Friday, 29 May 2020

Who are Saraswat Brahmins

The Saraswats are a sub-group of HinduBrahmins of India who trace their ancestry to the banks of the Rigvedic Sarasvati River. The Saraswat Brahmins are mentioned as one of the five Pancha Gauda Brahmin communities.


In Kalhana's Rajatarangini (12th century CE), the Saraswats are mentioned as one of the five Pancha Gauda Brahmin communities residing to the north of the Vindhyas.They were spread over a wide area in northern part of the Indian subcontinent. One group lived in coastal Sindh and Gujarat, this group migrated to Bombay State after the partition of India in 1947. One group was found in pre-partition Punjab and Kashmir most of these migrated away from Pakistan after 1947. Another branch known as Dakshinatraya Saraswat Brahmin are now found along the western coast of India.


Social status

Kashmir

According to M. K. Kaw (2001), Kashmiri Pandits, a part of the larger Saraswat Brahmin community hold the highest social status in Kashmir.

Maharashtra

Historically, in Maharashtra, Saraswats had served as low and medium level administrators under the Deccan Sultanatesfor generations. In 18th century, the quasi-independent Shinde and the Holkar rulers of Malwa recruited Saraswats to fill their respective administrative positions.This made them wealthy holder of rights both in Maharashtra and Malwa during the eighteenth century. During the same period in Peshwa ruled areas, there was a continuation of filling of small number of administration post by the Saraswats.In Maharashtra, till the rise of Peshwas, the Chitpavans held low social status and other Brahmins refused to dine with them however during the rule of the Chitpavan Brahmin Peshwas in the 18th century, Saraswat Brahmins was one of the communities against whom the Chitpavans conducted a social war which led to Gramanya (inter-caste dispute).


After the liberation of Goa from the Portuguese colonial rule in 1961, many Goan Saraswats opposed merger of Goa into Maharashtra.

Diet

Konkan and Goa

In Goa, the Saraswat Brahmins have fish as a part of their diet. The Saraswat Brahmins of the Konkan region also eat fish.

Karnataka

In coastal districts of Karnataka, Gaud Saraswats are the Madhva Vaishnavite Saraswat Brahmins, followers of Madhvacharya, while the Saraswats are Smarthas, followers of Shankaracharya. They are largely vegetarians.

Others

Saraswat Brahmins from northern and eastern India also include fish in their diet.

Marriages

The Saraswat Brahmins are divided into various territorial endogamous groups, who at one time did not intermarry.  According to the sociologist, Gopa Sabharwal (2006),marriages between Saraswat and non-Saraswat Brahmins are on the increase though they were unheard of before, mainly because the Saraswats eat fish and occasionally meat, while all other Brahmins in that region are vegetarians.

soul

आत्मा साकार है, या निराकार?


काफी लंबे समय से कुछ लोगों द्वारा, इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि आत्मा साकार है। 
     हम उन्हें अनेक वर्षों से समझा रहे हैं, कि आपका विचार ऋषियों के अनुकूल नहीं है। फिर भी वे इतने हठी लोग हैं, कि अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं हैं, और सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

मुझे अनेक विद्वानों तथा श्रद्धालु व्यक्तियों ने प्रेरित किया, कि आप इस विषय में ऋषियों का विचार प्रस्तुत करें। उनके सुझाव का सम्मान करते हुए, सर्वहित के लिए मैं कुछ निवेदन कर रहा हूं।

ऐसे लोगों का यह कहना है कि--
 आत्मा साकार है। एकदेशी होने से । जो जो वस्तु एकदेशी होती है, वह वह  साकार  होती है। जैसे स्कूटर कार इत्यादि । आत्मा भी एकदेशी है। इसलिए आत्मा भी साकार है।

इन लोगों ने जो अपनी बात रखी है, इसमें इनका हेतु गलत है। हेतु का अर्थ है, अपनी बात को सिद्ध करने के लिए सही कारण बताना। इन्होंने जो कारण बताया, वह गलत है। न्यायदर्शन की भाषा में, गलत कारण को हेत्वाभास कहते हैं। इन्होंने जो कारण बताया है, यह सव्यभिचार  नामक हेत्वाभास है। अर्थात् जो हेतु दोनों पक्षों में चला जाए, वह सव्यभिचार हेत्वाभास कहलाता है। (इसी को अनैकांतिक हेत्वाभास के नाम से भी कहते हैं।)
 इनका हेतु यह था कि एकदेशी होने से, आत्मा साकार है। यह हेतु गलत इसलिये है, क्योंकि यह हेतु दोनों पक्षों में जाता है। अर्थात् एकदेशी वस्तुएं भी साकार हैं, और व्यापक वस्तुएं भी साकार हैं। ऐसी वस्तुएं भी हैं, जो पूरे ब्रह्मांड में व्यापक हैं, फिर भी वे साकार हैं। जैसे प्रकृति। सत्यार्थ प्रकाश के नौवें समुल्लास में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने प्रकृति को विभु अर्थात व्यापक लिखा है।
महर्षि दयानंद जी के वचन ये हैं --
"तीसरा कारण (शरीर) जिस में सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है, वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक है।"
तो एकदेशी होने से साकार नहीं हुआ, व्यापक होने पर भी वस्तुएँ साकार हैं। इसलिए इनका हेतु गलत है। हेतु गलत होने से इनका पक्ष सिद्ध नहीं होता, कि आत्मा साकार है।

दूसरी बात - इनको अपने पक्ष की सिद्धि में कोई शब्द प्रमाण देना चाहिए था। इन्होंने आत्मा को साकार सिद्ध करने के लिए एक भी शब्द प्रमाण नहीं दिया। न कोई वेदवचन दिया, न कोई ऋषिवचन दिया, जिससे सीधा या अर्थापत्ति से सिद्ध होता हो, कि आत्मा साकार है। इसलिए इनकी बात सिद्ध नहीं होती। अर्थात् आत्मा को साकार कहना उचित नहीं है। 

तीसरी बात -- एक वस्तु में अनेक गुण कर्म  होते हैं । वे सभी गुण कर्म एक वस्तु में होते हुए भी, एक दूसरे को सिद्ध नहीं करते। क्योंकि उन सभी गुण कर्मों में, परस्पर साध्यसाधनभाव (कार्यकारणसंबंध) नहीं होता। यहां लोग गलती यह करते हैं, कि किसी भी गुण को लेकर किसी भी बात को वे सिद्ध करना चाहते हैं। जो कि साध्यसाधनभाव नियम के विरुद्ध है। 
जैसे एक उदाहरण --- 
एक मनुष्य संगीत कला जानता है। वह पाक विद्या भी जानता है। वह भोजन भी बनाता है। वह सैर भी करता है। कार भी चलाता है। वह सो भी जाता है। तो उसमें इस प्रकार से अनेक गुण कर्म होते हैं।।  
अब कोई यह कहे कि क्योंकि यह मनुष्य संगीत कला जानता है , इस कारण से यह बहुत अच्छा भोजन बनाता है।
तो अब आप सोचिए, यह अच्छा भोजन बनाने का जो कारण संगीत कला को बताया गया है, क्या यह ठीक है? क्या संगीत कला जानना, भोजन बनाने का कारण है? 
इस सरल सी बात को छोटा बच्चा भी समझ लेगा, कि यह कारण गलत है। भले ही उस मनुष्य में भोजन बनाने की कला भी है, संगीत कला भी है, और वह अच्छा भोजन बनाता भी है। फिर भी भोजन बनाना जो कार्य है, उसका कारण संगीत कला नहीं है। उसका कारण पाकविद्या है। 
ठीक इसी प्रकार से आत्मा में भी अनेक गुण कर्म हैं। वह एकदेशी भी है, निराकार भी है,  चेतन भी है, यज्ञादि कर्म भी करता है, खाता पीता सोता भी है। परंतु इन सबका आपस में कारण कार्य संबंध नहीं है। क्योंकि जहां जहां आप कारणकार्यसंबंध बताएंगे, वहां वहां उनमें साध्यसाधनभाव होना चाहिए, जैसा ऊपर के उदाहरण में बताया गया है। 
तो जैसे संगीत कला से भोजन नहीं बनता, वैसे ही एकदेशी होने से साकार भी नहीं होता। यदि एकदेशी होने से साकार होता, तो अर्थापत्ति प्रमाण से व्यापक होने से निराकार होना चाहिए। जबकि प्रकृति व्यापक है, तो भी साकार है। इसलिए एकदेशी होना और साकार होना, इन दोनों में कारणकार्यसंबंध या साध्यसाधनभाव नहीं है। इसलिए आत्मा को, एकदेशी होने से साकार मानना गलत है।

चौथी बात --- हम यह कहते हैं कि चलिये, थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए, कि आत्मा साकार है। तो ऐसा मानने से एक समस्या उत्पन्न होती है। और वह है, कि -  साकार होने का, जड़ होने के साथ साध्यसाधनभावहै। इसलिए जितनी भी साकार वस्तुएं होती हैं, वे सब जड़ होती हैं। जैसे सूर्य पृथ्वी स्कूटर कार इत्यादि। और जितनी भी चेतन वस्तुएं होती हैं, वे सब निराकार होती हैं। जैसे ईश्वर।
यदि आत्मा को भी साकार माना जाए, तो क्या आप उसे स्कूटर कार आदि के समान जड़ वस्तु भी मानेंगे? 
          हमारे इस प्रश्न का उत्तर वे कुछ नहीं देते। जब वे कुछ उत्तर नहीं देते, तो इस स्थिति को न्यायदर्शन में निग्रहस्थान के नाम से कहा जाता है , अर्थात जब व्यक्ति, विपक्षी के प्रश्न का उत्तर नहीं देता, तो इसका अर्थ है उसका पक्ष झूठ है, और बात यहीं खत्म हो जाती है।

परंतु वे हठ पकड़ कर बैठे हैं, वे मानते नहीं।
और हमें कहते हैं, आप आत्मा को निराकार सिद्ध करें।

ठीक है, हम आत्मा को निराकार सिद्ध करते हैं। कि ----
आत्मा निराकार है। चेतन होने से। जो जो वस्तु चेतन होती है, वह निराकार होती है। जैसे ईश्वर। आत्मा भी ईश्वर के समान  चेतन है। इसलिए चेतन होने से आत्मा निराकार है।
           हमारी इस बात के उत्तर में वे लोग चालाकी से ऐसा कहते हैं। यदि आप आत्मा को निराकार मानेंगे, तो उसे सर्वव्यापक भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जैसे चेतन ईश्वर सर्वव्यापक है, ऐसे चेतन आत्मा भी सर्वव्यापक होना चाहिए। अब आप आत्मा को सर्वव्यापक सिद्ध करें।

वास्तव में यह उनकी चालाकी है। इस चालाकी को समझने के लिए आपको थोड़ा न्याय दर्शन का अध्ययन करना होगा। क्योंकि बातचीत करने के नियम और बातचीत करने में 54 प्रकार की गलतियाँ भी विस्तार से न्याय दर्शन में ही लिखे हैं।

(न्यायदर्शन में बातचीत करने के चार प्रकार बताए हैं। वाद, जल्प, वितंडा और  शंका समाधान।

बातचीत के प्रथम प्रकार -  वाद में दोनों पक्ष वाले अपने अपने पक्ष की स्थापना करते हैं। प्रमाण एवं तर्क से अपने पक्ष की सिद्धि और दूसरे का खंडन करते हैं। अपने सिद्धांत के विरुद्ध नहीं बोलते। और आवश्यकता पड़ने पर पंचावयव का प्रयोग भी करते हैं।
वाद का उद्देश्य सत्य असत्य की खोज करना है। यह शुद्ध बातचीत होती है। इसमें कोई झूठ छल कपट चालाकी बेईमानी नहीं की जाती। ईमानदार लोगों के लिए इसी प्रकार से बातचीत करने का विधान है।

दूसरा प्रकार है - जल्प। इसमें ऊपर बताए वाद के सारे नियम लागू होते हैं , तथा इसके अतिरिक्त इसमें झूठ छल कपट चलाकी बेईमानी सब कुछ किया जाता है। और इसका उद्देश्य होता है - अपनी बात को जैसे-तैसे जिताना और दूसरे को हराना, चाहे कितना भी छल कपट बेईमानी चालाकी आदि करनी पड़े। बातचीत का यह प्रकार अच्छा नहीं है। न्याय दर्शन में सत्य की खोज करने वालों के लिए इसका निषेध है।

बातचीत का तीसरा प्रकार है - वितंडा। इसमें जल्प के सारे नियम लागू होते हैं । बस अंतर इतना है कि वितंडा करने वाला व्यक्ति अपने पक्ष की स्थापना स्पष्ट रूप से नहीं करता , कि वह क्या मानता है? केवल दूसरे पक्ष पर आक्रमण ही करता जाता है। यह भी अच्छी बातचीत नहीं है । इसका उद्देश्य भी वही है जो जल्प का है। न्याय दर्शन में सत्य की खोज करने वालों के लिए इसका भी निषेध है।
सत्य की खोज करने वाले सज्जन लोगों के लिए न्याय दर्शन में बताया है कि वे केवल वाद का ही प्रयोग करें । जल्प और वितंडा से बचें। क्योंकि वह शुद्ध बातचीत नहीं है।

बातचीत का चौथा प्रकार - शंका समाधान है। उसमें एक व्यक्ति नम्रता और जिज्ञासा भाव से प्रश्न पूछता जाता है, और दूसरा व्यक्ति भी सत्य को समझाने के उद्देश्य से उसका उत्तर देता जाता है। उसमें वादी प्रतिवादी बनकर बातचीत नहीं की जाती। केवल जिज्ञासा भाव से प्रश्नोत्तर किए जाते हैं। अस्तु।)

अब हम विवादित विषय के संबंध में पुनः विनम्र निवेदन करते हैं। जिन लोगों ने यह सिद्धांत चलाया है कि आत्मा साकार है, वे लोग न्याय दर्शन में कुशल नहीं हैं। न तो उन्होंने न्याय दर्शन का अध्ययन ठीक प्रकार से किया है। और न ही उन्हें वाद करना आता है। 
वे वाद नहीं कर रहे। जिससे बातचीत करनी चाहिए। क्योंकि यह बातचीत का शुद्ध प्रकार है।
बल्कि वे लोग जल्प का प्रयोग कर रहे हैं। जिसका निषेध है। क्योंकि इसमें झूठ छल कपट चालाकी का प्रयोग होता है।

तो न्याय दर्शन में बताया है, कि जल्प और वितंडा में बोलने में व्यक्ति 54 प्रकार की गलतियां करता है। 
उनमें से 24 प्रकार की जातियां (चालाकी) हैं.
22 प्रकार के निग्रहस्थान (बात का उत्तर गलत देना या चुप रहना) हैं.
 3 प्रकार का छल (वक्ता के अभिप्राय को तोड़ मरोड़ कर उसका खंडन करना) है.
और 5 प्रकार के हेत्वाभास (गलत कारण बताना) हैं. 
ये कुल मिलाकर 54 प्रकार की गलतियां होती हैं, जो न्याय दर्शन में बताई गई हैं। ( चालाक और बेईमान लोग जल्प और वितंडे में इस प्रकार की 54 में से कुछ गलतियां करते हैं। वाद में इनका प्रयोग नहीं किया जाता।)

  इन लोगों ने इन गलतियों में से जो गलती की है, वह है जाति = चालाकी = धोखाधड़ी।  जिस कारण से उन्होंने सब लोगों में यह भ्रांति फैला दी, कि आत्मा साकार है.  

आप इसे पढ़ना चाहें तो न्याय दर्शन के पांचवें अध्याय में प्रथम आह्निक के सूत्र संख्या 4 में पढ़ सकते हैं। वहां पर एक जाति का नाम है, उत्कर्षसमा जाति।

इनके कथन में उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग है।
 ये लोग जो कह रहे हैं कि यदि आत्मा ईश्वर के समान निराकार है, तो वह ईश्वर के समान सर्वव्यापक भी होना चाहिए. 

इसमें जाति मतलब चालाकी या धोखाधड़ी यह है, कि जो दृष्टांत ईश्वर का दिया गया है,  उस दृष्टांत की एक विशेषता = व्यापकता को, साध्य अर्थात जीवात्मा में बढ़ा करके दिखलाना, यह उत्कर्षसमा जाति है।
उन्होंने यही आरोप लगाया है , कि
दृष्टांत = ईश्वर के तुल्य, साध्य =आत्मा भी सर्वव्यापक होना चाहिए. 
 यह उत्कर्षसमा जाति का प्रयोग है। चालाकी से सत्य का खंडन किया जा रहा है। जो कि ईमानदारी नहीं, बल्कि धोखाधड़ी है।

इसलिये इसे शुद्ध बातचीत नहीं कहा जा सकता।
 यदि आपकी इच्छा हो, तो न्याय दर्शन में अध्याय 5, आह्निक 1, सूत्र 4 में देख लीजिए। बुद्धिमानों को समझ में आ जाएगा,  कि वास्तव में यह चालाकी से सत्य का खंडन किया जा रहा है। यह ईमानदारी नहीं है।

अब आत्मा निराकार है। इस विषय में महर्षि दयानंद सरस्वती जी के प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं।

प्रमाण -- 1.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने पूना में कुछ प्रवचन किए थे । उन प्रवचनों की पुस्तक बनी, जिसे लोग "उपदेश मंजरी" के नाम से जानते हैं। उन प्रवचनों में उन्होंने प्रथम उपदेश में कहा कि जीवात्मा निराकार है। उनके शब्द इस प्रकार से हैं।
क्योंकि शरीर स्थित जो जीव है, वह भी आकार रहित है। यह सब कोई मानते हैं, अर्थात वैसा आकार न होते हुए भी हम परस्पर एक-दूसरे को पहचानते हैं।
इस वचन में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने स्पष्ट ही जीवात्मा को आकार रहित अर्थात् निराकार स्वीकार किया है । फोटो संलग्न है।

प्रमाण -- 2. 
इसी प्रकार से उपदेश मंजरी के चतुर्थ उपदेश में भी कहा है। वहां उनके वचन इस प्रकार से हैं।
जीव का आकार नहीं, तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं? ज्ञान सुख-दुख इच्छा द्वेष  प्रयत्न ये नष्ट होते ही जीव निकल जाता है, यह किसान भी समझता है।
इस वचन में भी महर्षि दयानंद जी  ने जीव को आकार रहित अर्थात् निराकार ही माना है। फोटो संलग्न है।

प्रमाण -- 3. 
महर्षि दयानंद सरस्वती जी का एक हस्तलिखित पत्र का फोटो भी मैं प्रस्तुत कर रहा हूं। उनके पत्रों की कोई पुस्तक छपी होगी । उसका फोटो भी मैं भेज रहा हूं । उस पत्र में भी उन्होंने स्वीकार किया है, कि आत्मा निराकार है।
 यच्चेतनवत्त्वं तज्जीवत्त्वम्। जीवस्तु खलु चेतनस्वभावः। अस्येच्छादयो धर्मास्तु निराकारोsविनाश्यनादिश्च वर्तते।
अर्थात जो चैतन्य गुणवाला है, वह जीवात्मा है। जीवात्मा चेतन स्वभाव वाला है। इसके इच्छा आदि धर्म हैं। यह निराकार है, अविनाशी = नष्ट न होने वाला और अनादि है।
इस पत्र में भी महर्षि दयानंद जी ने आत्मा को निराकार माना है।

प्रमाण -- 4.
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में यह लिखा है। फोटो संलग्न है।
वहाँ प्रश्न है -- ईश्वर साकार है वा निराकार?
 इसके उत्तर में -- उन्होंने लिखा है, निराकार। वह पूरा अनुच्छेद पढ़ें। वहाँ  जिस वाक्य के नीचे लकीर लगी है, वह वाक्य यह है। 
क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिए।
इस वाक्य को विशेष ध्यान से पढ़ें।
 यद्यपि वहां यह कथन ईश्वर के संबंध में है। परंतु यदि उसे ऊहा से जीवात्मा पर भी लागू करें, तो वह जीवात्मा पर भी लागू होता है।
इस वाक्य के अनुसार यदि ईश्वर चेतन होते हुए परमाणुओं का संयोग करके सृष्टि को बनाता है, और वह निराकार है।
तो इसी प्रकार से आत्मा भी चेतन होते हुए लोहा लकड़ी आदि वस्तुओं का संयोग करके  स्कूटर कार रेल आदि वस्तुएँ बनाता है, तो वह भी निराकार सिद्ध होता है। जब चेतन  ईश्वर वस्तुओं का निर्माता होने से निराकार है, तो चेतन आत्मा, ईश्वर के समान वस्तुओं का निर्माता होने से निराकार क्यों नहीं?
यहां स्पष्ट लिखा है निराकार चेतन है।
जब आत्मा चेतन है, तो सिद्ध हुआ कि वह निराकार है।

हमने आत्मा को निराकार सिद्ध करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती जी के 4 प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। परंतु साकार मानने वालों ने 1 भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया, जिसमें सीधा साकार लिखा हो, अथवा अर्थापत्ति आदि से भी साकार सिद्ध होता हो।
ये लोग आत्मा को एकदेशी ही सिद्ध करते रहे, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि आत्मा को एकदेशी तो हम भी मानते हैं । इस विषय में तो कोई विवाद था ही नहीं । आत्मा को एकदेशी सिद्ध नहीं करना था, बल्कि साकार सिद्ध करना था, जो कि इन्होंने नहीं किया।
ये लोग एकदेशी होने से आत्मा को साकार कहते रहे। जो कि सिद्ध नहीं हो पाया।
क्योंकि यह अनैकांतिक हेत्वाभास है।

इन लोगों की भ्रांति का कारण ---

इसके अतिरिक्त एक और बात कहना चाहता हूँ, जिसके कारण ये लोग भ्रांति में हैं। 
इनको भ्रांति यह है, कि ये लोग आकार गुण तथा परिमाण गुण दोनों में अंतर नहीं समझ रहे हैं। ये परिमाण गुण को आकार गुण समझ रहे हैं। यह इनकी सबसे बड़ी भूल है, जिसके कारण इन्हें भ्रांति पैदा हुई। 
जबकि वैशेषिक दर्शन में 24 गुणों में, परिमाण गुण को अलग बताया है और आकार (रूप) गुण को अलग बताया है। 
आकार का अर्थ क्या है? श्री वामन शिवराम आप्टे, इस विद्वान का लिखा हुआ "संस्कृत हिंदी कोष", शिक्षा जगत में एक प्रामाणिक कोष है। इस कोष में आकार शब्द का अर्थ देखिए। वे लिखते हैं.... आ+ कृ + घञ् = आकारः। इस शब्द में आ उपसर्ग , कृ धातु, और घञ् प्रत्यय है। इस प्रकार से आकार शब्द बनता है। और इसका अर्थ आप्टे कोष में लिखा है= रूप, शक्ल, आकृति।
इस प्रकार से आकार शब्द का अर्थ हुआ कोई रूप हो, शक्ल हो, आकृति हो, उसका नाम आकार है। फोटो संलग्न है।
 ये लोग आत्मा को साकार बता रहे हैं। अब बुद्धिमान लोग विचार करें, क्या आत्मा का कोई रूप है, कोई शक्ल है, कोई आकृति है? यदि नहीं है, तो साकार कैसे हुआ?
इतनी मोटी बात भी ये लोग नहीं विचार कर सके। आप इसी बात से इनकी बुद्धि का अनुमान कर सकते हैं।
वैशेषिक दर्शन में रूप गुण को अलग बताया है, और परिमाण गुण को अलग बताया है। इस प्रकार से रूप का नाम जब आकार है, तो आकार और परिमाण दोनों अलग-अलग गुण हुए। 
अब ऋषियों का यह सिद्धांत है कि जिस वस्तु में रूप है, अर्थात आकार है, वह साकार वस्तु है। जिस वस्तु में रूप नहीं, आकार नहीं, वह निराकार वस्तु है। परंतु परिमाण गुण दोनों में है, साकार में भी और निराकार में भी।
जैसे कि पृथ्वी सूर्य आदि पदार्थों में आकार गुण भी है और बड़ा आकार होने से महत्परिमाण भी है। तो यह हो गया साकार द्रव्यों में परिमाण गुण।
 अब आत्मा और ईश्वर, ये दोनों निराकार द्रव्य हैं, इनमें किसी में भी रूप गुण या आकार गुण नहीं है, परंतु परिमाण गुण इन दोनों में भी है। 
कठोपनिषद में लिखा है.. अणोरणीयान्  महतोमहीयान्...।। अर्थात ईश्वर अणु से भी अणु है और महत् से भी महत् है। अर्थात छोटे से छोटा है और बड़े से बड़ा पदार्थ है। इस प्रकार से निराकार ईश्वर में परिमाण गुण स्वीकार किया है। 
तथा निराकार आत्मा में भी परिमाण गुण है । मुंडक उपनिषद 3/1/9 में आत्मा को अणु कहा है। एषोsणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन्प्राणः पंचधा संविवेश।। यह आत्मा अणु अर्थात् सूक्ष्म/छोटा है। यहाँ परिमाण बताया है, न कि आकार।
 वैशेषिक दर्शन में भी ईश्वर एवं आत्मा को परिमाण गुण वाला स्वीकार किया है। 
विभवान्महानाकाशः।। तथा चात्मा।। तदभावात् अणु मनः।। तथा चात्मा।।
अर्थात् व्यापक होने से आकाश महत्परिमाण वाला है।। और इसी हेतु से अर्थात व्यापक होने से ही ईश्वर भी महत्परिमाण वाला है।। व्यापक न होने से मन अणु अर्थात्  एकदेशी है ।। और इसी हेतु से अर्थात व्यापक न होने से आत्मा भी अणु परिमाण अर्थात् एकदेशी है।।
इन सूत्रों में भी आत्मा तथा ईश्वर को परिमाण गुण वाला बताया है, साकार नहीं। यदि आप आत्मा को अणु का अर्थ एकदेशी, और एकदेशी होने से साकार कहेंगे, तो कठोपनिषद एवं वैशेषिक दर्शन के प्रमाणों  के आधार पर आपको ईश्वर को भी साकार मानना पड़ेगा। क्योंकि परिमाण तो इन दोनों में बताया गया है।
तो सार यह हुआ कि ये लोग परिमाण और आकार गुण में अंतर नहीं समझ रहे। इसलिए इन्होंने परिमाण को भ्रांति से आकार मानकर जीवात्मा को साकार कहना आरंभ कर दिया। ईश्वर इन लोगों को सद्बुद्धि दे, ये लोग सत्य को समझ सकें। हमारी ओर से इनके लिए बहुत शुभकामनाएं।

 इसलिए सब बुद्धिमानों को इस विषय में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, और यह निश्चय जानना चाहिए कि महर्षि दयानंद सरस्वती जी का सिद्धांत यही है कि आत्मा निराकार है।
विनम्रतापूर्वक धन्यवाद...




◼️वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा◼️


वेदज्ञान के स्वरूप का हमने जो ऊपर निरूपण किया, इसमें वेद तथा अन्य ऋषि-मुनियों की दृष्टि से भी पर्यालोचन करना लाभकारी होगा । वेद से पुराना ज्ञान वा ग्रन्थ संसार के पुस्तकालय में नहीं है, इसमें संसार के प्रायः आधुनिक विद्वान् भी सहमत हैं।

◾️(१) इस विषय में स्वयं वेद क्या कहता है सो प्रथम दर्शाते हैं

🔥तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजस्तस्मादजायत॥
य० ३१।७
उस सर्वपूज्य, सर्वोपास्य, पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामनेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए, अर्थात् उस परमेश्वर ने ही वेदों को प्रकाश किया है । यहाँ यह ध्यान रहे कि ऋग्-यजुः-साम में भी तो छन्द हैं, फिर मन्त्र में "छन्दांसि" का ग्रहण किसलिये किया ? "व्यर्थं सज्ज्ञापयति" इस नियम से "अथर्व" का ग्रहण ज्ञापक से निकलता है, ऐसा समझना चाहिये।

🔥यामादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखं
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ अथर्व० १०।७।२०
जिस सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर से ऋग्वेद उत्पन्न हुआ, जिस परब्रह्म से यजुर्वेद प्रादुर्भूत हुआ, सामवेद जिसके लोम के समान है और अथर्व जिसका मुखरूप है, अर्थात् जिससे सामवेद और अथर्ववेद प्रकाशित हुये, वह ब्रह्म कैसा है ? 🔥"बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रम्" (ऋ० १०।७१।१) इस मन्त्र के सम्बन्ध में हम प्रारम्भ में दर्शा चुके हैं कि वेदवाणी ही सृष्टि में सब से प्रथम वाणी होती है। संसार के सब पदार्थों के नाम कर्मादि का बोध उसी से होता है । वह श्रेष्ठ सर्वोत्कृष्ट होती है। सबके लिये समान परिश्रम-साध्य और प्रभु की प्रेरणा से ऋषियों की बुद्धि में निहित होकर प्रकाशित होती है। इसी सूक्त के तीसरे मन्त्र 🔥"यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्०" में यह बतलाया है कि वेद का ज्ञान पहले ऋषियों के हृदयों में प्रविष्ट होता है, तब पीछे मनुष्य उसको प्राप्त करते हैं। इस प्रकरण में ये दोनों मन्त्र स्पष्ट बतलाते हैं कि वेद में वेद का स्वरूप कैसे माना गया है । इन उपर्युक्त मन्त्रों पर विचार करने से स्पष्ट है कि वेद ज्ञान का प्रकाश तथा वाणी (भाषा) का प्रकाश उस परब्रह्म परमेश्वर से होता है। चारों वेदों का विभाग जगदीश्वर के द्वारा हुआ, तथा वह ज्ञान वा वाणी ऋषियों द्वारा ही मनुष्यों को प्राप्त होती है, यह वेद का सिद्धान्त है। यहाँ "अनु-अविन्दन्" पद विशेष ध्यान देने योग्य हैं। "ऋषिषु प्रविष्टाम्" से स्पष्ट है कि वह ऋषियों में प्रविष्ट हुआ ज्ञान वा वाणी है, ऋषियों की अपनी बनाई नहीं, अर्थात् उनका अपना ज्ञान नहीं।

🔥तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूपनित्याया।
वृष्ण चोदस्थ सुष्टुतिम् ॥ ऋ० ८७५॥६॥
इस मन्त्र में "वाचा विरूपनित्यया" इन पदों से वेदवाणी को नित्य कहा गया है। सायणाचार्य ने भी इसका ऐसा ही अर्थ किया है, यथा 🔥"नित्यया उत्पत्ति रहितया वाचा मन्त्ररूपया सुष्टुर्ति नूनमिदानी चोदस्व स्तुहि"- अर्थात् हे महर्षे ! उत्पत्तिरहित मन्त्ररूप वेदवाणी के द्वारा स्तुति किया कर।

◾️(२) शतपथ तथा ऐतरेयब्राह्मण -

वेद का प्रमाण उपस्थित करने के पश्चात् अब हम यह दर्शाना चाहते हैं कि परम्परा से ऋषि-मुनियों की दृष्टि में वेद का क्या स्वरूप है। शतपथब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी के संवाद में कहा है कि

▪️(क) 🔥"एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः" ॥ श० १४।५।४।१०॥
- अर्थात हे मैत्रेयि ! उस महान् परब्रह्म परमेश्वर से चारों वेद श्वासप्रश्वास की भाँति अनायास निःश्वसित अर्थात् प्रकाशित हुए।

▪️(ख) इसी शतपथब्राह्मण में आगे कहा है - 🔥"अग्ने ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः"। श० ११।५।८।३
अर्थात् (परमात्मा की प्रेरणा से) अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद का प्रादुर्भाव हुआ।
इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण २५७ में भी लिखा है -
🔥"ऋग्वेद एवाग्नेरजायत, यजुर्वेदो वायोः, सामवेद प्रादित्याव"।

◾️(३) निरुतकार यास्कमुनि -

▪️(क) 🔥“पुरुषविद्याऽनित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिमन्त्रो वेदे"। निरु० १।२
पुरुष की विद्या अनित्य होने से वेद ही सम्पूर्ण कर्मों का बोधक है।

▪️(ख) 🔥"नियतवाचो युक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति" । निरु० १।१६
वेदवाणी नित्य है, तथा उसकी आनुपूर्वी भी नित्य होती है, अर्थात् उसमें घटा बढ़ी नहीं हो सकती।

◾️(४) पाणिनि तथा पतञ्जलि -

ये दोनों आचार्य भी वेद को नित्य मानते हैं, अर्थात् इनकी आनुपूर्वी को नित्य बतलाते हैं । जहाँ पाणिनिमुनि ने 🔥“छन्दोब्राह्मणानि च तदक्वियाणि" (अ० ४।२।६६) इस सूत्र में तथा अन्य कई सूत्रों में ब्राह्मणों की वेद से भिन्नता स्वीकार की, वहाँ 'कृते ग्रन्थे' (अ० ४।३।११६) और "तेन प्रोक्तम्" (अ० ४।३।१०१) इन दोनों सूत्रों को पृथक्-पृथक् बना कर कृति और प्रवचन का भेद दर्शाया । "तेन प्रोक्तम्" सूत्र में भाष्यकार पतञ्जलिमुनि कहते हैं

🔥या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति काठकं कालापकं मोदकं पप्पलादक मिति ॥ अ० ४।३।१०१ भाष्ये ॥
इस में कठ-कलाप-पप्पलादादि शाखा-ग्रन्थों की आनुपूर्वी को महाभाष्यकार अनित्य मानते हैं, उधर वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि -

🔥"स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दस्य।
वर्णानुपूर्वी खत्वप्याम्नाये नियतास्यवामशब्दस्य"॥ महाभा० ५।२।५६
आम्नाय अर्थात् वेद की आनुपूर्वी तथा स्वर नित्य होते हैं, यह स्पष्ट यहाँ कहा गया है। यह स्वरूप है वेद का, पाणिनि और पतञ्जलि के मत में। पतञ्जलि का तो यह वचन ही है, वह जिस सूत्र की व्याख्या करता है, वा जिस सूत्र का यह भाष्य है, वह सूत्र पाणिनि का है, अत एव हम कहते हैं कि यह मत उपयुक्त दोनों आचार्यों का है। उस उप युक्त वचन से वेद की नित्यता सूर्य के प्रकाश की भाँति सिद्ध है।

◾️(५) मानवधर्मशास्त्र -

अब हम मनु महाराज की वेद के विषय में क्या धारणा है, सो दर्शाते -

🔥पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम् ।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः ॥१॥ मनु० १२।९४
वेद ज्ञानी, विद्वान् और मनुष्यों का सनातन चक्षु है, इसको कोई व्यक्ति बना नहीं सकता। यह (अङ्गोपाङ्गों के विना) जाना नहीं जा सकता।

🔥चातुर्वर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात प्रसिध्यति ॥२॥ मनु० १२।९७
चारों वर्ण, तीनों लोक, चारों आश्रम तथा भूत, वर्तमान और भविष्य की सब व्यवस्थायें, वेद से ही संसार में प्रचलित होती हैं, अर्थात् वेद ही इनका उद्गम स्थान है।

🔥बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम् ।
तस्मादेतत् परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम् ॥३॥ मनु० १२।९९
सर्वकाल से वर्तमान वेदशास्त्र द्वारा सम्पूर्ण जीवों का धारण वा पोषण होता है। प्राणिमात्र के लिये वेद को मैं (मनु) परमसाधन मानता हूं। 🔥"धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति:" (मनु० २।१३) इसमें भी वेद को ही परम प्रमाण माना है।

🔥सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति ॥४॥ मनु० १२।१००
सेनापत्य, राज्य तथा दण्डादि की सब व्यवस्था और सब लोकों पर आधिपत्य राज्य करने के लिये वेदशास्त्र का ज्ञाता सब से मुख्य अधिकारी होता है।

वेद का कैसा उत्तम स्वरूप भगवान मनु ने बतलाया ! इन उपयुक्त श्लोको में बार-बार वेद को नित्य. सनातन, सब विद्यानों का भण्डार और परमप्रमाण कहा गया है। "वेद सब सत्य विद्यायों का पुस्तक है", इस पर कई प्राशङ्का किया करते हैं; पाठक देख इस विषय में मनु महाराज क्या कहते हैं

🔥स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ॥५॥ मनु० २।७
वेद में सब धर्म अर्थात नियमों का प्रतिपादन किया गया है, क्योंकि वेद सर्वज्ञान का स्रोत है। दूसरे शब्दों में समस्त विद्यायें वा विज्ञान वेद में हैं। 'सर्वज्ञानमय' वेद को तभी कहा जा सकता है।

🔥उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित् ।
तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनतानि च ॥६।। मनु० १२।९६
वेद से भिन्न (विपरीत) अनेक ग्रन्थ बनते रहते हैं, और नष्ट होते रहते हैं। वे सब प्राचीन-परम्परा के अनुसार न होने से निष्फल और असत्यपूर्ण होते हैं।
वेद के विषय में कितने उत्कृष्ट विचारों से भरा यह वर्णन है, जो मनु महाराज के उपर्युक्त श्लोकों में हमें मिलता है। यह है वेद का स्वरूप जो ऋषियों ने समझा।
वेद किनके द्वारा प्रकाशित हुए, यह भी मनु महाराज ने बतलाया-

🔥अग्निवायुरविम्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥७॥ मनु० १।२३
ऋग, यजः आदि अग्नि, वायु आदि ऋषियों के द्वारा प्रकाशित हुए। इसी श्लोक की टीका में कुल्लूकभट्ट ने भी लिखा है

🔥"वेदापौरुषेयत्वपक्ष एव मनोरभिमतः। पूर्वकल्पे ये वेदास्त एव परमात्ममूर्तब्रह्मणः सर्वज्ञस्य स्मृत्यारूढाः। तानेव कल्पादौ अग्निवायुरविभ्य आचकर्ष......" । मनु० १।२३ टीका ॥
अर्थात् मनु महाराज वेदों को अपौरुषेय मानते हैं। जो वेद पूर्व कल्प में थे, वे ही अब भी वर्तमान हैं।

◾️(६) महाभारत -

🔥अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
आदौ वेदमयो दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः॥
महाभारत शान्तिपर्व प० २३२॥२४॥
सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयम्भू परमात्मा से ऐसी वाणी (वेद) का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका आदि वा अन्त नहीं, जो नित्य है, और जिसका कभी नाश नहीं होता, जो दिव्य है, उसी से संसार में सब प्रवृत्तियाँ चलती हैं। "अनादिनिधना" से यहाँ पर अक्रमारूढ़ ज्ञान समझना चाहिये, जिसके विषय में हम प्रारम्भ में पर्याप्त कह चुके हैं।
अब हम दर्शनकार ऋषियों के मत में वेद का क्या स्वरूप है, वे वेद को कैसा समझते हैं, इसका दिग्दर्शन अति संक्षेप से कराते हैं

◾️(७) वैशेषिक -

▪️(क) [१]🔥तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् ॥ वै० ११।३
ईश्वर का वचन होने से वेद की प्रामाणिकता सिद्ध है।
वेद ईश्वरोक्त हैं, इनमें सत्यविद्या और पक्षपातरहित धर्म का ही प्रतिपादन है । इससे चारों वेद नित्य हैं, ऐसा ही सब मनुष्यों को मानना उचित है, क्योंकि ईश्वर नित्य है, उसका वचन (विद्या) भी नित्य होने से प्रमाण है, यह कणादमुनि का मत है।
उदयनाचार्य ने भी इस सूत्र में "तत्' शब्द से ईश्वर का ग्रहण करते हुए कहा कि वेद ईश्वरोक्त होने से प्रमाण हैं, इसलिये वेदप्रमाणक धर्म के निरूपण की प्रतिज्ञा करने में कोई दोष नहीं।

⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. यहाँ, इस सूत्र का अर्थ करनेवालों ने 'तद्' शब्द से प्रायः 'धर्म' का ग्रहण किया है ? ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृ० ३२ में -
🔥"तवचनात् तयोर्धर्मेश्वरवचनाद् धर्मस्यैव कर्तव्यतया प्रतिपादनादीश्वरस्य वोक्तत्वादाम्नायस्य वेदचतुष्टयस्य प्रामाण्यं सर्वैनित्यत्वेन स्वीकार्यम्"।
विदित रहे कि वैशेषिक के टीकाकार शङ्करमिश्र ने अपने उपस्कार में 'तद्' शब्द से ईश्वर का ही ग्रहण किया है, जिसका उल्लेख हमने आगे किया है।
⚠️- - - - - - - -⚠️

▪️(ख) वैशेषिकदर्शन का टीकाकार शङ्कर मिश्र अपने उपस्कार में लिखता है
🔥तद्वचनादिति । तदित्यनुपक्रान्तमपि प्रसिद्धिसिद्धतयेश्वरं परामृशति, यथा "तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः” (न्या० २।१।५६) इति गौतमीयसूत्रे तच्छब्देनानुपक्रान्तोऽपि वेदः परामृश्यते। तथा च तवच नात तेनेश्वरेण प्रणयनादाम्नायस्य वेदस्य प्रामाण्यम्"॥
वै० १११३ उपस्कार पृ० ७
अर्थात् वैशेषिक के इस सूत्र में 'तद्' शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है । ईश्वर का वचन होने से वेद की प्रामाणिकता है।

▪️(ग) उदयनाचार्य कृत किरणावली (पृ० १३) में उद्धृत 🔥'तद्वचना दाम्नायस्य प्रामाण्यम्' सूत्र के विषय में “किरणावलीप्रकाश" में लिखा है- 🔥'तद्वचनादिति । तेनेश्वरेण वचनात् प्रणयनादाम्नायस्य प्रामाण्य मित्यर्थः'।
अर्थात् तद्वचन= ईश्वर का वचन होने या उसकी कृति होने से वेद का प्रामाण्य है।

▪️(घ) प्रशस्तपादभाष्य की व्याख्या किरणावली में उदयनाचार्य कहते
🔥"अविच्छेदे तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यमिति व्याकुप्येत।
लोकसन्तत्यविच्छेदे वेदसम्प्रदायस्याप्यविच्छेदात् ।" पृ० ८६ ॥
अर्थात्-यदि सृष्टि का प्रारम्भ नहीं मानें तो कणाद मुनि का 'ईश्वर वचन होने से वेद का प्रामाण्य है' कथन युक्तिसङ्गत नहीं ठहरता। क्यों कि यदि सृष्टि का प्रारम्भ और अन्त नहीं हो तो वेद का भी प्रारम्भ और अन्त न होगा, अतः सूत्रकार के मत में सृष्टि का प्रारम्भ है और उसी समय ऋषियों के अन्त:करण में ईश्वर वेद का ज्ञान देता है।

◾️(८) न्यायशास्त्र -

🔥मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् ॥ न्या. २०।१।६७
गौतममुनि कहते हैं- आप्तों द्वारा सदा से प्रामाण्य स्वीकार करते आने के कारण वेद का प्रामाण्य मानना चाहिये, जैसा कि मन्त्र (विचार) और आयुर्वेद का प्रमाणत्व स्वीकार करना ही पड़ता है।
न्यायभाष्यकार कहते हैं- 🔥“य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारःप्रवक्तारमच त एवायुर्वेदप्रभृतीनाम् ।" न्या० भा० २।१।६७॥ पृ० १६७
अर्थात्-आप्त (ऋषि) लोग वेद के प्रवक्ता (प्रवचन करनेवाले) तथा द्रष्टा हुए, न कि कर्ता।
आगे फिर लिखते हैं – 🔥'मन्वन्तरयुगान्तरेषु चातीतानागतेषु सम्प्रदायाभ्यासप्रयोगाविच्छेदो वेदानां नित्यत्वम् । प्राप्तप्रामाण्याच्च प्रामाण्यं लौकिकेषु शब्देषु चैतत् समानमिति' । पृ० १६८
अतीत वा अनागत मन्वन्तर वा युगान्तरों से वेद अविच्छिन्न चले आयरहे हैं, अतः नित्य हैं।

◾️(९) सांख्य -

सांख्यशास्त्र के पञ्चमाध्याय में वेद के नित्यत्व तथा अपौरुषेयत्व विषय में कई एक सूत्र दिये हैं। जिनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं

🔥न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुतेः । सां० ५।४५
वेद नित्य नहीं, क्योंकि उनके विषय में "उत्पन्न हुये" आदि शब्दों का व्यवहार अर्थात् उनके कार्य होने का उपदेश स्वयं वेद में पाया जाता है, जैसा कि 🔥"तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋच: सामानि जज्ञिरे" (यजुः ३१।७) इत्यादि।
इस पूर्वपक्ष का उत्तर अगले ही सूत्र में देते हैं

🔥न पौरुषेयत्वं तर्त्कु: पुरुषस्याभावात् ।। सां० ५।४६
वेद किसी पुरुष के बनाये नहीं, क्योंकि उनका बनानेवाला आज तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
अतः वेद की उत्पत्ति को प्रवाह से अनादि मानने में कोई दोष नहीं आता।
यही बात मीमांसाभाष्य की व्याख्या में भट्टकुमारिल ने भी कही है 🔥"कर्त्तुः स्मरणाभावादपौरुषेया वेदा इति"।(तन्त्रवात्तिक पृ० १०१)।
यदि कहो कि मुक्त पुरुष बना लेंगे, सो भी ठीक नहीं।

🔥मुक्तामुक्तयोरयोग्यत्वात् । सां० ५।४७
मुक्त और अमुक्त दोनों ही वेद का निर्माण नहीं कर सकते, क्योंकि मुक्त तो आनन्द भोगने में रहता है, वह उस समय करता कुछ नहीं, अमुक्त अज्ञानी होने से नहीं बना सकता।
अन्त में कहते हैं-

🔥निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम् ॥ सां० ५।५१
ईश्वर की स्वाभाविक शक्ति द्वारा प्रकाशित होने से वेद स्वत:प्रमाण है।

◾️(१०) योगशास्त्र -

🔥क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामुष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः। यो० १।२४
क्लेश, कर्म, विपाक, आशय इनसे रहित जो पुरुषविशेष है, उसको ईश्वर कहते हैं।
इस सूत्र पर व्यासभाष्य में लिखा है -

🔥"तस्य शास्त्रं निमित्तम् । शास्त्रं पुनः किनिमित्तम् ? प्रकृष्टसत्त्वनि मित्तम् । एतयोः शास्त्रोत्कर्षयोरीश्वरसत्त्वे वर्तमानयोरनादिसम्बन्धः । एतस्मादेतद् भवति सदैवेश्वरः सदैव मुक्त इति"।
योगभाष्य १।२४, पृ० २८, २९
उस उत्कर्ष (उत्कृष्टता) का निमित्त शास्त्र है। शास्त्र का निमित्त क्या है ? इस पर कहते हैं कि प्रकृष्ट सत्त्व अर्थात् सर्वोत्कृष्ट ज्ञान शास्त्र का निमित्त है। ईश्वर के ज्ञान में वर्तमान इस शास्त्र और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान का सम्बन्ध अनादि है । इस कारण से वह सदा ऐश्वर्यवाला तथा सदैव मुक्त कहा जाता है ।
यहाँ वाचस्पति मिश्र भी यही कहते हैं

🔥"तथा चाभ्युदयनिःश्रेयसोपदेशपरोऽपि वेदराशिरीश्वरप्रणीतस्तद् बुद्धिसत्त्वप्रकर्षादेव भवितुमर्हतितत्सिद्ध प्रकृष्ट सत्त्वनिमित्तं शास्त्र मिति" ॥
लौकिक और पारलौकिक सुख के साधनों का उपदेश करनेवाला ईश्वर का रचा हुआ वेद भी उसके उत्कृष्ट ज्ञान से ही उत्पन्न हो सकता है।… इससे सिद्ध हुआ कि वेद का निमित्त ईश्वर का उत्कृष्ट ज्ञान ही है।

◾️(११) वेदान्त

▪️(१) 🔥शास्त्रयोनित्वात् ।। वेदा० १।१।३
ऋग्वेदादि-शास्त्र का कारण होने से ब्रह्म सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान है। इसी सूत्र के भाष्य में श्री स्वामी शङ्कराचार्यजी महाराज लिखते हैं

🔥"महत ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । नहीदृशस्य शास्त्रस्यर्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः सम्भवोऽस्ति" ॥
वेदा० शां० भा० १।१।३
अर्थात अनेक विद्याओं से परिपूर्ण, प्रदीप के समान सब पदार्थों का प्रकाश करनेवाले महान् ऋग्वेदादिशास्त्र का कारण ब्रह्म ही है। सर्वज्ञ ब्रह्म को छोड़कर और कोन है जो ऐसे शास्त्र को बना सकता हो?

▪️(२) 🔥अत एव च नित्यत्वम् ॥ वेदा० १।३।२९
परब्रह्म परमेश्वर से प्रकाशित होने से वेद नित्य हैं ।
इसी सूत्र के शाङ्कर भाष्य में लिखा है

🔥"यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्न षिष प्रविष्टाम् (ऋ० १०।७१।३) इति स्थितामेव वाचमनुविन्नां दर्शयति । वेदव्यासश्च वमेव स्मरति -

🔥युगान्तेऽन्तहिंतान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः ।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा॥इति" (महाभारत)
अर्थात् नित्य वेदवाणी को जो ऋषियों में प्रविष्ट होती है, पश्चात् अन्य मनुष्य प्राप्त करते हैं। व्यासजी भी यही कहते हैं कि वेद स्वयम्भ परमात्मा से प्रकाशित होते हैं।
नित्य प्रभु से प्रकाशित होने वाला वेद भी नित्य है, इतना दर्शाना यहाँ अभिप्रेत है।

◾️(१२) मीमांसा -

जैमिनि मुनि भी अपने मीमांसाशास्त्र के प्रथमाध्यायस्थ प्रथम पाद के पञ्चमाधिकरण में वेद का प्रामाण्य सिद्ध करके षष्ठाधिकरण में शब्द की नित्यता का प्रतिपादन करते हुए -

▪️(१) 🔥नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात्। मी० १।१।१८
इस सूत्र में शब्द का नित्यत्व स्वीकार करते हैं। जब लौकिक शब्द तक नित्य हैं, तो भला वैदिक शब्दों का तो कहना ही क्या !
आगे पाठवें अधिकरण में वेदापौरुषेयत्व विषय का निरूपण करते -

▪️(२) 🔥वेदांश्चैके सन्निकर्ष पुरुषाख्या । मी० १।१।२७
जैमिनि मुनि इस सूत्र में पूर्वपक्ष उठाते हैं, कि वेदों के साथ पुरुष का सम्बन्ध अर्थात् समाख्या (नाम) देखा जाता है (जैसे शाकलादि), अत: वेद अनित्य हैं।
इसका उत्तर स्वयं देते हैं-
🔥उक्तं तु शब्दपूर्वत्वात् ॥ मी० १।१।२९
इसका उत्तर हम पहले (शब्द नित्यताधिकरण में) दे चुके हैं। यहाँ समाख्यामात्र का परिहार करते हैं -

🔥आख्या प्रवचनात् ।। मी० १।१।३०
आख्या (समाख्या) प्रवचन के कारण से है। पदपाठादि के प्रवचन द्वारा भी इनकी समाख्या पुरुष के सम्बन्ध को लेकर चली है।

▪️(३) इस विषय में मीमांसा के प्राचार्य कुमारिलभट्ट आदि ने भी वेद की नित्यता को स्वीकार किया है । वह मीमांसा १।१।२९ की व्याख्या 'तन्त्रवात्तिक' में लिखते हैं

🔥"सर्वे हि यथैव गुरुणाधोतं तथवाधिजिगांसन्ते, न पुनः स्वातन्त्र्येण कश्चिदपि प्रथमोऽध्येता वेदानामस्ति, यः कर्ता स्यात् । तस्मात् कत. स्मरणाभावादपौरुषेया वेदा इति भावः । एवं च पूर्वमेव वेदापौरुषेयत्वस्य सिद्धत्वात् तद्विषये पुनः प्रयत्नो न करणीय इति केवलं समाख्याद्यवलम्बनेन कृतस्याक्षेपस्य परिहारो वक्तव्योऽभिधीयते"।
अर्थात् विना अध्ययन के वेदों का ज्ञान हो नहीं सकता। वेद किसी ने बनाये, यह किसी ने आज तक नहीं कहा। अतः स्पष्ट है कि वेद अपौरुषेय हैं। यहां यह भी बतलाया कि पूर्वसूत्र 🔥'वेदांश्चके सन्निकर्ष पुरुषाख्या' (मी० १।१।२९) में जो पूर्वपक्ष उठाया गया है, वह केवल समाख्या (संज्ञा, शाकलादि नाम) को लेकर ही उठाया गया है, ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि वेद की अपौरुषेयता पहले ही सिद्ध की जा चुकी है। इससे सिद्ध है कि कुमारिल भट्ट भी यहाँ पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष के सूत्रों से जैमिनि के मत में वेद की अपौरुषेयता मानकर केवल शाकलादि समाख्या (संज्ञा) को लक्ष्य में रखकर ही पूर्व पक्ष उठाया गया है, ऐसा मानते हैं।

◾️(१३) शाङ्ख्यायन-श्रौतसूत्र-भाष्य -

🔥"कथं वेदस्य प्रामाण्यम् ? अपौरुषेयत्वाद, अर्थप्रत्यायकत्वात्, बाधकप्रत्ययाभावात्"। (आनर्त्तीय भा० पृ० १)।
इसी प्रकार अन्य श्रौतसूत्रों के भाष्यकारों ने भी वेद को अपौरुषेय माना है।

इसी प्रकार निरुक्त के टीकाकार स्कन्दस्वामी, दुर्गाचार्य तथा अन्य, भर्तृहरि, उदयनाचार्य, विज्ञान भिक्षु, वाचस्पति मिश्रादि प्रायः सभी विद्वान् वेद को अपौरुषेय तथा नित्य मानते हैं। प्रायः सभी श्रोत-गृह्य तथा धर्मसूत्रकार और उनके टीकाकार भी मानते हैं, यहाँ इतना ही पर्याप्त होगा।
ये सब प्रमाण उपस्थित करने का हमारा अभिप्राय इतना ही है कि वेद परमपिता परमात्मा की वाणी है, वेद किसी पुरुष की कृति नहीं, अपितु अपौरुषेय है, नित्य प्रभु का नित्य प्रकाश (ज्ञान) है। 'वेदनित्यत्व' विषय की विशेष विवेचना पाठकों को ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में अवश्य देखनी चाहिये।

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वेद और देव

वेदों में देव विषय को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं।

शंका 1- देव शब्द से क्या अभिप्राय समझते हैं ?

समाधान- निरुक्त 7/15 में यास्काचार्य के अनुसार देव शब्द दा, द्युत और दिवु इस धातु से बनता हैं। इसके अनुसार ज्ञान,प्रकाश, शांति, आनंद तथा सुख देने वाली सब वस्तुओं को देव कहा जा सकता हैं। यजुर्वेद[14/20] में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि को देव के नाम से पुकारा गया हैं। परन्तु वेदों [ऋग्वेद 6/55/16, ऋग्वेद 6/22/1, ऋग्वेद 8/1/1, अथर्ववेद 2/2/1] में तो पूजा के योग्य केवल एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, भगवान ही हैं।
देव शब्द का प्रयोग सत्यविद्या का प्रकाश करनेवाले सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए भी होता हैं क्यूंकि वे ज्ञान का दान करते हैं और वस्तुओं के यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित करते हैं [शतपथ 3/7/3/10, शतपथ 2/2/2/6, शतपथ 4/3/44/4, शतपथ 2/1/3/4, गोपथ 1/6] । देव का प्रयोग जीतने की इच्छा रखनेवाले व्यक्तियों विशेषत: वीर, क्षत्रियों, परमेश्वर की स्तुति करनेवाले तथा पदार्थों का यथार्थ रूप से वर्णन करनेवाले विद्वानों, ज्ञान देकर मनुष्यों को आनंदित करनेवाले सच्चे ब्राह्मणों, प्रकाशक, सूर्य,चन्द्र, अग्नि, सत्य व्यवहार करने वाले वैश्यों के लिए भी होता हैं [शतपथ 6/3/1/15,शतपथ 7/5/1/21, शतपथ 7/2/4/26, गोपथ 2/10] ।

शंका 2- वेदों में 33 देवों होने से क्या अभिप्राय हैं?

समाधान- वेदों एवं ब्राह्मण आदि ग्रंथों में 33 देवों का वर्णन मिलता हैं। 33 देवों के आधार पर यह निष्कर्ष प्राय: निकाला जाता हैं की वेद अनेकेश्वरवादी अर्थात एक से अधिक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं। वेदों में अनेक स्थानों पर 33 देवों का वर्णन मिलता हैं [अथर्ववेद 10/7/13,अथर्ववेद 10/7/27, ऋग्वेद 1/45/27, ऋग्वेद 8/28/1, यजुर्वेद 20/36] । ईश्वर और देव में अंतर स्पष्ट होने से एक ही उपासना करने योग्य ईश्वर एवं कल्याणकारी अनेक देवों में सम्बन्ध स्पष्ट होता हैं।
शतपथ ब्राह्मण [4/5/7/2] के अनुसार 33 देवता हैं 8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, द्यावा और पृथ्वी और 34 वां प्रजापति परमेश्वर हैं। इसी बात को ताण्ड्य महाब्राह्मण[6/2/5] और ऐतरेय ब्राह्मण[2/18/37] में भी कहा गया है।
शतपथ के अनुसार 8 वसु हैं अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, अंतरिक्ष, सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र क्यूंकि यह जगत को बसाने वाले हैं। 11 रुद्रों से तात्पर्य 10 प्राण एवं 11 वें आत्मा से है क्यूंकि ये शरीर से निकलते हुए प्राणियों को रुलाते है। 12 आदित्य से तात्पर्य वर्ष के 12 मासों से हैं क्यूंकि ये हमारी आयु को मानो प्रतिदिन ले जा रहे हैं। 32 वां इंद्र अथवा बिजली हैं एवं 33 वां प्रजापति अथवा यज्ञ है।

शंका 3- परमेश्वर और 33 देवों में क्या सम्बन्ध हैं?

परमेश्वर और 33 देवों के मध्य सम्बन्ध का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ये 33 देव जिसके अंग में समाये हुए हैं उसे स्कम्भ (सर्वाधार परमेश्वर) कहो। वही सबसे अधिक सुखदाता है। ये 33 देव जिसकी निधि की रक्षा करते है, उस निधि को कौन जानता है? ये देव जिस विराट शरीर में अंग के समान बने हैं, उन 33 देवों को ब्रह्मज्ञानी ही ठीक ठीक जानते हैं, अन्य नहीं ,इत्यादि। इन सभी में पूजनीय तो वह एकमात्र देवों का अधिदेव और प्राणस्वरूप परमेश्वर ही है।

वेद में अनेक मन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को देवों का पिता, मित्र, आत्मा, जनिता अर्थात उत्पादक, अंतर्यामी, अमरता को प्रदान करने वाला, कष्टों से बचानेवाला, जीवनाधार, देवों अर्थात सत्यनिष्ठ विद्वान का मित्र आदि के रूप में कहा गया हैं। जैसे
1. जो श्रद्धा से देवों के पिता वा पालक उस ज्ञान के स्वामी परमेश्वर की उपासना करता हैं उसका जन्म सफल हो जाता है [ऋग्वेद 2/26/3 ]।
2. परमेश्वर सत्यनिष्ठ विद्वानों (देव) का कल्याणकारी मित्र है[ऋग्वेद 1/31/1]।
3. परमेश्वर देवों का आत्मा है [ऋग्वेद 4/3/7।
4. परमेश्वर सब देवों का अंतर्यामी आत्मा है [ऋग्वेद 10/168/4]।
5. परमेश्वर सब देवों का अधिष्ठाता देव है [ ऋग्वेद 10/121/8]।
6. परमेश्वर सब देवों में बड़ा देव है [ऋग्वेद 1/50/9]।
7. वह परमेश्वर हमारा बंधु है [यजुर्वेद 32/10]।
8. जैसे वृक्ष के तने के आश्रित सब शाखाएं होती हैं, वैसे ही उस परम देव के आश्रय में अन्य सब देव रहते हैं [अथवर्वेद 10/7/38]।

शंका 4- स्वामी दयानंद के अनुसार देवता शब्द का क्या अभिप्राय हैं ?

स्वामी दयानंद देव शब्द पर विचार करते हुए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदविषयविचार अध्याय 4 में लिखते है कि दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते है अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना। दीपन कहते है प्रकाश करने को, द्योतन कहते है सत्योपदेश को, इनमें से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है, जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है तथा विद्वान मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों के देनेवाले होने से देव कहाते हैं। दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव हैं। तथा माता-पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन, विद्या और सत्योपदेशादी के करने से देव कहाते हैं। वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करनेवाला हैं, सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव हैं, अन्य कोई नहीं।

कठोपनिषद [5/15] का भी प्रमाण हैं की सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इस सबका प्रकाश करनेवाला एक वही है, क्यूंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा हैं। इसमें यह जानना चाहिये की ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करनेवाला नहीं हैं , इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं।

शंका 5- वेदों में एकेश्वरवाद अर्थात ईश्वर के एक होने के क्या प्रमाण हैं?

समाधान- पश्चिमी विद्वान वेदों में बहुदेवतावाद या अनेकेश्वरवाद मानते हैं। जब उन्हें वेदों में उन्होंने यहाँ तक कह डाला की वेदों ने प्रारम्भिक से अनेकेश्वरवाद के क्रमबद्ध तत्वज्ञान का विकास प्राकृतिक, एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद की मंजिलों से गुजरते हुए किया [1]। यह एक कल्पना मात्र हैं क्यूंकि निष्पक्ष रूप से पढ़ने ज्ञात होता हैं की वेदों में अनेक देवताओं का वर्णन मिलता हैं मगर पूजा का विधान केवल देवाधिदेव सभी देवों के अधिष्ठाता एक ईश्वर की ही बताई गई हैं। इंद्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम, मातरिश्वा, वायु, सूर्य, सविता आदि प्रधानतया उस एक परमेश्वर के ही भिन्न-भिन्न गुणों को सुचित करने वाले नाम हैं।

वेदमंत्रों में ईश्वर के एक होने के अनेक प्रमाण हैं। जैसे

ऋग्वेद

1. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओ का ईश्वर है [ऋग्वेद 1/7/9]।
2. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता है [ऋग्वेद 1/84/6] ।
3. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य है [ ऋग्वेद 6/22/1] ।
4. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं, तू अकेला समस्त जगत का राजा है [ऋग्वेद 6/36/4] ।
5. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा है [ऋग्वेद 6/45/16] ।
6. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका इश्वर बना हुआ है [ऋग्वेद 8/6/41]।
7. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया है [ऋग्वेद 10/81/3]।
8. हे दुस्तो को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं [ऋग्वेद 4/30/1] ।
9. एक सतस्वरूप परमेश्वर को बुद्धिमान ज्ञानी लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। उसी को वे अग्नि, यम, मातरिश्वा,इंद्र, मित्र, वरुण, दिव्य, सुपर्ण इत्यादि नामों से याद करते है [ऋग्वेद 1/164/46]।
10. जो ईश्वर एक ही है, हे मनुष्य! तू उसी की स्तुति कर[ऋग्वेद 5/51/16]।
11. ऋग्वेद के 10/121 के हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रजापति के नाम से भगवान का स्मरण करते हुए परमेश्वर को चार बार "एक" शब्द का प्रयोग हुआ हैं। इस सूक्त में एकेश्वरवाद का इन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन हैं की न चाहते हुए भी मैक्समूलर महोदय ने लिखते है "मैं एक और सूक्त ऋग्वेद 10/121 को जोड़ना चाहता हूँ, जिसमें एक ईश्वर का विचार इतनी प्रबलता और निश्चय के साथ प्रकट किया गया हैं की हमें आर्यों के नैसर्गिक एकेश्वरवादी होने से इंकार करते हुए बहुत अधिक संकोच करना पड़ेगा।[2]"
ईसाई मत के पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के कारण मैक्समूलर महोदय ने एक नई तरकीब निकाली एकेश्वरवाद को सिद्ध करने वाले मन्त्रों को नवीन सिद्ध करने का प्रयास किया[3]।

यजुर्वेद
1. वह ईश्वर अचल है, एक है, मन से भी अधिक वेगवान है [यजुर्वेद 40/4]।

अथवर्वेद
1. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे,जो जगत का स्वामी है, एक ही है, नमस्कार करने योग्य है, बहुत सुख देने वाला है [अथवर्वेद 2/2/2]।
2. आओ, सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी है, एक है, व्यापक है और हम मनुष्यों का अतिथि है [अथवर्वेद 6/21/1]।
3. वह परमेश्वर एक है, एक है, एक ही है, उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं है, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं है, आठवां, नौवां, दसवां नहीं है, वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा है [अथवर्वेद 16/4/16-20]।

इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रो से यह सिद्ध होता है कि परमेश्वर एक है।

शंका 6- मैक्समूलर द्वारा प्रचारित (Henotheism) हीनोथीइज़्म में क्या कमी है?

समाधान- मैक्समूलर महोदय द्वारा प्रचारित हीनोथीइज़्म [4] के अनुसार प्रत्येक वैदिक कवि वा ऋषि जब जिस देवता की स्तुति करने लगता है, तब उसी को सर्वोत्कृष्ट बताने और उसके अंदर सर्वोत्कृष्टता के सब गुणों को समाविष्ट करने का प्रयत्न करता है। वेद के अनेक ऐसे सूक्तों को पाना बहुत सुगम है, जिनमें प्राय: प्रत्येक देवता को सबसे ऊँचा और पूर्ण बताया गया है। ऋग्वेद के द्वितीय मंडल के प्रथम सूक्त में अग्नि को सब मनुष्यों का बुद्धिमान राजा, संसार का स्वामी और शासक, मनुष्यों का पिता, भाई, पुत्र और मित्र कहा गया है और दूसरे देवों की सब शक्तियां और नाम स्पष्टया उसकी मानी गई है।

मैक्समूलर महोदय वेदों के अटल सिद्धांत को समझ नहीं पाये। वेद के ही अनुसार ईश्वर को इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा, ब्राह्मणस्पति, वरुण,मित्र, अर्यमा, रूद्र, पूषा, द्रविणोदा, सवितादेव और भग कहा गया हैं और ये सब नाम प्रधानतया उस एक अग्निपद्वाच्य सर्वज्ञ परमेश्वर के है और उन्हीं के गुणों को सूचित करते हैं [ऋग्वेद 2/1/3-7]। जैसे कि परिवार में एक ही व्यक्ति को अनेक संबंधों के कारण भिन्न भिन्न व्यक्ति पिता, चाचा, दादा, भाई,मामा आदि नामों से पुकारते है, वैसे ही एक परमात्मा के अनंत गुणों को सूचित करने के लिए अनेक नाम प्रयुक्त किये जाते है। जब ज्ञानस्वरूप के रूप में उसका स्मरण किया जाता है तो उसे अग्नि कहा जाता है, उसकी परमैश्वर्य सम्पन्नता दिखाने के लिए ब्रह्मा, ज्ञान का अधिपतितत्व दिखाने के लिए ब्राह्मणस्पति, सर्वोत्तमता और पापनिवारकता सूचित करने के लिए वरुण, सबके साथ प्रेम दर्शाने के लिए मित्र, न्यायकारिता के लिए अर्यमा, दुष्टों को रुलाने के लिए रूद्र, ज्ञानादि देने के लिए द्रविणोदा, प्रकाशस्वरूप होने के लिए सविता आदि कहते हैं। अर्थात यह सभी नाम एक ही ईश्वर के है जोकि उनके विभिन्न गुणों को दर्शाते हैं।

वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी है जैसे-

1. परमेश्वर एक ही है, ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामो से पुकारते है, उसे इन्द्र कहते है, मित्र कहते है, वरुण कहते है, अग्नि कहते है, और वही दिव्या सुपर्ण और गरुत्मान भी है, उसे ही वे यम और मातरिश्वा भी कहते है [ऋग्वेद 1/164/46]।
2. एक होते हुए भी उस सुपर्ण परमेश्वर को ज्ञानी कविजन बहुत नामो से कल्पित कर लेते है[ ऋग्वेद 10/114/5]।
3. यही भाव ऋग्वेद 3/26/7, ऋग्वेद 10/82/3, यजुर्वेद 32/1, अथर्वेद 13/4 में भी कहाँ गया है।

उदहारण के लिए जिस प्रकार बाईबिल में ईश्वर को God, Almighty, Lord आदि अनेको नाम से पुकारा गया है, उसी प्रकार वेदों में ईश्वर को भी विभिन्न नाम से पुकारा गया है।

श्री अरविन्द घोष ने मैक्समूलर के हीनोथीइज़्म की कथित आलोचना अपने ग्रंथों में की है [5]।

मैक्समूलर की यह कल्पना वेदों में एकेश्वरवाद को असफल रूप से सिद्ध करने के प्रयासों की एक
कड़ी मात्र हैं। इस प्रकार से यह सिद्ध होता हैं की वैदिक ईश्वर एक हैं एवं वेद विशुद्ध एकेश्वरवाद का सन्देश देते है। वेदों में बहुदेवतावाद एक भ्रान्ति मात्र है और देव आदि शब्द कल्याणकारी शक्तियों से लेकर श्रेष्ठ मानव आदि के लिए प्रयोग हुआ है एवं उपासना के योग्य केवल एक ईश्वर है। ईश्वर के भी विभिन्न गुणों के कारण अनेक नाम हो सकते है एवं अनेक नाम देवों के भी हो सकते हैं।




◼️स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेदविषयक ज्ञान कैसे हुआ ?◼️ 



      स्वामी दयानन्द सरस्वती के समय वेदविषयक प्रचलित मान्यता के परिप्रेक्ष्य में यह जानना आवश्यक है कि उन्होंने वेदों का जो स्वरूप जनता एवं विद्वानों के समक्ष उपस्थापित किया, उसका परिज्ञान उन्हें कहाँ से और कैसे प्राप्त हुआ ? बाल्यावस्था में उन्होंने घर में केवल शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिनसंहिता कण्ठस्थ की थी। यह बात उन्होंने स्वयं लिखित एवं कथित आत्मवृत्त में कही है। इससे अन्यत्र गृह-परित्याग के पश्चात् भी एक-दो स्थानों पर वेद पढ़ने का संकेत किया है, परन्तु उससे हम किसी विशेष परिणाम पर नहीं पहुंच सकते।

      गुरुवर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से उन्होंने केवल पाणिनीय व्याकरण शास्त्र का ही अध्ययन किया था। इससे अधिक उनके जीवन चरितों से कुछ नहीं जाना जाता। श्री स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रसिद्धि भी केवल वैयाकरण रूप में ही थी। हाँ, उन्हें जीवन के अन्तिम भाग में आर्षग्रन्थों और अनार्ष ग्रन्थों के मौलिक भेद का परिज्ञान हो गया था। इसलिये उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी शेखर मनोरमा आदि का पठन-पाठन बन्द करके अष्टाध्यायी महाभाष्य का पठन-पाठन आरम्भ कर दिया था। इसी काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती अध्ययन के लिये उनके चरणों में उपस्थित हुए थे और गुरुमुख से महाभाष्यान्त पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया था। इसलिये स्वामी दयानन्द सरस्वती के हृदय में आर्षग्रन्थों के प्रति जो असीम श्रद्धा और मानुषग्रन्थों के प्रति जो प्रतिक्रिया देखने में आती है, उसका उत्स स्वामी विरजानन्द सरस्वती की शिक्षा में ही मूलरूप से निहित है, परन्तु इसके विशदीकरण में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अपना प्रमुख योगदान रहा है। उन्होंने अपने जीवन में सहस्रों ग्रन्थों का अध्ययन मनन और परीक्षण के अनन्तर भ्रमोच्छेदन में लिखा है कि मैं लगभग तीन सहस्र ग्रन्थों को प्रामाणिक मानता हूँ।

      यह सब कुछ होने पर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद के उस स्वरूप का परिज्ञान कहाँ से हुआ, जिसे वे ताल ठोककर सबके सम्मुख उपस्थापित करते थे, यह जिज्ञासा का विषय बना ही रहता है।

      मैं इस गुत्थी को सुलझाने के लिये वर्षों से प्रयत्नशील रहा हूं, क्योंकि मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती की देश जाति और समाज को उक्त वेद-विषयक देन सर्वोपरि है और इसी में निहित है उनके वेदोद्धार के कार्य की महत्ता एवं विलक्षणता ।

      मैं अपने अल्पज्ञान एवं अल्प स्वाध्याय से इस विषय में इतना तो अवश्य समझ पाया है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जब विशाल संस्कृत वाङ्मय का आलोडन किया, तब उन्हें यह तत्त्व तो अवश्य ज्ञात हो गया होगा कि संस्कृत वाङ्मय के विविध विद्याओं के आकर ग्रन्थ स्व-स्वविद्या का उद्गम वेद से ही वणित करते हैं।[१] अतः वेद में उन समस्त विद्याओं का मूलरूप से वर्णन होना ही चाहिये। स्वायम्भुव मनुप्रोक्त आद्य समाजशास्त्ररूप मनुस्मृति में समस्त मानव समाज के वेदो दित कर्तव्याकर्तव्य का विधान किया है और भूतभव्य तथा वर्तमान में उत्पन्न हुई या उत्पन्न होनेवाली समस्त समस्याओं का समाधान वेद ही कर सकता है,[🔥भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति। मनु० १२।१७ तथा इसी अध्याय के श्लोक ९४, ९९, १००] ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे सम्पूर्ण मनुष्यव्यवहारोपयोगी कार्यों की समस्त समस्याओं का समाधान वेद कर सकता है, का बोध भी हो गया होगा, परन्तु शब्दप्रमाण से विज्ञात वेद का स्वरूप वैसा ही है या नहीं, इसके निश्चय के लिये प्रमाणान्तर की अपेक्षा भी रहती ही है। इसका कारण यह है कि शास्त्रकारों का लेख वेद के प्रति अतिशय श्रद्धा के कारण अथवा स्वप्रतिपाद्य विषय की प्रामाणिकता दर्शाने के लिये भी हो सकता है। 
[📎पाद टिप्पणी १. द्र०- वैदिकसिद्धान्तमीमांसा में छपा 🔥'वेदानां महत्त्वं तत्प्रवारोपायाश्च' संस्क० २ पृष्ठ १-१० (संस्कृत), पृष्ठ ३३-३७ (हिन्दी)।]

      अतः मेरी क्षुद्र बुद्धि में स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद का जो स्वरूप ज्ञात हुआ, उसका स्रोत कहीं बाहर नहीं, अपितु तत्स्थ ( =उनके भीतर) ही होना चाहिये। क्योंकि ऊपर जिन शास्त्रों के आधार पर वेद के विशिष्ट स्वरूप की कल्पना की जा सकती है, वे शास्त्र तो शङ्कराचार्य और भट्टकुमारिल के समय न केवल विद्यमान थे अपितु वर्तमान काल की अपेक्षा अधिक पढ़े-पढ़ाये जाते थे। स्वामी शङ्कराचार्य प्रस्थानत्रयी (वेदान्त-उपनिषद्-गीता) तक ही सीमित रह गये, उन्होंने वेद के सम्बन्ध में न कुछ लिखा और न कहीं विचार ही प्रस्तुत किया। भट्टकुमारिल वैदिक कर्मकाण्ड में ही यावज्जीवन उलझे रहे। 
      मैं इस विषय में जो समझ पाया हूं, वह इस प्रकार है -

      ◼️१. वेद के स्व शब्दों में 🔥उतो त्वस्मै तन्वं विसस्त्रे जायेव पत्य उशती सुवासा (ऋ० १०।७१।५) = कोई एक ऐसा वेदविद्या का अधिकारी पुरुष होता है, जिसके सम्मुख वेदवाक् स्वयं अपने स्वरूप को उसी प्रकार प्रकट कर देती है जैसे ऋतुकाल में पति की कामना करती हुई अच्छे वस्त्र पहने हुई पत्नी स्वपति के सम्मुख गोपनीयतम अङ्गों को भी उद्घाटित कर देती है। 

      ◼️२. जिस अधिकारी पुरुष के प्रति वेदवाक् स्वयं अपना स्वरूप उद्घाटित करती है, वह कौन हो सकता है ? इस विषय में शास्त्रकार कहते हैं -
      🔥न ह्येष प्रत्यक्षमस्त्यनृषेरतपसो वा। 
      अर्थात् वेद का प्रत्यक्ष उन्हीं को होता है, जो ऋषि और तपस्वी होते हैं।

      ◼️३. ऐसे ऋषिभूत एवं तपस्वी को वेद की प्राप्ति के लिये इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। वेदवाक् स्वयं उस हृदय में उपस्थित होकर अपने रहस्यों को उद्घाटित कर देती है -

      🔥अजान्ह वै पृश्नींस्तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत् त ऋषयोऽभवन्तदृषीणामूषित्वम्। 
      -तैत्तिरीय आरण्यक २।९ 

      🔥तद्यदेनांस्तपस्यमानान् ऋषीन् ब्रह्म स्वयमभ्यानर्षत्। 
      [त ऋषयोऽभवन्] तद् ऋषीणामृषित्वम्।[२] -निरुक्त २।११ 
      इसका भाव यह है कि जो ऋषिभूत व्यक्ति यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये तपस्या करते हैं, उन्हें ब्रह्म ( =वेद) स्वयं प्राप्त होता है। यही ऋषियों का ऋषित्व है। 
[📎पाद टिप्पणी २. स्वामी दयानन्द को सर्वविध विपरीत परिस्थितियों में वेद के यथार्थ स्वरूप का बोध कैसे हुआ ? इस विषय में मेरे मन में वर्षों से शंका बनी हुई थी। गतमास (८-१७ अगस्त १९९०) नर्मदातीरस्थ अपनी बाल-लीला स्थली माहिष्मती (महेश्वर) की यात्रा के प्रसङ्ग में जब मैं आर्यसमाज मल्हारगंज, इन्दौर में ठहरा हुआ था, तब अचानक ११ अगस्त की रात्रि में यह ब्राह्मणवचन स्मृति पटल पर उभरा और मेरी वर्षों की शङ्का का समाधान हो गया।]

      निरुक्त के उक्त वचन की व्याख्या में दुर्गाचार्य लिखता है - 

      🔥यद्यस्मादेनांस्तपस्यमानांस्तप्यमानान्ब्रह्म ऋग्यजुःसामाख्यं स्वयम्भु अकृतकमभ्यागच्छत्।[३] अनधीतमेव तत्त्वतो ददृशुस्तपो विशेषेण। यद्वाऽदर्शयदास्मानमित्यर्थोऽत्र विवक्षितः। -निरुक्त श्लोकवार्तिक २।३।५९ पृष्ठ ३१४ 

      भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता (१७।१४-१६) में कायिक वाचिक एवं मानसिक त्रिविध तपों का वर्णन किया है। ये विविध तप निश्चय ही मानव जीवन को उन्नत बनाने हारे हैं परन्तु वेदज्ञान की प्राप्ति के साक्षात् प्रयोजक नहीं हैं। 
[📎पाद टिप्पणी ३. वेंकटेश्वर प्रेस में छपे निरुक्त में शिवदत्त दाधिमथ ने लिखा है "आविर्भूतमित्यर्थः"]

      निश्चय ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गृह-त्याग के पश्चात् योग की प्राप्ति एवं सच्चे शिव के दर्शन के लिये कठोर कायिक वाचिक एवं मानसिक तपों से अपने शरीर वचन और मन को कुन्दन बना लिया था, द्वन्द्वातीत अवस्था को प्राप्त कर लिया था, परन्तु सद्गुरु अथवा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये वे वर्षों बीहड़ वनों, हिमाच्छादित पर्वतों, उनकी कन्दराओं तथा गङ्गा एवं नर्मदा[४] के तटों पर वर्षों भ्रमण करते रहे। नर्मदा के तट पर ही उन्हें स्वामी विरजानन्द जैसे सद्गुरु का परिचय प्राप्त हुआ। वहाँ से उन्होंने मथुरा आकर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया, आर्ष-अनार्ष ग्रन्थों की भेदक कुजी प्राप्त की, परन्तु हम उन्हें सं॰ १९२४ के हरिद्वार के कुम्भ के पश्चात् पुनः सर्वविध परिग्रह से रहित केवल लंगोटी वस्त्रधारी के रूप में गङ्गा तट पर विचरते एवं तपस्या करते हुए देखते हैं। यह विचरण निधूत अवस्था में लगभग ८ वर्ष रहा। 
[📎पाद टिप्पणी ४. भारतीय परम्परा में प्रसिद्धि है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिये गङ्गा की और मोक्ष की प्राप्ति के लिये नर्मदा की परिक्रमा करनी चाहिये।]

      इसी निधूत अवस्था में विचरण करते हुए, उन्हें विविध शास्त्रों का अवलोकन एवं स्वाध्याय करता हुआ भी पाते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती में यह स्वाध्याय की प्रवृत्ति हमें उनके जीवन के अन्त तक देखने को मिलती है। यद्यपि जीवन चरितों में इस विषय में विशेष उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु यत्र-तत्र स्फूट प्रसङ्ग जीवन-चरितों में अवश्य उपलब्ध होते हैं । यथा -

      बनेडा यात्रा (२ अक्टू० से २६ अक्टू० १८८१) में राजकीय पुस्तकालय से निघण्टु के पाठ मिलाने अथर्व के मन्त्रों पर स्वर लगाने आदि का वर्णन मिलता है। द्र० - लेखरामजी कृत ऋ॰ द॰ स॰ जीवन-चरित, हिन्दी पृष्ठ ५९१ (प्रथम संस्करण)। 

      हमारी दृष्टि में 'स्वाध्याय' ही एक ऐसा तप है, जो वेद के ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति में साक्षात् संबद्ध हो सकता है। वैदिक वाङ्मय में 'स्वाध्याय' शब्द वेद के अध्ययन का वाचक है, ऐसा सभी विद्वान् मानते हैं। प्रतिपक्ष[५] में 'प्रवचन' शब्द का प्रयोग होने से स्वाध्याय का अर्थ है - स्वयं वेद का अध्ययन। 
[५. 🔥स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । तै॰ आर॰ ७।११।१॥ 'ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च' (तै॰ आर॰ ९।७ आदि वचनों में)।]

      ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में 🔥अथातः स्वाध्यायप्रशंसा के प्रकरण में स्वाध्याय को परम तप कहा है। उन्होंने लिखा है -

      🔥यदि ह वाऽभ्यलङ्कृतः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव नखाग्रेभ्यस्तपस्तप्यते य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते। -शत० ११।५।१।४
      अर्थात् जो व्यक्ति चन्दन माला आदि से अलङ्कृत होकर गुदगुदे बिस्तर पर लेटा हुआ भी स्वाध्याय करता है, वह पैर के नख के अग्र भाग तक तप करता है। 

      इससे स्पष्ट है कि समस्त सांसारिक विषयों से वृत्तियों को रोककर अपने को वेदाध्ययन में ही प्रवृत्त रखना सबसे महान् एवं क्लिष्टतम तप है।

      तैत्तिरीय प्रारण्यक ७।९ में ऋत, सत्य, तप, शम, दम आदि सभी के साथ 'स्वाध्याय और प्रवचन' का निर्देश होने से जहाँ ऋत सत्य आदि धर्मों के पालन की अपेक्षा स्वाध्याय-प्रवचन की महत्ता जानी जाती है, वहाँ इसकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश भी किया है। इस प्रकरण के अन्त में नाक मौद्गल्य के मत का निर्देश इस प्रकार किया है -

      🔥स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः। तद्धि तपः तद्धि तपः। 
      अर्थात् मुद्गल पुत्र 'नाक' महर्षि का मत है कि स्वाध्याय और प्रवचन ही तप है। वही तप है, वही तप है। 

      'स्वाध्याय' की सिद्धि होने पर ही वेदवाक् स्वयं अपने रूप को प्रकट करती है। पातञ्जल योगशास्त्र में स्वाध्याय की सिद्धि होने का फल इस प्रकार दर्शाया है -

      🔥स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः। 
      स्वाध्याय से इष्ट देवता=विषय के साथ स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति का सम्बन्ध उपपन्न हो जाता है। 

      स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे परम वराग्यसम्पन्न द्वन्द्वातीत तपस्वी का प्रथम लक्ष्य तो वेद का वास्तविक स्वरूप जानना ही था। वह उन्हें स्वाध्यायरूप परम तप से प्राप्त हुआ। यह मानना ही उचित प्रतीत होता है। जब मुझे इस तथ्य का आभास हुआ, स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रति मेरी आस्था अत्यधिक बढ़ गई। 


Muslim vs Brahmin

जम्मू में कट्टरपंथी जिहादियों द्वारा जमीन जिहाद की साज़िश



हाल ही में जम्मू में जमीन जिहाद या जनसांख्यिकी परिवर्तन का मुद्दा राष्ट्र की मीडिया में चर्चा का विषय बना। दरअसल जम्मू में जनसांख्यिकी राज्य प्रायोजित है। जम्मू का पूरी तरह इस्लामीकरण करने के लिए यह कट्टरपंथी जिहादियों का एक संगठित प्रयास है, जिसे कश्मीर की मुख्यधारा के क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने हमसे छिपाया। यही कारण है कि जम्मू का जनसांख्यिकी आक्रमण गजवा-ए-हिन्द के तहत 'नरसंहार की एक प्रक्रिया' है। जम्मू पर ऐसी घिनौनी साज़िश इसलिए काम कर रही है क्योंकि वह पहले ही कश्मीर से हिन्दुओं को भगा कर अपना इरादा स्पष्ट चुके हैं।
यह बात किसी से नहीं छिपी है कि कश्मीरी हिन्दुओं को घाटी छोड़ने पर मजबूर किया गया। एक सुनियोजित तरीके से उनका क़त्लेआम किया गया। बहन-बेटियों की इज्जत तार-तार की गईं। घाटी से हिन्दुओं के पलायन के बाद इस्लाम के झण्डे तले कश्मीर को लाने का पूरा प्रयास किया गया। बहुत हद तक वह सफल भी हुए, और अब वह जम्मू को निशाना बना रहे हैं। हालांकि उनका यह प्रयास विभिन्न स्तर पर बहुत सालों से जारी है, लेकिन जम्मू में गैर मुस्लिम समुदाय की संख्या बहुत अधिक होने के कारण जिहादी इसका इस्लामीकरण करने के लिए जनसांख्यिकी परिवतर्न का तरीका अपना रहे हैं। क्योंकि जो उन्होंने कश्मीर में किया, वैसा करने का जम्मू में सोच भी नहीं सकते।

हिन्दुओं की जमीन हड़पने का षड्यन्त्र
वक्फ बोर्ड/औकफ विभाग ने जम्मू में लक्षित तरीके से हिन्दू किसानों को अवैध बेदखली के नोटिस भेजे, जबकि वह किसान ७० वर्षों से इन जमीनों पर खेती करते आ रहे हैं, लेकिन वक्फ बोर्ड यह दावा कर रहे हैं कि वह कब्रिस्तान की जमीन है। औकाफ अधिनियम के तहत विवाद की स्थिति में वही निर्णय देने वाले होते हैं। इसलिए नतीजा क्या होता होगा, बताने की आवश्यकता नहीं। रोशनी अधिनियम के तहत योजनाबद्ध तरीके से जनसांख्यिकी परिवतर्न के मद्देनजर मुख्य रूप से जम्मू और उधमपुर, सांबा, कठुआ आदि में मुसलमानों को जमीनें दी गईं, जबकि हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों और बौद्धों के मामले लंबित रखे गए या खारिज कर दिए गए। यद्यपि २०१८ में रोशनी कानून को रद्द कर दिया गया। लेकिन इस कानून की आड़ में रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमानों को संगठित तरीके से जम्मू, सांबा, कठुआ और इसके आसपास बसाया गया। घाटी के मुसलमान और कथित एनजीओ इनपर पैसे खर्च करते हैं, और इन्हें हर तरह का समर्थन देते हैं।

घाटी से रोहिंग्याओं को मिल रहा समर्थन
कश्मीर घाटी के लोगों ने रोहिंग्याओं के समर्थन में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की है। इसमें रोहिंग्याओं को जम्मू में बसने की अनुमति देने की मांग है। बाहरी मुसलमान हवाला, सऊदी अरब और 'अल्लाह वाले' जैसे समूहों के द्वारा जम्मू में १५-१७ लाख की जमीन २५ लाख रुपये में खरीद रहे हैं। यह जम्मू में जनसांख्यिकी परिवर्तन के लिए हिन्दुओं की जमीन पर कब्जा करने का दूसरा तरीका है। इसके तहत बाहरी मुसलमानों को जम्मू में बसने का लालच दिया जा रहा है। इसके लिए आर्थिक मदद के अलावा गुप्त रूप से उनका पंजीकरण शरणार्थी के तौर पर करके उन्हें कश्मीरी पण्डितों को मिलने वाली सुविधाएं भी दी जा रही हैं।

पटवारियों का स्थानांतरण नियम के विरुद्ध
चुनिंदा पटवारियों को उनके मूल जिले से बाहर स्थानांतरित करके राजस्व रिकॉर्ड में हेराफेरी की जाती है, जबकि जम्मू में तैनात पटवारी अपने सेवा काल में जिले से बाहर स्थानांतरित नहीं हो सकते। इसके बावजूद सेवा नियमों को धता बताकर जम्मू और इसके आसपास के दूसरे जिलों से मजहब विशेष के पटवारी लाए जा रहे हैं। इनका उद्देश्य हिन्दू इलाकों में मुसलमानों के लिए जमीन का प्रबन्ध करना है। इस सम्बन्ध में तीन याचिकाएं जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय में लंबित है। हालांकि अनुच्छेद ३७० निरस्त होने के साथ कई कानून भी निरस्त हो गए, लेकिन जनसांख्यिकी हमला अभी भी जारी है।

मिलती रही राज्य सरकार की शह
१. तत्कालीन मुख्यमन्त्री महबूब मुफ्ती के १४ फरवरी, २०१८ के आदेश के बाद जम्मू में मुसलमानों को कानूनी तौर पर भूमि पर कब्जा करने की अनुमति मिली।

२. पूरे जम्मू में सरकार के समर्थन से वन भूमि पर कब्जा करके मुस्लिम बस्ती बसाई गई।

३. नदी के ताल, इसके किनारे और आसपास पूरे जम्मू में राज्य सरकार के शह पर जमीनें कब्जाई गईं। आलम यह है कि तवी के ९८ प्रतिशत हिस्से पर मुसलमानों ने अवैध कब्जा कर लिया।

४. जम्मू के हिन्दू बहुल इलाके में मुसलमानों को जमीन खरीदने के लिए ३५ प्रतिशत की छूट मिलती है। यह वहाबी पैसा होता है जो सऊदी से आता है।

५. अगर कहीं से कोई मुसलमान जम्मू आता है तो गरीब मुसलमानों को 'धार्मिक उत्पीड़न का शिकार' के रूप में दिखाया जाता है।

६. जम्मू में सुनियोजित और संगठित तरीके से रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों को बसाया गया। म्यांमार के ये अलगाववादी जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों के स्वाभाविक सहयोगी हैं।



भारत मे 2 झूठ बोले जाते हैं। 

1 कानून सबके लिए समान है। 

2 शासन की दृष्टि मे सभी धर्म समान हैं।

पालघर मे साधुओं की नृशंस हत्या पर न्यायालय मौन है पर उत्तरप्रदेश मे दंगाइयों को बचाते समय जज साहब को कानून याद आ जाता है। 
एक खबर मे आंशिक गलती पर opindia के अजित भारती पर FIR हो जाती है। कड़वा सच दिखाने पर सत्य सनातन केअंकुर आर्य पर FIR हो जाती है। जरा सी बात पर अर्णब गोस्वामी पर FIR हो जाती है।
परंतु ललनटोप, ध्रुव राठी, प्रतीक सिन्हा, शेखर गुप्ता, राना आयूब और रविश कुमार पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं होती?
जाकिर नायक और मौलाना साद फरार पर पालघर के संतों की हत्या पर कोर्ट चुप 
  
कानून के हाथ भले ही लम्बे हों परन्तु नीयत बहुत ही खोटी है नीति बहुत ही पक्षपाती है। पूरी दुनिया में एक व्यवस्था है जो मानवाधिकार आयोग कहलाती है.
ये मानवाधिकार वाले करते क्या है ? एक छोटा सा नमूना देखें--
कश्मीर में सेना पर पत्थर फेंकने वालों के अधिकारों की रक्षा करता है.
कसाब जैसे भयंकर आतंकी के अधिकारों की रक्षा करता है.
लैंडमाइन बिछा कर सैनिकों और अर्धसैनिकों को मारने वाले और विकलांग बनाने वाले नक्सलियों के अधिकारों की रक्षा करता है.
बम विस्फोट करने वाले आतंकियों के अधिकारों की रक्षा करता है.
इनकी नजर में केवल आतंकी, नक्सली, बलात्कारी, गुण्डे और डकैत ही मानव हैं..

कुछ साल पुरानी बात है --
न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत ने आतंकवाद पर आयोजित एक सेमिनार में कहा था
जो 'आतंकवादी' समाज के नियमों का उल्लंघन करते हैं और जिनके लिए मानव जीवन का कोई मूल्य ही नहीं है, उनके मानवाधिकारों की बात ही बेमानी है.
उधर मानवाधिकार संगठन इस टिप्पणी से नाराज़ हो गए थे. उनका कहना था कि हर इंसान के मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिए और उसे जानवरों की श्रेणी में रखना हर तरह से अनुचित है.

शायद आपको वहम होगा कि यह सभी जेल में बंद लोगो के अधिकारों की रक्षा करता होगा. तो आपका यह वहम ही है.
यदि मानवाधिकार की दृष्टि से विचार करें तो
पाकिस्तान में हिन्दूओं और सिक्खों के कोई मानवाधिकार नहीं हैं.
बंगलादेश में हिन्दूओं के कोई मानवाधिकार नहीं हैं
ईराक में यजदीयों के कोई मानवाधिकार नहीं हैं.
अमेरिका में रेड इन्डियन के कोई मानवाधिकार नहीं हैं.
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अब महर्षि मनु की दण्ड निति पर विचार करें.
जब भगवान श्री रामचन्द्र जी बाली को मारते हैं तब बाली प्रश्न करता है?
दण्ड देने का अधिकार केवल राजा को है.

श्री राम जी तब उत्तर देते हैं- हे बाली - वन, पर्वत और सागर सहित यह सारी धरती हम इक्ष्वाकु वंशियों की है. सदा से हम इक्ष्वाकु वंशी इस पर शासन करते हैं। इस समय धर्मात्मा भरत इस पर शासन कर रहे है. उन्ही के आज्ञानुसार मैंने तुम्हे छोटे भाई की पत्नी को रखने के अपराध में दण्डित किया है.
उसके बाद भगवान राम कहते हैं- हे बाली हम भी स्वतन्त्र नहीं हैं हम भी मर्यादा से बंधे हैं। चरित्र के प्यारे मनु का आदेश है -

पिताचार्य्यः सुहृन्माता भार्य्या पुत्रः पुरोहितः।
नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति।।
पिता, आचार्य, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र और पुरोहित क्यों न हो जो स्वधर्म में स्थित नहीं रहता वह राजा का अदण्ड्य नहीं होता अर्थात् जब राजा न्यायासन पर बैठ न्याय करे तब किसी का पक्षपात न करे किन्तु यथोचित दण्ड देवे।।
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।
चाहे गुरु हो, चाहे पुत्रदि बालक हों, चाहे पिता आदि वृद्ध, चाहे ब्राह्मण और चाहे बहुत शास्त्रें का श्रोता क्यों न हो, जो धर्म को छोड़ अधर्म में वर्त्तमान, दूसरे को विना अपराध मारनेवाले हैं उन को विना विचारे मार डालना अर्थात् मार के पश्चात् विचार करना चाहिये।।
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आतंकी या आततायियों के विषय में मनुस्मृति -
अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः।
क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।।
मनुस्मृति के अनुसार 6 प्रकार के आततायी (आतंकवादी) होते हैं।
(1) सामाजिक व निजी सम्पत्ति को आग लगाने वाला
(2) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दुसरों को विष देने वाला
(3) हाथ में शस्त्र लेकर निर्दोष लोगों को मारने को तैयार हुआ
(4) छल कपट व शस्त्रों के बलपर बलात् धन हरण करने वाला
(5) कमजोर लोगों की जमीन छीनने वाला
(6) तथा पराई स्त्रियों का हरण करने वाला

और ऐसे आततायियों का क्या करें ,,?

ऐन्द्रं स्थानमभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयमव्ययम्।
नोपेक्षेत क्षणमपि राजा साहससिकं नरम्।।

अविनाशी ख्याति प्राप्त करने के इच्छुक राजा को सफल शासक तभी कहा जाता है, जो इस प्रकार के घृणित और नीच समाज विरोधी कार्यों में लिप्त आतंकवादियों को ढूँढकर जड़ से कुचल दे। उन्हे दंडित करने मे एक क्षण भी उपेक्षा न करे।
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महर्षि मनु की दृष्टि मे आदर्श राजा
यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक् । न साहसिकदण्डघ्नो स राजा शक्रलोकभाक् ।
जिस राजा के राज्य में न चोर, न परस्त्रीगामी, न दुष्ट वचन बोलनेहारा, न साहसिक डाकू और न दण्डघ्न अर्थात् राजा की आज्ञा का भंग करने वाला है वह राजा अतीव श्रेष्ठ है।

यदि राजा ना करे तो --
शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरूध्यते।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते।।
आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे ।
स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन्धर्मेण न दुष्यंत।।
अर्थात् जब प्रजा को धर्म पालन करने में असुविधा होती है और राष्ट्र में जब सब ओर अधर्म का बोलबाला हो जाता है तथा सामाजिक रूप से भय का वातावरण बन जाता है और निर्दोष लोगों की हत्याएं लूटपाट व आगजनी की घटनाएं निरंतर घटित होने लगें तब राष्ट्र तथा सामाजिक सुरक्षा के लिए समाज के अग्रणी लोगों को शस्त्र धारण कर अराजक तत्वों का नाश करने के लिए आगे आना चाहिए तथा समाज विरोधी कार्यों में लिप्त समाज कण्टको को चिन्हित कर तत्काल उनका नाश करना चाहिए, समाज तथा देश की सुरक्षा के लिए ऐसा करने से कोई दोष नहीं लगता है।

Arya Samaj ( Mahrishi Swami Dayanand Sarashwati Ji )





आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष का निर्णय



अनेक दार्शनिक विद्वानों का आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष में विचार भेद है। एक पक्ष आत्मा के निराकार होने का दावा करता है, तो दूसरा पक्ष आत्मा के साकार होने का दावा करता है। दर्शन का सिद्धान्त है कि जिस पक्ष का प्रतिषेध हो गया, वह निवृत्त हो जाता है; जो अवस्थित रह गया, निर्णय का स्वरूप उसी से अभिव्यक्त होता है। न्यायदर्शन में कहा है कि जिन हेतुओं से अपने पक्ष की सिद्ध का प्रमाण और दूसरे के पक्ष का खण्डन करना है, वह निर्णय कहलाता है। इस सैद्धान्तिक दृष्टि से हम दोनों पक्षों को तर्क और प्रमाण की कोटि में रखकर सत्याऽसत्य का निर्णय करेंगे।

पूर्वपक्षी- आत्मा एकदेशी होने से साकार है।
उत्तरपक्षी- यह आवश्यक नहीं है कि यदि एकदेशी वस्तुएं साकार होती हैं, तो व्यापक वस्तुएं साकार नहीं होती हैं। प्रकृति पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक है फिर भी वे साकार है; अतः आपका पक्ष हेत्वाभास के होने से अग्राह्य है।

पूर्वपक्षी- आत्मा परिच्छिन्न (अणु) होने से एकदेशी है इसलिए वह साकार है। सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास में स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं-
प्रश्न- जीव शरीर में भिन्न विभु है वा परिच्छिन्न?
उत्तर- परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरूप है।
उत्तरपक्षी- महर्षि ने यहां परिमाण की दृष्टि से परिच्छिन्न कहा है, रूप की दृष्टि से नहीं। परिमाण तीन होते हैं- विभु, मध्यम, अणु। इसलिए यह सत्य सिद्धान्त है कि आत्मा अणु होने से एकदेशी है, लेकिन आप परिमाण गुण को रूप गुण समझने की भूल कर रहे हैं। महर्षि कणाद ने इन दोनों गुणों को अलग-अलग बताया है [देखो- वैशेषिकदर्शन, सातवां अध्याय, पहला आह्निक]। यदि आपने दर्शनशास्त्रों का अध्ययन किया होता तो यह भ्रान्ति न होती। परिमाण गुण साकार और निराकार दोनों में होते हैं। आत्मा और परमात्मा में भी परिमाण गुण है। इसमें शास्त्रीय प्रमाण है; देखो- कठ० १/२/२०, श्वेता० ३/२०, मुण्डक० ३/१/९, छान्दोग्य० ६/८/७, ६/१५/३ तथा वैशेषिक० ७/१/२२]। इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर को एकदेशी और साकार मानना क्या आपको वांछनीय है? इसका उत्तर यही है कि यहां आपको परिमाण गुण ही मानना होगा। पैंगल उपनिषद् में आया है-
आकाशवत् सूक्ष्मशरीर: आत्मा न दृश्यते वायुवत्।। -४/१२
अर्थात् आत्मा का सूक्ष्म शरीर आकाशवत् है और वायु के समान अदृश्य है।

पूर्वपक्षी- निर् और आङ्-पूर्वक (डुकृञ् करणे) इस धातु से ‘निराकार’ शब्द सिद्ध होता है। ‘निर्गत आकारात् स निराकारः’ जिस का आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर-धारण करता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘निराकार’ है। यह स्वामी दयानन्दजी का मत है। महर्षि द्वारा प्रतिपादित निराकार की इस परिभाषा को आत्मा पर घटित करने पर उसे साकार नहीं मान सकते।
उत्तरपक्षी- इसका उत्तर ध्यानपूर्वक सुनिये। 'य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वरः’ जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इस से उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र’ है। जबकि अष्टाध्यायी (अध्याय ५, पाद ३, सूत्र ९३) में आत्मा को भी इन्द्र कहा गया है [इन्द्र आत्मा 'इति काशिकायाम्']। अब आप मेरे इन प्रश्नों के उत्तर दीजिये-
• क्या आप इन्द्र (परमेश्वर) के अखिल ऐश्वर्ययुक्त गुण-स्वभाव को आत्मा पर घटित करने का साहस करेंगे? कदापि नहीं। क्योंकि ऐसा करने से आपके सिद्धान्त खण्डित होंगे। ठीक इसी प्रकार परमात्मा के 'निराकार' नाम की जो व्याख्या है, आपने उसको आत्मा पर घटित कर दिया।
• क्या आप आत्मा और परमात्मा में अन्तर जानते हैं? स्वामी दयानन्दजी अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं- "प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओङ्काराऽऽदि नामों की व्याख्या।" महर्षि के इस वचन से यह सिद्ध होता है कि उन्हें प्रथम समुल्लास में ईश्वर के अनेक नामों की व्याख्या अभीष्ट है, फिर आपका ईश्वर विषयक प्रकरण आत्मा पर घटित करना कहाँ की ईमानदारी है? अतः आपकी पोल खुल चुकी है। यहां आप इस कहावत "कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा", को चरितार्थ कर रहे हैं।

पूर्वपक्षी- ईश्वर निराकार होने से सर्वव्यापक है। यदि आप आत्मा को निराकार मानते हैं तो उसे सर्वव्यापक भी मानना होगा।
उत्तरपक्षी- क्या आप परमात्मा की तुलना आत्मा से कर रहे हैं? परमात्मा अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है। वेदादि शास्त्रों में कहा है कि उस (जगदीश्वर) के तुल्य अन्य कोई नहीं है। आत्मा का गुण-कर्म-स्वभाव सीमित है। वह सर्व गुण-कर्म-स्वभाव से रहित है। यदि आप आत्मा को सर्वशक्तिशाली मानेंगे तो आपको परमात्मा के अस्तित्व को नकारना होगा। परमात्मा के अस्तित्व को नकारते ही आपके सिद्धान्त खण्डित होंगे और नास्तिकों के सारे दोष आपके पक्ष में होंगे। इसलिए आत्मा निराकार तो है लेकिन सर्वव्यापी नहीं।

पूर्वपक्षी- आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन सत्ता है। अगर आत्मा निराकार होती तो फिर भारत में बैठे हुए मुझे अमेरिका की भी खबर आत्मा के द्वारा होती।
उत्तरपक्षी- यदि आप आत्मा को साकार मानेंगे तो उसे जड़ पदार्थ मानना होगा। यह शाश्वत सिद्धान्त है कि जड़ पदार्थ के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ साकार नहीं होता। आत्मा चेतन और अप्राकृतिक पदार्थ है; अतः आपका तर्क कि भारत में बैठकर अमेरिका की खबर आत्मा द्वारा पाना चूँ-चूँ का मुरब्बा है।

ऊपर सिद्ध है, पूर्वपक्षी आत्मा के साकार होने के पक्ष में कोई प्रमाण न दे सका। अब हम आत्मा के निराकारत्व के पक्ष में कतिपय दार्शनिक विद्वानों की सम्मति प्रस्तुत करते हैं। यथा-

१. महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में जीवात्मा निराकार है। यथा-
• 'उपदेश मञ्जरी' (पूना प्रवचन) के चतुर्थ प्रवचन में महर्षि दयानन्द जी ने कहा है- "जीव का आकार नहीं तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं?"
• "...तथा वह (जीव) भी निराकार और नाश से रहित रहता है।" [महर्षि दयानन्द सरस्वती का पत्र-व्यवहार, भाग १, पृष्ठ २१७]

२. स्वामी दर्शनानन्द जी ने आत्मा को निराकार माना है- "जीवात्मा भी निराकार है।" [दर्शनानंद ग्रंथ संग्रह; पृ० २६; १९९७ संस्करण]

३. सुप्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी पण्डित बिहारीलाल शास्त्री अपनी पुस्तक 'निराकार साकार निर्णय' (प्रकाशन वर्ष १९६५; प्रकाशक- डॉ० राजेन्द्र कुमार) में जीवात्मा को मुक्तकण्ठ से निराकार बतलाते हैं-
• "निराकार जीवात्मा शरीर में गति करता है तो शरीर के कारण वह साकार नहीं कहलायेगा।" [पृ० ८]
• "आपका शरीर साकार है। आप (आत्मा) निराकार है।" [पृ० २६]

४. महान् दार्शनिक विद्वान् लेखक श्री पण्डित गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का पक्ष भी जीवात्मा के निराकारत्व में है।
• "कुछ निराकार वस्तुयें भी एक देशी हो सकती हैं, परन्तु कोई स्थूल या साकार वस्तु सर्वदेशी नहीं हो सकती।" [आस्तिकवाद; पृष्ठ १८६; प्रथम संस्करण]
• उन्होंने अपनी 'धर्म सार' नामक हिन्दी पुस्तक में जीवात्मा को निराकार लिखा है- "जीवात्मा निराकार है। उसको मोटा, पतला, काला, पीला नहीं कह सकते।" [पृष्ठ ३४]
[टिप्पणी- प्रा० राजेन्द्र जी जिज्ञासु द्वारा संपादित 'गंगा ज्ञान सागर' (प्रकाशन वर्ष २००० ई०) के दूसरे खण्ड में उपाध्याय जी रचित 'धर्म-सार' पुस्तक का समावेश किया गया है। अत: जीवात्मा को निराकार बताने वाला यह उद्धरण 'गंगा ज्ञान सागर' (दूसरा खण्ड) के पृष्ठ ७३ पर भी पढ़ा जा सकता है।]

५. स्वामी सत्यप्रकाश जी ने १९३८ में महर्षि दयानन्द सरस्वती के दार्शनिक चिन्तन पर एक महान् ग्रन्थ अंग्रेज़ी में लिखा है जिसका शीर्षक है- A Critical Study of the Philosophy of Dayananda. इसी ग्रन्थ को बाद में अन्य प्रकाशकों ने Dayananda's outline of Vedic Philosophy आदि अन्य शीर्षकों से प्रकाशित किया है। स्वामी सत्यप्रकाश जी के उपर्युक्त अंग्रेज़ी ग्रन्थ के छठे प्रकरण का शीर्षक है- The Ego अर्थात् जीवात्मा। इस प्रकरण में स्वामी सत्यप्रकाश जी ने जीवात्मा के सम्बन्ध में लिखा है-
1. "Living matter need not be cellular. Take the case of an ultramicroscopic virus which can pass through even a filter efficient to stop bacteria. Who can say, these ultramicroscopic filtrable viruses which cause many diseases in animals and plants may be particular kind of bacteria, almost approaching molecular dimensions. But the living life within them is still of a finer dimension. We say that it is a point with no dimensions. It is a reality in itself. It exhausts no space while it is in space." [P.136, 3rd edition 1984]
2. "According to Dayananda, souls are dimensionless units while the Absolute Brahman is the dimensionless unity." [Ibid, P.136]
3. "Just as God is a dimensionless unity, all-pervading and active (chetan), similarly, the souls are dimensionless units pervaded by God." [Ibid, p. 139]

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यहां जीवात्मा को लंबाई, चौड़ाई आदि परिमाणों से रहित वर्णित किया है। उनकी दृष्टि में जीवात्मा उस बिन्दु जैसा है जिसके कोई परिमाण नहीं। उनका मन्तव्य है कि आकाश में अवस्थित होते हुए भी जीवात्मा कोई स्थान नहीं घेरता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यहां यह भी लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी भी जीवात्मा को ऐसा ही- लंबाई, चौड़ाई आदि परिमाणों से रहित मानते हैं।

६. प्रसिद्ध विद्वान् स्वामी वेदानन्द तीर्थ अपने 'वैदिक धर्म' नामक पुस्तक में वेद का प्रमाण देते हुए जीवात्मा को "निराकार" बताया है-
अपादिन्द्रो अपादग्निर्विश्वे देवा अमत्सत।
वरुण इदिह क्षयत्तमापो अभ्यनूषत वत्सं संशिश्वरीरिव।। -ऋग्वेद ८/६९/११
अर्थ- (इन्द्र:) अखिलैश्वर्य सम्पन्न प्रभु (अपात्) चिह्न रहित=निराकार है (अग्नि:) चेतन जीव (अपात्) निराकार है (विश्वे देवा: अमत्सत) सब इन्द्रियां या सूर्य-चन्द्र आदि सुख के साधन हैं अथवा आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को जानकर (विश्वे देवाः अमत्सत) सब विद्वान् मोक्षानन्द पाते हैं। (वरुणः इत् इह क्षयत्) वरुण=सर्व श्रेष्ठ भगवान् ही इस संसार में वास करते हैं। अथवा (वरुण: इह इत् क्षयत्) सर्व श्रेष्ठ भगवान् इसी संसार में=इसी देह में ही रहते हैं। (इव शिश्वरी: वत्सं सम् ) जिस प्रकार वर्धक शक्तियां बच्चे को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार (आपः तम् अभिअनूषत्) सब स्तुतिएं उसको प्राप्त होती हैं।

ईश्वर और जीव दोनों निराकार हैं। ईश्वर सर्वव्यापक भी है। उसे खोजने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। वह हमारे अन्दर वास करता है। जिस प्रकार अवस्था के कारण वर्धक शक्तियां बालक ही को विशेष रूप से बढ़ाती हैं, उसी प्रकार सारी स्तुतियां भी परमेश्वर की ही होती हैं, क्योंकि वही सकलगुणनिधान है। [पृष्ठ २०-२१; प्रकाशक- गोविन्दराम हासानन्द; १९६२ संस्करण]

७. श्री आचार्य आनन्द प्रकाश जी (आर्ष शोध संस्थान अलियाबाद, तेलंगाना), स्वामी श्री सत्यपति जी परिव्राजक के शिष्य हैं। आपने सांख्य, वैशेषिक आदि दर्शन शास्त्रों के हिन्दी में सरल सुगम भाष्य लिखे हैं। आपने सांख्य दर्शन के प्रथम अध्याय के २० से लेकर ५४ तक के ३५ सूत्रों को वैसे तो प्रक्षिप्त बताया है, पुनरपि ये सूत्र के प्रक्षिप्त होने के हेतु देते हुए उन पर अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां भी दी हैं, जो पठनीय हैं। ५१वें सूत्र की समीक्षा में आप लिखते हैं-
"सांख्य के अनुसार प्रत्येक क्रियावान् पदार्थ मूर्त्त नहीं होता, अपितु व्यक्त क्रियावान् पदार्थ ही मूर्त्त होता है। अव्यक्त आत्मा क्रियावान् होते हुए भी मूर्त्त नहीं होता। इसलिए मूर्त्त पदार्थों के अन्य धर्मों की आत्मा में आशंका करना अनुचित है।" [पृ० ३५; प्रथम संस्करण]

८. सत्यार्थप्रकाश का विस्तृत भाष्य करने वाले सुप्रसिद्ध विद्वान् लेखक श्री स्वामी विद्यानन्द जी सरस्वती अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थ भास्कर' के प्रथम भाग के पृष्ठ ८४६-८४७ पर ईश्वर का निराकारत्व तथा निराकार ईश्वर के द्वारा सृष्टि रचना - सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित इन दार्शनिक विषयों पर लिखे गए अपने विवरण में स्वामी विद्यानन्द जी ने जीवात्मा को स्पष्टतः निराकार लिखा है।

९. षड्दर्शन आदि आर्ष शास्त्रों के सुविख्यात विद्वान् श्री स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक (निदेशक- दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़) ने अपने लेख "आत्मा साकार है, या निराकार" में आत्मा को निराकार सिद्ध किया है।

१०. आत्मा परमात्मा दोनों निराकार हैं।" -पण्डित बुद्धदेव मीरपुरी [मीरपुरी-सर्वस्व; पृ० १८१]

११. प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् स्व० आचार्य ज्ञानेश्वर आर्य 'दर्शनाचार्य' अपनी पुस्तक ईश्वर-जीव-प्रकृति में लिखते हैं-
• ईश्वर और आत्मा में यह समानता है कि दोनों ही चेतन, पवित्र, अविनाशी, अनादि, निराकार हैं। [पृष्ठ ४]
• जीवात्मा में कोई भार, रूप, आकार आदि गुण नहीं होते। [पृष्ठ १६]
• जैसे बिजली बड़े-बड़े यंत्रों को चला देती है ऐसे ही निराकार होते हुए भी जीवात्मा अपनी प्रयत्न रूपी चुंबकीय शक्ति से शरीरों को चला देता है। [पृष्ठ १९]

१२. स्वामी शान्तानन्द सरस्वती (एम०ए० दर्शनाचार्य) परमात्मा एवं जीवात्मा में समानता बतलाते हुए लिखते हैं-
"जीवात्मा का भी कोई आकार नहीं है। यह भी ईश्वर समान निराकार है। अर्थात् शरीर के समान किसी भी रूप से रहित है।" [परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति; पृष्ठ ३१; प्रथम संस्करण]

१२. 'वैदिक-पथ' (मासिक पत्रिका) के प्रधान सम्पादक डॉ० ज्वलन्तकुमार जी शास्त्री ने 'दयानन्द दर्शन' के पृष्ठ १६ पर आत्मा को "निराकार" लिखा है।

इस प्रकार ऐसे कई विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से आत्मा के निराकारत्व का समर्थन किया है। उपरोक्त तर्क और प्रमाणों की दृष्टि से आत्मा का निराकारत्व पक्ष स्थापित होता है। अतः शास्त्रों का निर्णय यही है कि आत्मा निराकार है, ऐसा सबको निश्चय जानना चाहिए।

Dalit vs Brahmin






एक #दलित चिंतक सुबह #नास्तिक , शाम को #बौद्ध और रात में #कम्युनिस्ट हो जाता है ! शादी विवाह और अंत्येष्टी के समय वह कर्मकांडी , #आरक्षण लेते समय #हिन्दू और चिंतन के समय वह हिन्दू विरोधी बन जाता है ! वह गाली देते समय मनुष्य व बोलने की स्वतंत्रता का समर्थक होता है मगर गाली पड़ते ही वह दबा कुचला #अछूत बन जाता है ! 

#ब्राह्मणों के साथ हो रहे अत्याचार पर जो लोग खुशी जाहिर कर रहें हैं उन्हें #स्मरण कराना चाहता हूं - 

जब भारत की शाही ताकतें #दुनिया की सबसे बड़ी हुकुमत के सामने #नतमस्तक थी तब इन्हीं #शास्त्र पढाने वाले हाथों ने #शस्त्र उठाए थे !

स्मरण रहे 

#वक्त बदलता रहता है मगर #रक्त कभी नहीं बदलता ! जय श्री #परशुराम 🚩

Brahmins Vansh ( Family Tree )

जो भगवन विष्णु के समक्ष पुरुष सूक्त का पाठ करता है उसकी बुद्धि बढ़ेगी | कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा |

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः

हरी ॐ

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |

स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||१||

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१||

पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |

उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||२||

जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेवाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ||२||

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |

पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||३||

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है | इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||३||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||४||

चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||४||

ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |

स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||५||

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||५||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् |

पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||६||

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ(जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) | वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ||६||

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||७||

उस विराट यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ | उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ||७||

तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||८||

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौए, बकरिया और भेड़s आदि पशु भी उत्पन्न  हुए ||८||

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|

तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||९||

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ||९||

यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ||१०||

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: |

ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए | क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं | वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ||११||

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||

विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ||१२||

नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |

पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||

विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं | इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ||१३||

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |

वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ||१४||

जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ||१४||

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता:|

देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ||१५||

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |

ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६||

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया | यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६||

ॐ शांति: ! शांति: !! शांति: !!!



🌇ब्राह्मण की वंशावली🌇
भविष्य पुराण के अनुसार ब्राह्मणों का इतिहास है की प्राचीन काल में महर्षि कश्यप के पुत्र कण्वय की आर्यावनी नाम की देव कन्या पत्नी हुई। ब्रम्हा की आज्ञा से 
दोनों कुरुक्षेत्र वासनी
सरस्वती नदी के तट 
पर गये और कण् व चतुर्वेदमय 
सूक्तों में सरस्वती देवी की स्तुति करने लगे
एक वर्ष बीत जाने पर वह देवी प्रसन्न हो वहां आयीं और ब्राम्हणो की समृद्धि के लिये उन्हें 
वरदान दिया ।
वर के प्रभाव कण्वय के आर्य बुद्धिवाले दस पुत्र हुए जिनका 
क्रमानुसार नाम था -
उपाध्याय,
दीक्षित,
पाठक,
शुक्ला,
मिश्रा,
अग्निहोत्री,
दुबे,
तिवारी,
पाण्डेय,
और
चतुर्वेदी ।
इन लोगो का जैसा नाम था वैसा ही गुण। इन लोगो ने नत मस्तक हो सरस्वती देवी को प्रसन्न किया। बारह वर्ष की अवस्था वाले उन लोगो को भक्तवत्सला शारदा देवी ने 
अपनी कन्याए प्रदान की।
वे क्रमशः
उपाध्यायी,
दीक्षिता,
पाठकी,
शुक्लिका,
मिश्राणी,
अग्निहोत्रिधी,
द्विवेदिनी,
तिवेदिनी
पाण्ड्यायनी,
और
चतुर्वेदिनी कहलायीं।
फिर उन कन्याआं के भी अपने-अपने पति से सोलह-सोलह पुत्र हुए हैं
वे सब गोत्रकार हुए जिनका नाम -
कष्यप,
भरद्वाज,
विश्वामित्र,
गौतम,
जमदग्रि,
वसिष्ठ,
वत्स,
गौतम,
पराशर,
गर्ग,
अत्रि,
भृगडत्र,
अंगिरा,
श्रंगी,
कात्याय,
और
याज्ञवल्क्य।
इन नामो से सोलह-सोलह पुत्र जाने जाते हैं।
मुख्य 10 प्रकार ब्राम्हणों ये हैं-
(1) तैलंगा,
(2) महार्राष्ट्रा,
(3) गुर्जर,
(4) द्रविड,
(5) कर्णटिका,
यह पांच "द्रविण" कहे जाते हैं, ये विन्ध्यांचल के दक्षिण में पाय जाते हैं|
तथा
विंध्यांचल के उत्तर मं पाये जाने वाले या वास करने वाले ब्राम्हण
(1) सारस्वत,
(2) कान्यकुब्ज,
(3) गौड़,
(4) मैथिल,
(5) उत्कलये,
उत्तर के पंच गौड़ कहे जाते हैं।
वैसे ब्राम्हण अनेक हैं जिनका वर्णन आगे लिखा है।
ऐसी संख्या मुख्य 115 की है।
शाखा भेद अनेक हैं । इनके अलावा संकर जाति ब्राम्हण अनेक है ।
यहां मिली जुली उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हणों की नामावली 115 की दे रहा हूं।
जो एक से दो और 2 से 5 और 5 से 10 और 10 से 84 भेद हुए हैं,
फिर उत्तर व दक्षिण के ब्राम्हण की संख्या शाखा भेद से 230 के
लगभग है | 
तथा और भी शाखा भेद हुए हैं, जो लगभग 300 के करीब ब्राम्हण भेदों की संख्या का लेखा पाया गया है।
उत्तर व दक्षिणी ब्राम्हणां के भेद इस प्रकार है
81 ब्राम्हाणां की 31 शाखा कुल 115 ब्राम्हण संख्या
(1) गौड़ ब्राम्हण,
(2)मालवी गौड़ ब्राम्हण,
(3) श्री गौड़ ब्राम्हण,
(4) गंगापुत्र गौडत्र ब्राम्हण,
(5) हरियाणा गौड़ ब्राम्हण,
(6) वशिष्ठ गौड़ ब्राम्हण,
(7) शोरथ गौड ब्राम्हण,
(8) दालभ्य गौड़ ब्राम्हण,
(9) सुखसेन गौड़ ब्राम्हण,
(10) भटनागर गौड़ ब्राम्हण,
(11) सूरजध्वज गौड ब्राम्हण(षोभर),
(12) मथुरा के चौबे ब्राम्हण,
(13) वाल्मीकि ब्राम्हण,
(14) रायकवाल ब्राम्हण,
(15) गोमित्र ब्राम्हण,
(16) दायमा ब्राम्हण,
(17) सारस्वत ब्राम्हण,
(18) मैथल ब्राम्हण,
(19) कान्यकुब्ज ब्राम्हण,
(20) उत्कल ब्राम्हण,
(21) सरवरिया ब्राम्हण,
(22) पराशर ब्राम्हण,
(23) सनोडिया या सनाड्य,
(24)मित्र गौड़ ब्राम्हण,
(25) कपिल ब्राम्हण,
(26) तलाजिये ब्राम्हण,
(27) खेटुवे ब्राम्हण,
(28) नारदी ब्राम्हण,
(29) चन्द्रसर ब्राम्हण,
(30)वलादरे ब्राम्हण,
(31) गयावाल ब्राम्हण,
(32) ओडये ब्राम्हण,
(33) आभीर ब्राम्हण,
(34) पल्लीवास ब्राम्हण,
(35) लेटवास ब्राम्हण,
(36) सोमपुरा ब्राम्हण,
(37) काबोद सिद्धि ब्राम्हण,
(38) नदोर्या ब्राम्हण,
(39) भारती ब्राम्हण,
(40) पुश्करर्णी ब्राम्हण,
(41) गरुड़ गलिया ब्राम्हण,
(42) भार्गव ब्राम्हण,
(43) नार्मदीय ब्राम्हण,
(44) नन्दवाण ब्राम्हण,
(45) मैत्रयणी ब्राम्हण,
(46) अभिल्ल ब्राम्हण,
(47) मध्यान्दिनीय ब्राम्हण,
(48) टोलक ब्राम्हण,
(49) श्रीमाली ब्राम्हण,
(50) पोरवाल बनिये ब्राम्हण,
(51) श्रीमाली वैष्य ब्राम्हण 
(52) तांगड़ ब्राम्हण,
(53) सिंध ब्राम्हण,
(54) त्रिवेदी म्होड ब्राम्हण,
(55) इग्यर्शण ब्राम्हण,
(56) धनोजा म्होड ब्राम्हण,
(57) गौभुज ब्राम्हण,
(58) अट्टालजर ब्राम्हण,
(59) मधुकर ब्राम्हण,
(60) मंडलपुरवासी ब्राम्हण,
(61) खड़ायते ब्राम्हण,
(62) बाजरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(63) भीतरखेड़ा वाल ब्राम्हण,
(64) लाढवनिये ब्राम्हण,
(65) झारोला ब्राम्हण,
(66) अंतरदेवी ब्राम्हण,
(67) गालव ब्राम्हण,
(68) गिरनारे ब्राम्हण
सभी ब्राह्मण बंधुओ को मेरा नमस्कार बहुत दुर्लभ जानकारी है जरूर पढ़े। और समाज में सेयर करे हम क्या है
इस तरह ब्राह्मणों की उत्पत्ति और इतिहास के साथ इनका विस्तार अलग अलग राज्यो में हुआ और ये उस राज्य के ब्राह्मण कहलाये।
ब्राह्मण बिना धरती की कल्पना ही नहीं की जा सकती इसलिए ब्राह्मण होने पर गर्व करो और अपने कर्म और धर्म का पालन कर सनातन संस्कृति की रक्षा करे।
🙏🌹🙏जय श्री परशुराम🙏🌹🙏

ब्राह्मण

ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है। इसका उत्तर इस प्रकार है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी न...