Wednesday, 9 February 2022

क्षत्रिय कौन?


ब्राहम्ण वर्ण में गौड़, सास्वत, पालीवाल, जोगी, बैरागी, जांगडा, कन्याकुब्ज, वैष्णव, त्यागी/भुमिहार, डोंगरे आदि प्रकार/जातियां है 

उसी प्रकार क्षत्रिय वर्ण में राजपूत, गुज्जर, जाट, यादव, गौड़ ब्राह्मण, भुमिहार आदि प्रकार/जातियां है 


उसी प्रकार वैश्य वर्ण में बनिया, पंजाबी आदि प्रकार/जातियां है


शुद्र वर्ण में नाई, धोबी, तेली, लुहार आदि जातियां है


वैसे आजकल हर जाति हर तरह का काम कर रही है इसलिए अब हर कोई वर्ण या जाति अनुसार कार्य नहीं कर सकता... अब लगभग हर वर्ण/जाति के लोग हर तरह का काम कर रहे हैं


सबका अपना अपना अलग अलग इतिहास आजकल बना हुआ है कोई अपने आप को किसी से कम नहीं समझता और ना ही समझना चाहता है.. जिस जगह जिस जाति/धर्म की बहुलता है  आजकल वहां वो ही क्षत्रिय बना हुआ है



Friday, 10 December 2021

ब्राह्मण





ब्राह्मण -
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भारत के ब्राह्मण भी दो अलग-अलग बिरादरियों में बंटे हुए हैं। एक बिरादरी द्रविड़ों की है, तो दूसरी गौड़ों की।

लेकिन भूलकर भी ऐसी कल्पना नहीं करनी चाहिए कि द्रविड़ों और गौड़ों की एकल समजातीय ईकाइयां हैं, वे अनगिनत ईकाइयों में विभाजित और उप-विभाजित हैं। उनकी संख्या का अनुमान तो तभी लगाया जा सकता है, जब उनके उप-विभाजनों की वास्तविक सूचियां हमारी आंखो के सामने हों। आगे के पृष्ठों में एक सूची प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, ताकि पता चल सके कि बिरादरी की हर उप-शाखा कितनी जातियों और उप-जातियों में बंटी हुई है।

द्रविड़ ब्राह्मण

द्रविड़ बिरादरी की पांच उप-शाखाएं हैं। उन्हें सामूहिक रूप से पंच द्रविड़ कहा जाता है। उनकी पांच उप-शाखाएं हैं -

(1) महाराष्ट्रीय,

` (2) आंध्र के ब्राह्मण,

(3) द्रविड़ (मूल) ब्राह्मण,

(4) कर्नाटक के ब्राह्मण और

(5) गुर्जर।

अब हम देखेंगे कि पंच-द्रविड़ों की प्रत्येक उप-शाखा का कितनी जातियों और उप-जातियों में विखण्डन हो गया है।

1 . महाराष्ट्रीय ब्राह्मण

महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों की निम्नलिखित जातियां और उपजातियां हैं -

(1) देशस्थ, (2) कोकणस्थ , (3) कर्हद, (4) कण्व, (5) मध्यन्दिन, (6) पाढ्य, (7)देवरुख, (8) पलाश, (9) किरवंत, (10) तिर्गुल, (11) जवाल, (12)अभीर, (13) सावंश, (14) कस्त, (15) कुंडा गोलक, (16) रंडा गोलक, (17) ब्राह्मण-जाइस, (18) सोपार, (19) खिसती, (20)हुसैनी, (21) कलंकी, (22) मैत्रायानी, (23) वरदी-मध्यन्दिन यजुर्वेदी, (24) वरदी-मध्यन्दिन ऋग्वेदी और (25) झाड़े।

शनवियों का नौ और उप-जातियों में विभाजन हो गया है-

(26) नर्वन्कर, (27) किलोस्कर, (28) बर्देश्कर, (29) कुदालदेष्कर, (30) पेडनेकर, (31)भालवेलेकर, (32)कुशस्थली, (33)खडापे और (34) खाजुले।

2 . आंध्र के ब्राह्मण

आंध्र के ब्राह्मणों की निम्नलिखित जातियां और उप-जातियां हैं -

(1) वर्णासालू, (2) कमारुकुबी, (3) कराणाकामुल, (4) मध्यन्दिन, (5) तैलंग, (6)मुराकानाडू, (7) आराध्य, (8) याज्ञवल्क्य, (9) कसारानाडू, (10) वेलंडू, (11) वेन्गिनाडू, (12) वेडिनाडू, (13) सामवेदी, (14) रामानुजी, (15) मध्यावाचारी और (16) नियोगी।

3 . तमिल ब्राह्मण

उनकी निम्नलिखित जातियां हैं -

(1) ऋग्वेदी, (2) कृष्ण यजुर्वेदी, (3) शुक्ल यजुर्वेदी मध्यन्दिन, (4) शुक्ल यजुर्वेदी कण्व, (5) सामवेदी, (6) अथर्व, (7) वैष्णव, (8) वीर वैष्णव, (9) श्री वैष्णव, (10) भागवत और (11) शक्त।

4 . कर्नाटक के ब्राह्मण

उनकी निम्नलिखित जातियां हैं -

(1) ऋग्वेदी, (2) कृष्ण चतुर्वेदी, (3) शुक्ल यजुर्वेदी मध्यन्दिन, (4) शुक्ल चजुर्वेदी कण्व, (5) सामवेदी, (6) कुमे ब्राह्मण, और (7) नागर ब्राह्मण।

5 . गुर्जर ब्राह्मण

गुर्जर ब्राह्मणों की निम्नलिखित जातियां हैं -

1. आन्दीच्य ब्राह्मण। इनकी निम्नलिखित उप-जातियां हैं -

(1) सिद्धपुर आन्दीच्य, (2) सिहोर आन्दीच्य, (3) तोलकिया आन्दीच्य, (4) कुन्बीगोर, (5) इनोंचिगोर, (6)दार्जिगोर, (7)ग्रांध्रापगोर, (8) कोलिगोर, (9) मारवाड़ी आन्दीच्य, (10)काच्ची आन्दीच्य, (11) वाग्दीय आन्दीच्य।

2. नागर ब्राह्मण। नागर ब्राह्मणों की निम्नलिखित उप-जातियां हैं -

(12) वडानगर ब्राह्मण, (13) विशालनगर ब्राह्मण, (14) सतोदरा ब्राह्मण, (15) प्रश्नोरा, (16) कृष्णोरा, (17) चित्रोदा, (18) बारादा।

नागर ब्राह्मणों की तीन अन्य शाखाएं भी हैं, वे हैं -

(19) गुजराती नागर, (20) सोरठी नागर और (21) अन्य नगरों के नागर।

3. गिरनार ब्राह्मण। इनकी निम्नलिखित जातियां हैं -

(22) जूनागढ़ैया गिरनार, (23) चौरवाड गिरनार, (24) आजकिया।

4. मेवादास ब्राह्मण। इनकी निम्नलिखित जातियां हैं -

(25) भट्ट मेवादास, (26) त्रिवेदी मेवादास, (27) चरोसी मेवादास

5. देशवाल ब्राह्मण। उनकी एक उप-जाति है, जिसका नाम हैं -

(46) देशवाल ब्राह्मण सुरति।

6. रयाकावाल ब्राह्मण। उनकी दो उप-जातियां हैं -

(47) नवा (नए), और (48) मोठा (पुराने)

7. खेडवाल ब्राह्मण। उनकी पांच उप-जातियां हैं -

(49) खेडवाल वाज, (50) खेडवाल भितर, (51) खेडववाज, (52) खेडव भितर।

8. मोढा ब्राह्मण। उनकी ग्यारह उप-जातियां हैं -

(53) त्रिवेदी मोढा, (54) चतुर्वेदी मोढा, (55) अगिहंस मोढा, (56)त्रिपाल मोढा, (57) खिजादिया सनवन मोढा, (58) एकादशध्र मोढा, (59) तुदुलोता मोढा, (60) उतंजलीय मोढा, (61) जेठीमल मोढा, (62) चतुर्वेदी धिनोजा मोढा, (63) धिनोजा मोढा।

9. श्रीमाली ब्राह्मण। श्रीमाली ब्राह्मणों की निम्नलिखित जातियां हैं -

(64) मारवाड़ी श्रीमाली, (65) मेवाड़ी श्रीमाली, (66) काच्छी श्रीमाली, (67) काठियावाड़ी श्रीमाली, (68) गुजराती श्रीमाली।

निम्नलिखित में गुजराती श्रीमाली का और उप-विभाजन हो गया है-

(69)अहमदाबादी श्रीमाली (70) सूरती श्रीमाली, (71) घोघारी श्रीमाली, और (72) खम्बाती श्रीमाली। खम्बाती श्रीमाली का पुनः इस प्रकार उप-विभाजन हुआ है : (73) यजुर्वेदी खम्बाती श्रीमाली, (74) सामवेदी खम्बाती श्रीमाली।

10. चौविशा ब्राह्मण। उनकी दो उप-जातियां हैं -

(75) मोटा (बड़े), और (76) लहना (छोटे)।

11. सारस्वत ब्राह्मण। उनकी दो उप-जातियां हैं -

(77) सोरठिया सारस्वत और (78) सिंधव सारस्वत।

12. गुजराती ब्राह्मणों की निम्नलिखित जातियां हैं, पर उनकी उप-जातियां नहीं हैं -

(79) सचोरा ब्राह्मण, (80) उदम्बरा ब्राह्मण, (81) नरसीपारा ब्राह्मण, (82) बलादरा ब्राह्मण, (83) पंगोरा ब्राह्मण, (84) नंदोदरा ब्राह्मण, (85) वयादा ब्राह्मण, (86) तमिल (अथवा द्रविड़) ब्राह्मण, (87) रोढ़ावाल ब्राह्मण, (88) पदमीवाल ब्राह्मण, (89) गोमतीवाल ब्राह्मण, (90) इतावला ब्राह्मण, (91) मेधातवाल ब्राह्मण, (92) गयावाल ब्राह्मण, (93) अगस्त्यवाल ब्राह्मण, (94) प्रेतावाल ब्राह्मण, (95) उनेवाल ब्राह्मण, (96) राजावाल ब्राह्मण, (97) कनौजिया ब्राह्मण, (98) सरवरिया ब्राह्मण, (99) कनोलिया ब्राह्मण, (100) खरखेलिया ब्राह्मण, (101) परवलिया ब्राह्मण, (102) सोरठिया ब्राह्मण, (103) तंगमाडिया ब्राह्मण, (104) सनोदिया ब्राह्मण, (105) मोताल ब्राह्मण, (106)झलोरा ब्राह्मण, (107) रयापुला ब्राह्मण, (108) कपिल ब्राह्मण, (109) अक्षयमंगल ब्राह्मण, (110) गुगली ब्राह्मण, (111) नपाला ब्राह्मण, (112) अनावला ब्राह्मण, (113) वाल्मीकि ब्राह्मण, (114) कलिंग ब्राह्मण, (115) तैलंग ब्राह्मण, (116) भार्गव ब्राह्मण, (117) मालवी ब्राह्मण, (118) बांदआ ब्राह्मण, (119) भारतन ब्राह्मण, (120) पुष्करण ब्राह्मण, (121) खदायता ब्राह्मण, (122) मारू ब्राह्मण, (123) दाहिया ब्राह्मण, (124) जोविसा ब्राह्मण, (125) जम्बू ब्राह्मण, (126)मराठा ब्राह्मण, (127) दधीचि ब्राह्मण, (128) ललता ब्राह्मण, (129) वलूत ब्राह्मण, (130) बोरशिध ब्राह्मण, (131) गोलवाल ब्राह्मण, (132) प्रयागवाल ब्राह्मण, (133) नायकवाल ब्राह्मण, (134) उत्कल ब्राह्मण, (135) पल्लिवाल ब्राह्मण, (136) मथुरा ब्राह्मण, (137) मैथिल ब्राह्मण, (138) कुलाभ ब्राह्मण, (139) बेदुआ ब्राह्मण, (140) रववाल ब्राह्मण, (141) दशहरा ब्राह्मण, (142) कर्नाटकी ब्राह्मण, (143) तलजिया ब्राह्मण, (144) परशरिया ब्राह्मण, (145) अभीर ब्राह्मण, (146) कुंडु ब्राह्मण, (147) हिरयजिया ब्राह्मण, (148) मस्तव ब्राह्मण, (149) स्थितिशा ब्राह्मण, (150) प्रेतादवाल ब्राह्मण, (151) रामपुरा ब्राह्मण, (152) जिल ब्राह्मण, (153) तिलोत्य ब्राह्मण, (154) दुरमल ब्राह्मण, (155) कोडव ब्राह्मण, (156) हनुशुना ब्राह्मण, (157) शेवाद ब्राह्मण, (158) तित्राग ब्राह्मण, (159) बसुलदास ब्राह्मण, (160) मगमार्य ब्राह्मण, (161) रयाथल ब्राह्मण, (162) चपिल ब्राह्मण, (163) बरादास ब्राह्मण, (164) भुकनिया ब्राह्मण, (165) गरोड ब्राह्मण और (166) तपोर्णा ब्राह्मण।

गौड़ ब्राह्मण

द्रविड़ ब्राह्मणों की भांति गौड़ ब्राह्मणों की भी एक बिरादरी है और उसमें पांच अलग-अलग समूहों के ब्राह्मण हैं। ये पांच समूह हैं -

(1) सारस्वत ब्राह्मण, (2) कान्यकुब्ज ब्राह्मण, (3) गौड़ ब्राह्मण, (4) उत्कल ब्राह्मण और (5) मैथिल ब्राह्मण।

पंच-गौड़ों के इन पांच में से प्रत्येक समूह के आंतरिक ढांचे को निरखने-परखने से पता चलता है कि उनकी स्थिति भी वैसी ही है, जैसी कि पंच-द्रविड़ों की बिरादरी के पांच समूहों की है। प्रश्न केवल इतना है कि पंच-द्रविड़ों में पाए जाने वाले आंतरिक विभाजनों और उप-विभाजनों से उनके ये विभाजन कम हैं या ज्यादा। इस प्रयोजन के लिए बेहतर होगा कि हर वर्ग पर अलग-अलग विचार किया जाए।

1 . सारस्वत ब्राह्मण

सारस्वत ब्राह्मण तीन क्षेत्रीय वर्गों के हैं -

(1) पंजाब के सारस्वत ब्राह्मण, (2) कश्मीर के सारस्वत ब्राह्मण और (3) सिंध के सारस्वत ब्राह्मण

पंजाब के सारस्वत ब्राह्मण

पंजाब के सारस्वतों के तीन उप-विभाजन हैं -

(क) लाहौर, अमृतसर, बटाला, गुरदासपुर, जालंधर, मुल्तान, झंग और शाहपुर जिलों के सारस्वत ब्राह्मण। पुनः वे उच्च जातियों और निम्न जातियों में बंटे हुए हैं।

उच्च जातियां

(1) नवले, (2) चुनी, (3) रवाड़े, (4) सरवलिए, (5) पंडित, (6) तिखे, (7) झिंगन, (8) कुमाडिए, (9) जेतले, (10) मोहले अथवा मोले, (11) तिखे-आंडे, (12) झिंगन-पिंगन, (13)जेतली-पेतली, (14) कुमाडिए लुमाडिए, (15) मोहले-बोहले, (16) बागे, (17) कपूरिए, (18) भटूरिए, (19) मलिए (20) कालिए, (21) सानडा, (22) पाठक, (23) कुराल, (24) भारद्वाजी, (25) जोशी, (26) शौरी, (27) तिवाड़ी, (28) मरूड, (29) दत्ता, (30) मुझाल, (31)छिब्बर, (32) बाली, (33) मोहना, (34) लादा, (35) वैद्य, (36) प्रभाकर, (37) शामे-पोतरे, (38) भोज-पोतरे, (39) सिंधे-पोतरे, (40) वात्ते-पोतरे, (41) धन्नान-पोतरे, (42) द्रावड़े, (43) गेंधार, (44) तख्त-ललाड़ी, (45) शामा दासी, (46) सेतपाल अथवा शेतपाल, (47) पुश्रात, (48) भारद्वाजी, (49) करपाले, (50) घोताके, (51) पुकरने।

निम्न जातियां

(52) डिड्डी, (53) श्रीधर, (54) विनायक, (55) मज्जू, (56) खिंडारिए, (57) हराड़, (58) प्रभाकर, (59) वासुदेव, (60) पाराशर, (61) मोहना, (62) पनजान, (63) तिवारा, (64) कपाला, (65) भाखड़ी, (66) सोढ़ी, (67) कैजार, (68) संगड़, (69) भारद्वाजी, (70) नागे, (71) मकावर, (72) वशिष्ट, (73) डंगवाल, (74) जालप, (75) त्रिपने, (76) भराते, (77) बंसले, (78) गंगाहर, (79) जोतशी, (80) रिखी अथवा रिशी। (81) मंदार, (82)ब्राह्मी, (83) तेजपाल, (84) पाल, (85) रूपाल, (86) लखनपाल, (87) रतनपाल, (88)शेतपाल, (89) भिंदे, (90) धामी, (91) चानन, (92) रंडेहा, (93) भूटा, (94) राटी, (95) कुंडी, (96) हसधीर, (97) पुंज, (98) सांधी, (99) बहोए, (100) विराड, (101) कलंद, (102) सूरन, (103) सूदन, (104) ओझे, (105) ब्रह्मा-मुकुल, (106) हरिए, (107) गजेसू, (108) भनोट, (109) तिनूनी, (110) जल्ली, (111) टोले, (112) जालप, (113) चिचौट, (114) पाढे अथवा पांढे, (115) मरुद, (116) ललदिए, (117) टोटे, (118) कुसारिट, (119) रमटाल, (120) कपाले, (121) मसोदरे, (122) रतनिए, (123) चंदन, (124) चुरावन, (125) मंधार, (126) मधारे, (127) लकरफार, (128) कुंद, (129) कर्दम, (130) ढांडे, (131)सहजपाल, (132) पभी, (133) राटी, (134) जैतके, (135) दैदरिए, (136) भटारे, (137) काली, (138) जलपोट, (139) मैत्रा, (140) खतरे, (141) लुदरा, (142) व्यास, (143) फलदू, (144) किरार, (145) पुजे, (146) इस्सर, (147) लट्टा, (148) धामी, (149) कल्हन, (150) मदारखब, (151) बेदेसर, (152) सालवाहन, (153) ढांडे, (154) कुरालपाल, (160) कलास, (161) जालप, (162) तिनमानी, (163) तंगनिवते, (164) जलपोट, (165) पट्टू, (166) जसरावा, (167) जयचंद, (168)सनवाल, (169) अग्निहोत्री, (170) अगराफक्का, (171)रुथाडे, (172) भाजी, (173) कुच्ची, (174)सैली, (175) भाम्बी, (176) मेडू, (177) मेहदू, (178) यमये, (179) संगर, (180) सांग, (181) नेहर, (182) चकपालिए, (183) बिजराये, (184) नारद, (185) कुटवाल, (186) कोटपाल, (187) नाभ, (188) नाड, (189)परेंजे, (190) खेटी, (191) आरि, (192) चावहे, (193) बिबडे, (194) बांडू, (195) मच्चू, (196) सुंदार, (197) कराडगे, (198) छिब्बे, (199) साढ़ी, (200) तल्लन (201) कर्दम, (202) झामन, (203) रांगडे, (204) भोग, (205) पांडे, (206) गांडे, (207) पांटे, (208) गांधे, (209) धिंडे, (210) तगाले, (211) दगाले, (212) लहाड़, (213) टाड, (214) काई, (215) लुढ़, (216) गंडार, (217) माहे, (218) सैली, (219) भागी, (220) पांडे, (221) पिपार, और (222) जठी।

(ख) कांगड़ा और उससे सटे पर्वत प्रदेश के सारस्वत ब्राह्मण। ये भी उच्च वर्ग और निम्न वर्ग में बंटे हुए हैं -

उच्च जातियां

(1)ओसदी, (2) पंडित कश्मीरी, (3) सोत्री, (4) वेदवे, (5) नाग, (6) दीक्षित, (7) मिश्री कश्मीरी, (8) मादि हाटू, (9) पंचकर्ण, (10) रैने, (11) कुरुद, (12) आचारिए।

निम्न जातियां

(13) चिथू, (14) पनयालू, (15) दुम्बू, (16) देहाइदू, (17) रुखे, (18) पमबार, (19) गुत्रे, (20) द्याभुदु, (21) मैते (22) प्रोत (पुरोहित) जदतोत्रोतिए, (23) विष्ट प्रोत, (24) पाधे सरोज, (25)पाधे खजूरे, (26) पाधे माहिते, (27) खजूरे, (28) छुतवान, (29) भनवाल, (30) रामबे, (31) मंगरूदिए, (32) खुर्वध, (33) गलवध, (34) डांगमार, (35) चालिवाले।

(ग) दत्तापुर होशियारपुर और उससे सटे प्रदेश के सारस्वत ब्राह्मण। ये भी उच्च वर्ग और निम्न वग्र में बंटे हुए हैं -

उच्च जातियां

(1) डोगरे, (2) सरमाई, (3) दुबे, (4) लखनपाल, (5) पाधे ढोलबलवैया, (6) पाधे घोहासनिए, (7) पाधे दादिए, (8)पाधे खिंदादिया, (9) खजुरिवे।

निम्न जातियां

(10) कपाहाटिए, (11) भारधियाल, (12) चपरोहिए, (13) मकादे, (14) कुताल्लिदिए, (15) सारद, (16) दगादू, (17) वंतादें, (18) मुचले, (19) सम्मोल, (20) धोसे, (21) भटोल, (22) रजोहद, (23) थानिक, (24) पनयाल, (25) छिब्बे, (26) मदोटे, (27) मिसर, (छकोटर), (29 )जलरेये (30) लाहद, (31) सेल, (32) भसुल (33) पंडित, (34) चंधियाल, (35) लाथ, (36) सांद, (37) लइ, (38) गदोतरे, (39) चिर्नोल (40) बधले, (41) श्रीधर, (42) पटडू, (43) जुवाल, (44) मैते, (45) काकलिए, (46) टाक, (47) झोल, (48) भदोए, (49) तांडिक, (50) झुम्मूतियार, (51) आई, (52) मिरात, (53) मुकाति, (54) डलचल्लिए, (55) भटोहिए, (56) त्याहाए, और (57) भटारे।

कश्मीर के सारस्वत ब्राह्मण

कश्मीर के सारस्वतों की दो उप-शाखाएं हैं -

(क) जम्मू, जसरोता और उसके पड़ोस के पर्वतीय प्रदेश के सारस्वत ब्राह्मण उच्च, मध्य और निम्न वर्गों में विभाजित हैं।

उच्च जातियां

(1) अमगोत्रे, (2) थाप्पे, (3) दुबे, (4) सपोलिए पाधे, (5) बड़ियाल, (6) केसर, (7) नाध (8) खजूरे प्रहोत, (9) जामवाल पंडित, (10) वैद्य, (11) लव, (12) छिब्बर, (13) ओलिए, (14) मोहन, (बंभवाल)

मध्यवर्गी जातियां

(16) रैना, (17) सतोत्रे, (18) कतोत्रे, (19) ललोत्रे, (20) भंगोत्रे, (21) सम्नोत्रे, (22) कश्मीर पंडित, (23) पंधोत्रे, (24) विल्हानोच (25) बाडू, (26) कैरनाए पंडित, (27) दनाल पाधे, (28) माहिते, (29) सुघ्रालिए, (30) भाटियाड, (31) पुरोच, (32) अधोत्रे, (33) मिश्र, (34) पाराशर, (35) बवगोत्रे, (36) मंसोत्रे, (37) सुदाथिए।

निम्न जातियां

(38) सूदन, (39) सुखे, (40) भुरे, (41) चंदन, (42) जलोत्रे, (43) नभोत्रे, (44) खदोत्रे, (45) सगदोल, (46) भुरिए, (47) बंगनाछल, (48) रजूलिए, (49) सांगदे, (50) मुंडे, (51) सुरनाचल, (52) लधंजन, (53) जखोत्रे, (54) लखनपाल, (55) गौड़ पुरोहित (56)शशगोत्रे, (57) खनोत्रे, (58) गरोच, (59) मरोत्रे, (60) उपाधे, (61) खिंधाइए पाधे, (62) कलंदरी, (63) जारद, (64) उदिहाल, (65) घोड़े, (66) बस्नोत्रे, (67) बराट, (68) चरगट, (69) लवान्थै, (70) भंरगोल, (71) जरंघल, (72) गुहालिए, (73) धरियांचा, (74) पिंधाड, (75) रजूनिए, (76) बडकुलिवै, (77) श्रीखंडिए, (78) किरपाद, (79) बल्ली, (80) सलुर्न, (81) रतनपाल, (82) बनोत्रे, (83) यंत्रधारी, (84) ददोरिच, (85) भलोच, (86) छछियाले, (87) झंगोत्रे, (88) मगदोल, (89) फौनफान, (90) सरोच, (91) गुद्दे, (92) र्क्लिे, (93) मंसोत्रे, (94) थम्मोत्रे, (95) थन्माथ, (96) ब्रामिए, (97) कुंदन, (98) गोकुलिए गोसाई, (99) चकोत्रे, (100) रोद, (101) बर्गोत्रे, (102) कावदे, (103) मगदियालिए, (104) माथर, (105) महीजिए, (106) ठाकरे पुरोहित (107) गलहल, (108) चाम, (109) रोद, (110) लभोत्रे, (111) रेदाथिए, (112) पाटल, (113) कमानिए, (114) गंधर्गल, (115) पृथ्वीपाल, (116) मधोत्रे, (117) काम्बो, (118) सरमाई, (119) बच्छल, (120) मखोत्रे, (121) जाद, (122) बटियालिए, (123) कुदीदाव, (124) जाम्बे, (125) करन्थिए, (126)सुथादे, (127) सिगाद, (128) गरदिए, (129) माछर, (130) बघोत्रे, (131)सैन्हासन, (132)उत्रियाल, (133) सुहंदिए, (134) झिंधाद, (135) बट्टाल, (136) भैंखरे, (137) बिस्गोत्रे, (138) झालु, (139) दाब्व, (140) भूटा, (141) कठियालू, (142) पलाधू, (143) जखोत्रे, (144) पांगे, (145) सोलहे, (146) सुगुनिए, (147) सन्होच, (148) दुहाल, (149) बांदों, (150) कानूनगो, (151) झावदू, (152)झफादू, (153) कालिए, (154) खफांखो।

(ख) कश्मीर के सारस्वत (कश्मीर के ब्राह्मण सारस्वत हैं या नहीं, इस बारे में मतभेद हैं। कुछ कहते हैं कि वे हैं, कुछ कहते हैं कि वे नहीं हैं।) ब्राह्मणों की सूची इस प्रकार है :

(1) कौल, (2) राजदान, (3) गुर्टू, (4) जुत्सी, (5) दर, (6) त्रकारी, (7) मुझी, (8) मुंशी, (9) बुतल, (10) जावी, (11) बजाज, (12) रेइ, (13) हंडू, (14) दिप्ती, (15) छिछबिल, (16) रुगी, (17) कल्ल, (18) सुम, (19) हंजी, (20) हस्तावली, (21)मट्टू, (22) तिक्कू, (23) गइस, (24) गादी, (25) बरारी, (26) गंज, (27) वांगन, (28) वांगिन, (29) भट्ट, (30) भैरव, (31) मदन, (32) दीन, (33) शर्गल, (34) हक्सर, (35) हक, (36) कक्कड़, (37) छतारी, (38) सांनपुअर, (39) मत्ती, (40) खश, (41) शकधर, (42) वैष्णव, (43) कोतर, (44) काक, (45) कचारी, (46) टोटे, (47)सराफ, (48) गुरह, (49) थांथर, (50) खर, (51) थर, (52) टेंग, (53) सइद, (54) त्रपिर, (55) मुठ, (56) सफाई, (57) भान, (58) वइन, (59) गड़िएल, (60) थपल, (61) नअर, (62) मसालदान, (63) मुश्रान, (64) तुरिक, (65) फोतेदार, (66) खर्रु, (67) करवंगी, (68) बठ्ठ (69) किचलू, (70) छान, (71) मुक्दम, (72) खपिर, (73) बुलक, (74) कार, (75) जलाली, (76) सफाया, (77) बेतफली, (78) हिक, (79) कुकपिर, (80) कअलि, (81) जेअरी, (82) गंज, (83) किम, (84) मुंइड, (85) जंगल, (86) जिंट, (87) राख्युस, (88) बकई, (89) गैरी, (90) गारी, (91) कअलि, (92) पईज, (93) बइंग, (94) साहिब, (95) बेलाब, (96) रेइ, (97) गलीकरप, (98) चन्न, (99) कबाबी, (100) यछ, (101) जालपूरी, (102) नवशहारी, (103) किस, (104) धुसी, (105) गामखिर, (106) ठठल, (107) पिस्त, (108) बदम, (109) त्रसल, (110) नादिर, (111) लडाइगिर, (112) प्यल, (113) कइब, (114) छत्री, (115) बन्टि, (116) वातुलु, (117) खइर, (118) बास, (119) पइट, (120) सबेज, (121) डंड, (122) रावल, (123) मिसिर, (124) सिब्ब, (125) सिंगअर, (126) मिर्ज़, (127) मल, (128) वारिक, (129) जान, (130) लुतिर, (131) पारिम, (132) हइल, (133) नकब, (134) मुंइन, (135) अम्बारदार, (136) बरवल, (137) केंठ, (138) बाली, (139) जंगली, (140) डुल, (141) परव, (142) हरकार, (143) गागर, (144) पंडित, (145) जारी, (146) लांगी, (147) मुक्की, (148) बीही, (149) पडौर, (150) पाडे, (151) जांद, (152) टेंग, (153) टूंड, (154) दराबी, (155) दराल, (156) फम्ब, (157) सज्जोल, (158) बख्शी, (159) उग्र, (160) निचिव, (161) पठान, (162) विचारी, (163) ऊंठ, (164) कुचारी, (165) शाल, (166) बइब, (167) मखानी, (168) लाबिर, (169) खान, (17O) खानकिट, (171) शाह, (172) पीर, (173) खरिद, (174) खइंक, (175) कल्पोश, (176) पिशन, (177) बिशन, (178) बुल, (179) च्युक, (180) चक, (181) रेइ, (182) प्रुइत, (183) पइट, (184) किचिल, (185) कहि, (186) जिजि, (187) किलमाल, (188) सलमान, (189) कदलबुज, (190) कंधारी, (191) बाली, (192) मनाटी, (193) बान्खन, (194) हकीम, (195) गरीब, (196) मंडल, (197) मंझ, (198) शइर, (199) नून, (200) तेली, (201) खलसी, (202) चन्द्र, (203) गदिइर, (204) जरेब, (205) सिहिर, (206) कल्विट, (207) नगरी, (208) मंगुविच, (209) खैबारी, (210) कुअल, (211) कइब, (212) ख्वस, (213) दुर्रानी, (214) तुली, (215) गरीब, (216) गाढी, (217) जती, (218) राक्सिस, (219) हरकार, (220) ग्रट, (221) वागिर, आदि आदि।

सिंघ के सारस्वत

सिंघ के सारस्वतों का उप-विभाजन इस प्रकार है -

(1) शिकारपुरी, (2) बारोवी, (3) रवनजाही, (4) शैतपाल, (5) कुवां चांद, (6) पोखरन।

2 . कान्यकुब्ज ब्राह्मण

कान्यकुब्जों का नाम कन्नौज नगर के नाम पर पड़ा है, जो.... साम्राज्य की राजधानी था। इन लोगों को कन्नौजिए भी कहते हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के दो नाम हैं। एक सरवरिया कहलाते हैं, तो दूसरे कान्यकुब्ज। सरवरिया ब्राह्मणों का नाम प्राचीन नदी सरयू पर पड़ा है, जिसके पूर्व में वे मुख्यतः पाए जाते हैं। वह कन्नौजियों की प्रांतीय शाखा है और अब वे कन्नौजियों से विवाह नहीं करते। सामान्यतः सरवरियों के उप-विभजन वैसे ही हैं, जैसे कि कन्नौजियों में पाए जाते हैं। अतः कन्नौजियों के उप-विभाजन का ब्यौरा काफी होगा। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की दस शाखाएं हैं :

(1) मिश्र, (2) शुक्ला, (3) तिवारी, (4) दुबे, (5) पाठक, (6) पांडे, (7) उपाध्याय, (8) चौबे, (9) दीक्षित, (10) वाजपेयी।

इनमें से प्रत्येक शाखा की अनेक उप-शाखाएं हैं।

मिश्र

मिश्रों की निम्न उप-शाखाएं है -

(1) मधबनी, (2) चम्पारन, (3) पटलाल या पटलियाल, (4) रतनवाल, (5) बंदोल, (6) मतोल या मातेवाल, (7) सामवेद के कटारिया, (8) वत्स गोत्र के नागरिया, (9) वत्स गोत्र के पयासी, (10) गना, (11) त्योंता या तेवन्ता, (12) मार्जनी, (13) गुर्हा, (14) मर्करा, (15) जिग्न्य, (16) पारायण, (17) पेपरा, (18) अतर्व या अथर्व, (19) हथेपारा, (20) सुगंती, (21) खेटा, (22) ग्रामबासी, (23) बिरहा, (24) कोसी, (25) केतवी, (26) रेसी, (27) भहाजिया, (28) बेलवा, (29) उसरेना, (30) कोडिया, (31) तवकपुरी, (32) जिमालपुरी, (33) श्रृंगारपुरी, (34) सीतापुरी, (35) पुतावहा, (36) सिराजपुरी, (37) भामपुरी, (38) तेरका, (39) दुधागौमी, (40) रम्नापुरी, (41) सुन्हाला।

शुक्ला

शुक्लाओं की निम्न उप-शाखाएं हैं -

(1) दो ग्रामों के खखायिजखोर, (2) दो ग्रामों के मामखोर, (3) तिप्थी, (4) भेदी, (5) बकारूआ, (6) कंजाही, (7) खंडाइल, (8) बेला, (9) बांगे अवस्थी, (10) तेवरसी परभाकर, (11) मेहुलियार, (12) खरबहिया, (13) चंदा, (14) गर्ग, (15) गौतमी, (16) पारस, (17) तारा, (18) बरीखपुरी, (19) करवाया, (20) अजमदगढ़िया, (21) पिचौरा, (22) मसौवा, (23) सोन्थियान्वा, (24) औंकिन, (25) बिर, (26) गोपीनाथ।

तिवारी

तिवारियों की निम्न उप-शाखाएं हैं -

(1) लोनाखार, (2) लोनापार, (3) मंजौना, (4) मंगराइच, (5) झुनाडिया, (6) सोहगौरा, (7) तारा, (8) गोरखपुरिया, (9) दौराव, (10) पेंडी, (11) सिरजाम, (12) धतूरा, (13) पनौली, (14) नदौली अथवा तंदौली, (15) बुढ़ियावारी, (16) गुरौली, (17) जोगिया, (18) दीक्षित, (19) सोनौरा, (20) अगोरी, (21) भार्गव, (22) बकिया, (23) कुकुरबरिया, (24) दामा, (25) गोपाल, (26) गोवर्धन, (27) तुके, (28) चत्तू, (29) शिवाली, (30) शखाराज, (31) उमारी, (32) मनोहा, (33) शिवराजपुर, (34) मंधना, (35) सापे, (36) मंडन त्रिवेदी, (37) लाहिरी त्रिवेदी, (38) जेठी त्रिवेदी।

दुबे

दुबे ब्राह्मणों की निम्न उप-शाखाएं हैं -

(1) कंचनी, (2) सिंघव, (3) बेलवा, (4) परवा, (5) करैया, (6) बरगैनिया, (7) पंचनी, (8) लयियाही, (9) गुर्दवन, (10) मेथीवर, (11) ब्रह्मपुरिया, (12) सिंगिलवा, (13) कुचाला, (14) मुंजालव, (15) पालिया, (16) धेगवा, (17) सिसरा, (18) सिनानी, (19) कुदावरिये, (20) कटैया, (21) पनवा।

पाठक

पाठकों की निम्न उप-शाखाएं हैं -

(1) सोनारा, (2) अम्बातरा, (3) पाटखवालिया, (4) दिगावच, (5) भदारी।

पांडे

पांडे ब्राह्मणों की निम्न उप-शाखाएं हैं -

(1) त्रिफला या त्रिफाल, (2) जोरव, (3) मतैन्य, (4) तोरया, (5) नकचौरी, (6) परसिहा, (7) सहन्कौल, (8) बरहादिया, (9) गेगा, (10) खोरिया, (11) पिचौरा, (12) पिचौरा पयासी, (13) जुतीय या जात्य, (14) इतार अथवा इंतार, (15) बेश्तोल, अथवा वेश्तावला, (16) चारपंद, (17) सिला, (18) अधुर्ज, (19) मदारिया, (20) मजगाम, (21) दिलीपापर, (22) पह्यत्या, (23) नगव, (24) तालव, (25) जम्बू।

उपाध्याय

उपाध्यायों की दस उप शाखाएं हैं -

(1) हारैण्य या हिरण्य, (2) देवरैण्य, (3) खोरिया, (4) जैथिया, (5) दाहेन्द्र, (6) गौरात, (7) रानीसरप, (8) लिजामाबाद, (दुणोलिया), (10) बसगवा।

चौबे

चौबों की प्रमुख उप-शाखाएं हैं :

(1) नयापरी, (2) रारगदी, (3) चोखर, (4) कात्या, (5) रामपुरा, (6) पालिया, (7) हरदासपुरा, (8) तिबइया, (9) जामदुवा, (10) गार्गेय।

दीक्षित

दीक्षितों की निम्न उप-शाखाएं हैं -

(1) देवगोम, (2) ककारी, (3) नैवरशिया, (4) अंतैर, (5) सुकंत, (6) चौधरी, (7) जुजातवतिया।

वाजपेयी

वाजपेयी ब्राह्मणों की निम्न उप-शाखाएं हैं -

(1) ऊपर, और (2) नीचे।

उपर्युक्त कान्यकुब्जों की शाखाओं तथा उप-शाखाओं के अलावा ऐसे कान्यकुब्ज हैं, जिन्हें नीचा माना जाता है। अतः वे मुख्य शाखाओं और उप-शाखाओं से अलग-थलग हो गए हैं। उनमें निम्नलिखित हैं -

(1) सामदारिया, (2) तिर्गूवती, (3) भौरहा, (4) कबीसा, (5) केवती, (6) चन्द्रावल, (7) कुसुमभिया, (8) बिसोहिया, (9) कनहाली, (10) खजूवई, (11) किसिरमान, (12) पैहतिया, (13) मसोनद, (14) बिजारा, (15) अंसनौरा।

3 . गौंड़ ब्राह्मण

गौड़ ब्राह्मणों का नाम प्रांत पर पड़ा है। यह प्रांत अब (भग्नावस्था में) गौड़ नगर है, जो चिरकाल तक बिहार और बंगाल की राजधानी (अंगों, बंगों की राजधानी) रहा है। गौड़ ब्राह्मणों की उप-शाखाएं काफी संख्या में हैं।

उनमें से सर्वाधिक इस प्रकार हैं -

(1) गौड़ अथवा केवल गोड़, (2) अदि-गौड़, (3) शक्लावाला आदि-गौड़, (4) ओझा, (5) सांध्य गौड़, (6) चिंगला, (7) खांडेवाला, (8) दायमिया, (9) श्री-गौड़, (10) तम्बोली गौड़, (11) आदि-श्री गौड़, (12) गुर्जर गौड़, (13) टेक बड़ा गौड़, (14) चामर गौड़, (15) हरियाणा गौड़, (16) किरतनिया गौड़, (17) सुकुल गौड़।

4 . उत्कल ब्राह्मण

उत्कल उड़ीसा का प्राचीन नाम है। उत्कल ब्राह्मणों का अर्थ है, उड़ीसा के ब्राह्मण। उनका विभाजन इस प्रकार हैं -

(1) शशानी ब्राह्मण, (2) श्रोत्रिय ब्राह्मण, (3) पांडा ब्राह्मण, (4) घाटिया ब्राह्मण, (5) महास्थान ब्राह्मण, (6) कलिंग ब्राह्मण।

शशानी ब्राह्मणों की चार उप-शाखाएं हैं -

(1) सावंत, (2) मिश्रा, (3) नंदा, (4) पाटे, (5) कारा, (6) आचार्य, (7) सम्पस्ती, (8) बेदी, (9) सेनापती, (10) पर्णाग्रही, (11) निशांक, (12) रैनपती।

श्रोत्रिय ब्राह्मणों की चार उप-शाखाएं हैं -

(1) श्रोत्रिय, (2) सोनारबनी, (3) तेलि, (4) अग्रबक्स।

5 . मैथिल ब्राह्मण

मैथिल ब्राह्मणों का नाम मिथिला पर पड़ा है। मिथिला भारत का प्राचीन प्रदेश है। उसमें तिरहुत, सारन, पूर्णिया के आधुनिक जिलों का एक बड़ा भाग और नेपाल से सटे प्रदेशों के भाग भी शामिल हैं। मैथिल ब्राह्मणों की निम्नलिखित उप-शाखाएं हैं -

(1) ओझा, (2) ठाकुर, (3) मिश्रा, (4) पुरा, (5) श्रोत्रिय, (6) भूमिहार।

मिश्राओं की निम्नलिखित उप-शाखाएं हैं -

(1) चंधारी, (2) राय, (3) परिहस्त, (4) खान, (5) कुमर।

अन्य ब्राह्मण

पंच-द्रविड उन ब्राह्मणों का सामान्य नाम है, जो विंध्य पर्वतमाला के नीचे रहते हैं और पंच-गौड़ उन ब्राह्मणों का सामान्य नाम है, जो विंध्य पर्वतमाला के ऊपर रहते हें। या यूं कहिए कि उत्तर के ब्राह्मणों का नाम पंच-गौड़ है और दक्षिण के ब्राह्मणों का नाम पंच-द्रविड़ है, लेकिन ध्यान देने योग्य बात है कि उत्तर की बिरादरी के ब्राह्मणों की पांच शाखाएं उत्तर या दक्षिण भारत में रहने वाले ब्राह्मणों की सभी शाखाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती। विषय को पूर्णता देने के लिए यह जरूरी है कि न केवल उनका उल्लेख किया जाए, बल्कि उनकी उप-शाखाओं को भी दर्ज किया जाए।

दक्षिण भारत के अन्य ब्राह्मण

इस श्रेणी में निम्नलिखित आते

Friday, 20 August 2021

बाजीराव पेशवा एक महान योद्धा






मराठा_शासक_वीर_पेशवा_बाजीराव_प्रथम का जन्म सन् 1700 में आज के दिन ही हुआ था ॥

बाजीराव प्रथम मराठा साम्राज्य का महान् सेनानायक था। वह बालाजी विश्वनाथ और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा पेशवा (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को ‘बाजीराव बल्लाल’ तथा ‘थोरले बाजीराव’ के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया।

योग्य सेनापति और राजनायक

बाजीराव प्रथम एक महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-

“आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।”

इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-

“निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।”

राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

दूरदृष्टा

बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ‘हिन्दू पद पादशाही’ स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

साहसी एवं कल्पनाशील

बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है।

साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया।

अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- “हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।” बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया।

उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।

‘हिन्दू सत्ता का प्रचार”

हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा।

गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।

सफलताएँ

बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-

शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।

शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।

जीते गये प्रदेशों को वापस करना।

युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।

छत्रपति शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई।

इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय ‘पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।’ 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।

दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है।

मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।

निज़ामुलमुल्क पर विजय

बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा।

निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-

बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।

बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।

पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।

वीरगति

इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया।

अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, 28 अप्रैल, 1740 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।

मराठा मण्डल की स्थापना

बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था।

इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था।

लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।

मराठा शक्ति का विभाजन

बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए।

इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था।

उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।

विलक्षण व्यक्तित्व

बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था।

उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह ‘लड़ाकू पेशवा’ के नाम से भी जाना जाता है।

#BajiraoPeshwa

Sunday, 16 May 2021

आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह या विनिमय विवाह

 

आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह या विनिमय विवाह

                       गरासिया जनजाति

राजस्थान में मीणा तथा भील जनजाति के बाद राजस्थान की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति गरासिया जनजाति है। गरासिया जनजाति को चौहानों का वंशज माना जाता है।

जनसंख्या- जनगणना 2011 के अनुसार राजस्थान में गरासिया जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 3.14 लाख है जो की राजस्थान की कुल जनजातियों का 3.4 प्रतिशत है।

जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक गरासिया जनजाति वाले जिले निम्नलिखित है-
1. सिरोही- जनगणना 2011 के अनुसार राजस्थान का सर्वाधिक गरासिया जनजाति वाला जिल सिरोही है। सिरोही जिले में गरासिया जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 1.53 लाख है।

2. उदयपुर- राजस्थान में जनसंख्या की दृष्टि से गरासिया जनजाति का दूसरा सबसे बड़ा जिला उदयपुर है। राजस्थान के उदयपुर जिले में गरासिया जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 1.04 लाख है।

3. पाली- राजस्थान में जनसंख्या की दृष्टि से गरासिया जनजाति का तीसरा सबसे बड़ा जिला पाली है।

कर्नल जेम्स टाॅड- कर्नल जेम्स टोड के अनुसार गरासियों की उत्पत्ति 'गवास' शब्द से हुई है। 'गवास' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'सर्वेन्ट' होता है।

भाषा- गरासिया जनजाति की भाषा गुजराती तथा मराठी भाषा से प्रभावित है। गरासिया जनजाति की भाषा को गुजराती, मेवाड़ी, मारवाड़ी तथा भीली भाषा का मिश्रण माना जाता है।

मूल निवास स्थान (मूल प्रदेश)- गरासिया जनजाति का मूल निवास स्थान या मूल प्रदेश राजस्थान के सिरोही जिले का आबूरोड़ का भाखर क्षेत्र माना जाता है।

सहलोत या पालवी- गरासिया जनजाति के लोग अपने मुखिया को सहलोत या पालवी कहते है।

मोर- गरासिया जनजाति में मोर पक्षी को पूजनीय या आदर्श पक्षी माना जाता है।

घेर- गरासिया जनजाति में घर को घेर कहा जाता है।

नक्की झील (माउण्ट आबू, सिरोही, राजस्थान)- गरासिया जनजाति के लोग अपने पूर्वजों की अस्थियों को नक्की झील में विसर्जित करते है। नक्की झील राजस्थान के सिरोही जिले की माउण्ट आबू नामक स्थान पर स्थित है।

हुर्रे (हुरे)- गरासिया जनजाति में मृत व्यक्ति के स्मारक को हुर्रे कहते है। गरासिया जनजाति में मृत्यु के 12 दिन के बाद अन्तिम संस्कार किया जाता है।

मोतीलाल तेजावत- गरासिया जनजाति में एकता का प्रयास करने वाला व्यक्ति मोतीलाल तेजावत है।

फालिया- गरासिया जनजाति में गाँव की सबसे छोटी इकाई को फालिया कहा जाता है।

गरासिया जनजाति के प्रमुख मेले-
1. कोटेश्वर का मेला
2. चेतर विचितर मेला
3. गणगौर मेला
4. मनखां रो मेला- यह गरासिया जनजाति का सबसे बड़ा मेला है।
5. भाखर बावजी का मेला
6. नेवटी मेला
7. ऋषिकेश का मेला
8. देवला मेला

गरासिया जनजाति के प्रमुख वाद्य यंत्र-
1. बांसुरी
2. नगाड़ा
3. अलगोजा

गरासिया जनजाति के प्रमुख नृत्य-
1. लूर नृत्य
2. जवारा नृत्य
3. मांदल नृत्य
4. घूमर नृत्य
5. मोरिया नृत्य
6. गौर नृत्य
7. कूँद नृत्य
8. वालर नृत्य

सोहरी- गरासिया जनजाति के लोग अनाज का भंडारण कोठियों में करते है तथा इन्हीं कोठियों को सोहरी कहा जाता है।

प्रेम विवाह- गरासिया जनजाति में प्रेम विवाह प्रचलन में है। गरासिया जनजाति में पुत्र विवाह के बाद अपने माता पिता से अलग रहता है।  

सेवा विवाह- गरासिया जनजाति में वर, वधू के घर पर घर जंवाई बनकर रहता है उसे सेवा विवाह कहते है।

खेवणा या माता विवाह- गरासिया जनजाति में यदि कोई विवाहित स्त्री अपने प्रेमी के साथ भाग कर विवाह करती है तो उस विवाह को खेवणा या माता विवाह कहा जाता है।

मेलबो विवाह- गरासिया जनजाति में विवाह का खर्च बचाने के लिए वधू को वर के घर पर छोड़ देते है जिसे मेलबो विवाह कहते है।

आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह- गरासिया जनजाति में लड़की के बदले में उसी घर की लड़की को बहू के रुप में लेते है जिसे आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह कहा जाता है इस विवाह को विनियम विवाह भी कहते है।

विधवा विवाह- गरासिया जनजाति में विधवा विवाह भी प्रचलन में है। गरासिया जनजाति में विधवा विवाह करने को आपणा करना या नातरा करना या चुनरी ओढाणा कहा जाता है।

भील गरासिया- गरासिया जनजाति में कोई गरासिया पुरुष किसी भील स्त्री से विवाह कर लेता है तो उसके परिवार को भील गरासिया कहा जाता है।

गमेती गरासिया- गरासिया जनजाति में भील पुरुष किसी गरासिया स्त्री से विवाह कर लेता है तो उसके परिवार को गमेती गरासिया कहा जाता है।

सामाजिक परिवेश की दृष्टि से गरासिया जनजाति को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है जैसे-
1. मोटी नियात- गरासिया जनजाति में मोटी नियात वर्ग सबसे उच्च वर्ग माना जाता है। मोटी नियात वर्ग के गरासिया लोगों को बाबोर हाइया कहा जाता है।
2. नेनकी नियात- गरासिया जनजाति में नेनकी नियात वर्ग मध्यम वर्ग होता है। नेनकी नियात वर्ग के गरासिया लोगों को माडेरिया कहा जाता है।
3. निचली नियात- गरासिया जनजाति में निचली नियात वर्ग सबसे निम्न वर्ग माना जाता है।

कोंधिया या मेक- गरासिया जनजाति में मृत्यु भोज को कोंधिया या मेक कहा जाता है।

अनाला भोर भू प्रथा- गरासिया जनजाति में नवजात शिशु की नाल काटने की प्रथा को ही अनाला भोर भू प्रथा कहा जाता है।

गरासिया जनजाति की वेशभूषा-
1. पुरुषों की वेशभूषा- गरासिया जनजाति के पुरुष धोती व कमीज पहनते है। कमीज को झूलकी या पुठियो भी कहा जाता है। तथा सिर पर साफा बांधते है साफा को फेंटा भी कहा जाता है।

2. स्त्रियों की वेशभूषा- गरासिया जनजाति में स्त्रिया कांच का जड़ा हुआ लाल रंग का घाघरा, ओढ़णी व झूलकी, कुर्ता व कांचली मुख्य पुरु पहनती है।

गरासिया जनजाति के आभूषणा-
1. पुरुषों के आभूषण- गरासिया जनजाति में पुरुष हाथ में कड़े (कड़ले) व भाटली पहनते है, गले में पत्रला या हँसली पहनते है तथा कान में झेले या मुरकी, लूंग व तंगल पहनते है।

2. स्त्रियों के आभूषण- गरासिया जनजाति में कुँवारी लड़किया हाथ में लाख की चूड़ियाँ पहनती है तथा विवाहित स्त्रिया हाथों में हाथीदाँत की चूड़ियाँ पहनती है। गरासिया स्त्री सिर पर चाँदी का बोर, कान में डोरणे (टोटी या लटकन), मसिया पहनती है गले में बारली व बालों में दामणी (झेले) पहनती है नाक में नथ (कोंटा) पहनती है तथा हाथों में धातु की गूजरी और पैर में कडुले पहनती है।

हारी-भावरी- गरासिय जनजाति में की जाने वाली सामूहिक कृषि को हारी-भावरी कहा जाता हैं।  

Aata saata tradition back in vogue



Aata saata is a system where a family that enters into an alliance of their daughter only when the other family pledges to give them a daughter to be married in their family


The age old tradition of ‘aata saata’ is now becoming a way of life in Rajasthan rural areas. Experts say it is a fallout of the low sex ratio of girls and the society wants to use a sure shot means to ensure an alliance. Aata saata is a system where a family that enters into an alliance of their daughter only when the other family pledges to give them a daughter to be married in their family. The age of the girls offered for matrimony does not matter.

Radha Sen’s elder son was married eight years ago and she has two granddaughters aged five and three. She has not been able to secure a match for her younger son because there is no girl in the entire clan who can be given in ‘exchange’. “I am now being told to pledge my little granddaughters. I cannot do that even if my son remains unmarried,” she said.

Similar is the case with Mahendra Singh who is unable to find a match for his brother who has crossed thirty five as they have no girl to give in aata saata. “One cannot take a risk with extended families. If they refuse to honour the promise, the bride will be taken away. There have been many such cases in my community,” he said.

According to activists, there are several reasons for this custom gaining prevalence. “Rural people prefer girls from their communities. As a last resort, they pay to get brides from Assam, Jharkhand, Bihar, Chhatisgarh and Andhra Pradesh, which is human trafficking,” says Dr Virendra Vidrohi, a social activist from Alwar.

But concern for keeping property, especially farmlands, safe from outsiders has caused the increase in aata saata. There has been an increase in the child sex ratio after 2011. As per Rajasthan government records, the sex ratio that was 888 females per 1000 males in 2011 has increased to 925 per 1000 in 2015. “This is the major reason why there is growing insistence on promising even newborn girls in marriage under aata saata, said Vidrohi.

While some are succumbing to pressure; there is a glimmer of hope too that there are some will resist; “I plan to bring an orphan as wife for my son. I will put an application with the government homes for this,” said Radha Sen.


ONE OF THE CASES

Radha Sen’s elder son was married eight years ago and she has two granddaughters aged five and three. She has not been able to secure a match for her younger son because there is no girl in the entire clan who can be given in ‘exchange’.


Tuesday, 18 August 2020

Baji Rao Peshwa



मराठा_शासक_वीर_पेशवा_बाजीराव_प्रथम का जन्म सन् 1700 में हुआ था ॥

बाजीराव प्रथम मराठा साम्राज्य का महान् सेनानायक था। वह बालाजी विश्वनाथ और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा पेशवा (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को ‘बाजीराव बल्लाल’ तथा ‘थोरले बाजीराव’ के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया।

योग्य सेनापति और राजनायक

बाजीराव प्रथम एक महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-

“आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।”

इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-

“निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।”

राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

दूरदृष्टा

बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ‘हिन्दू पद पादशाही’ स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

साहसी एवं कल्पनाशील

बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है।

साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया।

अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- “हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।” बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया।

उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।

‘हिन्दू सत्ता का प्रचार”

हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा।

गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।

सफलताएँ

बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-

शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।

शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।

जीते गये प्रदेशों को वापस करना।

युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।

छत्रपति शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई।

इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय ‘पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।’ 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।

दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है।

मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।

निज़ामुलमुल्क पर विजय

बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा।

निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-

बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।

बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।

पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।

वीरगति

इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया।

अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, 28 अप्रैल, 1740 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।

मराठा मण्डल की स्थापना

बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था।

इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था।

लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।

मराठा शक्ति का विभाजन

बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए।

इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था।

उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।

विलक्षण व्यक्तित्व

बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था।

उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह ‘लड़ाकू पेशवा’ के नाम से भी जाना जाता है।


Tuesday, 11 August 2020

बच्चियों की भ्रुण हत्या होने के क्या कारण है?

हरियाणा मे जमीने काफी महंगी है यहां दिल्ली के नजदीक और भी ज्यादा महंगी जमीने है... कई सालो से यहां लडकी कम पैदा करते है उसका सबसे बडा कारण यही सब यानि लडकी पैदा हो गई माने सारी उमर दान देते रहो ..... और भी कई परेशानी जैसे लफंडरो से बचाओ एसिड आदि ... बच्चियो बुढियो किसी को हवसी भेडिये नही छोडते.... दहेज . जायदाद में हक का केस. साल मे 6 बार सीधा कोथली . पीलीया. भात आदि उपर से यदि मारपीट होने पर लडकी पिहर रहने लगे तो समाज कहता है कि धंधा बना लिया है दहेज केस करके लुटने का..... पहले अपने ही देश मे चैकप करवाकर मार देते थे अब विदेश से चैकप करवा लेते है... यानि अपने घर लडकी पैदा ही ना हो तो दुसरो की बहन बेटियो को कुछ भी कहने का लाइसेंस मिल गया ड्रामा करेंगे कि भगवान ने बेटी ही नही दी.... 

अब कुछ किसान जातियो ने समाधान निकाला कि अट्टा सट्टा शादी करेंगे यानि जिस घर लडकी देंगे उसी घर से लडकी लेंगे... यानि ना कुछ देना ना लेना  ना कोई छोटा ना बडा... परन्तु हिन्दु धर्म के ठेकेदार इसे मुस्लमानी परम्परा कहकर मजाक उडाते है... हरियाणा मे गौत्र मिलाए जाते है कि वो आपस मे ना मिले अट्टा सट्टा मे गौत्र नही मिलते.... हरियाणा मे किसान जातियां ऐसी शादी खुब कर रहे है और कामयाब भी है... लोग लडकी पैदा भी कर रहे है क्योकि नही तो उनके लडके की भी शादी नही होगी...

ब्राह्मण

ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है। इसका उत्तर इस प्रकार है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी न...