Tuesday 2 June 2020

1857 की क्रान्ति में ब्राह्मणों का योगदान ( Bhumihar / Tyagi Brahmins )






1857 महासमर मे भूमिहार ब्राहमणों का योगदान! 



मध्य और दक्षिण बिहार, और आज के झारखंड-उड़ीसा तक, के इलाकों मे 1857 के महासमर मे भूमिहार-ब्राहमणो की भूमिका अद्भुत रही। 

नवादा-नालांदा-राजगीर-बिहारशरीफ 

14-15 अगस्त को भागलपुर मे 5वी घुड़सवार पलटन ने विद्रोह किया था। इस पलटन का बड़ा हिस्सा नालांदा और नवादा की तरफ बढ़ा। 24 अगस्त तक नवादा और नालंदा का बड़ा हिस्सा (हिलसा) क्रांतिकारियों के कब्ज़े मे आ गया। नवादा और फतेहपुर थानो के अंग्रेज़ अफसर और अंग्रेज़ परस्त पुलिस के अधिकारी मार डाले गये। नवादा जेल मे बंद कैदियों को रिहा किया गया। गरीब जनता ने कचहरी पर हमला कर कंपनी राज के कागज़ात जला दिये। हिलसा मे क्रूर महाजनों, सूदखोरों और ज़मींदारों को सज़ा दी गयी। अंग्रेज़ो के कारिंदों को मौत के घाट उतार दिये गये। 

नालंदा-नवादा की आग जल्द ही बिहारशरीफ, राजगीर, अरवल, जहानाबाद, अमरथू और गया पहुंच गयी। अक्टूबर मे देवघर स्थित 32वी पैदल सेना ने विद्रोह कर दिया। फिर क्या था--ऐसी लड़ाई हुई की अंग्रेज़ और उनके सामंत-महाजन पिट्ठू दुहाई भूल गये। 

1857 मे शुरू हुई जंग 1867--यानी दस साल--तक चली।

नाना सिंह और हैदर अली खान 

नालंदा, नवादा खास और राजगीर मे अंग्रेज़ विरोधी जंग का नेतृत्व हैदर अली खान और भूमिहार ब्राहमण नाना सिंह ने किया। मध्य दक्षिण बिहार मे कई जगह भूमिहार ब्राहमण 'सिंह' टाईटिल इस्तेमाल करते थे। इसी वजह से गदर के रिकार्डों मे अंग्रेज़ो ने यहां के भूमिहारों को 'राजपूत' लिख दिया है। पर नाना सिंह जैसे अनेक ज़मींदार, भूमिहार ब्राहमण थे। सब से खास बात है कि इस इलाके मे 1857 विद्रोह ने सामंतवाद विरोधी रूप ले लिया। भूमिहारों के नेतृत्व मे बड़ी संख्या मे आज की पिछड़ी-दलित जनता संहर्ष मे उतरे। 

नाना सिंह अमौन के थे।  अगस्त-सितंबर मे उनको पकड़ने की अंग्रेज़ो ने अथक प्रयास किया। पर नाना सिंह चकमा दे कर निकल गये। हैदर अली खान के साथ अहमद अली, मेंहदी अली, हुसैन बख्श खान, गुलाम अली खान, नक्कू सिंह (भूमिहार), फतेह अली खान जैसे दिग्गज योद्धा थे। 

हैदर अली खान और नक्कू सिंह (भूमिहार) की पूरी टीम अंतूपुर मे इकट्ठा हुई। कंपनी-अंग्रेज़ी राज के अंत की आधिकारिक घोषणा हुई। बहादुर शाह ज़फर को मुल्क का बादशाह और कुंवर सिंह को बिहार का राजा स्वीकृत किया गया। 

नवादा मे नामदर खान और वारसलीगंज मे कामगार खान के वंशजो ने भी विद्रोही बिगुल बजा दिया। 

8 सितंबर को भागलपुर से और एक भारतीय फौज नवादा पहुंची। उधर पटना से चली अंग्रेज़ फौज भी नवादा पहुंची। नवादा के प्रमुख विद्रोही भागलपुर की फौज के साथ मिल गये। नवादा कचहरी फूंक दी गयी। स्थानीय जनता ने अंग्रेज़ी राज के सभी चिन्ह मिटा दिये। 8 से 30 सितंबर तक विद्रोहियों का नवादा पर कब्ज़ा रहा।  30 सितंबर को अंग्रेज़ो और भारतीय फौजों मे भंयकर युद्ध हुआ। दलाल महाजनों और ज़मीदारों ने अंग्रेज़ो का साथ दिया। पर निचली जातियों के लड़ाके, अंग्रेज़ परस्त ज़मीदारों का विरोध कर, भारतीय फौज से जा मिले। 

नवादा की जंग इतनी भीषण थी कि गोला-बारूद मे अव्वल होने के बावजूद, अंग्रेज़ो आगे नही बढ़ सके। उनको भारी क्षति उठानी पड़ी। भारतीय विद्रोही गया की तरफ बढ़ गये। 

नवादा मे मुस्लिम क्रांतीकारी ज़्यादातर घुड़सवार थे।  वहीं भूमिहार नेतृत्व मे दलित-पिछड़े पैदल योद्धा एक-आध मैचलोक छोड़, तलवारों और भालों ही से लैस थे। इनकी समूह मे इकट्ठा हो कर हमला करने की बहादुराना नीति की अंग्रेज़ो ने भी तारीफ की। 

नादिर अली खान, जो रांची-झारखंड मे तैनात रामगढ़ बटालियन के नेता थे, और जो उस छेत्र मे 1857 बगावत के बड़े सूत्रधार बने, बिहारशरीफ के समीप चरकौसा गांव के निवासी थे। ये इलाका GT रोड के नज़दीक था। GT रोड से अंग्रेज़ कलकत्ता से बिहार/UP  के बाग़ी इलाकों तक रसद और कुमुक पहुंचाते थे। GT रोड अंग्रेज़ो के लिये नर्व-सेंटर थी। बिहारशरीफ के क्रांतीकारियों ने GT रोड पर कई दिनो तक अपना कब्ज़ा बनाये रखा। 

मांझी नादिरगंज मे दलित रजवारों की संख्या अच्छी-खासी थी। एक बड़ा क्रांतीकारी जत्था यहां से राजगीर की पहाड़ियों मे घुस गया। 

राजगीर विद्रोह का नेतृत्व हैदर अली खान करते रहे। उनकी गिरफ्तारी के बाद, 9 अक्टूबर को अंग्रेज़ो ने उन्हे  फांसी दे दी। राजगीर के मुहम्मद बख्श, ओराम पांडे (भूमिहार), दाऊद अली, सुधो धनिया, भुट्टो दुसाध, सोहराई रजवार, जंगली कहार, शेख जिन्ना, सुखन पांडे (भूमिहार), देगन रजवार और डुमरी जोगी को 14 साल की सज़ा हुई। हिदायत अली, जुम्मन, फरजंद अली और पीर खान की संपत्तियां जब्त हुईं। अंग्रेज़ परस्त कारिंदो को बड़े-बड़े पुरुस्कार दिये गये। 

गया-वज़ीरगंज की लड़ाई 

इस छेत्र मे जनवरी, 1858 से प्रारम्भ वज़ीरगंज का विद्रोह खास अहमियत रखता है। यहां भूमिहार लड़ाके खुशियाल सिंह, कौशल सिंह और राजपूत यमुना सिंह ने नेतृत्व संभाला। 

वज़ीरगंज की लड़ाई बिहार मे भूमिहार-राजपूत एकता की मिसाल बनी। यह इलाका आज गया जिले की एक विधान सभा है। वज़ीरगंज विद्रोह मे 15 से अधिक गांव शामिल थे। कौशल सिंह का गांव खबरा, क्रांतीकारी गतिविधियों का केन्द्र था। 

वज़ीरगंज महीनो आज़ाद रहा। यहां शहीदों और कालापानी भेजे जाने वालों की लिस्ट लंबी है: रणमस्त खान और नत्थे खान, ग्राम-समसपुर, थाना-बेलागंज; मनबोध दुसाध, ग्राम-ऐरू, थाना-वज़ीरगंज; मोती दुसाध, सहाय सिंह एवं चरण सिंह, ग्राम- बभंडी, थाना-वज़ीरगंज; बुल्लक सिंह, केवल सिंह, ग्राम-कढ़ौनी, थाना-वज़ीरगंज; बुधन सिंह एवं मोती सिंह, ग्राम-दखिनगांव, थाना-वज़ीरगंज; दुखहरण सिंह, ग्राम-सिंधौरा, थाना-वज़ीरगंज; चुलहन सिंह, ग्राम-प्रतापपुर, थाना-अतरी; अमर सिंह, ग्राम-दशरथपुर, थाना-वज़ीरगंज; मोती साव, ग्राम-दखिनगांव, थाना- वज़ीरगंज; जयनाथ सिंह, ग्राम-बेला, थाना-वज़ीरगंज; मिलन सिंह एवं नेउर सिंह, ग्राम-सिंगठिया, थाना-वज़ीरगंज; जिया सिंह, ग्राम-चमौर, थाना-वज़ीरगंज; जेहल सिंह, ग्राम-नवडीहा, थाना-वज़ीरगंज। इसके अलावा अन्य 40 की संपत्ती जप्त हुई। 

ग्राम पुरा, थाना-वज़ीरगंज के महावीर सिंह, जुमाली सिंह, रामदेव सिंह, विद्याधर पांडे, चमन पांडे और कोलहना को पीपल के पेड़ पर फांसी हुई। 

राजगीर की पहाड़ियों मे 1859 तक युद्ध चलता रहा। कई सिक्ख बटालियन के लोग भी विद्रोहियों से आ मिले! लोदवा और सौतार मे अंग्रेज़ परस्त कारिंदो और सामंतो को पीछे हटना पड़ा। अंग्रेज़ दरोगा 48 घंटे मे 90 मील तक मार्च करते रहे। पर विद्रोही, लखावर, किंजर और अरवल से होते हुए, सोन नदी के पास महाबलीपुर पहुंच गये! इस दौर के विद्रोहियों मे लक्ष्मण सिंह (राजपूत), भरत सिंह (राजपूत), लाल बर्न सिंह (भूमिहार), करमन सिंह (भूमीहार), हुलास सिंह (भूमिहार), जुम्मन खान और मेघू ग्वाला प्रमुख रहे। 

नवादा-अरवल-गया-जहानाबाद और दलित आंदोलन

नवादा-अरवल-गया-राजगीर मे 1857 ही वो घड़ी थी, जब दलित आंदोलन लिखित रूप मे दर्ज हुआ। इसके पहले, दलित विद्रोह का कोई रिकार्ड उपलब्ध नही है। इस छेत्र के दलित रजवार अंग्रेज़ो और सामंतो, दोनो के खिलाफ लड़े। उच्च और OBC जाति के विद्रोहियों ने दलितों का पूर्ण समर्थन किया। 

19 जून, 1857 को मौजा ओसदुरा, परगना गोह के सामंत इनामुल अली के घर रजवार लड़ाकों ने धावा बोला और 36 मन धान उठा ले गये। 5 अगस्त, 1857 को 30 सवार (राजपूत) और 300 रजवारों के दल ने मौजा साकची, परगना बिहार के अमीर भोजू लाल वकील के यहां रेड डाल कर 2019 रू की संपत्ती क्रांतीकारी खजाने मे जमा करने हेतु
उठा ली। 6 अगस्त, 1857 को रजवार गुरिल्ला squad ने घोसरनवा के सामंत के ठेकेदार गणेश दत्त के घर हमला किया। बिहार थाने का अंग्रेज़ो के लिये काम कर रहा दरोगा जब दल-बल के साथ यहां पहुंचा, तो 1200 ग्रामीणों से उसकी भिड़ंत हुई। कई घंटो तक लड़ाई चली। सामंत के आदमी दरोगा के पक्ष मे उतरे, तो क्रांतीकारियों ने आधा दर्जन लठैतों को मार गिराया। 

मौजा सत्तवार और हुसैपुर के ज़मींदारों ने जवाहर और एटवा रजवार नाम के दो गुरिल्ला units के नेताओं का समर्थन किया। 

20 सितंबर, 1857 के दिन, जमादार रजवार के नेतृत्व मे रजवारों ने मौजा उर्सा के गया प्रसाद और ख्वाजा वज़ीर के यहां हमला किया। सकरी नदी के किनारे, खरगोबीघा, खुरारनाथ, पुसई मे भीषण संग्राम हुऐ। रजवार इलाकों ने देवघर की विद्रोही 32वी पैदल पलटन का पूरा समर्थन किया। लड़ाई हज़ारीबाग तक चली जहां खड़गडीहा ग्राम मे मुखो और झूमन रजवार के नेतृत्व मे बाबू राम रतन नागी और नंदेर के आदमी सांमतो से भिड़ गये। और हज़ारीबाग मे पहली बार भूमि वितरण को अंजाम दिया। 

28 सितंबर 1857 को दोना के सामंत नंदकिशोर सिंह ने जवाहर रजवार की हत्या की साज़िश रची। जवाहर रजवार के साथ जो 5 अन्य शहीद हुऐ, उनमे भूमिहार ब्राहमण केवल सिंह, समझू ग्वाला और कान्यकुब्ज ब्राहमण बंसी दिक्षित प्रमुख थे। बंसी दिक्षित 7वी पैदल सेना के सिपाही थे। बक्सर के रहने वाले थे। जिनको राजा कुंवर सिंह ने खास मध्य बिहार मे क्रांती की ज्वाला भड़काने भेजा था। 

एकतारा के सामंत टीप नारायण अलग से रजवारों पर हमला करते रहे। इसी छेत्र के सांमत गंगा प्रसाद ने भी गद्दारी की। 

भूमिहारों/रजवारों को 'देखते ही गोली मारो' का आदेश 

रजवार-विरोधी अभियान जल्द ही भूमिहार-विरोधी अभियान बन गया। अंग्रेज़ अफसर वर्सली ने रजवारों के गांव के गांव जला डाले। भूमिहारों को देखते ही गोली मारने का आदेश पारित हुआ। वर्सली ने माना कि, "और कोई चारा नही था। भूभिहार ब्राहमणो ने इस इलाके (मगध) को बसाया है--यहां के जंगल साफ कर, खेती योग्य बनाया। इनका छोटी जातियों मे प्रभाव है। मुसलमानो से इनके रिश्ते अच्छे हैं। यह हमारी सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। यही काम सुल्तानपुर, फ़ैजाबाद और गोरखपुर मे सरयूपारी ब्राहमणो ने किया। सरयूपारियों ने  सुल्तानपुर-गोरखपुर बसाया। हमारी फौज मे भरती हुऐ। और हमारे खिलाफ विद्रोह कर दिया। कान्यकुब्ज ब्राहमणो तो और भी दोषी हैं। ये सबसे प्राचीन हैं। हमने इनपर भरोसा किया। बंगाल आर्मी की दिल्ली से पेशावर तक तैनात बड़ी-बड़ी रेजीमेंटो मे अवध और द्वाबा के कान्यकुब्जों का ही ज़ोर था। हमने इनपे सबसे अधिक विश्वास किया। और इन्होंने हमारे राज को धूल मे मिला दिया"। 

वर्सली ने मौजा ताजपुर और करनपुर जला कर राख कर दिया था। उसके जाने के बाद कैंपबल मध्य-बिहार आया। कैंपबल ने मुरई को आग के हवाले किया। जिसको पाया फांसी दे दी। फिर भी विद्रोह काबू मे नही आया। 24 मार्च 1858 को अपने सीनीयर अफसर को पत्र मे उसने माना कि "मै तीन महीने टेंट मे रह रहा हूं। रजवारों और भूमिहारों ने जीना हराम कर दिया है। कचहरी और मजिस्ट्रेट के बंगलो को जला दिया है। हम नई पुलिस चौकियां बनाते हैं और वे धवस्त कर देते हैं"। 

अंग्रेज़ो ने 4 छोटी कोठरियों मे सैंकड़ों कैदी ठूस दिये थे। कमरों के कोने मे मिट्टी पड़ी रहती, जिसमे कैदी पेशाब करते। पुआल भी नही पड़ा! इस भंयकर बदबू से कई कैदी बेहोश हो जाते। कई प्रतिष्ठित भूमिहार परिवारों के औरतें और बच्चों को अकथनीय यातना दी जाती। 

असाढ़ी गांव के रजवारों ने भूमिहारों और अपनी जाति पर हो रहे अत्याचार  का बदला लिया। नेहालुचक गांव के सांमतो पर हमला कर के! 

तब तक दिल्ली और लखनऊ दोनो गिर चुके थे। अप्रैल 1858 मे राजा कुंवर सिंह जगदीशपुर की अंतिम जंग जीत गये--पर वीरगति को प्राप्त हुऐ। नाना साहब पेशवा के नाम क्रांती आगे बढ़ रही थी। 

जून-जुलाई 1858 के बीच भूमिहारों-रजवारों और मुस्लिम लड़ाकों ने फिर तारतम्य बैठाया। अंग्रेज़ परस्त सामंतो पर फिर हमले तेज हुए। उत्तम दास की कचहरी पर हमला; पतरिहा के करामत अली की संपत्ती की लूट; भवानीबीघा, मोहनपुरवा, मौलानागंज, गोपालपुर, दौलतपुर, खुशियालबीघा मे लड़ाई--एक नया उबाल आ गया। रजवारो, भूमिहार, और कुछ कुर्मी, कुशवाहा तथा ग्वालों (यादव) के गांवो को जलाया गया। कैंपबल ने अपने एक पत्र मे साफ किया कि, "सिर्फ रजवारों को दोशी ठहराना ठीक नही है। इनके साथ बड़ी मात्रा मे राजपूत, भूमिहार तथा मुसलमान शामिल हैं"।

रजवार और अन्य क्रांतीकारीयों ने अंग्रेज़ो की नाक मे ऐसा दम किया कि ब्रिटिश प्रशासन मे आपसी विवाद पैदा हो गया। एटवा रजवार और कई कमांडर पुलिस की गिरफ्त मे आ ही नही रहे थे। गुरिल्ला दस्तों से निपटने के लिये 1863 मे 10 हज़ार की फौज मैदान मे उतारनी पड़ी! 

पश्चिम मे बसगोती और पूरब मे कौआकोल की ओर से घेराबंदी की गयी। सामंतो को हज़ारीबाग, दक्षिण की तरफ से हमला करना था। 

पर ये घेराबंदी फेल हो गयी। कई जगह क्रांतीकारियों के खिलाफ हिंदुस्तानी सिपाहियों ने हथियार चलाने से मना कर दिया। सौतार के सामंत फूल सिंह की सेना मे विद्रोह हो गया। एटवा रजवार फूल सिंह के एस्टेट का ही था। अंग्रेज़ो ने फूल सिंह को खिल्लत बख्शी थी। पर 1863 अभियान की असफलता के बाद, अंग्रेज़ फूल सिंह के 'दोहरे चरित्र' की बात करने लगे।

अवध और मगध

1867 तक मध्य बिहार-मगध के छेत्र मे अंग्रेज़-विरोधी/सामंतवाद विरोधी संहर्ष चलता रहा। अवध मे अंग्रेज़ो ने किसानो-ज़मीदारों की सारी ज़मीन जब्त कल ली। पर 1858 मे अंग्रेज़ो को घुटने टेक दिये--किसानो की जब्त ज़मीने लौटाईं--और पट्टीदारी व्यवस्था--जो सामंतवाद-विरोधी थी--बहाल की। 

अवध के बाद मगध ही मे अंग्रेज़ो को मुंह की खानी पड़ी। मगध-बिहार मे बंगाल की तर्ज पर, कुछ फेर-बदल के साथ, अंग्रेज़ो ने permanent settlement यानी यूरोपीय सामंतवाद लागू किया था। जहां अधिकतर किसान tenants थे। बंधुआ मज़दूरी और बेगार, कमियाटी प्रथायें चल निकली थी। 

मगध किसान विद्रोह और सामंतवाद विरोधी क्रांती 

अवध की तरह मगध की अपनी भाषा-संस्कृति रही है। मान-सम्मान का मनोवैज्ञानिक ढांचा और आत्म-सम्मान/राजनीतिक सत्ता का आर्थिक ढांचा सदियों से मौजूद रहा है। 

मगध किसान विद्रोह के बाद अंग्रेज़ो को अपने थोपे गये सामंतवाद मे सुधार लाना पड़ा। 1867 मे आये सुझावों के अनुसार: 
1. बंधुआ प्रथा खत्म होनी चाहिये। बाज़ार के दर पर मज़दूरी तय की जानी चाहिये। 
2. ज़बरदस्ती करने वाले सामंतो पर धारा 374 के हिसाब से कार्यवाही होनी चाहिये। 
3. किसानो के कर्ज़ के जो बांड्स (bonds) हैं, उन्हे एक वर्ष के अंदर खत्म किया जाना चाहिये। 
4. रजवारों और गरीब किसानो के लिये रोज़गार की व्यवस्था होनी चाहिये। 
मगध के अन्य क्रांतीकारीयों जिनको सज़ा हुई: 
जोधन मुसहर, उग्रसेन रजवार, घनश्याम दुसाध, गोविन्द लाल, पुनीत दुसाध, शिवदयाल, बंधु, रुस्तम अली, रज्जू कहार। 

अलीपुर कैदियों की लिस्ट यूं थी: 
लच्छू राय (भूमिहार-ब्राहमण), सीरू राय (भूमिहार-ब्राहमण), रामचरण सिंह (राजपूत), रातू राय (भूमिहार-ब्राहमण), बोरलैक (कुर्मी), हरिया (चमार), रामटहल सिंह (राजपूत), दुल्लू ( भोक्ता-जन जाति), झंडू अहीर, शिवन रजवार, भुट्ठो रजवार, सोनमा दुसाध, चुम्मन रजवार, कारू रजवार, दरोगा रजवार, मेघु रजवार, लीला मुसहर, गुनी कहार, गछमा कहार, गणपत सेवक, मनोहर (चमार), जेहल मुसहर, मेघन रजवार। 

 गया और जिवधर सिंह 

3 अगस्त 1857 से लेकर, करीब दस दिनो तक गया आजाद रहा। विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों की कचहरी-दफ्तर सब कुछ जला दिया। जेलखाना तोड़ दिया गया। अंग्रेज़ गया किले मे घुस गये। विद्रोहियों ने कई बार किले की घेराबंदी की। 8 सितंबर 1857 को अंग्रेज़ो और विद्रोहियों मे भिड़ंत हुई, जिसमे अंग्रेज़ो को भारी क्षति पहुंची। 

1857 की लड़ाई मे गया, नवादा, जहानाबाद, अरवल और औरंगाबाद मे अंग्रेज़ विरोधी लड़ाई के प्रमुख किरदार भूमिहार-ब्राहमण जिवधर सिंह थे। बिक्रम थाना क्षेत्र में जिवधर के भाई हेतम सिंह ने विद्रोह का झंडा बुलंद रखा। एक समय था जब आधे जिले पर जिवधर सिंह का सिक्का चलता था। कलपा के राम सहाय सिंह, सिद्धि सिंह और जागा सिंह, जिवधर सिंह के प्रमुख सहयोगी थे। टेहटा की सारी अफीम एजंसियों को जिवधर सिंह ने कब्ज़े मे कर लीं। जिवधर सिंह ने नालंदा मे हिल्सा तक कब्ज़ा जमाया। अंग्रेज़ो ने कालपा, टेहटा और कई गांव के गांव जला दिये। 

कंपनी-अंग्रेज़ राज के खात्मे के ऐलान के साथ, जिवधर सिंह ने कर वसूली की सामांतर व्यवस्था कायम की, जिससे किसानो को राहत मिली। वहीं सामंत वर्ग पर अंकुश लगा। अरवल, अनछा, मनोरा और औरंगाबाद के सीरीस परगने मे गरीब-भूमिहीन किसानो मे भूमि वितरण हुआ। 

29 जून 1858 को मद्रास आर्मी की बड़ी टुकड़ी जिवधर सिंह के खिलाफ भेजी गई। जिवधर सिंह पुनपुन नदी पार निकल गये। निमवां गांव मे विद्रोहियों ने अंग्रेज़ फौज को ऐसा रोका कि तीन अंग्रेज़ अफसर मारे गये! एक छोटे से गांव से अंग्रेज़ों ने ऐसे प्रतिरोध की उम्मीद नही की थी। 

अरवल घाट की लड़ाई मे भी अंग्रेज़ मात खा गये। जहानाबाद के दरोगा को जिवधर सिंह ने मार कर उसकी लाश को टांग दिया। 

अंग्रेज़ों ने जिवधर सिंह के गांव खोमैनी पर अंग्रेज़ों ने हमला किया। यहां भी जिवधर सिंह अंग्रेज़ों को हराने मे सफल रहे।  

सरयूपारी ब्राहमण लाल भूखंद मिश्र जिवधर सिंह के एक कमांडर थे। उस समय बिहार मे कान्यकुब्जों के मुकाबले, सरयूपारी संख्या मे कम थे। लाल भूखंद मिश्र बहादुरी से लड़ते हुऐ, वीरगति को प्राप्त हुऐ। 

जिवधर सिंह का पीछा अंग्रेज़ों ने पलामू के अंटारी गांव तक किया। पलामू मे क्रांति का नेतृत्व भूमिहार ब्राहमण नीलांबर-पीतांबर शाही और और चेरो जन जाति के सरदार कर रहे थे। 

जिवधर सिंह दाऊदनगर और पालीगंज तक लड़े। अनेक अंग्रेज़ बरकंदाज़ों और प्लांटरों को मार गिराया। अंग्रेज़ परस्त सामंत उनके खौफ से भाग खड़े हुऐ। आर. सोलांगो इंडिगो प्लांटर की पटना और गया-जहानाबाद मे फैक्ट्रियों को जला दिया गया। जिवधर सिंह ने शेरघाटी को liberated zone बनाया और कई वर्षो तक युद्ध किया।

झारखंड/छोटा नागपुर

वर्तमान झारखंड 1857 मे छोटा नागपुर ऐजंसी के रूप मे जाना जाता था। दानापुर, शाहबाद, सुगौली, सारण, सिवान, मुज़फ्फ़रपुर, भागलपुर, गया आदि मे विद्रोह का सीधा असर छोटा नागपुर मे पड़ा। 

इस इलाके मे 8वी पैदल सेना, जिसने 7वी, 40वी के साथ, 25 जुलाई को दानापुर मे विद्रोह कर बिहार मे अंग्रेज़-विरोधी लड़ाई की बागडोर राजा कुंवर सिंह के हाथ सौंपी, की एक टुकड़ी, हज़ारीबाग मे तैनात थी। बाकी चायबासा, पुरुलिया, रांची और संभलपुर मे रामगढ़ बटालियन सबसे बड़ी ताकत थी। 

रामगढ़ बटालियन मे भागलपुर, मुंगेर, सारण, शाहबाद-आरा-बक्सर और मगध के सिपाही ज़्यादा थे। 

30 जुलाई को हज़ारीबाग मे 8वी रेजीमेंट की टुकड़ी ने हज़ारीबाग मे विद्रोह किया। जेल से कैदियों की रिहाई और अंग्रेज़ी खज़ाने को कब्ज़े मे लेने के बाद, हज़ारीबाग के विद्रोही रांची की तरफ चले। उधर रांची से रामगढ़ बटालियन की टुकड़ी ले कर, अंग्रेज़ अफसर हज़ारीबाग के विद्रोह को कुचलने निकल पड़ा। पर बीच ही मे, रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया! बुरमू मे रामगढ़ बटालियन और हज़ारीबाग के सिपाही मिले--और दोनो रांची की ओर चल दिये! 

रांची पहुचते ही वहां मौजूद रामगढ़ बटालियन के बाकी सिपाहियों ने भी विद्रोह कर दिया। जल्द ही, विश्वनाथ साही के नेतृत्व मे रांची क्रांतिकारी सरकार की स्थापना हुई। 

विश्वनाथ साही जाति के भूमिहार थे। विकिपीडिया इत्यादी मे विश्वनाथ साही को 'नागवंशी राजपूत' कहा गया है। छोटा नागपुर मे नागवंशी राजपूत थे और हैं। 1857 मे लड़े भी। जैसे पोरहट के राजा अर्जुन सिंह जिन्होनें 1857 क्रांती की बागडोर चायबासा-सिंहभूम मे संभाली। 

अंग्रेज़ अफसर डाल्टन जो छोटा नागपुर छेत्र मे सबसे उच्च अंग्रेज़ अफसरों मे था, ने अपनी पुस्तक, Mutiny in Chota Nagpur मे साफ-साफ विश्वनाथ साही को 'बाभन' या भूमिहार ब्राहमण बताया है। बल्कि रांची मे क्रांतीकारी सेना के चीफ राय गणपत को भी 'बाभन' कहा गया है। 

विश्वनाथ साही के नेतृत्व मे सभी अंग्रेज़ विरोधी सामंतो की ज़मीन जप्त  कर, भूमिहीनो और छोटे किसानो मे बांटी गई। छोटे ज़मीदारों और किसानो पर जो अंग्रेज़ो और साहूकारों ने कर्ज़ लादा था, माफ किया गया।

रांची क्रांतिकारी सरकार ने बहादुर शाह को अपना बादशाह और राजा कुंवर सिंह को बिहार सूबे का वज़ीर घोषित किया। सैनिक मामलों का नेतृत्व शाहबाद/आरा के सिपाही माधो सिंह, रामगढ़ बटालियन के भागलपुर निवासी सूबेदार जय मंगल पांडे (कान्यकुब्ज ब्राहमण) तथा नादिर अली के हाथ मे था। योजना थी कि रांची से सीधे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हेडक्वार्टर कलकत्ता, जहां गवर्नर-जर्नल कैनिंग विराजमान था, कि ओर कूच किया जाये। कलकत्ता और दिल्ली-लखनऊ के बीच की ग्रांड ट्रंक रोड भी क्रांतिकारियों के कब्ज़े मे आ गयी।  

उड़ीसा 

हज़ारीबाग के विद्रोह के समय, संभलपुर, जो आज उड़ीसा मे है, छोटा नागपुर का हिस्सा था। संभलपुर गद्दी के अंग्रेज़ विरोधी वारिस, सुरेंद्र साही, उस समय हज़ारीबाग जेल मे थे। विद्रोहियों ने उन्हे मुक्त किया। 

सुरेंद्र साही भूमिहार ब्राहमण ही थे, जिनका राज अंग्रेज़ो ने छीन लिया था। लेकिन संभलपुर के भूमिहार, आदिवासियों के राजा थे। अंग्रेज़ अफसर डाल्टन के अनुसार, "सुरेंद्र साही कोई भगवान नही, अपतु भूमिहार ब्राहमण है, जो 17वी सदी मे उड़ीसा की तरफ पलायन कर गये थे। आदिवासियों ने इन्हे अपना देवता माना। और ये भी आदिवासियों से इतना घुल-मिल गये, कि साही की जगह 'साई' लिखने लगे--और बाद के लोगों ने इन्हे 'आदिवासी देवता' मान लिया। पर उड़ीसा के गैर-भूभिहार उत्कल ब्राहमण, जैसे पंडा, पाणिग्रही और 'मिस्र' उपाधि इस्तेमाल करने वाले उत्कल ब्राहमण, इनको ब्राहमण के रूप मे ही जानते हैं।" 

यही वजह थी कि संभलपुर मे 1864 
मे सुरेंद्र साही कि गिरफ्तारी के बाद भी, 1867 तक अंग्रेज़ विरोधी चला। आदिवासी और उड़िया ब्राहमण, पूरी तरह से इस संहर्ष मे शामिल थे। उड़ीसा की 'पटनायक' जाति भी, जो छत्रिय और कुर्मी-पटेल की बीच की सथिति मे थे, सुरेंद्र साही के नेतृत्व मे लड़ी। 

चतरा 

रांची के क्रांतीकारी सिपाहीयों के नेता, जयमंगल पांडे और नादिर अली, हिंदू-मुस्लिम एकता की अदभुत मिसाल पेश करते हुऐ, अक्टूबर 1857 मे चतरा की लड़ाई मे शहीद हो गये। 
आज भी वहां स्मारक जहां लिखा है: 
"जयमंगल पांडे नादिर अली"
दोनो सूबेदार रे
दोनो मिलकर फांसी चढ़े 
हरजीवन तालाब रे" 

माधो सिंह रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गये। 

सिंहभूमी 

नागवंशी राजपूत अर्जुन सिंह और कोल आदिवासी लड़ाकू गन्नू के नेतृत्व मे सिंहभूम और चायबासा मे 1858-59 तक अंग्रेज़-विरोधी युद्ध चलता रहा। 14 जनवरी 1858 को मोगरा नदी की लड़ाई मे कोल और अर्जुन सिंह की सेना मे मुकुंद राय के नेतृत्व मे भूमिहार लड़वैय्ये जुड़ गये। 

मोगरा नदी की लड़ाई मे अंग्रेज़ अफसर लशींगटन को मुंह की खानी पड़ी। अंग्रेज़ो ने सपने मे भी नही सोचा था कि वो आदिवासी कोलों, अर्जुन सिंह और मुकुंद राय की सयुंक्त सेना से हार जायेंगें। 

मानभूमि

आज के बंगाल मे स्थित मानभूम मे 5 अगस्त 1857 को वहां के रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने विद्रोह किया। पांचेट के नागवंशी राजपूत निलोमणि सिंह ने मानभूम की कमान संभाली। मानभूम के संथालों ने कई बड़े सामंतो पर हमला किया। हज़ारीबाग के संथालों ने पुनः विद्रोह किया। 

पलामू

पलामू ने एक नये अध्याय को जन्म दिया। पलामू मे दो ऐसे शख्स थे, जिन्होंने इतिहास की धारा मोड़ने मे अदभुत भूमिका निभाई। नीलांबर और पीतांबर साही भूमीहार थे। जिनका परिवार वहां के आदिवासियों के लिये संभलपुर की तरह देव तुल्य था। अक्टूबर 1857 से लेकर 1858-,59 तक, नीलांबर-पीतांबर के नेतृत्व मे भोगता, चेरो और खरवार आदिवासी जन-समूह जम कर लड़े।

पलामू की लड़ाई ने भी सामंतवाद-विरोधी रूख अपनाया। ठकुराई रघुबीर दयाल सिंह और ठकुराई किशुन दयाल सिंह पलामू के बड़े, अंग्रेज़-परस्त सामंत थे। आदिवासियों से इनकी सीधी लड़ाई थी। 

अक्टूबर 1857 मे क्रांतीकारीयों ने चैनपुर, शाहपुर और लेसलीगंज पर हमला कर दिया। नीलांबर/पीतांबर के नेतृत्व मे आदिवासी फौज ने चैनपुर मे लेफ्टिनेंट ग्राहम को घेर लिया। जब तक मेजर कोटन एक बड़ी फौज लेकर ग्राहम को बचाने नही पहुंचा, घेरेबंदी चलती। देवी बख्श राय नामका भूमिहार योद्धा इस लड़ाई मे गिरफ्तार हो गया। 

क्रांतीकारीयों ने फिर बांका और पलामू के किलों पर हमला किया। ठाकुर किशुन दयाल सिंह ने अगर गद्दारी न की होती तो बांका किला क्रांतीकारियों के कब्ज़े मे आ जाता। नकलौत मांझी भी पलामू मे एक बड़े क्रांतीकारी नेता के रूप मे उभरे। नकलौत ही शाहबाद मे जारी राजा कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह की सरपरस्ती मे चल रही लड़ाई और पलामू के बीच की कड़ी थी। भूमिहार राय टिकैत सिंह और उनके मुसलमान दीवान शेख बिखारी भी पलामू मे खूब लड़े। दोनो को एक साथ फांसी पर लटकाया गया। 

1858 के मध्य तक विश्वनाथ साही, राय गणपत, उनके सहयोगी, नीलांबर-पीतांबर साही--सभी फांसी पर चढ़ा दिये गये थे। पर आंदोलन नही रूका। 

आज़मगढ़-गाज़ीपुर-बलिया-इलाहाबाद 

उधर अप्रैल 1858 मे लखनऊ के पतन के बाद, कुंवर सिंह अपनी फौज के साथ वापिस जगदीशपुर, बिहार की ओर पलटे। अतरौलिया, आज़मगढ़ मे दो बार कुंवर सिंह की बिहारी फौज का अंग्रेज़ों की गोरी पलटनो से सामना हुआ। और दोनो बार अंग्रेज़ पराजित हुए। कुवंर सिंह ने सिकंदरपुर, बलिया के पास गंगा पार की और एक बार फिर अंग्रेज़ो को हराते हुऐ, जगशदीशपुर पहुंच कर ही दम तोड़ा। 

कुंवर सिंह के बलिया-गाज़ीपुर आगमन पर, वहां के सरयूपारी ब्राहमण, राजपूत, मुसलमान, अहीर और भूमिहार ब्राहमण सक्रिय हुए। गहमर, गाज़ीपुर के भूमिहार ब्राहमण मेघार राय ने कमान संभाली। 
गाज़ीपुर, विशेषकर जमानियाँ क्षेत्र, मार्च, 1858 तक बहुत उग्र हो गया। मेघार राय की फौज ने सैदपुर-वाराणसी सड़क की घेराबंदी कर दी और बनारस के लिए 'खतरा' बन गए। 

इस नये पूर्वांचल-संघर्ष में भूमिहार ब्राहमणों ने मेघार राय के नेतृत्व में शाहाबाद और गाजीपुर से अधिकतम लड़ाकों को संघर्ष में झोंक दिया। यहां के भूमिहार, राजपूत और पठान--तीनो--सकरवार शाखा से थे। और तीनो ही अपना संबंध कन्नौज-उन्नाव के कान्यकुब्ज ब्राहमणो से जोड़ते थे। 

भूमिहार ब्राहमणों एवम पठानों ने संग्राम सिंह के नेतृत्व में मड़ियाहूं (जौनपुर) पर धावा बोल दिया। निचलौल (गोरखपुर जिला) और सलेमपुर, देवरिया में इंडियन कैवेलरी (घुड़सवार सैनिक दस्ता और तोपखाना) अंग्रेजों के खिलाफ हो गयी। अंग्रेज़ यूनिट का नेतृत्व सर राटन कर रहा था। वहां राजपूतों तथा भूमिहार ब्राहमणों ने अफीम एजेंटों तथा अंग्रेजों का कत्ल कर दिया।

इसके बाद, दिलदारनगर संघर्ष (Dildarnagar Stand off) हुआ।  मेघार राय के साथ भूमिहार सरदार विशेषकर शिवगुलाम राय, रामप्रताप राय, शिवचरण राय, रामजीवन राय, शिवपाल राय, रोशन राय, मोहन राय तथा तिलक राय कंधे से कंधा मिला कर लड़े। 

ब्रिटिश इतिहासकारों ने अपने अभिलेखों में भूमिहार ब्राह्मणों का बहुत 'खतरनाक' एवम आक्रामक व्यक्तित्व दर्ज किया है।

उत्तर-प्रदेश और मध्य प्रदेश के जालौन, गुरसराय तथा सागर के चितपावन ब्राहमण अपने को भूमिहारों से जोड़ते थे। इनहोने भी बाजीराव प्रथम के वंशज नाना साहब के नेतृत्व मे मुसलमानो से मिल कर 1857 मे अथक संहर्ष किया। 

पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के त्यागी ब्राहमण 

1857 की क्रांती में डासना तहसील का भी महत्पूर्ण स्थान रहा है। यहां गूजरों के साथ, भूमिहारों की शाखा,
त्यागी ब्राहमणों ने फिरंगियों से लोहा लिया। अंग्रेज़ों ने त्यागी ग्रामीणों को सबक सिखाने के लिए डासना से मंसूरी तक की उनकी ज़मीन जब्त कर ब्रिटिश इंजीनियर के हाथों बेच दी। मंसूरी नहर के पास बनी ब्रिटिश हुकूमत की कोठी आज भी इसका प्रमाण है। डासना में जिस समय जमीन नीलामी के आदेश की मुनादी हो रही थी, तो बशारत अली और कुछ अन्य ग्रामीणों ने ढोल फोड़ दिया। उन्होंने लगान देने से भी इनकार कर दिया। इस पर सभी को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। 

पिलखुवा के मुकीमपुर गढ़ी और धौलाना में भी ब्रिटिशों के खिलाफ राजपूतों के साथ-साथ त्यागी भी लड़े। इसके अलावा सपनावत, हापुड़, गढ़मुक्तेश्वर, मोदीनगर क्षेत्र में त्यागी बाहुल्य गांवों में फिरंगियों के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजा। इसमे बड़ी संख्या मे मुस्लिम त्यागी भी शामिल हुए। 

सीकरी खुर्द गांव में स्थित मन्दिर परिसर में वट वृक्ष है। इस पेड़ पर लगभग 100 हिंदू और मुस्लिम त्यागी क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी गई थी। गाज़ियाबाद जिले में कैप्टन एफ एंड्रीज, सार्जेंट डब्ल्यू एमजे पर्सन, सार्जेेंट आर हेकेट, जे डेटिंग, कारपोरल प्रियर्सन, जे जेटी वगैरा की कब्र भी है। 

इलाहाबाद एवं झूंसी में विद्रोह की अगुआई मौलवी लियाकत अली तथा भूमिहार ब्राह्मण सुख राय ने की। इनके साथ मेजा और बारा क्षेत्र के भूमिहार ब्राह्मण एवम मुसलमान सिपाही थे। सुख राय का साथ राजपूतों, कुर्मियों, ब्राह्मणों, कलवारों और चमारों ने दिया था। सुख राय करछना पहुंचे और वहां पर उभार का नेतृत्व  संभाला जो 1860 तक चला 

वाराणसी, गाज़ीपुर, बलिया, जौनपुर, आज़मगढ़, यानी रूहेलखंड, अवध और पूर्वांचल मे 1857 महा-समर के दौरान, भूमिहार ब्राहमणो की लड़ाकू, अंग्रेज़-विरोधी भूमिका चिन्हित की गई थी। 

अब बिहार की तरफ बढ़ते हैं। 

25 जुलाई 1857 को दानापुर, बिहार मे बंगाल सेना की तीन रेजीमेंटो ने विद्रोह किया। इसके पहले, 12 जून को रोहिणी, देवघर मे 5वी अनियमित (irregular) घुड़सवार दस्ते (cavalry regiment) के मुसलमान सिपाहियों ने अंग्रेज़ अफसरों पर हमला बोला। देवघर मे स्थित 32वी पैदल पलटन उस समय खामोश रही। 

3 जुलाई को पटना मे मौलवी पीर अली के नेतृत्व मे एक उभार आया। लेकिन वो व्यापक स्वरूप नही पकड़ पाया। अंग्रेज़ो ने patna uprising को कुचल दिया। पटना के कमिशनर विलियम टेलर ने गांधी मैदान को लाशों से पाट दिया। औरतों और बच्चों तक को नही छोड़ा। 

दानापुर मे सेना की 7वी, 8वी और 40वी रेजीमेंट के नेता शाहबाद के हरे कृष्ण सिंह थे। ये बाबू कुंवर सिंह की तरह उज्जैनी राजपूत थे। इन तीनो पलटनो ने एक साथ विद्रोह कर दिया। 

इसमे ज़्यादातर सिपाही शाहबाद इलाके--आरा, रोहतास, कैमूर, बक्सर, भोजपुर--से थे। अब पूरे बिहार मे आग फैल गयी। बाबू कुंवर सिंह ने नेतृत्व सम्भाला और 30 जुलाई 1857 को मेजर डनबार की लीडरशिप मे पटना से आरा की ओर बढ़ती अंग्रेज़ फौज को रात के अंधेरे मे हई भंयकर लड़ाई मे शिकस्त दी। इसमे 180 से ज़यादा अंग्रेज़ सिपाही/अफसर और उनके साथ सैकड़ों सिख सिपाही मारे गये। 

सिखों का बड़ा हिस्सा कुंवर सिंह से आ मिला। 

अंग्रेज़ों की आरा की लड़ाई जैसी बुरी हार इतिहास मे शायद ही कभी हुई थी। 

30 जुलाई के बाद शिवराज और अचरज राय के नेतृत्व मे आरा-बक्सर के भूमिहार-ब्राहमणो ने कुंवर सिंह की सेना मे बड़े स्तर पर अपनी जाति विशेष की भर्ती शुरू कर दी। विंसट आयर की फौजें आरा पहुचने के बाद, गोली-बारूद की कमी के कारण, आयर से कई बार युद्ध करते हुऐ, कुंवर सिंह रीवा होते हुए, लखनऊ की तरफ कूच कर गये। 

कुंवर सिंह के लखनऊ की तरफ बढ़ने के बाद, आरा से लेकर कैमुर तक छापामार युद्ध का नेतृत्व मुखयतः भूमिहार और ग्वाला-अहीर जाति के लड़वैयों ने किया। 

सारण और तिरहुत छेत्र मे जून ही मे वारिस पठान नाम के क्रांतिकारी को अंग्रेज़ो ने पकड़ा। उस समय मे सुगौली मे 12वी अनियमित घुड़सवार पलटन तैनात थी। इसने 12 अगस्त को विद्रोह कर दिया। 

15 अगस्त को भागलपुर मे स्थित 5वी अनियमित घुड़सवार पलटन, जिसके कुछ सिपाही रोहिणी, देवघर मे फांसी पर चढ़ाये जा चुके थे, ने संपूर्ण रूप से बग़ावत कर दी। 

इधर दानापुर विद्रोह के कई भूमिहार और मुस्लिम सिपाही, कुंवर सिंह के लखनऊ कूच के बाद, तिरहुत और गया-जहानाबाद की तरफ आ धमके। 

बिहार मे अब civil rebellion यानी सिपाहियों से इतर, लेकिन उनके मार्गदर्शन मे, नागरिकों और किसानो का विद्रोह शुरू हो गया।

सारन, छपरा, गोपालगंज, महराजगंज और सिवान मे महाबोधी राय, रामू कोईरी और छप्पन खान ने संभाला। इनके साथ पासवान, अहीर, कुर्मी और चमार बिरादरी के लड़ाकों का बड़ा हिस्सा था। महाबोधी राय अपनी हाथी ब्रिगेड के लिये प्रसिद्ध थे। अंग्रेज़ परस्त ज़मीदारो को वो हाथी से कुचलवाते थे। 

तिरहुत मे अंग्रेज़ों की अफीम और नील की कोठियां थी। 1857 में नील की कोठियों में कितनी पूंजी लगी थी, इसका अंदाजा दानापुर के कमांडर ब्रिगेडियर क्रिस्टी के इस पत्र से होता है जो उसने पटना के कमीशनर को लिखा था। उसने कहा था कि "तिरहुत और चंपारण जिले नील के उन कारखानों से भरे पड़े हैं, जो डाई की पैदावार शुरू ही करने वाले हैं। इन दो जिलों में इतनी पूंजी लगी है, जितनी देश के किसी हिस्से में नहीं लगी है। इसलिए अगर विद्रोहियों की मौजूदगी की वजह से इन दो जिलों में अराजकता फैलती है तो इसके परिणाम बहुत भयावह होंगे।"

मुज़फ्फ़रपुर जिले के बड़कागांव ने 1857-1858 मे अदभुत वीरता दिखाई। वारिस पठान भी इसी इलाके के थे। 

बड़कागांव मे 80% से ज़्यादा भूमिहार-ब्राहमण आबादी थी। इस इलाके के जांबाज़ो ने धरमपुर-तरियानी परगना के ग्वालों और मुसलमानो से मिलकर तिरहुत के बड़े हिस्से को अंग्रेज़ो से मुक्त कराया। कैमुर-शाहबाद और सारण के छापामारों से संबंध बनाये रखा। और कलकत्ता से लखनऊ की तरफ बढ़ती हुई ब्रिटिश फौजों को पटना से आगे नही बढ़ने दिया। 

बड़कागांव और तिरहुत 1858 तक लड़ता रहा। नीलहों, अंग्रेज़ व किसानों में रस्साकशी चलती रही।

अंग्रेज़ो ने इतने ज़ुल्म ढाये कि बड़कागांव का नाम आज तक लोग कम ही लेते हैं। 

अंग्रेज़ी persecution से बचने के लिये इस गांव का नाम पछियारी पड़ गया। 

बड़कागांव संघर्ष मे भूमिहार, जो शाही या साही सरनेम लिखते थे, मुख्य भूमिका मे थे ... यहां के लड़वैयों की सूची चौंका देने वाली है:
 
1. रामदीन शाही
2. केदई शाही
3. छद्दु शाही
4. कृष्णा शाही
5. नथु शाही 
6. छटठु शाही 
7. हंसराज शाही 
8. शोभा शाही 
9. बैजनाथ तिवारी (कान्यकुब्ज ब्राहमण)
10. तिलक शाही
11. पुनदेव शाही 
12. कीर्तिन शाही 
13. छतरधारी शाही
14. दर्शन शाही
15. रौशन शाही 
16. तिलक तिवारी (कान्यकुब्ज ब्राहमण)
17. मो. शेख कुर्बान अली 
 18. शिवटहल कुर्मी 

धरमपुर तरियानी परगना के: 
1. भागीरथ ग्वाला 
2. राधनी ग्वाला 
3. राज गोपाल ग्वाला
4. तूफानी ग्वाला 
5. रणजीत ग्वाला 
6. संतोषी ग्वाला 
7. खीरासी खान पठान 
8. बन्टूखी ग्वाला 
9. रामटहल ग्वाला



अवध से लेकर मगध-झारखंड-- पूरबियों की धरती है। भारत को आज़ाद कराने की पूरी मुहिम पूरबियों ने ही चलाई। पूरबिये सभी धर्म-जाति के हैं। दरअसल ये एक कौम और मिनी-राष्ट्रीयता है।
1857 मे पूरबियों का मिलन पश्चिमियों--हरियाणा और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के हिंदू-मुसलमानो--से हुआ। और इस्ट इंडिया कंपनी का खात्मा हुआ।

मुगल काल से ही भूमिहारों को 'भूमिहार ब्राहमण' कहा गया। इसके प्रमाण आईने-अकबरी मे मिलते हैं। बिहार के मगध और तिरहुत इलाके से मुगल सेना के लिये यहां से भारी मात्रा मे सैनिक जाते थे।
'कवि विद्यापति और बिहारी साहित्य' पर OUP द्वारा प्रकाशित, पंकज झा की किताब, तथा अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य, साफ करते हैं कि तिरहुत इलाके के भूमिहार-ब्राहमण मगध की तरफ बढ़े और जंगल साफ कर झारखण्ड और उड़ीसा की ज़मीन को खेती लायक बनाया।

ये प्रक्रिया अकबर के जीते जी काफी हद तक पूरी हो गयी थी। अकबर के ज़माने से भू-कर देने वालों मे भूमिहार नही, बल्कि भूमिहार-ब्राहमण दर्ज है। और ये उड़ीसा के कुछ हिस्से तक फ़ैलें हैं।
अकबर के नौरतनों मे से एक, कान्यकुब्ज ब्राहमण बीरबल तिवारी, की वंशावली मे इस बात का ज़िक्र है कि पंच गौड़ मे कान्यकुब्ज ब्राहमण सबसे प्राचीन हैं। सरयूपारी (मंगल पांडे सरयूपारी थे) भी प्राचीन हैं--पर कान्यकुब्ज ब्राहमणो की उपशाखा हैं। और भूमिहार ब्राहमण कान्यकुब्जों की सबसे नवीनतम शाखा है।
बहरहाल, 1857 मे बंगाल ईस्ट इंडिया कंपनी सेना मे 40% प्राचीन कान्यकुब्ज, सरयूपारी और भूमिहार ब्राहमण, 20% राजपूत, 20% मुस्लिम और 20% आज की पिछड़ी-दलित जातियों के सिपाही थे। पैदल और घुड़सवार मिला कर सेना की संख्या 1 लाख, 30 हज़ार थी।
आज तक इतिहास मे ये बात दबी है कि 31 मई 1857 को शाहजहांपुर मे क्रांति का नेतृत्व जवाहर राय नाम के भूमिहार ब्राहमण ने किया था, जो जिला आज़मगढ़ से थे। जवाहर राय ने अन्य ब्राहमण, मुस्लिम और दलित सिपाहियों से मिल कर चर्च मे ऐसा कत्ले-आम मचाया कि पूरे रोहिलखंड मे अंग्रेज़ी राज की चूलें हिल गयीं।
3 जून को आज़मगढ़ मे भोंदू सिंह अहीर के नेतृत्व मे 17वी रेजीमेंट ने अंग्रेज़ी राज उखाड़ फेंका।
4 जून को 37वी रेजीमेंट ने बनारस मे, कान्यकुब्ज ब्राहमण गिरिजा शंकर त्रिवेदी के नेतृत्व मे विद्रोह किया।
15 जून को 17वी की एक टुकड़ी ने सिकंदरपुर, बलिया मे विद्रोह किया।
17वी के दो सिपाही--शंकर और भूमि राय--गाज़ीपुर के भूमिहार ब्राहमण थे।
गहमर, गाज़ीपुर के कई भूमिहार ब्राहमण, काशी नरेश के समर्थक थे। काशी नरेश, जो खुद भूमिहार-ब्राहमण कहलाते थे, तब तक अंग्रेज़ो के साथ थे।
शंकर और भूमि राय उनके पास पहुंचे। राजा ने अंग्रेज़ो के खिलाफ विद्रोह करने से इंकार किया। और शंकर और भूमि राय से कहा कि उनको मुसलमान बहादुर शाह ज़फर का साथ नही देना चाहिये। इस बात पर दोनो सिपाहियों ने राजा के गले पे तलवार रख दी और कहा कि बहादुर शाह ज़फर को हिंदू धर्मगुरूओं ने बादशाह माना है। और सवाल यहां देश को अंग्रेज़ो से आज़ाद कराना है--जिन्होंने भारत को कंगाल कर दिया।
शंकर और भूमि राय ने काशी नरेश को याद दिलाया कि उन्ही के पूर्वज राजा चेत सिंह ने 1770s मे ब्रिटिश गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग के छक्के छुड़ा दिये थे। और 
हुस्सेपुर, सारन (बिहार) के राजा, भूमिहार-ब्राहमण फतेह बहादुर शाही, ने तो 1765 मे बक्सर की लड़ाई के बाद, अंग्रेज़ो के खिलाफ ऐसा गुरिल्ला युद्ध छेड़ा, जो 1790s तक चला।
मामला यहां तक आ पहुंचा कि भूमिहार ब्राह्मण सिपाहिगण काशी नरेश के विरूद्ध सशत्र संघर्ष पर आमादा हो गए। काशी नरेश मान गए कि वह क्रांति के दौरान तटस्थ रहेंगे।
बनारस से भदोही तक मोने राजपूत, जिनसे काशी नरेश की 18वी सदी से लड़ाई थी, खुल कर अंग्रेज़ो से लोहा ले रहे थे। शंकर और भूमि राय ने काशी नरेश को मोना राजपूतों से समझौता करने पर मजबूर किया।
मोना राजपूतों और भूमिहारों ने फिर नील कंपनियों के अंग्रेज़ मालिक, जो किसानो का शोषण करते थे, के खिलाफ भंयकर युद्ध छेड़ दिया। कई नील मालिकों का सर धड़ से अलग कर, भदोही-बनारस मे घुमाया गया। ब्रिटिश खजाने को लूट लिया गया। अंग्रेजों के बंगले जला दिए गए।
आजमगढ़ तथा बलिया के अंग्रेज अधिकारी और निलहे जमींदार गाजीपुर में शरण लिए हुए थे, तभी सेना की 65वी रेजीमेंट ने गाज़ीपुर में विद्रोह कर दिया। इस रेजीमेंट के अधिकाधिक सैनिक भूमिहार ब्राह्मण थे। इन सिपाहियों ने क्षेत्र के भूमिहार ब्राह्मणों को अपने पक्ष में कर लिया और अंग्रेजों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। अचरज राय, शिवराज राय, बोदी राय, बालक राय और देवी राय ने इसका नेतृत्व किया।
शिवराज राय ने अंग्रेज़ रोबर्ट स्मिथ कुम्ब को बक्सर भगा दिया। फलस्वरूप भूमिहार ब्राह्मणों तथा राजपूतों ने भदौरा तथा चौसा स्थित अंग्रेजों के नील कारखानों में आग लगा दी। उन्होंने अंग्रेजों के सभी प्रतीकों को मिटा दिया।
अंग्रेज़ कुम्ब की ज़मीन भूमिहार ब्राह्मणों तथा दलित-चमारों में बांट दी गयी।
भूमिहार ब्राह्मणों की प्रोपगंडा पार्टी ने इस घटना को देवरिया, चंपारण, बेतिया तथा छपरा तक फैला दिया गया जिससे क्रांति और भड़क गई।
यह प्रकरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे साफ होता है कि किसान वर्ग से आये भूमिहार-ब्राहमण क्रांतिकारी थे और सामंत वर्ग वाले यथास्थितवादी।
20वी सदी मे यह फर्क फिर सामने आया जब सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व मे किसान भूमिहार-ब्राहमणो ने अंग्रेज़ी-सामंती प्रथा के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया और प्रगतिशील आंदोलन की रीढ़ बने!

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