Thursday, 11 June 2020

Yoga




"सन्ध्योपासना में एवं यज्ञ के उपरान्त श्रद्धा से परमात्मा के लिए नमस्कार करना अवैदिक या मूर्तिपूजा का द्योतक नहीं।"

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"यज्ञ नमश्च। यज्ञ और नमस्कार" - 

यज्ञ में या यज्ञसमाप्ति पर नमस्कार की क्रिया करनी चाहिए। यज्ञ के साथ नमस्कार क्रिया का सम्बन्ध उक्त वेदवाक्य प्रकट कर रहा है। प्रायः ऐसी विचारधारा लोगों में व्याप्त हो गई है कि यदि यज्ञ में हाथ जोड़कर नमस्कार की क्रिया की जाएगी तो वह वेदि के सामने हाथ जोड़ने की क्रिया हो जाएगी और वह भी मूर्तिपूजा की क्रिया के तुल्य हो जाएगी। यदि परमात्मा के लिए या परमात्मा के नाम पर किसी भी स्थान पर किसी भी प्रकार से हाथ जोड़ने की क्रिया की जाएगी तो उससे अन्धश्रद्धा को बल मिलेगा और वह भी मूर्तिपूजा या जड़पूजा हो जाएगी। मूर्तिपूजा या जड़पूजा के आक्षेप के भय के कारण ही 'हाथ जोड़ झुकाय मस्तक वन्दना हम कर रहे' - इस पंक्ति को यज्ञ की प्रार्थना में से निकाल फेंका है, परन्तु हमारा इस प्रकार का चिन्तन वास्तविक नहीं है, अपितु प्रतिक्रियात्मक है। प्रतिक्रियात्मक चिन्तन से कभी-कभी हम वास्तविकता से भी विमुख हो जाते हैं। 

"परमात्मा के लिए नमस्कार करना मूर्तिपूजा नहीं है" -

एक समय था हम भी ऐसे ही प्रतिक्रियात्मक विचारों से प्रभावित होकर यज्ञवेदि के सम्मुख हाथ जोड़ने आदि शब्दों के उच्चारण का प्रबल विरोध करते थे, परन्तु जब हमें महर्षि दयानन्द का लेख वेदि के सामने हाथ जोड़ने का मिला तो हमें चुप होना पड़ा और मानना पड़ा कि यज्ञवेदि के सामने हाथ जोड़ने का तात्पर्य मूर्तिपूजा से क्यों लें ? हम अपनी उपासना को दूषित या अपूर्ण इसीलिए क्यों करें कि हम हाथ जोड़ेंगे तो दूसरे फिर हमें क्या कहेंगे? हमें अपना सत्य कर्तव्य करना चाहिए। 

"महर्षि दयानन्द जी द्वारा सन्ध्या एवं यज्ञ में नमस्कार का आदेश" -

महर्षि दयानन्दजी सरस्वती ने संस्कारविधि के सन्यास प्रकरण में लिखा है  "आचमन और प्राणायाम करके हाथ जोड़ वेदि के सामने नेत्रउन्मीलन करके मन से मन्त्रों को जपे।" इन शब्दों को पढ़ने के बाद विचारना चाहिए कि महर्षि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, क्योंकि वह वेद में नहीं है, परन्तु परमात्मा के लिए नमस्कार करने का निषेध कभी नहीं करते थे, क्योंकि वेद में  'यज्ञ नमश्च' आता है। अनेक मन्त्रों में नमस्कार है। सन्ध्या के मन्त्रों में भी है और सन्ध्या के अन्त में - नमः शंभवाय च-मन्त्र है ही। इस मन्त्र के ऊपर महर्षि ने लिखा है 'तत ईश्वरं नमस्कुर्यात' - यह समर्पणविधि के पश्चात् है। भाषा में भी वे लिखते हैं कि 'इसके पीछे ईश्वर को नमस्कार करे" और इस मन्त्र के अर्थ के अन्त में वे लिखते हैं --"उसको हमारा बारम्बार नमस्कार है।" 

इसी प्रकार सन्ध्या के उपस्थानमन्त्रों के भाष्य के अन्तिम शब्द विशेष मननीय हैं जो कि निम्न हैं -

सर्वे मनुष्याः परमेश्वरमेवोपासीरन्। यस्तस्मादन्यस्योपासनां करोति स इन्द्रियारामो गर्दभवत्सर्वैशि्शष्टैविज्ञेय इति निश्चयः। कृताञ्जलिरत्यन्तश्रद्धालुर्भूत्वैतैमन्त्रैः स्तुवन् सर्वकालसिद्धत्यर्थं परमेश्वरं प्रार्थयेत् ॥ 

सब मनुष्यों को परमेश्वर की ही उपासना करनी चाहिए। जो कोई उस परमात्मा को छोड़कर अन्य की उपासना करता है वह अपने इन्द्रियसुखों में रत होने से गर्दभपशुवत् सब शिष्टजनों को जानना चाहिए। हाथ की अञ्जलियों को जोड़कर अत्यन्त श्रद्धालु होकर इन (उपस्थान) मन्त्रों से स्तुति करते हुए सर्वकाल में सिद्धि के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे। 

"वेद और महर्षियों के आदेश पर चलें" -

यहाँ कृताञ्जलि शब्द नमस्कार की मुद्रा या हस्ताञ्जलि-मुद्रा का ही वाचक है। यदि महर्षि को हाथ जोड़ने से भय होता और इसे मूर्तिपूजा का ही द्योतक मानते तो वे कभी भी उपर्युक्त स्थलों पर हाथ जोड़ने के लिए नहीं लिखते। संस्कारविधि और पञ्चमहायज्ञविधि दोनों में ही परमात्मा के लिए नमस्कार- मुद्रा का विधान है, अतः हमें अपने प्रतिक्रियावादी चिन्तन- प्रकार में परिवर्तन करना होगा और सोचना होगा कि कहीं हम कुछ विपरीत मार्ग से चिन्तन करके अपनी उपासना को ही तो विकृत एवं नष्ट नहीं कर रहे हैं ? महर्षि के उपर्युक्त वाक्यों के सम्मुख तर्क-वितर्क की आवश्यकता नहीं रहती। इन वाक्यों के देख लेने पर और कई वर्षों तक मन में आन्दोलन होते रहने पर यही निश्चय हुआ कि हमें अपने विचारों के पीछे नहीं चलना चाहिए, अपितु वेद और महर्षियों के पीछे चलना चाहिए। 

"महर्षि कात्यायन का यज्ञाग्नि के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान" -

स्वयं महर्षि दयानन्दजी वेद और महर्षियों के पीछे चलते हैं। महर्षि कात्यायन ने वामदेव्य गान के पश्चात् किस रीति से यज्ञवेदि के सामने प्रार्थना करें, इसके लिए निम्न प्रकार लिखा है - 
'स्पृष्ट्वापो वीक्ष्यमाणोऽग्निं कृताञ्जलिपुटस्ततः। 
आयुरारोग्यमैश्वर्य प्रार्थयेद् द्रविणोदसम्॥ 

यहाँ पर भी उसी यज्ञाग्नि के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान है और उसका फल - 'दीर्घायुर्ह वै भवति' - निश्चय से दीर्घायु प्राप्त होती है, यह बताया है तथा आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य की प्रार्थना करने को कहा है। यज्ञ के श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान से और उसकी किसी क्रिया का अनादर न करने से अवश्य दीर्घायु होती है। 

"महर्षि दयानन्दजी द्वारा वेदभाष्य में यज्ञ को नमस्कार का विधान" - 

यजुर्वेद के [२।२०] के भाष्य में पूर्वमन्त्र की अनुवृत्ति लेकर महर्षि लिखते हैं - 'संवेशपतयेऽग्नये तुभ्यं स्वाहा नमश्च नित्यं कुर्मः' - यह संस्कृत में लिखा है और आर्यभाषा में - "जो आप हैं उसके लिए धन्यवाद और नमस्कार करते हैं" - यह लिखा है, अतः यज्ञ में नमस्कार या यज्ञरूप प्रभु को नमस्कार करना वेदानुकूल है। यज्ञ प्रतिमा-पूजा नहीं है।

"नमस्कारक्रिया श्रद्धापूर्वक करें" -
 
क्या यह सब नमस्कारक्रिया केवल वचन से ही होगी और कर्मरहित ही रहेगी? मन, वचन, कर्म जबतक एक नहीं होंगे तबतक असत्य आचरण होगा। यज्ञ में - इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि - ऐसी प्रतिज्ञा करने के बाद भी यदि असत्य आचरण करें तो प्रतिज्ञा की हानि होगी। अत: मन, वचन, कर्म में एकरूपता लाने के लिए जहाँ सन्ध्या, यज्ञ या अन्य कर्मकाण्ड में नमस्कारक्रिया किसी भी दिशा में या यज्ञवेदि के सामने या अग्नि के सम्मुख करने का विधान हो वहाँ उस विधि को पूर्णरूप से श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। ईश्वर को छोड़कर अन्य को ईश्वर या ईश्वरतुल्य मानकर, व्यक्ति या प्रतिमा आदि के पूजन का निषेध महर्षियों ने किया है, वह नहीं करना चाहिए।

"शतपथ में यज्ञ द्वारा नमस्कार" -

शतपथ [६।१।१।१६] में यज्ञ को ही नमस्कार का रूप बताया है और यज्ञ के द्वारा ही परमात्मा को नमस्कार करना बताया है। जैसा कि - 'यज्ञो वै नमो यज्ञेनैवैनमेतन्नमस्कारेण नमस्यति' - यह लिखा है। पुनः -- 'नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो०'-- यजुर्वेद के १६वें अध्याय के ६४, ६५. ६६वें मन्त्र के बारे में शतपथ [९।१।१।३९] में लिखा है- 'यद्वेवाह दश दशेति दश वा अंजलेरंगुलयो दिशि दिश्येवैभ्य एतदञ्जलि करोति तस्मादु हेतद्भीतोऽञ्जलिं करोति तेभ्यो नमो अस्त्विति तेभ्य एव नमस्करोति' - यहाँ पर हाथ जोड़कर ही यज्ञ में दसों दिशाओं में स्थित रुद्रों को नमस्कार करना बताया है, अतः यज्ञ में नमस्कार की क्रिया असंगत कर्म नहीं है। यदि हमारा मन इसके लिए उद्यत नहीं होता है तो जो व्यक्ति सन्ध्योपासना में एवं यज्ञ के उपरान्त श्रद्धा से प्रभु को नमस्कार करना चाहे उसको अवैदिक मूर्तिपूजा या जड़पूजा में ग्रहण न करे।


Wednesday, 10 June 2020

Brahmin Pandit Freedom Fighter Pt. Ram Prasad Bismil




*रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण*

(11 जून को अमर बलिदानी रामप्रसाद जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रचारित)

🎯नशा छोङ राष्ट्र भक्त कैसे बने🌷

पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित *शाहजहांपुरा* में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम *मुरलीधर* तथा माता का नाम *मूलमती* था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( _परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का_ –आत्मचरित्र)

परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में *आर्यसमाज* के एक बड़े सन्यासी *स्वामी सोमदेव* जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, *बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।* प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक *तवारीखे हिन्द* को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा।

🎯गुरु कौन था?🌷

फाँसी से पुर्व *बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे।* उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर *जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है?* बिस्मिल जी ने कहा कि *जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा*, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि *मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द।*

🎯 *आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद*🌷

*स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे* और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते।

बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। *उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया।* क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा –

*“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”*

इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और *अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये।* इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये।

दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। *मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ* और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे *इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।*तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया।

🎯फाँसी का दिन🌷

19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच , स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और _‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’_ वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।

ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना *‘सरफ़रोशी की तमन्ना’* गाते हुए अपने बलिदान दिये।

पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे।

दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है

अमर बलिदानी रामप्रसाद बिस्मिल के ब्रह्मचर्य पर विचार

(11 जून को अमर बलिदानी रामप्रसाद जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रचारित)

#RamPrasadBismil

(रामप्रसाद बिस्मिल दवारा लिखी गई आत्मकथा से साभार)

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन

वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं । उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें ! मध्यम श्रेणी के व्यक्‍ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फँसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते । सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्‍ट करते हैं । यदि कुछ भगवान की दया हो गई, और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मुहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है । रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं । कालिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं । कालिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्‍ट करना आरम्भ करते हैं । 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं । कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम-कथा कथायें प्रचलित न हों । ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती है । यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं । वे विचारते हैं कि थोड़ा सा जीवन का आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्‍टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे । यह उनकी बड़ी भारी भूल है । अंग्रेजी की कहावत है "Only for one and for ever." तात्पर्य यह है कि कि यदि एक समय कोई बात पैदा हुई, मानो सदा के लिए रास्ता खुल गया । दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती । अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं । सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है । विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करके अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्‍न करें । सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है । बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य-जीवन नितान्त शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं । ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो ।

जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्‍न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश न होना चाहिए । मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है । मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं । क्रिया के बार-बार होने से उसमें ऐच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है । इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं की, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं । मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है । अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, बान है । अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । यदि हमारे मन में निरन्तर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचारों में लिप्‍त रहे, तो निश्‍चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे । मन इच्छाओं का केन्द्र है । उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्‍न करना पड़ता है । अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार, अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है । दूसरे, जैसी परिस्थियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं । तीसरे, प्रयत्‍न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्‍ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है । हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है । यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुखमय प्रतीत होता । लिखने का अभ्यास, वस्‍त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । यदि हमें प्रारम्भिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो । इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्‍ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्‍य मीलों तक चला जाता है । बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं । जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं ।

मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बलपूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी । प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्‍चित करे । खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे । महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे । प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्‍ट न करे । खाली समय अकेला न बैठे । जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जलपान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे । अश्‍लील (इश्कभरी) गजलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुने । स्‍त्रियों के दर्शन से बचता रहे । माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिले । सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डाले।

विद्यार्थी प्रातःकाल सूर्य उदय होने से एक घण्टा पहले शैया त्यागकर शौचादि से निवृत हो व्यायाम करे या वायु-सेवनार्थ बाहर मैदान में जावे । सूर्य उदय होने के पाँच-दस मिनट पूर्व स्नान से निवृत होकर यथा-विश्‍वास परमात्मा का ध्यान करे । सदैव कुऐं के ताजे जल से स्नान करे । यदि कुऐं का जल प्राप्‍त हो तो जाड़ों में जल को थोड़ा-सा गुनगुना कर लें और गर्मियों में शीतल जल से स्नान करे । स्नान करने के पश्‍चात् एक खुरखुरे तौलिये या अंगोछे से शरीर खूब मले । उपासना के पश्‍चात् थोड़ा सा जलपान करे । कोई फल, शुष्क मेवा, दुग्ध अथवा सबसे उत्तम यह है कि गेहूँ का दलिया रंधवाकर यथारुचि मीठा या नमक डालकर खावे । फिर अध्ययन करे और दस बजे से ग्यारह बजे के मध्य में भोजन ले । भोज में मांस, मछली, चरपरे, खट्टे गरिष्‍ट, बासी तथा उत्तेजक पदार्थों का त्याग करे । प्याज, लहसुन, लाल मिर्च, आम की खटाई और अधिक मसालेदार भोजन कभी न खावे । सात्विक भोजन करे । शुष्‍क भोजन का भी त्याग करे । जहाँ तक हो सके सब्जी अर्थात् साग अधिक खावे । भोजन खूब चबा-चबा कर किया करे । अधिक गरम या अधिक ठंडा भोजन भी वर्जित है । स्कूल अथवा कालिज से आकर थोड़ा-सा आराम करके एक घण्टा लिखने का काम करके खेलने के लिए जावे । मैदान में थोड़ा घूमे भी । घूमने के लिए चौक बाजार की गन्दी हवा में जाना ठीक नहीं । स्वच्छ वायु का सेवन करें । संध्या समय भी शौच अवश्य जावे । थोड़ा सा ध्यान करके हल्का सा भोजन कर लें । यदि हो सके तो रात्रि के समय केवल दुग्ध पीने का अभ्यास डाल लें या फल खा लिया करें । स्वप्नदोषादि व्याधियां केवल पेट के भारी होने से ही होती हैं । जिस दिन भोजन भली भांति नहीं पचता, उसी दिन विकार हो जाता है या मानसिक भावनाओं की अशुद्धता से निद्रा ठीक न आकर स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाता है । रात्रि के समय साढ़े दस बजे तक पठन-पाठन करे, पुनः सो जावे । सदैव खुली हवा में सोना चाहिये । बहुत मुलायम और चिकने बिस्तर पर न सोवे । जहाँ तक हो सके, लकड़ी के तख्त पर कम्बल या गाढ़े कपड़े की चद्दर बिछाकर सोवे । अधिक पाठ न करना हो तो 9 या 10 बजे सो जावे । प्रातःकाल 3 या 4 बजे उठकर कुल्ला करके शीतल जलपान करे और शौच से निवृत हो पठन-पाठन करें । सूर्योदय के निकट फिर नित्य की भांति व्यायाम या भ्रमण करें । सब व्यायामों में दण्ड-बैठक सर्वोत्तम है । जहाँ जी चाहा, व्यायाम कर लिया । यदि हो सके तो प्रोफेसर राममूर्ति की विधि से दण्ड-बैठक करें । प्रोफेसर साहब की विधि विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोड़े समय में ही पर्याप्‍त परिश्रम हो जाता है । दण्ड-बैठक के अलावा शीर्षासन और पद्‍मासन का भी अभ्यास करना चाहिए और अपने कमरे में वीरों और महात्माओं के चित्र रखने चाहियें ।

#नमन_रामप्रसादबिस्मिल



Sunday, 7 June 2020

आट्टा साट्टा शादी / अदला बदली शादी / अट्टा सट्टा शादी / अड्डा सड्डा शादी / जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो ( शादी का बेहतरीन तरिका अट्टा-सट्टा )














आट्टे साट्टे शादी रिश्ते - यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो 

हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश यानि उतर भारत में इस तरह की शादी किसान परिवारो, आदिवासी परिवारो, कबिलाई जातियों और धर्मों, गांव - देहातों, कबिलों मे रहने वाले समूहों, पशुपालन और खेती - बाड़ी करने वाले परिवार आदि मे आट्टा साट्टा शादी बहुत पहले से ही होती आ रही है...


इस तरह की शादी करने से दहेज प्रथा और लडकियों की भुर्ण हत्या में कमी आना लाजमी है क्योकि यदि कोई परिवार लडकी पैदा नही करेगा तो उसके लडके की भी शादी नही होगी... इस तरह की शादी मे ना दहेज देना पडता है ना दहेज लेना पडता है.... कोई किसी पर रोब नही जमा सकता...


इस तरह की शादी को  बाल विवाह से जोडकर देखा जाता है जोकि सरासर गलत है क्योकि बाल विवाह जिसको करना है वो तो समान्य विवाह अनुसार भी करवा सकता है और करवा रहे है... बाल विवाह एक अलग कुप्रथा है जिसका अट्टा सट्टा से कोई सम्बन्ध नही है... 


कुछ लोग जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी या जिन लोगो का काम धंधा ही जाति धर्म की ठेकेदारी करके रुपये कमाना है, जो नही चाहते कि लोग दहेज प्रथा को छोडे या अंधविश्वास को त्यागे वे लोग इस तरह की शादी का विरोध करते है और जैसा कि उनका काम धंधा है झुठ बोलकर लोगो को जाति धर्म के नाम पर गुमराह करने का वे कोई भी समाजिक जागर्ति हो ऐसा होने देना नही चाहते 



जिन लोगो की मानसिकता पुरुष प्रधान देश बनाने और औरतो को केवल घर संभालने और बच्चे पैदा करने की मशीन समझने की है वे कोई भी समाजिक बदलाव नही करने देना चाहते उसके लिए वे कोई भी झुठ बोल सकते है...कोई भी षडयन्त्र रच सकते है...


गांव - देहात, पशुपालक - किसान जातियों को कुछ व्यापारी जाति और जाति - धर्म के ठेकेदार और कुछ शहरी वर्ग के लोग अपने आप को सर्वे सर्वा मानते है और ग्रामिणों को अनपढ और गवार बताकर उनके हर फैसले का विरोध करते है... 


अट्टा सट्टा शादी मुख्यतौर पर ग्रामिणों और किसान - पशुपालक परिवारों द्वारा सदियों से की और करवाई जा रही है जोकि काफी सफल भी रही है...


मुख्यतौर पर उत्तर भारत के ग्रामिण इलाको मे गौत्रो को देखा जाता है स्वयं का, मां का, दादी का आदि अब कई जगह दादी का गौत्र नही देखते.. पहले 5 गौत्र देखे जाते थे अब दो ही मुख्यत देखे जाते है कि वे आपस मे दोनो परिवारो के ना मिलते हो... जोकि अट्टा सट्टा शादी मे नही मिलते....



आट्टा साट्टा शादी के कोई भी नुकसान नही है और ना ही किसी भी धर्म - जाति या लडकी आदि का अपमान इस तरह की शादी मे होता है... यह सैकडो सालो से हो रही शादी है जिसे अब पढे लिखे समझदार युवा चाहे गांव से हो या शहर से सब पसंद करने लगे है...


छोटी छोटी बच्चियों को पैदा करके कचरे मे फैक दिया जाता है या बच्चियों की भुर्ण हत्या कर दी जाति हैै आज भी दहेज हत्या हो जाती है इस सभी बुराइयों का समाधान अट्टा सट्टा शादी ही है यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो..... ना कुछ देना ना कुछ लेना... लडके का भी अदला बदला करना और लडकी का भी अदला बदला करना..... कोई किसी पर बेवजह दबाव नही बना सकेगा.... जो लडकी पैदा करेगा वो ही बहु लेगा.....


लडकी पैदा होने का मतलब जाति - धर्म के ठेकेदारो ने दान देना सारी उमर बना दिया है जिस वजह से अधिकांश लोग लडकी पैदा नही करना चाहते....







Friday, 5 June 2020

Mulniwashi kon ? Dalit Muslim Brahmin Jat Rajput Gurjar Yadav Jatav Pathan Meena etc ?



मूल निवासी कौन ?

कई दिनों से देख रहा हूँ कुछ अम्बेडकरवादी लोग आर्यों को विदेशी कह रहे है। ये कहते हैं कि कुछ साल पहले ( 1500 BC लगभग ) आर्य बाहर से ( इरान/ यूरेशिया या मध्य एशिया के किसी स्थान से) आए और यहाँ के मूल निवासियों को हरा कर गुलाम बना लिया. तर्क के नाम पर ये फ़तवा देते हैं कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि सभी विदेशी है. क्या आर्य विदेशी है?

बाबा भीमराव अम्बेडकर जी के ही विचार रखूंगा जिससे ये सिद्ध होगा की आर्य स्वदेशी है।

1) डॉक्टर अम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस खंड 7 पृष्ट में अम्बेडकर जी ने लिखा है कि आर्यो का मूलस्थान(भारत से बाहर) का सिद्धांत वैदिक साहित्य से मेल नही खाता। वेदों में गंगा,यमुना,सरस्वती, के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदी के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नही कर सकता।

2) डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन"? Who were shudras? में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखको की आर्यो के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यताओ का खंडन किया है। डॉ अम्बेडकर लिखते है--

1) वेदो में आर्य जाती के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही है।

2) वेदो में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नही है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यो ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूलनिवासियो दासो दस्युओं को विजय किया।

3) आर्य,दास और दस्यु जातियो के अलगाव को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य वेदो में उपलब्ध नही है।

4)वेदो में इस मत की पुष्टि नही की गयी कि आर्य,दास और दस्युओं से भिन्न रंग के थे।

5)डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से शुद्रो को भी आर्य कहा है(शुद्र कौन? पृष्ट संख्या 80)

अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातो को माने।

वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियो की हिंसा करने से कोई आर्य नही कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व् धर्मात्मा कहलाता है।

यहाँ हम धम्मपद के उपरोक्त बुध्वचन का Maha Bodhi Society, Bangalore द्वारा प्रमाणित अनुवाद देना आवश्यक व् उपयोगी समझते है।.
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विदेशी यात्रिओं के प्रमाण -
अम्बेडकरवादी सभी संस्कृत ग्रंथों को गप्प कहते हैं इसलिए कुछ विदेशी यात्रिओं के प्रमाण विचारणीय हैं...
1- मेगस्थनीज 350 ईसापूर्व - 290 ईसा पूर्व) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त के दरबार में आया था। वह कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने जो कुछ भारत में देखा, उसका वर्णन उसने "इंडिका" नामक पुस्तक में किया है। उसमे साफ़ साफ़ लिखा है कि भारतीय मानते हैं कि ये सदा से ही इस देश के मूलनिवासी हैं.
2- चीनी यात्री फाह्यान और ह्यून्सांग- इन दोनों ने एक शब्द भी नहीं लिखा जो आर्यों को विदिशी या आक्रान्ता बताता हो. ये दोनों बौद्ध थे.
3- इतिहास के पितामह हेरोड़ेट्स - इन्होने भी अपने लेखन में भारत का कुछ विवरण दिया है.परन्तु इन्होने भी एक पंक्ति नहीं लिखी भारत में आर्य आक्रमण पर.
4- अलबेरूनी - यह मूलतः मध्य पूर्व ( इरान+अफगानिस्तान) से महमूद गजनवी के साथ आया. लम्बे समय तक भारत आया. भारत के सम्बन्ध में कई पुस्तकें लिखी. परन्तु एक शब्द भी नहीं लिखा आर्यों के बाहरी होने के बारें में.
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वेद क्या कहता है शूद्र से सम्बन्ध के बारे में

1- हे ईश्वर - मुझको परोपकारी विद्वान ब्राह्मणो मे प्रिय करो, मुझको शासक वर्ग मे प्रिय करो, शूद्र और वैश्य मे प्रिय करो, सब देखनों वालों मे प्रिय करो । अथर्व वेद 19/62/1
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2- हे ईश्वर - हमारे ब्राह्मणों मे कान्ति, तेज, ओज, सामर्थ्य भर दो, हमारे शासक वर्ग (क्षत्रियों) मे तेज, ओज, कान्ति युक्त कर दो, वैश्यो तथा शूद्रों को कान्ति तेज ओज सामर्थ्य युक्त कर दो। मेरे भीतर भी विशेष कान्ति, तेज, ओज भर दो। यजुर्वेद 18/48


Thursday, 4 June 2020

Seven stars logic ( सप्तर्षि )



*हर मनवंतर काल में रहे हैंअलग-अलग सप्तर्षि!!!!*

*जानिए कौन किस काल में हुए सप्तर्षि*

आकाश में 7 तारों का एक मंडल नजर आता है। 
उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सप्तर्षि से उन 7 तारों का बोध होता है, जो ध्रुव तारे.की परिक्रमा करते हैं। 

उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान 7 संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। ऋषियों की संख्या सात ही क्यों? ।।

प्रत्येक मन्वन्तर में 7 भिन्न कोटि के सप्तऋषि होते हैं 
''सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:, कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:''

अर्थात : 1.
ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5.
काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं इसलिए इन्हें सप्तर्षि कहते हैं।

भारतीय ऋषियों और मुनियों ने ही इस धरती पर धर्म, समाज, नगर, ज्ञान, विज्ञान, खगोल, ज्योतिष, वास्तु, योग
आदि ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। 

दुनिया के सभी धर्म और विज्ञान के हर क्षेत्र को भारतीय ऋषियों का ऋणी होना चाहिए।  

उनके योगदान को याद किया जाना चाहिए। उन्होंने मानव मात्र के लिए ही नहीं अपितु पशु-पक्षी, समुद्र, नदी, पहाड़ और वृक्षों सभी के बारे में सोचा और सभी के सुरक्षित जीवन के लिए कार्य किया। 

आओ, संक्षिप्त में जानते हैं
कि किस काल में कौन से ऋषि थे। भारत में ऋषियों और गुरु-शिष्य की लंबी परंपरा रही है। ब्रह्मा के पुत्र भी ऋषि थे तो भगवान शिव के शिष्यगण भी ऋषि ही थे।

प्रथम मनु स्वायंभुव मनु से लेकर बौद्धकाल तक ऋषि परंपरा के बारे में जानकारी मिलती है। 

हिन्दू पुराणों ने काल को मन्वंतरों में विभाजित कर प्रत्येक मन्वंतर में हुए ऋषियों के ज्ञान और उनके योगदान को परिभाषित किया है। 



प्रत्येक मन्वंतर में प्रमुख रूप से 7 प्रमुख ऋषि हुए हैं। विष्णु पुराण के अनुसारइनकी नामावली इस प्रकार है-

 1. प्रथम स्वयंभुव
मन्वंतर में- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ। 

2. द्वितीय स्वारोचिष मन्वंतर में-
ऊर्ज्ज,स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय और परीवान।

 3. तृतीय उत्तम मन्वंतर में- महर्षि वशिष्ठ के सातों पुत्र।

 4. चतुर्थ तामस मन्वंतर में- 
ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर।

 5. पंचम रैवत मन्वंतर में-
हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि।

 6. षष्ठ चाक्षुष मन्वंतर में- सुमेधा,विरजा, हविष्मान, उतम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु।

 7. वर्तमान सप्तम वैवस्वत मन्वंतर में- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।

भविष्य में – 1. अष्टम सावर्णिक मन्वंतर में- गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृप, ऋष्यश्रृंग और
व्यास। 

2. नवम दक्षसावर्णि मन्वंतर में- मेधातिथि, वसु, सत्य, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, सबन और भव्य।

 3. दशम ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर में- तपोमूर्ति, हविष्मान, सुकृत,सत्य, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु।

 4. एकादश धर्मसावर्णि मन्वंतर में- वपुष्मान्, घृणि, आरुणि,नि:स्वर, हविष्मान्, अनघ और अग्नितेजा।

 5. द्वादश रुद्रसावर्णि मन्वंतर में- तपोद्युति, तपस्वी, सुतपा,तपोमूर्ति, तपोनिधि, तपोरति और तपोधृति।

 6.त्रयोदश देवसावर्णि मन्वंतर में- धृतिमान, अव्यय, तत्वदर्शी, निरुत्सुक, निर्मोह, सुतपा और निष्प्रकम्प।

7. चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मन्वंतर में- अग्नीध्र, अग्नि, बाहु, शुचि, युक्त, मागध, शुक्र और अजित। 

इन ऋषियों में से कुछ कल्पान्त-चिरंजीवी, मुक्तात्मा और दिव्यदेहधारी हैं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ रचना काल के अनुसार 

1. गौतम,2. भारद्वाज, 3. विश्वामित्र, 4. जमदग्नि, 5. वसिष्ठ,6. कश्यप और 7. अत्रि।

 ‘महाभारत’ काल के अनुसार 1. मरीचि, 2 . अत्रि, 3. अंगिरा, 4. पुलह, 5. क्रतु, 6.
पुलस्त्य और 7. वसिष्ठ सप्तर्षि माने गए हैं।

 *महाभारत* में राजधर्म और धर्म के प्राचीन आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र,
सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज और गौरशिरस मुनि।

 *कौटिल्य के अर्थशास्त्र* रचना काल में
इनकी सूची इस प्रकार है- मनु, बृहस्पति, उशनस (शुक्र), भरद्वाज, विशालाक्ष (शिव), पराशर, पिशुन, कौणपदंत,
वातव्याधि और बहुदंती पुत्र।

 *वैवस्वत मन्वंतर* में वशिष्ठ ऋषि हुए। उस मन्वंतर में उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि मिली। वशिष्ठजी ने गृहस्थाश्रम की पालना करते हुए ब्रह्माजी के मार्गदर्शन में उन्होंने सृष्टि वर्धन, रक्षा, यज्ञ आदि से संसार को दिशाबोध दिया।

Wednesday, 3 June 2020

Manusmriti


मनुष्य ने जब समाज व राष्ट्र के अस्तित्व तथा महत्त्व को मान्यता दी, तब उसके कर्तव्यों और अधिकारों की व्याख्या निर्धारित करने तथा नियमों के अतिक्रमण करने पर दंड-व्यवस्था करने की भी आवश्यकता उत्पन्न हुई। यही कारण है कि विभिन्न युगों में विभिन्न स्मृतियों की रचना हुई, जिनमें मनुस्मृति को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा दो हजार पाँच सौ श्लोक हैं, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, राजधर्म, प्रायश्चित्त आदि अनेक विषयों का उल्लेख है। ब्रिटिश शासकों ने भी मनुस्मृति को ही आधार बनाकर ‘इंडियन पीनल कोड’ बनाया तथा स्वतंत्र भारत की विधानसभा ने भी संविधान बनाते समय इसी स्मृति को प्रमुख आधार माना। व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास तथा सामाजिक व्यवस्था को सुनिश्चित रूप देने तथा व्यक्ति की लौकिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण का पथ प्रशस्त करने में मनुस्मृति शाश्वत महत्त्व का एक परम उपयोगी शास्त्र ग्रंथ है।.


मनुस्मृति और नारी जाति


भारतीय समाज में एक नया प्रचलन देखने को मिल रहा है। इस प्रचलन को बढ़ावा देने वाले सोशल मीडिया में अपने आपको बहुत बड़े बुद्धिजीवी के रूप में दर्शाते है। सत्य यह है कि वे होते है कॉपी पेस्टिया शूरवीर। अब एक ऐसी ही शूरवीर ने कल लिख दिया मनु ने नारी जाति का अपमान किया है। मनुस्मृति में नारी के विषय में बहुत सारी अनर्गल बातें लिखी है। मैंने पूछा आपने कभी मनुस्मृति पुस्तक रूप में देखी है। वह इस प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर एक नया कॉपी पेस्ट उठा लाया। उसने लिखा-

"ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी।"

मेरी जोर के हंसी निकल गई। मुझे मालूम था कॉपी पेस्टिया शूरवीर ने कभी मनुस्मृति को देखा तक नहीं है। मैंने उससे पूछा अच्छा यह बताओ। मनुस्मृति कौनसी भाषा में है? वह बोला ब्राह्मणों की मृत भाषा संस्कृत। मैंने पूछा अच्छा अब यह बताओ कि यह जो आपने लिखा यह किस भाषा में है। वह फिर चुप हो गया। फिर मैंने लिखा यह तुलसीदास की चौपाई है। जो संस्कृत भाषा में नहीं अपितु अवधी भाषा में है। इसका मनुस्मृति से कोई सम्बन्ध नहीं है। मगर कॉपी पेस्टिया शूरवीर मानने को तैयार नहीं था। फिर मैंने मनुस्मृति में नारी जाति के सम्बन्ध में जो प्रमाण दिए गए है, उन्हें लिखा। पाठकों के लिए वही प्रमाण लिख रहा हूँ। आपको भी कोई कॉपी पेस्टिया शूरवीर मिले तो उसका आप ज्ञान वर्धन अवश्य करना।

मनुस्मृति में नारी जाति

यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः। मनुस्मृति 3/56

अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं।

पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55

जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57

जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62

पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96

ऐश्वर्य की कामना करने हारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। मनुस्मृति

पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है।

पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार मनु ने माना है। मनु के अनुसार पुत्री भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में भागी है। यह प्रकरण मनुस्मृति के 9/130 9/192 में वर्णित है।

आज समाज में बलात्कार, छेड़खानी आदि घटनाएं बहुत बढ़ गई है। मनु नारियों के प्रति किये अपराधों जैसे हत्या, अपहरण , बलात्कार आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड एवं देश निकाला आदि का प्रावधान करते है। सन्दर्भ मनुस्मृति 8/323,9/232,8/342

नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये है।

पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4

मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है -सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य।

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।



Tuesday, 2 June 2020

Dowry System , Girl Child Murder and Abusing , Murder of Bride , Fetal Death or Infant Death of Girl kid ... How can we stop those Ediction?





समाज मे लडकी आमतौर पर अधिकांश लोग पैदा  नही करना चाहते हां लडकी पैदा हो ऐसा दिखावा जरुर करते है... इसी वजह से सरकार की रोक के बावजूद भी लडकी भुर्ण हत्या हो रही है.. ये लडकी पैदा अपने घर नही होने देते ताकि दुसरो की बहन बेटियों के चरित्र पर कुछ भी टिप्पणी करने का अधिकार इनको मिल जाए ...


गरीब या बेरोजगार या कम रोजगार वाले लडके के घर मे शादी करने का ये बिलकूल मतलब नही है कि उस घर मे दहेज हत्या या घरेलू उत्पीडन नही होगा... 


आजकल अधिकांश लोगो को अपने घर की औरते/ लडकी सब देवी और दुसरो के घर की औरते/लडकी सब रंडी नजर आती है...दुसरो की बहन बेटियो को चरित्र प्रमाण पत्र तुरंत लोग दे देते है खासकर वे जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी ....आजकल ये भी देखा जा रहा है  कि जिनको पहली ही संतान लडका हो जाती है तो वे दुसरा बच्चा ही नही बनाते और उनकी तरफ से तर्क दिया जाता है महंगाई का.... जबकि काफी  समर्ध परिवार भी ऐसा कर रहे है कही ना कही दुसरी संतान लडकी ना हो जाए इस वजह से वे दुसरा बच्चा अधिकांशत नही बनाते ....


कोई दहेज कहकर नही मांगता क्योकि लडकियों की वैसे ही संख्या कम है परन्तु शादी होते समय और बाद मे मारपीट या हत्या तक दहेज के लिए कर दी जाती हैै... और लडकी के चरित्र को खराब बता दिया जाता है..


आजकल जहां लडकी वाले दबंग है वे भी कई बार उनकी लडकी को परेशानी होते ही उसके ससुराल वालो की मां बहन एक कर देते है....


दहेज, भात, पीलिया, सीधा कोथली, त्यौहारो आदि के नाम पर मान सम्मान के रुप मे लडकी वालो से रुपये लिये जाते है... लडकी पैदा होने का मतलब दान देना पुरी उमर समझा जाता है...


लडकी की मारपीट को जब उसे माइके वाले समाज मे इज्जत के खातिर नजरअन्दाज कर देते है तो बात हत्या तक पहुच जाती है... क्योकि यदि कोई मां बाप लडकी को पडताडित होने पर उसे अपने घर रख ले या घरेलू हिंसा का केस कर दे तो लडकी वालो को बोला जाता है कि ये तो लडकी का धंधा कर रहे है..... 


इन सारी समस्याओं का एक समाधान है अन्टा सन्टा शादी यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो... इस तरह की शादी मे गोत्र भी नही मिलते जोकि आमतौर पर देखा जाता है.. ना कुछ देना ना लेना... ना किसी पर कोई दबाव... लोग लडकी भी पैदा करेंगे क्योकि नही तो उनके लडके की भी शादी नही होगी...


जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी या जिनका काम-धंधा ही दहेज या रुढिवादी कुप्रथाओ आदि से चल रहा है वे तो इस शादी का विरोध करेंगे ही....


वैसे ये अदला बदली शादी काफी हो रही है और कामयाब भी है.....





ब्राह्मण

ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है। इसका उत्तर इस प्रकार है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी न...