़ी ने हज़ारीबाग मे विद्रोह किया। जेल से कैदियों की रिहाई और अंग्रेज़ी खज़ाने को कब्ज़े मे लेने के बाद, हज़ारीबाग के विद्रोही रांची की तरफ चले। उधर रांची से रामगढ़ बटालियन की टुकड़ी ले कर, अंग्रेज़ अफसर हज़ारीबाग के विद्रोह को कुचलने निकल पड़ा। पर बीच ही मे, रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया! बुरमू मे रामगढ़ बटालियन और हज़ारीबाग के सिपाही मिले--और दोनो रांची की ओर चल दिये! 

रांची पहुचते ही वहां मौजूद रामगढ़ बटालियन के बाकी सिपाहियों ने भी विद्रोह कर दिया। जल्द ही, विश्वनाथ साही के नेतृत्व मे रांची क्रांतिकारी सरकार की स्थापना हुई। 

विश्वनाथ साही जाति के भूमिहार थे। विकिपीडिया इत्यादी मे विश्वनाथ साही को 'नागवंशी राजपूत' कहा गया है। छोटा नागपुर मे नागवंशी राजपूत थे और हैं। 1857 मे लड़े भी। जैसे पोरहट के राजा अर्जुन सिंह जिन्होनें 1857 क्रांती की बागडोर चायबासा-सिंहभूम मे संभाली। 

अंग्रेज़ अफसर डाल्टन जो छोटा नागपुर छेत्र मे सबसे उच्च अंग्रेज़ अफसरों मे था, ने अपनी पुस्तक, Mutiny in Chota Nagpur मे साफ-साफ विश्वनाथ साही को 'बाभन' या भूमिहार ब्राहमण बताया है। बल्कि रांची मे क्रांतीकारी सेना के चीफ राय गणपत को भी 'बाभन' कहा गया है। 

विश्वनाथ साही के नेतृत्व मे सभी अंग्रेज़ विरोधी सामंतो की ज़मीन जप्त  कर, भूमिहीनो और छोटे किसानो मे बांटी गई। छोटे ज़मीदारों और किसानो पर जो अंग्रेज़ो और साहूकारों ने कर्ज़ लादा था, माफ किया गया।

रांची क्रांतिकारी सरकार ने बहादुर शाह को अपना बादशाह और राजा कुंवर सिंह को बिहार सूबे का वज़ीर घोषित किया। सैनिक मामलों का नेतृत्व शाहबाद/आरा के सिपाही माधो सिंह, रामगढ़ बटालियन के भागलपुर निवासी सूबेदार जय मंगल पांडे (कान्यकुब्ज ब्राहमण) तथा नादिर अली के हाथ मे था। योजना थी कि रांची से सीधे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हेडक्वार्टर कलकत्ता, जहां गवर्नर-जर्नल कैनिंग विराजमान था, कि ओर कूच किया जाये। कलकत्ता और दिल्ली-लखनऊ के बीच की ग्रांड ट्रंक रोड भी क्रांतिकारियों के कब्ज़े मे आ गयी।  

उड़ीसा 

हज़ारीबाग के विद्रोह के समय, संभलपुर, जो आज उड़ीसा मे है, छोटा नागपुर का हिस्सा था। संभलपुर गद्दी के अंग्रेज़ विरोधी वारिस, सुरेंद्र साही, उस समय हज़ारीबाग जेल मे थे। विद्रोहियों ने उन्हे मुक्त किया। 

सुरेंद्र साही भूमिहार ब्राहमण ही थे, जिनका राज अंग्रेज़ो ने छीन लिया था। लेकिन संभलपुर के भूमिहार, आदिवासियों के राजा थे। अंग्रेज़ अफसर डाल्टन के अनुसार, "सुरेंद्र साही कोई भगवान नही, अपतु भूमिहार ब्राहमण है, जो 17वी सदी मे उड़ीसा की तरफ पलायन कर गये थे। आदिवासियों ने इन्हे अपना देवता माना। और ये भी आदिवासियों से इतना घुल-मिल गये, कि साही की जगह 'साई' लिखने लगे--और बाद के लोगों ने इन्हे 'आदिवासी देवता' मान लिया। पर उड़ीसा के गैर-भूभिहार उत्कल ब्राहमण, जैसे पंडा, पाणिग्रही और 'मिस्र' उपाधि इस्तेमाल करने वाले उत्कल ब्राहमण, इनको ब्राहमण के रूप मे ही जानते हैं।" 

यही वजह थी कि संभलपुर मे 1864 
मे सुरेंद्र साही कि गिरफ्तारी के बाद भी, 1867 तक अंग्रेज़ विरोधी चला। आदिवासी और उड़िया ब्राहमण, पूरी तरह से इस संहर्ष मे शामिल थे। उड़ीसा की 'पटनायक' जाति भी, जो छत्रिय और कुर्मी-पटेल की बीच की सथिति मे थे, सुरेंद्र साही के नेतृत्व मे लड़ी। 

चतरा 

रांची के क्रांतीकारी सिपाहीयों के नेता, जयमंगल पांडे और नादिर अली, हिंदू-मुस्लिम एकता की अदभुत मिसाल पेश करते हुऐ, अक्टूबर 1857 मे चतरा की लड़ाई मे शहीद हो गये। 
आज भी वहां स्मारक जहां लिखा है: 
"जयमंगल पांडे नादिर अली"
दोनो सूबेदार रे
दोनो मिलकर फांसी चढ़े 
हरजीवन तालाब रे" 

माधो सिंह रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गये। 

सिंहभूमी 

नागवंशी राजपूत अर्जुन सिंह और कोल आदिवासी लड़ाकू गन्नू के नेतृत्व मे सिंहभूम और चायबासा मे 1858-59 तक अंग्रेज़-विरोधी युद्ध चलता रहा। 14 जनवरी 1858 को मोगरा नदी की लड़ाई मे कोल और अर्जुन सिंह की सेना मे मुकुंद राय के नेतृत्व मे भूमिहार लड़वैय्ये जुड़ गये। 

मोगरा नदी की लड़ाई मे अंग्रेज़ अफसर लशींगटन को मुंह की खानी पड़ी। अंग्रेज़ो ने सपने मे भी नही सोचा था कि वो आदिवासी कोलों, अर्जुन सिंह और मुकुंद राय की सयुंक्त सेना से हार जायेंगें। 

मानभूमि

आज के बंगाल मे स्थित मानभूम मे 5 अगस्त 1857 को वहां के रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने विद्रोह किया। पांचेट के नागवंशी राजपूत निलोमणि सिंह ने मानभूम की कमान संभाली। मानभूम के संथालों ने कई बड़े सामंतो पर हमला किया। हज़ारीबाग के संथालों ने पुनः विद्रोह किया। 

पलामू

पलामू ने एक नये अध्याय को जन्म दिया। पलामू मे दो ऐसे शख्स थे, जिन्होंने इतिहास की धारा मोड़ने मे अदभुत भूमिका निभाई। नीलांबर और पीतांबर साही भूमीहार थे। जिनका परिवार वहां के आदिवासियों के लिये संभलपुर की तरह देव तुल्य था। अक्टूबर 1857 से लेकर 1858-,59 तक, नीलांबर-पीतांबर के नेतृत्व मे भोगता, चेरो और खरवार आदिवासी जन-समूह जम कर लड़े।

पलामू की लड़ाई ने भी सामंतवाद-विरोधी रूख अपनाया। ठकुराई रघुबीर दयाल सिंह और ठकुराई किशुन दयाल सिंह पलामू के बड़े, अंग्रेज़-परस्त सामंत थे। आदिवासियों से इनकी सीधी लड़ाई थी। 

अक्टूबर 1857 मे क्रांतीकारीयों ने चैनपुर, शाहपुर और लेसलीगंज पर हमला कर दिया। नीलांबर/पीतांबर के नेतृत्व मे आदिवासी फौज ने चैनपुर मे लेफ्टिनेंट ग्राहम को घेर लिया। जब तक मेजर कोटन एक बड़ी फौज लेकर ग्राहम को बचाने नही पहुंचा, घेरेबंदी चलती। देवी बख्श राय नामका भूमिहार योद्धा इस लड़ाई मे गिरफ्तार हो गया। 

क्रांतीकारीयों ने फिर बांका और पलामू के किलों पर हमला किया। ठाकुर किशुन दयाल सिंह ने अगर गद्दारी न की होती तो बांका किला क्रांतीकारियों के कब्ज़े मे आ जाता। नकलौत मांझी भी पलामू मे एक बड़े क्रांतीकारी नेता के रूप मे उभरे। नकलौत ही शाहबाद मे जारी राजा कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह की सरपरस्ती मे चल रही लड़ाई और पलामू के बीच की कड़ी थी। भूमिहार राय टिकैत सिंह और उनके मुसलमान दीवान शेख बिखारी भी पलामू मे खूब लड़े। दोनो को एक साथ फांसी पर लटकाया गया। 

1858 के मध्य तक विश्वनाथ साही, राय गणपत, उनके सहयोगी, नीलांबर-पीतांबर साही--सभी फांसी पर चढ़ा दिये गये थे। पर आंदोलन नही रूका। 

आज़मगढ़-गाज़ीपुर-बलिया-इलाहाबाद 

उधर अप्रैल 1858 मे लखनऊ के पतन के बाद, कुंवर सिंह अपनी फौज के साथ वापिस जगदीशपुर, बिहार की ओर पलटे। अतरौलिया, आज़मगढ़ मे दो बार कुंवर सिंह की बिहारी फौज का अंग्रेज़ों की गोरी पलटनो से सामना हुआ। और दोनो बार अंग्रेज़ पराजित हुए। कुवंर सिंह ने सिकंदरपुर, बलिया के पास गंगा पार की और एक बार फिर अंग्रेज़ो को हराते हुऐ, जगशदीशपुर पहुंच कर ही दम तोड़ा। 

कुंवर सिंह के बलिया-गाज़ीपुर आगमन पर, वहां के सरयूपारी ब्राहमण, राजपूत, मुसलमान, अहीर और भूमिहार ब्राहमण सक्रिय हुए। गहमर, गाज़ीपुर के भूमिहार ब्राहमण मेघार राय ने कमान संभाली। 
गाज़ीपुर, विशेषकर जमानियाँ क्षेत्र, मार्च, 1858 तक बहुत उग्र हो गया। मेघार राय की फौज ने सैदपुर-वाराणसी सड़क की घेराबंदी कर दी और बनारस के लिए 'खतरा' बन गए। 

इस नये पूर्वांचल-संघर्ष में भूमिहार ब्राहमणों ने मेघार राय के नेतृत्व में शाहाबाद और गाजीपुर से अधिकतम लड़ाकों को संघर्ष में झोंक दिया। यहां के भूमिहार, राजपूत और पठान--तीनो--सकरवार शाखा से थे। और तीनो ही अपना संबंध कन्नौज-उन्नाव के कान्यकुब्ज ब्राहमणो से जोड़ते थे। 

भूमिहार ब्राहमणों एवम पठानों ने संग्राम सिंह के नेतृत्व में मड़ियाहूं (जौनपुर) पर धावा बोल दिया। निचलौल (गोरखपुर जिला) और सलेमपुर, देवरिया में इंडियन कैवेलरी (घुड़सवार सैनिक दस्ता और तोपखाना) अंग्रेजों के खिलाफ हो गयी। अंग्रेज़ यूनिट का नेतृत्व सर राटन कर रहा था। वहां राजपूतों तथा भूमिहार ब्राहमणों ने अफीम एजेंटों तथा अंग्रेजों का कत्ल कर दिया।

इसके बाद, दिलदारनगर संघर्ष (Dildarnagar Stand off) हुआ।  मेघार राय के साथ भूमिहार सरदार विशेषकर शिवगुलाम राय, रामप्रताप राय, शिवचरण राय, रामजीवन राय, शिवपाल राय, रोशन राय, मोहन राय तथा तिलक राय कंधे से कंधा मिला कर लड़े। 

ब्रिटिश इतिहासकारों ने अपने अभिलेखों में भूमिहार ब्राह्मणों का बहुत 'खतरनाक' एवम आक्रामक व्यक्तित्व दर्ज किया है।

उत्तर-प्रदेश और मध्य प्रदेश के जालौन, गुरसराय तथा सागर के चितपावन ब्राहमण अपने को भूमिहारों से जोड़ते थे। इनहोने भी बाजीराव प्रथम के वंशज नाना साहब के नेतृत्व मे मुसलमानो से मिल कर 1857 मे अथक संहर्ष किया। 

पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के त्यागी ब्राहमण 

1857 की क्रांती में डासना तहसील का भी महत्पूर्ण स्थान रहा है। यहां गूजरों के साथ, भूमिहारों की शाखा,
त्यागी ब्राहमणों ने फिरंगियों से लोहा लिया। अंग्रेज़ों ने त्यागी ग्रामीणों को सबक सिखाने के लिए डासना से मंसूरी तक की उनकी ज़मीन जब्त कर ब्रिटिश इंजीनियर के हाथों बेच दी। मंसूरी नहर के पास बनी ब्रिटिश हुकूमत की कोठी आज भी इसका प्रमाण है। डासना में जिस समय जमीन नीलामी के आदेश की मुनादी हो रही थी, तो बशारत अली और कुछ अन्य ग्रामीणों ने ढोल फोड़ दिया। उन्होंने लगान देने से भी इनकार कर दिया। इस पर सभी को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। 

पिलखुवा के मुकीमपुर गढ़ी और धौलाना में भी ब्रिटिशों के खिलाफ राजपूतों के साथ-साथ त्यागी भी लड़े। इसके अलावा सपनावत, हापुड़, गढ़मुक्तेश्वर, मोदीनगर क्षेत्र में त्यागी बाहुल्य गांवों में फिरंगियों के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजा। इसमे बड़ी संख्या मे मुस्लिम त्यागी भी शामिल हुए। 

सीकरी खुर्द गांव में स्थित मन्दिर परिसर में वट वृक्ष है। इस पेड़ पर लगभग 100 हिंदू और मुस्लिम त्यागी क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी गई थी। गाज़ियाबाद जिले में कैप्टन एफ एंड्रीज, सार्जेंट डब्ल्यू एमजे पर्सन, सार्जेेंट आर हेकेट, जे डेटिंग, कारपोरल प्रियर्सन, जे जेटी वगैरा की कब्र भी है। 

इलाहाबाद एवं झूंसी में विद्रोह की अगुआई मौलवी लियाकत अली तथा भूमिहार ब्राह्मण सुख राय ने की। इनके साथ मेजा और बारा क्षेत्र के भूमिहार ब्राह्मण एवम मुसलमान सिपाही थे। सुख राय का साथ राजपूतों, कुर्मियों, ब्राह्मणों, कलवारों और चमारों ने दिया था। सुख राय करछना पहुंचे और वहां पर उभार का नेतृत्व  संभाला जो 1860 तक चला 

वाराणसी, गाज़ीपुर, बलिया, जौनपुर, आज़मगढ़, यानी रूहेलखंड, अवध और पूर्वांचल मे 1857 महा-समर के दौरान, भूमिहार ब्राहमणो की लड़ाकू, अंग्रेज़-विरोधी भूमिका चिन्हित की गई थी। 

अब बिहार की तरफ बढ़ते हैं। 

25 जुलाई 1857 को दानापुर, बिहार मे बंगाल सेना की तीन रेजीमेंटो ने विद्रोह किया। इसके पहले, 12 जून को रोहिणी, देवघर मे 5वी अनियमित (irregular) घुड़सवार दस्ते (cavalry regiment) के मुसलमान सिपाहियों ने अंग्रेज़ अफसरों पर हमला बोला। देवघर मे स्थित 32वी पैदल पलटन उस समय खामोश रही। 

3 जुलाई को पटना मे मौलवी पीर अली के नेतृत्व मे एक उभार आया। लेकिन वो व्यापक स्वरूप नही पकड़ पाया। अंग्रेज़ो ने patna uprising को कुचल दिया। पटना के कमिशनर विलियम टेलर ने गांधी मैदान को लाशों से पाट दिया। औरतों और बच्चों तक को नही छोड़ा। 

दानापुर मे सेना की 7वी, 8वी और 40वी रेजीमेंट के नेता शाहबाद के हरे कृष्ण सिंह थे। ये बाबू कुंवर सिंह की तरह उज्जैनी राजपूत थे। इन तीनो पलटनो ने एक साथ विद्रोह कर दिया। 

इसमे ज़्यादातर सिपाही शाहबाद इलाके--आरा, रोहतास, कैमूर, बक्सर, भोजपुर--से थे। अब पूरे बिहार मे आग फैल गयी। बाबू कुंवर सिंह ने नेतृत्व सम्भाला और 30 जुलाई 1857 को मेजर डनबार की लीडरशिप मे पटना से आरा की ओर बढ़ती अंग्रेज़ फौज को रात के अंधेरे मे हई भंयकर लड़ाई मे शिकस्त दी। इसमे 180 से ज़यादा अंग्रेज़ सिपाही/अफसर और उनके साथ सैकड़ों सिख सिपाही मारे गये। 

सिखों का बड़ा हिस्सा कुंवर सिंह से आ मिला। 

अंग्रेज़ों की आरा की लड़ाई जैसी बुरी हार इतिहास मे शायद ही कभी हुई थी। 

30 जुलाई के बाद शिवराज और अचरज राय के नेतृत्व मे आरा-बक्सर के भूमिहार-ब्राहमणो ने कुंवर सिंह की सेना मे बड़े स्तर पर अपनी जाति विशेष की भर्ती शुरू कर दी। विंसट आयर की फौजें आरा पहुचने के बाद, गोली-बारूद की कमी के कारण, आयर से कई बार युद्ध करते हुऐ, कुंवर सिंह रीवा होते हुए, लखनऊ की तरफ कूच कर गये। 

कुंवर सिंह के लखनऊ की तरफ बढ़ने के बाद, आरा से लेकर कैमुर तक छापामार युद्ध का नेतृत्व मुखयतः भूमिहार और ग्वाला-अहीर जाति के लड़वैयों ने किया। 

सारण और तिरहुत छेत्र मे जून ही मे वारिस पठान नाम के क्रांतिकारी को अंग्रेज़ो ने पकड़ा। उस समय मे सुगौली मे 12वी अनियमित घुड़सवार पलटन तैनात थी। इसने 12 अगस्त को विद्रोह कर दिया। 

15 अगस्त को भागलपुर मे स्थित 5वी अनियमित घुड़सवार पलटन, जिसके कुछ सिपाही रोहिणी, देवघर मे फांसी पर चढ़ाये जा चुके थे, ने संपूर्ण रूप से बग़ावत कर दी। 

इधर दानापुर विद्रोह के कई भूमिहार और मुस्लिम सिपाही, कुंवर सिंह के लखनऊ कूच के बाद, तिरहुत और गया-जहानाबाद की तरफ आ धमके। 

बिहार मे अब civil rebellion यानी सिपाहियों से इतर, लेकिन उनके मार्गदर्शन मे, नागरिकों और किसानो का विद्रोह शुरू हो गया।

सारन, छपरा, गोपालगंज, महराजगंज और सिवान मे महाबोधी राय, रामू कोईरी और छप्पन खान ने संभाला। इनके साथ पासवान, अहीर, कुर्मी और चमार बिरादरी के लड़ाकों का बड़ा हिस्सा था। महाबोधी राय अपनी हाथी ब्रिगेड के लिये प्रसिद्ध थे। अंग्रेज़ परस्त ज़मीदारो को वो हाथी से कुचलवाते थे। 

तिरहुत मे अंग्रेज़ों की अफीम और नील की कोठियां थी। 1857 में नील की कोठियों में कितनी पूंजी लगी थी, इसका अंदाजा दानापुर के कमांडर ब्रिगेडियर क्रिस्टी के इस पत्र से होता है जो उसने पटना के कमीशनर को लिखा था। उसने कहा था कि "तिरहुत और चंपारण जिले नील के उन कारखानों से भरे पड़े हैं, जो डाई की पैदावार शुरू ही करने वाले हैं। इन दो जिलों में इतनी पूंजी लगी है, जितनी देश के किसी हिस्से में नहीं लगी है। इसलिए अगर विद्रोहियों की मौजूदगी की वजह से इन दो जिलों में अराजकता फैलती है तो इसके परिणाम बहुत भयावह होंगे।"

मुज़फ्फ़रपुर जिले के बड़कागांव ने 1857-1858 मे अदभुत वीरता दिखाई। वारिस पठान भी इसी इलाके के थे। 

बड़कागांव मे 80% से ज़्यादा भूमिहार-ब्राहमण आबादी थी। इस इलाके के जांबाज़ो ने धरमपुर-तरियानी परगना के ग्वालों और मुसलमानो से मिलकर तिरहुत के बड़े हिस्से को अंग्रेज़ो से मुक्त कराया। कैमुर-शाहबाद और सारण के छापामारों से संबंध बनाये रखा। और कलकत्ता से लखनऊ की तरफ बढ़ती हुई ब्रिटिश फौजों को पटना से आगे नही बढ़ने दिया। 

बड़कागांव और तिरहुत 1858 तक लड़ता रहा। नीलहों, अंग्रेज़ व किसानों में रस्साकशी चलती रही।

अंग्रेज़ो ने इतने ज़ुल्म ढाये कि बड़कागांव का नाम आज तक लोग कम ही लेते हैं। 

अंग्रेज़ी persecution से बचने के लिये इस गांव का नाम पछियारी पड़ गया। 

बड़कागांव संघर्ष मे भूमिहार, जो शाही या साही सरनेम लिखते थे, मुख्य भूमिका मे थे ... यहां के लड़वैयों की सूची चौंका देने वाली है:
 
1. रामदीन शाही
2. केदई शाही
3. छद्दु शाही
4. कृष्णा शाही
5. नथु शाही 
6. छटठु शाही 
7. हंसराज शाही 
8. शोभा शाही 
9. बैजनाथ तिवारी (कान्यकुब्ज ब्राहमण)
10. तिलक शाही
11. पुनदेव शाही 
12. कीर्तिन शाही 
13. छतरधारी शाही
14. दर्शन शाही
15. रौशन शाही 
16. तिलक तिवारी (कान्यकुब्ज ब्राहमण)
17. मो. शेख कुर्बान अली 
 18. शिवटहल कुर्मी 

धरमपुर तरियानी परगना के: 
1. भागीरथ ग्वाला 
2. राधनी ग्वाला 
3. राज गोपाल ग्वाला
4. तूफानी ग्वाला 
5. रणजीत ग्वाला 
6. संतोषी ग्वाला 
7. खीरासी खान पठान 
8. बन्टूखी ग्वाला 
9. रामटहल ग्वाला



अवध से लेकर मगध-झारखंड-- पूरबियों की धरती है। भारत को आज़ाद कराने की पूरी मुहिम पूरबियों ने ही चलाई। पूरबिये सभी धर्म-जाति के हैं। दरअसल ये एक कौम और मिनी-राष्ट्रीयता है।
1857 मे पूरबियों का मिलन पश्चिमियों--हरियाणा और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के हिंदू-मुसलमानो--से हुआ। और इस्ट इंडिया कंपनी का खात्मा हुआ।

मुगल काल से ही भूमिहारों को 'भूमिहार ब्राहमण' कहा गया। इसके प्रमाण आईने-अकबरी मे मिलते हैं। बिहार के मगध और तिरहुत इलाके से मुगल सेना के लिये यहां से भारी मात्रा मे सैनिक जाते थे।
'कवि विद्यापति और बिहारी साहित्य' पर OUP द्वारा प्रकाशित, पंकज झा की किताब, तथा अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य, साफ करते हैं कि तिरहुत इलाके के भूमिहार-ब्राहमण मगध की तरफ बढ़े और जंगल साफ कर झारखण्ड और उड़ीसा की ज़मीन को खेती लायक बनाया।

ये प्रक्रिया अकबर के जीते जी काफी हद तक पूरी हो गयी थी। अकबर के ज़माने से भू-कर देने वालों मे भूमिहार नही, बल्कि भूमिहार-ब्राहमण दर्ज है। और ये उड़ीसा के कुछ हिस्से तक फ़ैलें हैं।
अकबर के नौरतनों मे से एक, कान्यकुब्ज ब्राहमण बीरबल तिवारी, की वंशावली मे इस बात का ज़िक्र है कि पंच गौड़ मे कान्यकुब्ज ब्राहमण सबसे प्राचीन हैं। सरयूपारी (मंगल पांडे सरयूपारी थे) भी प्राचीन हैं--पर कान्यकुब्ज ब्राहमणो की उपशाखा हैं। और भूमिहार ब्राहमण कान्यकुब्जों की सबसे नवीनतम शाखा है।
बहरहाल, 1857 मे बंगाल ईस्ट इंडिया कंपनी सेना मे 40% प्राचीन कान्यकुब्ज, सरयूपारी और भूमिहार ब्राहमण, 20% राजपूत, 20% मुस्लिम और 20% आज की पिछड़ी-दलित जातियों के सिपाही थे। पैदल और घुड़सवार मिला कर सेना की संख्या 1 लाख, 30 हज़ार थी।
आज तक इतिहास मे ये बात दबी है कि 31 मई 1857 को शाहजहांपुर मे क्रांति का नेतृत्व जवाहर राय नाम के भूमिहार ब्राहमण ने किया था, जो जिला आज़मगढ़ से थे। जवाहर राय ने अन्य ब्राहमण, मुस्लिम और दलित सिपाहियों से मिल कर चर्च मे ऐसा कत्ले-आम मचाया कि पूरे रोहिलखंड मे अंग्रेज़ी राज की चूलें हिल गयीं।
3 जून को आज़मगढ़ मे भोंदू सिंह अहीर के नेतृत्व मे 17वी रेजीमेंट ने अंग्रेज़ी राज उखाड़ फेंका।
4 जून को 37वी रेजीमेंट ने बनारस मे, कान्यकुब्ज ब्राहमण गिरिजा शंकर त्रिवेदी के नेतृत्व मे विद्रोह किया।
15 जून को 17वी की एक टुकड़ी ने सिकंदरपुर, बलिया मे विद्रोह किया।
17वी के दो सिपाही--शंकर और भूमि राय--गाज़ीपुर के भूमिहार ब्राहमण थे।
गहमर, गाज़ीपुर के कई भूमिहार ब्राहमण, काशी नरेश के समर्थक थे। काशी नरेश, जो खुद भूमिहार-ब्राहमण कहलाते थे, तब तक अंग्रेज़ो के साथ थे।
शंकर और भूमि राय उनके पास पहुंचे। राजा ने अंग्रेज़ो के खिलाफ विद्रोह करने से इंकार किया। और शंकर और भूमि राय से कहा कि उनको मुसलमान बहादुर शाह ज़फर का साथ नही देना चाहिये। इस बात पर दोनो सिपाहियों ने राजा के गले पे तलवार रख दी और कहा कि बहादुर शाह ज़फर को हिंदू धर्मगुरूओं ने बादशाह माना है। और सवाल यहां देश को अंग्रेज़ो से आज़ाद कराना है--जिन्होंने भारत को कंगाल कर दिया।
शंकर और भूमि राय ने काशी नरेश को याद दिलाया कि उन्ही के पूर्वज राजा चेत सिंह ने 1770s मे ब्रिटिश गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग के छक्के छुड़ा दिये थे। और 
हुस्सेपुर, सारन (बिहार) के राजा, भूमिहार-ब्राहमण फतेह बहादुर शाही, ने तो 1765 मे बक्सर की लड़ाई के बाद, अंग्रेज़ो के खिलाफ ऐसा गुरिल्ला युद्ध छेड़ा, जो 1790s तक चला।
मामला यहां तक आ पहुंचा कि भूमिहार ब्राह्मण सिपाहिगण काशी नरेश के विरूद्ध सशत्र संघर्ष पर आमादा हो गए। काशी नरेश मान गए कि वह क्रांति के दौरान तटस्थ रहेंगे।
बनारस से भदोही तक मोने राजपूत, जिनसे काशी नरेश की 18वी सदी से लड़ाई थी, खुल कर अंग्रेज़ो से लोहा ले रहे थे। शंकर और भूमि राय ने काशी नरेश को मोना राजपूतों से समझौता करने पर मजबूर किया।
मोना राजपूतों और भूमिहारों ने फिर नील कंपनियों के अंग्रेज़ मालिक, जो किसानो का शोषण करते थे, के खिलाफ भंयकर युद्ध छेड़ दिया। कई नील मालिकों का सर धड़ से अलग कर, भदोही-बनारस मे घुमाया गया। ब्रिटिश खजाने को लूट लिया गया। अंग्रेजों के बंगले जला दिए गए।
आजमगढ़ तथा बलिया के अंग्रेज अधिकारी और निलहे जमींदार गाजीपुर में शरण लिए हुए थे, तभी सेना की 65वी रेजीमेंट ने गाज़ीपुर में विद्रोह कर दिया। इस रेजीमेंट के अधिकाधिक सैनिक भूमिहार ब्राह्मण थे। इन सिपाहियों ने क्षेत्र के भूमिहार ब्राह्मणों को अपने पक्ष में कर लिया और अंग्रेजों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। अचरज राय, शिवराज राय, बोदी राय, बालक राय और देवी राय ने इसका नेतृत्व किया।
शिवराज राय ने अंग्रेज़ रोबर्ट स्मिथ कुम्ब को बक्सर भगा दिया। फलस्वरूप भूमिहार ब्राह्मणों तथा राजपूतों ने भदौरा तथा चौसा स्थित अंग्रेजों के नील कारखानों में आग लगा दी। उन्होंने अंग्रेजों के सभी प्रतीकों को मिटा दिया।
अंग्रेज़ कुम्ब की ज़मीन भूमिहार ब्राह्मणों तथा दलित-चमारों में बांट दी गयी।
भूमिहार ब्राह्मणों की प्रोपगंडा पार्टी ने इस घटना को देवरिया, चंपारण, बेतिया तथा छपरा तक फैला दिया गया जिससे क्रांति और भड़क गई।
यह प्रकरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे साफ होता है कि किसान वर्ग से आये भूमिहार-ब्राहमण क्रांतिकारी थे और सामंत वर्ग वाले यथास्थितवादी।
20वी सदी मे यह फर्क फिर सामने आया जब सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व मे किसान भूमिहार-ब्राहमणो ने अंग्रेज़ी-सामंती प्रथा के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया और प्रगतिशील आंदोलन की रीढ़ बने!

Great Brahman Female Queen and Warriors



#Great_Brahman_Female_ #Queen__and_Warriors : 👇👇👑🐆💪

1. रानी लक्ष्मी बाई : झाँसी की रानी। किसी परिचय की मोहताज नही। 1857 में 2 ब्राह्मण शूरवीर राजाओं राजे नानासाहेब पेशवा और राजे तांत्या टोपे के साथ मिलकर विद्रोह को खड़ा किया और शहीदी ली युद्ध के मैदान में। 

2. रानी  चेनम्मा : केट्टुर की रानी। शिवाजी की बड़ी सहायक थीं। कई युद्धों में छत्रपति शिवाजी के साथ मिलकर लड़ीं। बाद में पेशवा के साथ भी मुगलों के खिलाफ युद्ध जारी रखा और युद्ध में शहीद हुईं। 

3. रानी लक्षिमा सिंह : मिथिला के भूमिहार ब्राह्मण वंश के महाराज शिवा सिंह की पत्नी और राजा ठाकुरनाथ सिंह की बहु। शिवा सिंह की युद्ध में मृत्यु के बाद राज पाट सम्भाला। जौनपुर के इस्लामिक शासक को पराजित किया। 

4. कल्पना दत्त जोशी : भारत के इतिहास की महान क्रन्तिकारी। आज़ादी के आंदोलन में अतुलनीय योगदान। विद्रोह के आरोप में अँगरेज़ सरकार से उम्र कैद की सजा हुई। 

5. प्रीतलता वद्देदार : वैद गोत्र की बंगाली ब्राह्मण। सूर्या सेन के क्रन्तिकारी संगठन से जुडी। हथियारबन्द विद्रोह। जलालाबाद काण्ड के समय बम्ब बनाने में नाम सामने आया। फांसी की सजा मिली और शहीदी ली देश के लिए। 

6. नीरजा भनोट : पंजाबी ब्राह्मण। फ्लाइट आतंकवादियों ने अगवा की तो 300 से अधिक यात्रियों की जान अपने साहस और सूझ बुझ से बचाई। सबको जहाज से उतारा और खुद अंत तक नही निकलीं। लाहौर में शहीद हुईं। आतंकवादी ने गोली मारी। पाकिस्तान सरकार ने निशान ऐ पाकिस्तान सम्मान से सम्मानित किया। नीरजा फ़िल्म बनी।

7. कैप्टन अवनि चतुर्वेदी : भारतीय वायुसेना की पहली महिला फाइटर पायलट बनने का गौरव प्राप्त किया।  

8. लेफ्टिनेंट तनुश्री पारिख : भारतीय सेना की प्रथम महिला combat फाइटर 

ऐसी शहादतों और कुर्बानियों की लिस्ट कभी ना खत्म होने वाली है। 
इनके अलावा खेलों में देश का गौरव बढ़ाने वाली PV सिंधु, कर्णम मल्लेश्वरी (दोनों ओलंपिक मेडलिस्ट), अंजलि भागवत (CWG मेडलिस्ट), रश्मि चक्रवर्ती, शिखा शर्मा, झूलन गोस्वामी (दुनिया की सबसे तेज महिला गेंदबाज) आदि बहुत नाम हैं। ऐसे ही isro और nasa से जुड़ीं बहुत सी ब्राह्मण महिलाएं हैं जिन्हें अपने अपने क्षेत्र में बड़े बड़े पुरुस्कार मिले हैं। अभी हाल ही में डाक्टर शाहवना पण्ड्या जो एक गुजरती ब्राह्मण परिवार से हैं, इनका छोटी सी आयु में सेलेक्शन नासा के अगले space mission के लिए हुआ है।

उन माओं को भी सलाम है जिनकी छाँव में पलकर ब्राह्मण सम्राट पुष्यमित्र शुंग
ब्राह्मण महाराजा अग्निमित्र शुंग
ब्राह्मण  सम्राट हेमू विक्रमादित्य
ब्राह्मण सदाशिव राव भाऊ
ब्राह्मण सम्राट गौतमीपुत्र सातकर्णी 
ब्राह्मण सम्राट बाजीराव पेशवा
ब्राह्मण सम्राट दाहीर सेन जैसे राजे, चन्द्रशेखर आज़ाद , बिस्मिल, राजगुरु, चापेकर बन्धु जैसे महान ब्राह्मण बीर योद्धा  हुए।  ब्राह्मण,ब्राह्मणी योद्धाओं की जय हो

🙏🏻🙏#जय_श्री_परशुराम 👑🙏🏻🙏🏻

Brahmin Pandit Warriors



#आल्हा_ऊदल_जयंती_विशेष
 #बलभद्र_तिवारी_सेनापति
👑कान्यकुब्ज योद्धा ब्राह्मण 👑??
 #बलभद्र_तिवारी।।
महान योद्धा आल्हा ऊदल के सेनापति!!
आल्हा उदल के सेनापति बलभद्र तिवारी जो कान्यकुब्ज और कश्यप गोत्र के थे!!
कान्यकुब्ज ब्राह्मण का एक बड़ा भाग पुरोहित का कार्य नहीं करता था और इसी कुल में जन्म लिए बलभद्र तिवारी जन्म से ही उनकी कुंडली देखकर ज्योतिषियों ने कहा था इस बालक का लक्षण देखकर लगता नहीं की पुरोहितों का कार्य करेगा लेकिन यह बालक जरूर किसी रियासतों में ही रहेगा और उनकी भविष्यवाणी सही  हुई और इन्होंने चंदेल वंश के राजा महोबा के रियासत में ही  आल्हा उदल के ही साथ रहे और उनकी सेना का नेतृत्व किया और इनकी मित्रता आल्हा उदल से हुई और इनकी मित्रता काफी गहरी थी!!  और यह पहली बार नहीं है  इस तरह के इतिहास ऐसे उधारणों से भरा हुआ है ब्राह्मणों ने पुरोहित का कार्य छोड़कर शस्त्र धारण किया और इसी क्रम में जब पृथ्वीराज चौहान के काल का एक उदाहरण पृथ्वीराज चौहान और महोबा के चंदेल वंश के राजा के साथ आल्हा, ऊदल की आखिरी लड़ाई पृथ्वीराज चौहान से हुई हुई थी।
आल्हा ऊदल के साथ  बलभद्र तिवारी ने चंदेल वंश के राजा के सेनापति के रूप में कार्यभार संभाला और इस युद्ध में उन्होंने आल्हा उदल के साथ कंधे से कंधे मिलाकर युद्ध लड़ा और इस युद्ध में जब उदल की मौत हुई यह देख कर बलभद्र तिवारी जी बहुत गुस्से में आ गए और वह पृथ्वीराज चौहान के सेना पर काल बनकर  टूट पड़े और जब उन्होंने पृथ्वीराज चौहान की सेना पर हमला किया तो पृथ्वीराज चौहान के परम मित्र संजम भी महोबा की इसी लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान की तरफ से उनकी सेना का नेतृत्व कर रहे थे बलभद्र तिवारी  और संजम की भी भिड़ंत हुई और इस युद्ध में बलभद्र तिवारी ने पराक्रम दिखाते हुए  पृथ्वीराज चौहान के परम मित्र  संजम को  मार गिराया जिससे कुछ देर के लिए पृथ्वीराज चौहान भी इनकी वीरता देखकर अचंभित हो गया और इस युद्ध का परिणाम जो भी हो लेकिन ब्राह्मणों ने सदा ही कर्तव्य का पालन किया है और जिसका नमक खाया है उसका कर्ज़ उतार दिया है !!  इस तरह के अनेक उदाहरण है बलभद्र तिवारी  जैसे योद्धा ब्राह्मणों के वंशज ....कान्यकुब्ज की.....अयाचक ब्राह्मण शाखा बन गए।।

( कान्यकुब्ज अयाचक ब्राह्मण )

#जय_श्री_हरि_परशुराम ! #जय_श्री_दत्तात्रेय_भगवान!

Brahmin Pandit Don



डकैतो के गुरू #रामआसरे_तिवारी (फक्कड) ✨
 ब्राह्मण ने जब जब हथियार उठाए है लोगो के दिल दहलाए है 💪
बीस साल तक चंबल के बीहड़ों में आतंक का पर्याय रहे कुख्यात डकैत रामआसरे तिवारी उर्फ फक्कड़़ सलाखों से बाहर आकर समाज की मुख्यधारा में आने की संभावना क्षीण होती जा रही है। 2003 में गिरोह के मुख्य सदस्यों के साथ मध्यप्रदेश के रावतपुराधाम में आत्म समर्पण करने के बाद से ही फक्कड़ जेल में हैं। गवाहों के कोर्ट में हाजिर नहीं होने या फिर मुकरने की वजह से दुर्र्दात डकैत मुकदमों में धड़ाधड़ बरी हो रहा था लेकिन सिरसा कलार थाना क्षेत्र के ग्राम गिगौरा में सत्रह साल पहले उसके द्वारा किए गए पिता - पुत्र के अपहरण के मामले में वादी ने गवाही देने का साहस किया। जिसके चलते विशेष सत्र न्यायालय ने रामआसरे कुसुमा नाइन और गिरोह के एक सदस्य को उम्रकैद की सजा सुना दी है।

डाकू से साधू का चोला ओढ़ने वाला यह डकैत गुनाहों की सजा तय होने से विचलित है। खौफ उसके चेहरे पर साफ झलकता है। रामआसरे तिवारी तिवारी उर्फ फक्कड़ ने 1982 में गिरोह गठित किया। करीब 22 साल उसने बीहड़ में समानांतर सरकार चलाई। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीन-तीन राज्यों की पुलिस उसकी घेराबंदी में लगी रही। करोड़ों रुपये गिरोह को नेस्तनाबूत करने की योजना में खर्च हो गए लेकिन पुलिस उसकी परछाई तक नहीं छू पाई। उम्र के आखिरी पड़ाव में रामआसरे उर्फ फक्कड़ ने हथियार डालने का निर्णय लिया। चूंकि मध्य प्रदेश में उसके खिलाफ कम मुकदमे दर्ज थे लिहाजा उसकी गिरफ्तारी का श्रेय लेने के लिए मध्यप्रदेश पुलिस के आला अधिकारियों से उसका गुप्त समझौता हुआ। परिवार वालों के शस्त्र लाइसेंस, सामान्य कैदियों से अलग सहूलियतें और मंदिर में रखने जैसी तमाम शर्र्ते पूरी करने का भरोसा मिलने के बाद वर्ष 2003 में रामआसरे उर्फ फक्कड़़, कुसुमा नाइन समेत गिरोह के छह सदस्यों ने रावतपुरा धाम में मध्य प्रदेश पुलिस के अधिकारियों के समक्ष समर्पण कर दिया। परंतु उसके गुनाहों की फेहरिस्त में अपहरण, हत्या, पुलिस मुठभेड़, गैंगस्टर के 103 मुकदमे दर्ज थे। 90 मुकदमे कुसुमा नाइन के खिलाफ दर्ज हैं। ज्यादातर मुकदमे जालौन, इटावा, औरैया, कानपुर देहात और आगरा जनपद में दर्ज होने के कारण रामआसरे और कुसुमा नाइन को ग्वालियर से उरई जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। इसके साथ ही वे सभी सहूलियतें काट दी

Brahmins Pandits Sena ( Ranveer Sena )



#आधुनिक_भारत_के_परशुराम_बाबा_बरहमेश्वर

अभी देश को आजद हुए दो वर्ष ही हुए थे दसवें महिने के 22 तारीख 1949 ये दिन बिहार के संदेश पाँचायत के खोपिरा गावँ के लिये दिवाली जैसा था!!

गावँ के जमींदार और मुखिया बाबू रामबालक सिंह जी के यँहा आधुनिक भारत के परशुराम और गावँ वालों के लिये छोटे मुखिया और बरहमेश्वर दादा ने जन्म लिया था!!

नाम रखा गया बरहमेश्वर नाथ सिंह !!

बरहमेश्वर दादा से उनकी 1 बड़ी बहन थी बाद में दादा के 2 छोटे भाई भी हुए!!

जिंदगी ने छोटी से उम्र में ही कसौटी पर तोलना सुरु कर दिया जब दादा 4 से 5 साल के थे तब उनकी माता जी ने उनको उस रूम में सुला दिया जिस में अनाजों के बोरे रखे गए थे!!

अनाज की सारी बोरिया दादा के ऊपर गिर गयी लेकिन वो सकुशल बच गये बचते कैसे नही आधुनिक भारत के परशुराम जो थे!!

उनका लालन पालन गावँ में ही हुआ उन्होंने प्रथमिक शिक्षा पास के ही बेलऊर मध्य विद्यालय से प्राप्त किया !!

बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के मालिक थे हमेशा क्लास में अग्रणी आते थे!!

माध्यमिक शिक्षा के बाद वो उच्च शिक्षा आगे के शिक्षा के लिये वो आरा गए  जँहा से कुछ दिनों के पश्चात उनके मौसा जी उनको उच्च शिक्षा के लिये पटना लेकर चले गए!!

उन्होंने दसवीं की परीक्षा HD हरप्रसाद दास जैन कॉलेज से किया!!

इसके बाद बरहमेश्वर नाथ जी ने 11वीं में साइंस से पढ़ाई से पटना के सर ZD कॉलेज पाटलिपुत्र में एडमिशन लिया और 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से उतीर्ण हुए!!

अब तक उनके मन ने देश की सेवा सैनिक बन कर करने की भावना ने दृढ़ संकल्प कर लिया था!!

17 साल की उम्र में दादा N D A के परीक्षा में बैठे और उन्होंने परीक्षा पूरी तरह तय कर ली उनका वायु सेना में बिहार का पहला ऑफिसर बनना तय था लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था !!

उनको तो सदी के सबसे बड़े महानायक और किसान नेता के रूप में स्थापित करने की तैयारी थी नियति की!!

इसी वर्ष आपसी रंजिश के एक मुकदमे में दादा का नाम डाल दिया गया!!

और इस अंधे कानून ने देश सेवा से ओत प्रोत एक 17 साल के नाबालिक बच्चे को जेल भेज दिया!!

इन्ही कारणों से बरहमेश्वर नाथ सिंह जी का वायु सेना में जाने का सपना और उनकी दिन रात की मेहनत बेरंग हो गई!! 

इसी साल वो जेल से बाहर निकले और संदेश पँचायत के लोगों ने सर्वसम्मति से यानी निर्विरोध मुखिया चुन कर अपने छोटे मुखिया को ब्ररहमेश्वर मुखिया बना दिया!!

ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह पूरे बिहार के सब से कम उम्र में मुखिया बन चुके थे वो भी मात्र 17 साल की उम्र में !!

आपको उम्र में टेक्निकल गरबर लेगगा लेकिन उनका सोर्टफिकेट उम्र उनके वास्तविक उम्र से लगभग दो साल जयदा था जो नई नई आजादी पाए देश मे एक सामान्य सी बात थी!!

ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह अब संदेश प्रखंड के खोपिरा पंचायत के साथ साथ अन्य आस पास के जगहों में अपनी न्याय करने की क्षमता और न्याय के लिये किसी भी चट्टान से टकराजाना लोकप्रिय होने लगे !!

उन्होंने अपने पँचायत में दारू गाजा ताश जुआ आदि पर पूर्णतया रोक लगा दी !!

जब कुछ सरकारी कोटे से बटने के लिये आता तो ब्रह्मेश्वर  दादा उनको हमेशा गरीबों के बीच मे बाँटते जिस में वो दलितों का खास ख्याल रखते और हमेशा किसी भी योजना में वो घर से कुछ न कुछ लगा कर खर्च करते!!

एक बार मुखिया लोगों की BDO के साथ मीटिंग चल रही थी जँहा पर किसी अन्य प्रखंड के मुखिया के साथ BDO ने अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया बदले में ब्रह्मेश्वर दादा ने उसे वँही पर पिट दिया!!

यँहा पर उनका प्रतिकार जाती के कारण नही न्याय अन्याय के कारण था बाद में दादा को इस केस में भी जेल जाना पड़ा!!

उन्होंने मुखिया रहते हुए बहुत से आदर्श स्थापित किये जो आज भी किसी नेता के लिये असंभव ही है!!

उन्होंने अपने जवानी के दिनों में जब नक्सल आंदोलन का कोई नाम निशान नही था तब बहुत से ऐसे कार्य किये जो ब्रह्मेश्वर दादा के वास्तविक चरित्र को पहचानने में आपकि मद्दत कर सकते हैं!!

दादा ने मुखिया रहते खोपिरा माध्यमिक स्कूल का निर्माण करबाया खोपिरा पँचायत भवन का निर्माण करवाया साथ मे यात्रियों के ठहरने के लिये भगवानपुर में एक ठहराव केंद्र बनाया जिसमे उन्होंने खुद के देख रेख में घर से टेंडर से ज्यादा पैसे लगा कर इन सब का निर्माण कराया!!

जब कभी देवभूमि जाने का मन हो तो खोपिरा जरूर जाइये आपके सबसे बड़े देवता के क्रर्मों से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा उनकी ईमानदारी और दूरदर्शिता का एक बहुत बड़ा प्रमाण खोपिरा माध्यमिक विद्यालय है जो उनके जवानी के दिनों से लेकर आज तक वैसे का वैसा खड़ा है!!

जबकि उनके श्राद्ध कर्म से 1 दिन पहले वँहा पर अग्नि कांड हुआ था जिसमें 21 सिलेंडर फट गए थे!!

छोटी से उम्र में ही ब्रह्मेश्वर दादा अपने साहस न्याय और दूरदर्शीता के कारण पूरे भोजपुर में प्रशिद्ध हो गये!!

उनके पास किसानों और मजदूरों दोनो के लिये विजन था वो कृषि मजदूरों को मजदूर नही भूमिहीन किसान के नाम से बुलाते थे!!

गरीब दलित वर्ग को अपने पुत्र के समान मानते थे और वो कहते थे कि भूमिहीन किसान का देहरी किसी श्रमिक से ज्यादा होना चाहिये!!

लेकिन न्याय के देवता के रहते सवर्णों के साथ अन्याय का दौर ससस्त्र नक्सल अत्याचार सुरु हो गया जो अब खेत लूटने से बढ़ते हुए नर्षनहारों के दौर तक जा चुका था!!

ब्रह्मेश्वर दादा का कहना था हिंसा को खत्म करना ही सबसे बड़ा अंहिसा है!!

जब हिंसा सरकार और सिस्टम के द्वारा आश्रय प्राप्त हो तो उसके खिलाप चुप रहना नपुंसकता है!!

ब्राह्मणों का गैर ब्राह्मण साम्राज्य निर्माणों में योगदान





ब्राह्मणों का गैर ब्राह्मण साम्राज्य निर्माणों में योगदान :

1. जाट रियासत : जाटों की कुछ समय के लिए रही एकमात्र रियासत भरतपुर जिसके राजा हुए सूरजमल। इस रियासत को जितवाया एक ब्राह्मण दीनानाथ शर्मा ने। दीनानाथ शर्मा को सामन्त राजे पेशवा ने जयपुर भेजा था। यहां उन्होंने एक सैनिक बदन सिंह को शस्त्र में पारंगत किया और एक सेना तैयार की और फिर इतिहास ने देखा कैसे उन्होंने एक जाट का राजतिलक किया और खुद सतारा वापिस लौट गए।

2. सिख रियासत : सामन्त बाजीराव राजे पेशवे के वंशज थे राजे माधवराव पेशवे। इन्होंने ना सिर्फ ब्रज की पवित्र भूमि को मुसलमान शासकों से छुड़वाया बल्कि लाहौर में बड़ी विजय प्राप्त की । लाहौर का वो किला इन्होंने तब "मिसलों" में बंटे सिखों को दिया और यही से एक महाराजा रणजीत सिंह का शासन शुरू हुआ। सिख मिसलें एक हुईं। 

3 . राजपूत साम्राज्य : हालाँकि राजपूत हमेशा अपनी वीरता, अपने साम्राज्यों, अपने बलिदान के लिए जाने जाते रहेंगे। एमजीआर एक समय ऐसा आया जब राजपूत शक्ति आपस में लड़ लड़ कर गौण हो गयी। जब बुंदेलखण्ड की रियासत के राजा महाराज छत्रसाल सिंह की बहू बेटियां मुसलमानों के शिकंजे में आ गयीं। तब उन्होंने भारत के इतिहास के सबसे महान योद्धा सामन्त राजे बाजीराव पेशवे को याद किया। 
इतिहास ने देखा की जब बाजीराव को सन्देश मिला तो  वो भोजन कर रहे थे। भोजन को छोड़ उसे नमस्कार कर खड़े हुए बाजीराव को उनके सलाहकार ने कहा की "राजे भोजन तो पूरा कीजिये"। बाजीराव बोले "आज एक हिन्दू राजा संकट में है। बहन बेटियों की इज़्ज़त दांव पर है। अगर देर हो गयी तो इतिहास लिखेगा की ब्राह्मण भोजन करता रह गया। चलो सेना तैयार करो। 5 दिन का रास्ता 2 दिन में पूरा करेंगे"। और बाजीराव ने ऐसा ही किया। 3 दिन बाद मुगल आक्रमणकारी बंगश जिसे "कसाई" कहा जाता था मारा गया और राजपूत साम्राज्य की सुरक्षा हुई।

4. जब इस्लाम धर्म के संस्थापक मोह्हमद साहब के नवासे हुसैन और उनके परिवार को यजीदी राजा ने इराक के करबला में घेर लिया तो उनकी मदद को वहां पहुंचे भारत के "मोहयाल" ब्राह्मण ही थे। वहां इन 3000 ब्राह्मणों ने 40000 की सेना से युद्ध किया और उनके परिवार की रक्षा की परम् बलिदान देकर। इन्हें शिया "हुसैनी ब्राह्मण" कह कर भी बुलाते हैं। इसी तरह सिख धर्म के मुश्किल समय में गुरु की रक्षा को और उनके परिवार की सुरक्षा को लड़ने वाले और शहीद होने वाले बन्दा बहादुर उर्फ़ लक्ष्मण दास भारद्वाज, उनके पुत्र अजय भारद्वाज, सती दास, मति दास, दयाल दास, कृपा दत्त, भाई पराग दास, भाई मोहन दास आदि सभी पंजाबी ब्राह्मण थे।

5. ऐसे ही इतिहास देखता है की छत्रपति शिवाजी और शम्भा जी के बाद मराठा साम्राज्य ब्राह्मणों के हाथ में ही रहा। 125 साल तक पेशवा साम्राज्य छाया रहा जिसकी सीमाएं दक्षिण में हैदराबाद से पंजाब तक आ गयीं। शाहू जी को सिर्फ शिवाजी के वंशज होने के नाते और शिवाजी की इज़्ज़त के चलते सिंघासन पर बिठाये रखा गया था। पर असली कुर्सी पेशवा की थी। सारी सत्ता, सारी ताकत, सारी सेना पेशवा के एक इशारे पर हिल जाती थी। पेशवा ही निति निर्माता थे। बाहरी दुनिया पेशवा के नाम का ही खौफ खाती थी। पेशवा चाहते तो किसी भी दिन खुद छत्रपति बन जाते पर सच्चे योद्धा कभी ऐसा नही करते। 

समय आने पर महाराज ललितादित्य, सम्राट पुष्यमित्र शुंग, राजा दाहर शाह, अग्निमित्र, बाजीराव वल्लड़ पेशवे, राजा शशांक शेखर, पल्लव सूर्यवंशी, नाना साहेब , तांत्या टोपे, रानी की झांसी और ना जाने कितने ब्राह्मणों ने अपने राजतिलक स्वयं किये हैं और बार बार धर्म के राज्य की स्थापना की है तलवार के जौहर के बल पर। 

जय परशुराम। जय पेशवा।


 क्युकी मेरे पूर्वज योद्धा ब्राह्मण थे ।  पर बचपन से एक खराब आदत रही इतिहास और साहित्य पढ़ने की। इसी चक्कर में यह धुन लगी की पता किया जाए की हमारे पूर्वज असल में थे कौन। आर्यों के इतिहास से लेकर आगे पढ़ते हुए मन में ए सवाल उठता था की आखिर ब्राह्मण कौन थे और समाज में उनको इतना उँचा स्थान क्यूं प्राप्त था। आखिकार शक्ल सूरत और दिमाग में तो वो शेष लोगों की तरह ही थे फिर इतना सामाजिक सम्मान क्यूं मिला हुआ था और साथ ही साथ ब्राह्मणों की हालिया अवस्था पर क्षोभ भी होता था। वैसे तो अब ब्राह्मणों को गाली देना फैशन में शुमार है, परंतु यह बात सोचने की है की कोई भी कौम या किसी समुदाय का 1 वर्ग शेष समुदाय को हज़ारों साल तक मूर्ख नहीं बना सकता। इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा की इतिहास के किसी काल में ब्राह्मणों ने जरूर कुछ ऐसा किया होगा की उन्हे शेष समाज ने इतना उच्च स्थान दिया। ब्राह्मणों की उत्पत्ति की 2 कहानियाँ मैने पढ़ी हैं। पहली की ब्रह्ममा के 9 पुत्र थे और उन्हीं की सन्तान आगे चल कर ब्राह्मण कहलाए और दूसरी कहानी कि सप्तऋषियों ने सर्वप्रथम ब्रह्म का साक्षात्कार किया था इसलिए उनके ही संतती आगे चल कर ब्राह्मण कहलाए। जैसे-जैसे भारतीय इतिहास को पढ़ता गया वैसे वैसे ब्राह्मणों के सम्मान की वजह का बोध होता गया।
 
अगर हम भारतीय इतिहास को वैदिक काल से शुरु करें तब से आज तक के 5000 साल या उससे भी अधिक के इतिहास में धर्म, साहित्य, आध्यात्म, संगीत, राजनीति से लेकर युद्ध कौशल और सेना में और विदेशी आक्रमण से शस्त्र से लेकर और आध्यात्मिक प्रतिरोध तक हर जगह ब्राह्मणों का योगदान है। अगर वैदिक काल में जाएं तो ब्राह्मणों का मुख्या काम था आश्रमों की स्थापना और शास्त्र और शस्त्रा की शिक्षा देना (प्रायः लोग यह सोचते हैं कि ब्राह्मण सिर्फ किताबी ज्ञान देते थे वो सही नहीं है। उस समय आश्रमों में राजपुत्रों और ब्राह्मणों को शस्त्रयुद्ध कौशल की शिक्षा भी दी जाती थी और ब्राह्मण योद्धा थे जैसे आधुनिक मे भूमिहार (योद्धा ब्राह्मण समूह जो काशी नरेश की व्यवस्था मे मुगलों की जमींदार शब्द को छोड़ उसका संस्कृत पर्यायवाची भूमिहार विशेषण लिया )। महाभारत काल में द्रोण और परशुराम इसके उदाहरण हैं।
 
सोचने की बात है जो राजकुमार 25 वर्ष की उम्र तक गुरुकुल मे रहते थे वो सिर्फ शास्त्र की शिक्षा कैसे ले सकते थे ( उन्हें शस्त्रों की शिक्षा भी गुरुकुल में ही मिलती थी) पर इस शिक्षा देने के बदले में ब्राह्मणों को जीविका के लिये भिक्षावृत्ति पर ही निर्भर रहन पड़ता था। यह सामाजिक व्यवस्था इसलिए बनाई गयी थी जिससे शिक्षा व्यवसाय ना बने और शिक्षक लालची और लोभी ना होकर सबको समान रूप से ज्ञान दें। अब अगर कोई भी व्यक्ति समाज में इतना बड़ा त्याग करेगा तो उसे सम्मान मिलेगा ही।
 
वैदिक काल के ब्राह्मणों की उच्च बौद्धिक क्षमता का पता उपनिषद को पढ़कर और समझ कर लगाया जा सकता है मानव इतिहास में में इतने उच्च कोटि की आध्यत्मिक बौद्धिक क्षमता का उदाहरण और कहीं नही है। शायद भारत की अंग्रेज़ों से आज़ादी के पहले का कुछ अपवादों को छोड़कर पूरा साहित्य ब्राह्मणों के द्वारा ही लिखा गया है। इसी तरह चिकित्सा विज्ञान में आज से हज़ारों साल पहले भारत में कई जटिल ऑपरेशन किए जाते थे जिन्हें आज भी चिकित्सा विज्ञान मान्यता देता है।
 
संगीत में तन्ना पाण्डेय (तानसेन) या बैजू बावरा(बैजनाथ चतुर्वेदी) अमर नाम है। हालांकि संगीत की उत्पत्ति सामवेद से ही हो गयी थी पर इसका श्रेय भी ब्राह्मणों को जाता है। भारत पर विदेशी आक्रमण का पुराना इतिहास रहा है एक शक्तिशाली भारत के निर्माण और विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिये चाणक्य-पुष्पमित्रा से लेकर माधवाचर्या विद्यारण्या तक- और उसके बाद मुग़लकाल में भी तुलसीदास एवं अन्या संतों ने हिन्दुओं को धर्म से जुड़े रहने में अहम योगदान दिया और यह बात ब्रिटिश राज के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ किये गये संघर्ष में भी देखी जा सकती है।
 
परंतु ऐसा नही है की सब कुछ इतना ही सुन्दर और शालीन था जितना दिखता है। आप किसी व्यक्ति,वर्ग या समाज को कितना भी आदर्शवादी क्यूं ना बनाएं लोभ, मोह और स्वार्थ से सभी का ऊपर उठ पाना संभव नही होता और यही उत्तर वैदिक काल के ब्राह्मणों के साथ हुआ। पुराणों में भृगु की शिव के गणों के द्वारा दाढ़ी-मूछ उखाड़ कर अपमानित करने का जिक्र है। क्योंकि भृगु ने सत्ताधारी और धनवान दक्ष का साथ दिया था। इसी प्रकार महाभारत में द्रोणाचार्य का धन के लालच में राजगुरु बनना और कुछ विद्याओं का चोरी-छुपे सिर्फ अश्वत्थामा को ज्ञान देना इसका उदाहरण है।
 
यह बात सही है कि ऊंचाई पर बैठे व्यक्ति का चरित्र बहुत महान होना चाहिए अन्यथा उसका और समाज दोनो का पतन हो जाता है और समाज को भी आदर्शवादी और त्यागी पुरुष से सिर्फ अपेक्षा ना रखकर उसे उचित सम्मान देना चाहिये अन्यथा समाज के लिये त्याग करने वाला व्यक्ति विद्रोही और लालची हो जाता है।
 
भारतीय समाज में यहीं गलती हुई आदर्शवाद के शिखर पर बैठे ब्राह्मणों में लालच और भौतिक सुखों के मोह और उनसे सिर्फ अपेक्षा रख कर आए दिन अपमानित करने वाले समाज की वजह से सामाजिक गिरावट आई (राजा नहुष द्वारा सप्तऋषियों से पालकी उठवाने से लेकर, जमदाग्नि-रावण-वृत्तासुर की हत्या और चाणक्य को अपमानित कर राजमहल से बाहर फिंकवाने की घटनाएं और ऐसी ही बहुत सारी घटनाएं इसका उदाहरण हैं ) । यह  गिरावट हालांकि उत्तर वैदिक काल से लेकर मौर्य वंश तक कम थी परंतु उसके पश्चात बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव की वजह से नए और कठोर सामाजिक नियम बढ़ने लगे और साथ ही साथ निचली जातियों पर अत्याचार की प्रेरणा भी और यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा और मुग़ल काल में और विकृत हो गया।
 
अंग्रेजों के शासन को चाहे पूरा विश्व लाख गाली दे लेकिन अफ्रीका के जानवर रूपी मनुष्यों को इंसान बनाने से लेकर भारत के सदियों से शोषित और पीड़ित वर्ग में चेतना का जागृत करने का काम उन्हींने किया और वहीं से ब्राह्मणों के सामाजिक श्रेष्ठता के अहसास को खत्म करने की प्रभावी पहल भी। और आज़ादी के बाद लगातार अनवरत (मास प्रोपगॅंडा) से तो ऐसा ही प्रचार हुआ की इस देश की जो भी समस्या आदि काल से अभी तक हुई है वो ब्राह्मणों की ही देन है।
लगातार चल रहे दुष्प्रचारों से अपने इतिहास के साथ साथ ब्राह्मणों ने अपना आत्म सम्मान और मर्यादा भी पूरी तरह खो दी। वैसे भी ब्राह्मण कोई शारीरिक संरचना या असाधारण तीक्ष्ण बुद्धि की वजह से नही त्याग और समाज के लिए समर्पण की वजह से सम्माननीय थे ।आधुनिक भारत में की आधुनिक परिस्थितियों में ब्राम्हण कहे जाने वाले वैदिक ब्राह्मणों के संस्कारों और सम्मान का पूरि तरह लोप हो गया है। हां इस जातिय नाम की वजह से नौकरी और अन्य सरकारी सुविधाओं में जो भेदभाव का सामना करना पड रहा है वो अलग। अब यह समय ही बताएगा कि आगे चलकर समाज क्या रूप लेगा।

Monday 1 June 2020

Father of all Gangster Don Sharpshooter Badmash Most wanted Criminal One and Only Brahmin barmeshwar Singh Bhumihar ( A True Kissan Farmer and a warrior Pandit )



रणवीर सेना - भारत का उच्च जातीय संगठन हैं, जिसका मुख्य कार्य-क्षेत्र बिहार है। यह कोई आतंकवादी संगठन नहीं ब्लकि मीलिशिया है, क्योंकि यह मुख्यतः जाति आधारित भूमिहार ब्राह्मण संग़ठन है और इसका मुख्य उद्देश्य सभी प्रकार के किसानों के जमीनों की रक्षा करना है। जिन जमीनों पर नक्सलियों द्वारा अवैध कब्जा कर लिया जाता है और सवर्ण किसानों का सामुहिक नरसंहार कर दिया जाता रहा है।

रणवीर सेना की स्थापना 1994 में मध्य बिहार के भोजपुर जिले के गांव बेलाऊर में हुई। दरअसल जिले के किसान भाकपा माले (लिबरेशन) नामक नक्सली संगठन के अत्याचारों से परेशान थे और किसी विकल्प की तलाश में थे। ऐसे किसानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर छोटी-छोटी बैठकों के जरिये संगठन की रूपरेखा तैयार की। बेलाऊर के मध्य विद्यालय प्रांगण में एक बड़ी किसान रैली कर रणवीर किसान महसंघ के गठन का ऐलान किया गया। तब खोपिरा के पूर्व मुखिया बरमेश्वर सिंह, बरतियर के कांग्रेसी नेता जनार्दन राय, एकवारी के भोला सिंह, तीर्थकौल के प्रोफेसर देवेन्द्र सिंह, भटौली के गुप्तेश्वर सिंह, बेलाउर के वकील चौधरी, धनछूहां के कांग्रेसी नेता डॉ. कमलाकांत शर्मा और खण्डौल के मुखिया अवधेश कुमार सिंह ने प्रमुख भूमिका निभाई। इन लोगों ने गांव-गांव जाकर किसानों को माले के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। आरंभ में इनके साथ लाईसेंसी हथियार वाले लोग हीं जुटे। फिर अवैध हथियारों का जखीरा भी जमा होने लगा। भोजपुर में वैसे किसान आगे थे जो नक्सली की आर्थिक नाकेबंदी झेल रहे थे। जिस समय रणवीर किसान संघ बना उस वक्त भोजपुर के कई गांवो में भाकपा माले लिबरेशन ने मध्यम और लघु किसानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी लगा रखा था। करीब पांच हजार एकड़ जमीन परती पड़ी थी। खेती बारी पर रोक लगा दी गयी थी और मजदूरों को खेतों में काम करने से जबरन रोक दिया जाता था। कई गांवों में फसलें जलायी जा रही थीं और किसानों को शादी-व्याह जैसे समारोह आयोजित करने में दिक्कतें आ रही थीं । इन परिस्थितियों ने किसानों को एकजुट होकर प्रतिकार करने के लिए माहौल तैयार किया। रणवीर सेना के गठन की ये जमीनी हकीकत है

भोजपुर में संगठन बनने के बाद पहला नरसंहार हुआ सरथुआं गांव में, जहां एक साथ पांच मुसहर जाति के लोगों की हत्या कर दी गयी। बाद में तो नरसंहारों का सिलसिला ही चल पड़ा। बिहार सरकार ने सवर्णों की इस किसान सेना को तत्काल प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन हिंसक गतिविधियां जारी रहीं । प्रतिबंध के बाद रणवीर संग्राम समिति के नाम से इसका हथियारबंद दस्ता विचरण करने लगा। दरअसल भाकपा माले ही इस संगठन को रणवीर सेना का नाम दे दिया। और इसे सवर्ण सामंतों की बर्बर सेना कहा जाने लगा। एक तरफ भाकपा माले का हत्यारा दस्ता खून बहाता रहा तो प्रतिशोध में रणवीर सेना के लड़ाके भी खून की होली खेलते रहे। करीब पांच साल तक चली हिंसा-प्रतिहिंसा की लड़ाई के बाद घीरे-घीरे शांति लौटी। लेकिन इस बीच मध्य बिहार के जहानाबाद, अरवल, गया औरंगाबाद, रोहतास, बक्सर और कैमूर जिलों में रणवीर सेना ने प्रभाव बढ़ा लिया। बाद के दिनों में राष्ट्रवादी किसान महासंघ नामक संगठन का निर्माण किया गया। महासंघ ने आरा के रमना मैदान में कई रैलियां की और कुछ गांवों में भी बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम हुए। जगदीशपुर के इचरी निवासी राजपूत जाति के किसान रंगबहादुर सिंह को इसका पहला अध्यक्ष बनाया गया। आरा लोकसभा सीट से रंगबहादुर सिंह ने चुनाव भी लड़ा और एक लाख के आसपास वोट पाया। रणवीर सेना के संस्थापक सुप्रीमो बरमेश्वर सिंह उर्फ मुखियाजी पटना में नाटकीय तरीके से पकड़ लिये गये। पकड़े जाने के बाद वे आरा जेल में रहे। जेल में रहते हुए उन्होंने भी लोकसभा का चुनाव लड़ा और डेड़ लाख वोट लाकर अपनी ताकत का एहसास कराया। आज की तारीख में रणवीर सेना की गतिविधियां बंद सी हो गयी हैं। इसके कई कैडर या तो मारे गये या फिर जेलों में बंद हैं। सुप्रीमो बरमेश्वर मुखिया की साल 1 जून 2012 को कुछ कुख्यात अपराधियों ने हत्या कर दी।

ब्रहमेश्वर सिंह उर्फ बरमेसर मुखिया बिहार की जातिगत लड़ाईयों के इतिहास में एक जाना माना नाम है.

भोजपुर ज़िले के खोपिरा गांव के रहने वाले मुखिया ऊंची जाति के ऐेसे व्यक्ति थे जिन्हें बड़े पैमाने पर निजी सेना का गठन करने वाले के रुप में जाना जाता है.

बिहार में नक्सली संगठनों और बडे़ किसानों के बीच खूनी लड़ाई के दौर में एक वक्त वो आया जब बड़े किसानों ने मुखिया के नेतृत्व में अपनी एक सेना बनाई थी.

सितंबर 1994 में बरमेसर मुखिया के नेतृत्व में जो सगंठन बना उसे रणवीर सेना का नाम दिया गया.

उस समय इस संगठन को भूमिहार ब्राह्मण किसानों की निजी सेना कहा जाता था.

इस सेना की खूनी भिड़ंत अक्सर नक्सली संगठनों से हुआ करती थी.

बाद में खून खराबा इतना बढ़ा कि राज्य सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था.

नब्बे के दशक में रणवीर सेना और नक्सली संगठनों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ की बड़ी कार्रवाईयां भी कीं

सबसे बड़ा लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार एक दिसंबर 1997 को हुआ था जिसमें 58 दलित मारे गए थे.

इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की जातिगत समस्या को उजागर कर दिया था. इस घटना में भी मुखिया को मुख्य अभियुक्त माना गया था.

ये नरसंहार 37 ऊंची जातियों की हत्या से जुड़ा था जिसे बाड़ा नरसंहार कहा जाता है. बाड़ा में नक्सली संगठनों ने ऊंची जाति के 37 लोगों को मारा था जिसके जवाब में बाथे नरसंहार को अंजाम दिया गया.

इसके अलावा मुखिया बथानी टोला नरसंहार में अभियुक्त थे जिसमें उन्हें गिरफ्तार किया गया 29 अगस्त 2002 को पटना के एक्सीबिजन रोड से. उन पर पांच लाख का ईनाम था और वो जेल में नौ साल रहे.

बथानी टोला मामले में सुनवाई के दौरान पुलिस ने कहा कि मुखिया फरार हैं जबकि मुखिया उस समय जेल में थे. इस मामले में मुखिया को फरार घोषित किए जाने के कारण सज़ा नहीं हुई और वो आठ जुलाई 2011 को रिहा हुए.

बाद में बथानी टोला मामले में उन्हें हाई कोर्ट से जमानत मिल गई थी.

277 लोगों की हत्या से संबंधित 22 अलग अलग आपराधिक मामलों (नरसंहार) में इन्हें अभियुक्त माना जाता थ. इनमें से 16 मामलों में उन्हें साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया था. बाकी छह मामलों में ये जमानत पर थे.

जब वो जेल से छूटे तो उन्होंने 5 मई 2012 को अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन के नाम से संस्था बनाई और कहते थे कि वो किसानों के हित की लड़ाई लड़ते रहेंगे.

जब मुखिया आरा में जेल में बंद थे तो इन्होंने बीबीसी से इंटरव्यू में कहा था कि किसानों पर हो रहे अत्याचार की लगातार अनदेखी हो रही है.

मुखिया का कहना था कि उन्होंने किसानों को बचाने के लिए संगठन बनाया था लेकिन सरकार ने उन्हें निजी सेना चलाने वाला कहकर और उग्रवादी घोषित कर के प्रताड़ित किया है.

उनके अनुसार किसानों को नक्सली संगठनों के हथियारों का सामना करना पड़ रहा था.

ब्राह्मण

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