Thursday, 18 June 2020

Rani Laxmi Bai



पुण्य तिथि 18 जून पर  पर श्रद्धा सुमन
इस लेख में उन बातो का वर्णन है जिन्हें अधिकाँश भारतीय नहीं जानते.
1-

कम्युनिष्ट इतिहासकारों ने यह अफवाह फैलाई है कि कि रानी का रोबर्ट इलीज नामक ब्रिटिश से प्रेम सम्बन्ध था. निचे दी गई जानकारी से आपको निश्चय हो जाएगा कि ये एक गप्प है.
रानी लक्ष्मीबाई को रूबरू देखने का सौभाग्य बस एक गोरे आदमी को मिला। अंग्रेजों के खिलाफ जिंदगी भर जंग लड़ने वालीं और जंग के मैदान में ही लड़ते-लड़ते जान देने वालीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को बस एक अंग्रेज ने देखा था। ये अंग्रेज था जॉन लैंग, जो मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया का रहने वाला था और ब्रिटेन में रहकर वहीं की सरकार के खिलाफ कोर्ट में मुकदमे लड़ता था। उसे एक बार रानी झांसी को करीब से देखने, बात करने का मौका मिला। रानी की खूबसूरती और उनकी आवाज का जिक्र जॉन ने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में किया था।

जॉन लैंग पेशे से वकील था, और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने उसे लंदन में अपना केस लड़ने के लिए नियुक्त किया था। लेकिन केस को समझने के लिए ये मुमकिन नहीं था कि रानी लंदन ना जाएं और वकील भी बिना यहां आए या उनसे मिले केस पूरा समझ सके। उस वक्त फोन, इंटरनेट जैसी सुविधा भी नहीं थी। सो रानी ने उसे मिलने के लिए झांसी बुलाया। चूंकि रानी जैसे अकेले क्लाइंट से ही लैंग का साल भर का खर्चा निकल जाना था। उन दिनों वो भारत की यात्रा पर ही था, सो वो तुरंत झांसी के लिए निकल पड़ा। इसी तरह की भारत यात्राओं के दौरान लैंग को तमाम तरह के अनुभव हुए और उन्हीं अनुभवों को उसने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में सहेजा है।

उसकी यही किताब भारतीय इतिहासकारों के लिए तब धरोहर बन गई जब पता चला कि ये अकेला गोरा व्यक्ति है जो रानी झांसी से रूबरू मिला था और रानी के व्यक्तित्व के बारे में उसने बिना पूर्वाग्रह के कुछ लिखा है। ऐसे में जॉन लैंग ने उनकी एक दूसरी तस्वीर दुनिया के सामने पेश की, कि वो कैसी दिखती हैं, कैसे बोलती हैं, उनकी आवाज में कितनी शालीनता या गंभीरता है और वो किस तरह के कपड़े पहनती हैं। दिलचस्प बात ये है कि ये भी कभी सामने नहीं आता, अगर युद्ध के दौरान उनकी कमर में बंधे रहने वाले उनके गोद लिए हुए बेटे दामोदर ने अचानक रानी और लैंग के बीच का पर्दा ना हटा दिया होता।

28 अप्रैल 1854 को मेजर एलिस ने रानी को किला छोड़ने का फरमान सुनाया और पेंशन लेकर उन्हें रानी महल में ठहरने के आदेश दे दिए। इस वजह से रानी लक्ष्‍मीबाई को पांच हजार रुपये की पेंशन पर किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। तब झांसी दरबार ने केस को लंदन की कोर्ट में ले जाने का फैसला किया, ऐसे में वहां केस लड़ने के लिए ऐसे वकील की जरूरत थी, जो ब्रिटिश शासकों से सहानुभूति ना रखता हो, उनके खिलाफ केस जीतने का तर्जुबा हो और भारत या भारतीयों को समझता हो, उनके लिए अच्छा सोचता हो। लोगों से राय ली गई तो ऐसे में नाम सामने आया जॉन लैंग का। रानी ने सोने के पत्ते पर लैंग के लिए मिलने की रिक्वेस्ट के साथ अपने दो करीबियों को भेजा, एक उनका वित्तमंत्री था और दूसरा कोई कानूनी अधिकारी था।

बातचीत के वक्त बीच में था पर्दा, शाम का वक्त था। महल के बाहर भीड़ जमा थी। झांसी रि‍यासत के राजस्व मंत्री ने भीड़ को नियंत्रित करते हुए जॉन लैंग के लिए सुविधाजनक स्थान बनाया। इसके बाद संकरी सीढ़ियों से जॉन लैंग को महल के ऊपरी कक्ष में ले जाया गया। उन्‍हें बैठने के लिए कुर्सी दी गई। उन्होंने देखा कि सामने पर्दा पड़ा हुआ था। उसके पीछे रानी लक्ष्‍मीबाई, दत्‍तक पुत्र दामोदर राव और सेविकाएं थीं। अचानक से बच्चे दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया, रानी हैरान रह गईं, कुछ ही सैकंड्स में वो पर्दा ठीक किया गया लेकिन तब तक जॉन लैंग रानी को देख चुका था।

जॉन लैंग रानी को देखकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने रानी से कहा कि, “if the Governor-General could only be as fortunate as I have been and for even so brief a while, I feel quite sure that he would at once give Jhansi back again to be ruled by its beautiful Queen.”। हालांकि रानी ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया के साथ गरिमामयी ढंग से इस कॉम्पलीमेंट को स्वीकार किया। जॉन लैंग ने अपनी किताब में लिखा है कि ‘महारानी जो औसत कद, स्वस्थ, साधारण शरीर और कम आयु में बहुत सुंदर लगने वाली गोल चेहरे वाली महिला थीं। उनकी आंखें काफी सुंदर और नाक की बनावट बेहद नाजुक थी। रंग बहुत गोरा नहीं, लेकि‍न श्‍यामलता से काफी बढ़ि‍या था। उनके शरीर पर कानों में ईयर रिंग के सिवा कोई जेवर नहीं था। सफेद मलमल के कपड़े पहने हुए थीं रानी। उन्‍होंने लि‍खा है कि‍ वो बहुत अच्छी बुनाई की गई सफेद मलमल के कपड़े पहनी हुई थीं। इजो चीज उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ती थी, वो उनकी रूआंसी ध्वनियुक्त एक फटी आवाज थी। हालांकि‍, वो बेहद समझदार और प्रभावशाली महि‍ला थीं।
लक्ष्मीबाई को एक अंग्रेज सर रॉबर्ट हैमिल्टन ने भी देखा था, लेकिन उसने सि‍र्फ मुलाकात और उनसे बातचीत का ही जिक्र किया है। शायद यह बातचीत भी परदे में हुई हो.
2-

ग्वालियर.लक्ष्मीबाई कॉलोनी स्थित गंगादास की बड़ी शाला देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना लक्ष्मीबाई की पार्थिव देह की रक्षा करने वाले 745 साधुओं के पराक्रम की गवाह है, जो बलिदान  हो गए। इतिहास के मुताबिक, इस शाला के साधुओं ने जहां स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया, तो इस पीठ की स्थापना करने वाले महंत परमानंद गोसांई ने अकबर को भी सिर झुकाने पर मजबूर कर दिया था। आज भी इस शाला में साधुओं के पराक्रम की गाथा कहने वाली कई चीजें मौजूद हैं। इन्हें देखने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं। इसी शाला में 745 साधुओं की समाधियां भी बनी हुई हैं। लक्ष्मीबाई समाधि के नजदीक ही मौजूद यह समाधियां स्वाधीनता संग्राम में संतों के पराक्रम की याद दिलाती हैं। वीरांगना और इन साधुओं के बलिदान की याद में यहां अखंड ज्योति भी प्रज्ज्वलित की जाती है। प्रतिवर्ष 18 जून को यहां संत शहीदी दिवस भी मनाया जाता है, जिसमें देशभर से साधु-संत इकट्ठे होकर वीर संतों को श्रद्धांजलि देते हैं।

इस शाला में वर्तमान तलवार, भाले, नेजे, चिमटे जैसे हथियारों का संग्रह है। इसके अलावा 1857 के युद्ध में इस्तेमाल की गई एक तोप भी मौजूद है। प्रतिवर्ष विजयादशमी पर इस तोप को चलाया जाता है। यह तोप 17वीं शताब्दी के अंत में निर्मित बताई जाती है।
1857 की क्रांति के समय इस शाला के नौवें महंत गंगादास महाराज की अगुआई में 1200 साधुओं ने वीरांगना लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर की रक्षा के लिए अंग्रेज सेना से युद्ध किया था। मरने से पूर्व लक्ष्मीबाई ने गंगादास महाराज से दो वचन लिए थे। पहला वचन था अपने पुत्र दामोदर की रक्षा करना और दूसरा वचन था कि वीरांगना का शव भी अंग्रेज सैनिकों को न मिल पाए। इसी वचन के पालन के लिए साधुओं ने युद्ध किया था। इस दौरान 745 संतों ने वीरगति प्राप्त की थी। ( यह जानकारी उनके लिए जो संतों को मुफ्तखोर बताते हैं) 

3-

अम्बेडकर वादियों के महाझूठ  भारत में हमेशा से सभी ऊँची जाति वाले निम्न जाति वालों से छुआछूत करते थे. यह बात सही नहीं है. महारानी लक्ष्मीबाई की सहेली झलकारी बाई इस झूठ की सच्चाई है.
झलकारी बाई का जन्म बुंदेलखंड के एक गांव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवा (उर्फ मूलचंद कोली) और माता जमुनाबाई (उर्फ धनिया) था। झलकारी बचपन से ही साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। बचपन से ही झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देखरेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। वह एक वीर साहसी महिला थी। झलकारी का विवाह झांसी की सेना में सिपाही रहे पूरन कोली नामक युवक के साथ हुआ। पूरे गांव वालों ने झलकारी बाई के विवाह में भरपूर सहयोग दिया। विवाह पश्चात वह पूरन के साथ झांसी आ गई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, वह महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वह लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं, इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ, स्वामीभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था।

रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अपने अंतिम समय अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उस युद्ध के दौरान एक गोला झलकारी को भी लगा और 'जय भवानी' कहती हुई वह जमीन पर गिर पड़ी। ऐसी महान वीरांगना थीं झलकारी बाई। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है।

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