ब्राह्मणों का गैर ब्राह्मण साम्राज्य निर्माणों में योगदान :
1. जाट रियासत : जाटों की कुछ समय के लिए रही एकमात्र रियासत भरतपुर जिसके राजा हुए सूरजमल। इस रियासत को जितवाया एक ब्राह्मण दीनानाथ शर्मा ने। दीनानाथ शर्मा को सामन्त राजे पेशवा ने जयपुर भेजा था। यहां उन्होंने एक सैनिक बदन सिंह को शस्त्र में पारंगत किया और एक सेना तैयार की और फिर इतिहास ने देखा कैसे उन्होंने एक जाट का राजतिलक किया और खुद सतारा वापिस लौट गए।
2. सिख रियासत : सामन्त बाजीराव राजे पेशवे के वंशज थे राजे माधवराव पेशवे। इन्होंने ना सिर्फ ब्रज की पवित्र भूमि को मुसलमान शासकों से छुड़वाया बल्कि लाहौर में बड़ी विजय प्राप्त की । लाहौर का वो किला इन्होंने तब "मिसलों" में बंटे सिखों को दिया और यही से एक महाराजा रणजीत सिंह का शासन शुरू हुआ। सिख मिसलें एक हुईं।
3 . राजपूत साम्राज्य : हालाँकि राजपूत हमेशा अपनी वीरता, अपने साम्राज्यों, अपने बलिदान के लिए जाने जाते रहेंगे। एमजीआर एक समय ऐसा आया जब राजपूत शक्ति आपस में लड़ लड़ कर गौण हो गयी। जब बुंदेलखण्ड की रियासत के राजा महाराज छत्रसाल सिंह की बहू बेटियां मुसलमानों के शिकंजे में आ गयीं। तब उन्होंने भारत के इतिहास के सबसे महान योद्धा सामन्त राजे बाजीराव पेशवे को याद किया।
इतिहास ने देखा की जब बाजीराव को सन्देश मिला तो वो भोजन कर रहे थे। भोजन को छोड़ उसे नमस्कार कर खड़े हुए बाजीराव को उनके सलाहकार ने कहा की "राजे भोजन तो पूरा कीजिये"। बाजीराव बोले "आज एक हिन्दू राजा संकट में है। बहन बेटियों की इज़्ज़त दांव पर है। अगर देर हो गयी तो इतिहास लिखेगा की ब्राह्मण भोजन करता रह गया। चलो सेना तैयार करो। 5 दिन का रास्ता 2 दिन में पूरा करेंगे"। और बाजीराव ने ऐसा ही किया। 3 दिन बाद मुगल आक्रमणकारी बंगश जिसे "कसाई" कहा जाता था मारा गया और राजपूत साम्राज्य की सुरक्षा हुई।
4. जब इस्लाम धर्म के संस्थापक मोह्हमद साहब के नवासे हुसैन और उनके परिवार को यजीदी राजा ने इराक के करबला में घेर लिया तो उनकी मदद को वहां पहुंचे भारत के "मोहयाल" ब्राह्मण ही थे। वहां इन 3000 ब्राह्मणों ने 40000 की सेना से युद्ध किया और उनके परिवार की रक्षा की परम् बलिदान देकर। इन्हें शिया "हुसैनी ब्राह्मण" कह कर भी बुलाते हैं। इसी तरह सिख धर्म के मुश्किल समय में गुरु की रक्षा को और उनके परिवार की सुरक्षा को लड़ने वाले और शहीद होने वाले बन्दा बहादुर उर्फ़ लक्ष्मण दास भारद्वाज, उनके पुत्र अजय भारद्वाज, सती दास, मति दास, दयाल दास, कृपा दत्त, भाई पराग दास, भाई मोहन दास आदि सभी पंजाबी ब्राह्मण थे।
5. ऐसे ही इतिहास देखता है की छत्रपति शिवाजी और शम्भा जी के बाद मराठा साम्राज्य ब्राह्मणों के हाथ में ही रहा। 125 साल तक पेशवा साम्राज्य छाया रहा जिसकी सीमाएं दक्षिण में हैदराबाद से पंजाब तक आ गयीं। शाहू जी को सिर्फ शिवाजी के वंशज होने के नाते और शिवाजी की इज़्ज़त के चलते सिंघासन पर बिठाये रखा गया था। पर असली कुर्सी पेशवा की थी। सारी सत्ता, सारी ताकत, सारी सेना पेशवा के एक इशारे पर हिल जाती थी। पेशवा ही निति निर्माता थे। बाहरी दुनिया पेशवा के नाम का ही खौफ खाती थी। पेशवा चाहते तो किसी भी दिन खुद छत्रपति बन जाते पर सच्चे योद्धा कभी ऐसा नही करते।
समय आने पर महाराज ललितादित्य, सम्राट पुष्यमित्र शुंग, राजा दाहर शाह, अग्निमित्र, बाजीराव वल्लड़ पेशवे, राजा शशांक शेखर, पल्लव सूर्यवंशी, नाना साहेब , तांत्या टोपे, रानी की झांसी और ना जाने कितने ब्राह्मणों ने अपने राजतिलक स्वयं किये हैं और बार बार धर्म के राज्य की स्थापना की है तलवार के जौहर के बल पर।
जय परशुराम। जय पेशवा।
क्युकी मेरे पूर्वज योद्धा ब्राह्मण थे । पर बचपन से एक खराब आदत रही इतिहास और साहित्य पढ़ने की। इसी चक्कर में यह धुन लगी की पता किया जाए की हमारे पूर्वज असल में थे कौन। आर्यों के इतिहास से लेकर आगे पढ़ते हुए मन में ए सवाल उठता था की आखिर ब्राह्मण कौन थे और समाज में उनको इतना उँचा स्थान क्यूं प्राप्त था। आखिकार शक्ल सूरत और दिमाग में तो वो शेष लोगों की तरह ही थे फिर इतना सामाजिक सम्मान क्यूं मिला हुआ था और साथ ही साथ ब्राह्मणों की हालिया अवस्था पर क्षोभ भी होता था। वैसे तो अब ब्राह्मणों को गाली देना फैशन में शुमार है, परंतु यह बात सोचने की है की कोई भी कौम या किसी समुदाय का 1 वर्ग शेष समुदाय को हज़ारों साल तक मूर्ख नहीं बना सकता। इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा की इतिहास के किसी काल में ब्राह्मणों ने जरूर कुछ ऐसा किया होगा की उन्हे शेष समाज ने इतना उच्च स्थान दिया। ब्राह्मणों की उत्पत्ति की 2 कहानियाँ मैने पढ़ी हैं। पहली की ब्रह्ममा के 9 पुत्र थे और उन्हीं की सन्तान आगे चल कर ब्राह्मण कहलाए और दूसरी कहानी कि सप्तऋषियों ने सर्वप्रथम ब्रह्म का साक्षात्कार किया था इसलिए उनके ही संतती आगे चल कर ब्राह्मण कहलाए। जैसे-जैसे भारतीय इतिहास को पढ़ता गया वैसे वैसे ब्राह्मणों के सम्मान की वजह का बोध होता गया।
अगर हम भारतीय इतिहास को वैदिक काल से शुरु करें तब से आज तक के 5000 साल या उससे भी अधिक के इतिहास में धर्म, साहित्य, आध्यात्म, संगीत, राजनीति से लेकर युद्ध कौशल और सेना में और विदेशी आक्रमण से शस्त्र से लेकर और आध्यात्मिक प्रतिरोध तक हर जगह ब्राह्मणों का योगदान है। अगर वैदिक काल में जाएं तो ब्राह्मणों का मुख्या काम था आश्रमों की स्थापना और शास्त्र और शस्त्रा की शिक्षा देना (प्रायः लोग यह सोचते हैं कि ब्राह्मण सिर्फ किताबी ज्ञान देते थे वो सही नहीं है। उस समय आश्रमों में राजपुत्रों और ब्राह्मणों को शस्त्रयुद्ध कौशल की शिक्षा भी दी जाती थी और ब्राह्मण योद्धा थे जैसे आधुनिक मे भूमिहार (योद्धा ब्राह्मण समूह जो काशी नरेश की व्यवस्था मे मुगलों की जमींदार शब्द को छोड़ उसका संस्कृत पर्यायवाची भूमिहार विशेषण लिया )। महाभारत काल में द्रोण और परशुराम इसके उदाहरण हैं।
सोचने की बात है जो राजकुमार 25 वर्ष की उम्र तक गुरुकुल मे रहते थे वो सिर्फ शास्त्र की शिक्षा कैसे ले सकते थे ( उन्हें शस्त्रों की शिक्षा भी गुरुकुल में ही मिलती थी) पर इस शिक्षा देने के बदले में ब्राह्मणों को जीविका के लिये भिक्षावृत्ति पर ही निर्भर रहन पड़ता था। यह सामाजिक व्यवस्था इसलिए बनाई गयी थी जिससे शिक्षा व्यवसाय ना बने और शिक्षक लालची और लोभी ना होकर सबको समान रूप से ज्ञान दें। अब अगर कोई भी व्यक्ति समाज में इतना बड़ा त्याग करेगा तो उसे सम्मान मिलेगा ही।
वैदिक काल के ब्राह्मणों की उच्च बौद्धिक क्षमता का पता उपनिषद को पढ़कर और समझ कर लगाया जा सकता है मानव इतिहास में में इतने उच्च कोटि की आध्यत्मिक बौद्धिक क्षमता का उदाहरण और कहीं नही है। शायद भारत की अंग्रेज़ों से आज़ादी के पहले का कुछ अपवादों को छोड़कर पूरा साहित्य ब्राह्मणों के द्वारा ही लिखा गया है। इसी तरह चिकित्सा विज्ञान में आज से हज़ारों साल पहले भारत में कई जटिल ऑपरेशन किए जाते थे जिन्हें आज भी चिकित्सा विज्ञान मान्यता देता है।
संगीत में तन्ना पाण्डेय (तानसेन) या बैजू बावरा(बैजनाथ चतुर्वेदी) अमर नाम है। हालांकि संगीत की उत्पत्ति सामवेद से ही हो गयी थी पर इसका श्रेय भी ब्राह्मणों को जाता है। भारत पर विदेशी आक्रमण का पुराना इतिहास रहा है एक शक्तिशाली भारत के निर्माण और विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिये चाणक्य-पुष्पमित्रा से लेकर माधवाचर्या विद्यारण्या तक- और उसके बाद मुग़लकाल में भी तुलसीदास एवं अन्या संतों ने हिन्दुओं को धर्म से जुड़े रहने में अहम योगदान दिया और यह बात ब्रिटिश राज के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ किये गये संघर्ष में भी देखी जा सकती है।
परंतु ऐसा नही है की सब कुछ इतना ही सुन्दर और शालीन था जितना दिखता है। आप किसी व्यक्ति,वर्ग या समाज को कितना भी आदर्शवादी क्यूं ना बनाएं लोभ, मोह और स्वार्थ से सभी का ऊपर उठ पाना संभव नही होता और यही उत्तर वैदिक काल के ब्राह्मणों के साथ हुआ। पुराणों में भृगु की शिव के गणों के द्वारा दाढ़ी-मूछ उखाड़ कर अपमानित करने का जिक्र है। क्योंकि भृगु ने सत्ताधारी और धनवान दक्ष का साथ दिया था। इसी प्रकार महाभारत में द्रोणाचार्य का धन के लालच में राजगुरु बनना और कुछ विद्याओं का चोरी-छुपे सिर्फ अश्वत्थामा को ज्ञान देना इसका उदाहरण है।
यह बात सही है कि ऊंचाई पर बैठे व्यक्ति का चरित्र बहुत महान होना चाहिए अन्यथा उसका और समाज दोनो का पतन हो जाता है और समाज को भी आदर्शवादी और त्यागी पुरुष से सिर्फ अपेक्षा ना रखकर उसे उचित सम्मान देना चाहिये अन्यथा समाज के लिये त्याग करने वाला व्यक्ति विद्रोही और लालची हो जाता है।
भारतीय समाज में यहीं गलती हुई आदर्शवाद के शिखर पर बैठे ब्राह्मणों में लालच और भौतिक सुखों के मोह और उनसे सिर्फ अपेक्षा रख कर आए दिन अपमानित करने वाले समाज की वजह से सामाजिक गिरावट आई (राजा नहुष द्वारा सप्तऋषियों से पालकी उठवाने से लेकर, जमदाग्नि-रावण-वृत्तासुर की हत्या और चाणक्य को अपमानित कर राजमहल से बाहर फिंकवाने की घटनाएं और ऐसी ही बहुत सारी घटनाएं इसका उदाहरण हैं ) । यह गिरावट हालांकि उत्तर वैदिक काल से लेकर मौर्य वंश तक कम थी परंतु उसके पश्चात बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव की वजह से नए और कठोर सामाजिक नियम बढ़ने लगे और साथ ही साथ निचली जातियों पर अत्याचार की प्रेरणा भी और यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा और मुग़ल काल में और विकृत हो गया।
अंग्रेजों के शासन को चाहे पूरा विश्व लाख गाली दे लेकिन अफ्रीका के जानवर रूपी मनुष्यों को इंसान बनाने से लेकर भारत के सदियों से शोषित और पीड़ित वर्ग में चेतना का जागृत करने का काम उन्हींने किया और वहीं से ब्राह्मणों के सामाजिक श्रेष्ठता के अहसास को खत्म करने की प्रभावी पहल भी। और आज़ादी के बाद लगातार अनवरत (मास प्रोपगॅंडा) से तो ऐसा ही प्रचार हुआ की इस देश की जो भी समस्या आदि काल से अभी तक हुई है वो ब्राह्मणों की ही देन है।
लगातार चल रहे दुष्प्रचारों से अपने इतिहास के साथ साथ ब्राह्मणों ने अपना आत्म सम्मान और मर्यादा भी पूरी तरह खो दी। वैसे भी ब्राह्मण कोई शारीरिक संरचना या असाधारण तीक्ष्ण बुद्धि की वजह से नही त्याग और समाज के लिए समर्पण की वजह से सम्माननीय थे ।आधुनिक भारत में की आधुनिक परिस्थितियों में ब्राम्हण कहे जाने वाले वैदिक ब्राह्मणों के संस्कारों और सम्मान का पूरि तरह लोप हो गया है। हां इस जातिय नाम की वजह से नौकरी और अन्य सरकारी सुविधाओं में जो भेदभाव का सामना करना पड रहा है वो अलग। अब यह समय ही बताएगा कि आगे चलकर समाज क्या रूप लेगा।
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