Friday, 19 June 2020

Who is Mohiyal Brahmins Pandits Kastriya Punjabi




भारत में ब्राह्मणों के कई लड़ाकू गोत्र हुए हैं। इनमें से प्रमुख भूमिहार (पूर्वांचल के लड़ाकू ब्राह्मण) और  पेशवा (मराठवाड़ा के देष्ठ और कोंकण ब्राह्मण) हैं जिनमें बाजीराव पेशवा, नानासाहेब पेशवा जैसे कई मशहूर नाम है। ऐसा ही एक लड़ाकू गोत्र ब्राह्मणों का है पंजाब के मोहयाल बामन।  इन मोहयाल पंजाबी ब्राह्मणों को ब्रिटिश और सिख इतिहासकारों ने भारत की सबसे निर्भीक, शेरदिल, लड़ाकू जाति बताया है।

पंजाब में एक कहावत है की अगर आपको गाँव में किसी मोहयाल के घर का पता लगाना हो तो आप देखिये की किस छत पर सबसे ज्यादा कौए बैठे हैं। या देखिये की कहाँ शस्त्र चलाने की प्रैक्टिस हो रही है। ज्यादा कौए का मतलब है की वहां आज मॉस बना है। यह ही मोहयाल का घर है। मोहयाल बामन एक मॉस खाने वाले बामन या लड़ाकू बामन माने गए हैं। इन बामनो की बहुत ही महान विरासत है। यह पंजाब के सरंक्षक माने गए हैं । कुछ इतिहासकारों का यह भी दावा है की विश्व विजेता सिकन्दर महान को हराने वाला राजा पोरस एक मोहयाल था। हालांकि कुछ इतिहासकार उन्हें सारस्वत वंश का ब्राह्मण बताते हैं। मोहयाल ब्राह्मण जरूर हैं और कट्टर हिन्दू रहे हैं इतिहासिक तौर पर इन्होंने कभी भी पाठ पूजा वाला काम नही किया। इनका मुख्य पेशा खेती और सेना में सेवा ही रही है। कुछ मोहयाल पशु पालन का व्यवसाय भी करते रहे हैं।

संक्षेप इतिहास : 

मोहयाल बामनो का इतिहास भारत में तैनात रहे ब्रिटिश अफसर P.T. Russel Stracey की किताब “The History of the Mohiyals, the martial Race of India” में मिलता है जो उन्होंने अपने लाहौर प्रवास के दौरान लिखी थी।

मोहयाल या मुझाल पंजाबी बामन पंजाब का ऐसा सम्प्रदाय है जिसपर पूरा पंजाबी समाज गर्व ले सकता है। इन बामनो का काम कभी पूजा पाठ करना नही रहा। इतिहासिक रूप से यह पंजाब और अफ़ग़ानिस्तान के हुकुमरान रहे हैं जिनकी रियासत अरब और पर्शिया तक रही। गोरा रंग, ताकतवर शरीर, लम्बा कद इन ब्राह्मणों की पहचान है। आज यह बड़े सरकारी ओहदों और बिज़नस पोस्ट्स पर काबिज हैं।

मोहयाल ब्राह्मण सिर्फ हिन्दू ही नही बल्कि मुसबित के समय अपने योगदान और बलिदान के लिए मुस्लिम और सिख समाज में भी सम्मानित रहे हैं। हम सबने करबला के उस युद्ध के बारे में पढ़ा होगा जिसमे हज़रत मुहम्मद साहब की बेटी फातिमा के बेटे हुसैन को शहीद कर दिया गया था अक्टूबर 18, 680 AD में यजीदी सेना द्वारा। इसी युद्ध में एक मोहयाल बादशाह रहीब हुसैन और हसन साहब की तरफ से लड़े और इनके प्राणों की अंत तक रक्षा की।

युद्ध, साम्राज्य और कुर्बानी की मिसालें : 

जब नवम्बर 1675 में सिखों के 9वें गुरु तेग बहादुर को औरंगज़ेब ने दिल्ली में शहीद किया तो उनके साथ शहीदी लेने वाले भाई सती दास, भाई मति दास और भाई दयाल दास तीनों ही मोहयाल बामन थे जो मुगल सेना से युद्ध में सेना का नेतृत्व करते थे।

मशहूर इतिहासकार डॉ हरी राम गुप्ता के अनुसार पंजाब की शाही ब्राह्मण वंशवली जिसने पंजाब, सिंध और अफ़ग़ानिस्तान पर 500 वर्ष तक राज किया वो सभी मोहयाल ब्राह्मण थे।  इन शाही ब्राह्मणों की राजधानी नन्दना ( आज का सियालकोट जो पाकिस्तान में है) थी। मुहम्मद ग़ज़नवी जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया वो इन बामनो से अक्सर मार खा कर वापिस जाता रहा। 10वीं शताब्दी में इन ब्राह्मणों का साम्राज्य वजीरिस्तान से सरहिंद और कश्मीर से मुल्तान तक था। इसके अलावा शाहपुर की रियासत के इलाके भी इनके कब्जे में थे।⁠⁠⁠⁠

एक अन्य वंश के मोहयाल ब्राह्मण राजा हुए राजा दाहर शाह। इन्होंने बहलोल लोधी के समय में उसके एक सुलतान को हराया। इनके पिता ने पंजाब और सिंध में अपना साम्राज्य स्थापित किया और राजा दाहर ने इसे यमुना के किनारों से लेकर जम्मू तक फैला लिया और पुरे सिंध को भी अपने कब्जे में ले लिया। जब दाहर शाह राजा बने तब पंजाब और सिंध का यह इलाका बौद्ध था। उन्होंने घोषणा की जो हिन्दू होगा केवल वही जीवित रहेगा। उन्होंने पुरे साम्राज्य को हिन्दू साम्राज्य घोषित कर दिया। इस वंश के वंशजों ने 200 साल से अधिक समय तक राज्य किया।

कुछ ऐसे ही मशहूर मोहयाल लड़ाकू हुए जैसे भाई परागा ( जो चमकौर के युद्ध में लड़े) , मोहन दास, भाई सती दास, भाई मति दास, पंडित कृपा दत्त ( गुरु गोबिंद को शस्त्र विद्या सिखाने वाले), भाई दयाल दास आदि।

सिख इतिहासकार प्रोफेसर मोहन सिंह दावा करते हैं गुरु गोबिंद के बाद सिख सेनाओं का नेतृत्व करने वाले बन्दा बहादुर उर्फ़ लक्ष्मण दास भी एक मोहयाल ब्राह्मण थे। हालाँकि बहुत से इतिहासकार उन्हें सारस्वत पंजाबी ब्राह्मण भी बताते हैं। भाई परागा ने छठे सिख गुरु हरगोबिन्द के समय मुगलों से युद्ध में सेना का नेतृत्व किया। खालसा पन्थ की स्थापना में सबसे आगे यह मोहयाल ब्राह्मण ही थे। उससे पहले भी इन्ही ब्राह्मणों ने अपने कुल से एक बेटा देने की प्रथा शुरू की थी गुरु की सेना में ताकि धर्म युद्ध को ज़िंदा रखा जा सके। यह लोग बहादुर थे और फ़ौज में लड़ना इनका प्रमुख पेशा था। 17वीं शताब्दी की शुरुआत तक मोहयाल ही प्रमुख खालसा लड़ाके रहे और सेनाओं का नेतृत्व भी इनके हाथ में ही रहा। पेशवा ब्राह्मणों की तरह युद्ध करने की जरूरत के कारण यह ब्राह्मण भी मासाहारी थे।

सिख इतिहास का बारीकी से विश्लेषण बताता है की मोहयाल सिर्फ गुरु की तरफ से लड़ने वाके ब्राह्मण नही थे बल्कि इन्होंने सिख धर्म का नेतृत्व भी किया गुरुयों के बाद। 18वीं सदी तक सिखों के बहुत से आंदोलनों का नेतृत्व मोहयाल ही करते रहे। महाराजा रणजीत सिंह की सेना में बहुत से मोहयाल बामन सेना में प्रमुख के तौर पर तैनात रहे। खालसा पन्थ की स्थापना में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा और यह सिख धर्म की रक्षा के लिए भी लड़े और बहुत से बलिदान दिए हालाँकि यह हमेशा कट्टर हिन्दू के तौर पर ही जाने गए।

ब्रिटिश इंडिया के समय और आज़ाद भारत में मोहयाल बामनो का फ़ौज में बहुत बड़ा योगदान रहा है। अंग्रेजों के समय में भारत की आर्मी में ब्राह्मणों की 2 regiments थीं। एक थी “Ist Brahmins Regiment” और दूसरी Bengal Regiment ( जो नाम की ही बंगाल रेजिमेंट थी, यह पूर्वांचल के भूमिहार ब्राह्मण जो आज भी अपनी बहादुरी के कारण अपने नाम के साथ सिंह लिखते हैं, उनके लिए थी और उनकी संख्या इसमें 90% तक थी) ।

ब्राह्मण रेजिमेंटें और मोहियाल :  

ब्रिटिश इंडिया के समय और आज़ाद भारत में मोहयाल बामनो का फ़ौज में बहुत बड़ा योगदान रहा है। अंग्रेजों के समय में भारत की आर्मी में ब्राह्मणों की 2 regiments थीं। एक थी “Ist Brahmins Regiment” और दूसरी Bengal Regiment ( जो नाम की ही बंगाल रेजिमेंट थी, यह पूर्वांचल के भूमिहार ब्राह्मण जो आज भी अपनी बहादुरी के कारण अपने नाम के साथ सिंह लिखते हैं, उनके लिए थी और उनकी संख्या इसमें 90% तक थी) ।

Ist Brahmins Regiment में ज्यादातर सैनिक मोहयाल बामन या सारस्वत पंजाबी बामन ही थे। इस रेजीमेंट को 1942 में बन्द कर दिया गया। ऐसे ही बंगाल रेजिमेंट में भूमिहारों की भरती पर रोक लगा दी गयी । इसका कारण था की 1857 के विद्रोह में इन रेजिमेंटों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबन्द विद्रोह किया। फिर 1942 में इन्होंने आज़ादी मांगते हुए द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेज़ो की तरफ से लड़ने को मना कर दिया। ब्रिटिश यह बात समझ चूके थे की आज़ादी के लड़ाई में बलिदान देने और इसका नेतृत्व करने में ब्राह्मण ही सबसे आगे हैं। 1857 में मंगल पाण्डे का विद्रोह, फिर नाना साहेब ब्राह्मण की सेना का लखनऊ और कानपूर की रियासत पर कब्जा , रानी लक्ष्मी बाई , तांत्या टोपे जैसे ब्राह्मण राजाओं का विद्रोह जो अंग्रेजों पर बहुत भारी पड़ा।  इसके अलावा भारत रिपब्लिकन आर्मी के प्रमुख पंडित आज़ाद, उनके सहयोगी बिस्मिल , राजगुरु ,BK दत्त आदि, महानतम राष्ट्रवादी क्रन्तिकारी सावरकर और ऐसे ही कई अन्य आदि सभी ब्राह्मण थे और इन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को बहुत नुकसान पहुंचाया। इसलिए बामन समाज में अंग्रेओं का विश्वास बिलकुल नही रहा। इसलिए अंग्रेज़ो को लगा की यह बामन अगर सेना में रहे तो बार बार विद्रोह करेंगे, इसलिए Ist Brahmins Regiment को बन्द कर दिया गया और बंगाल रेजिमेंट में सिर्फ मुसलमानों और यादवों की भर्ती रखी गयी।  ब्रिटिश लोगों ने सेना में सिर्फ अपनी वफादार रेजिमेंटों को रखा और दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भारत गणराज्य ने प्रशासन ना चला पाने की अपनी कम समझ की वजह से सेना के ठीक उसी प्रारूप को चालू रखा बिना किसी छेड़ छाड़ के और बामनों को उनकी पहचान यानि उनकी रेजिमेंटों से दूर कर दिया गया।

मोहयालों का सिख धर्म से दूर होना : 

यह जानना काफी रोचक है की मोहयाल सिख धर्म से दूर कैसे हुए। इसका एक कारण था की पंजाब में मोहयाल और सिख समाज ने अंग्रेजों को पुरे भारत के मुकाबले सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाई थी। इसलिए अंग्रेजों ने इनमे फुट डाली। इसके अलावा स्वामी दयानंद ने जब आर्य समाज का प्रचार शुरू किया । तब उन्होंने पाया की सिख धर्म वैदिक सनातन धर्म के विपरीत जा चुका था। इसलिए उन्होंने वैदिक मान्यताओं  को दुबारा लोगों को बताया। आर्य समाज को पंजाब के लाहोर , रावलपिंडी आदि में बड़ा समर्थन मिला।इसके अलावा 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अकाली लहर और सिंह सभा का प्रभाव चला। इसके प्रभाव से कई गुरुद्वारों से ब्राह्मणों को बाहर निकाल दिया गया। यहाँ तक हरिमंदिर साहिब से मूर्तियां निकाल कर बाहर कर दी गयीं। इसका सीधा प्रभाव मोहयालों पर पड़ा। वो सिखों से अलग हो गए। जट्ट सिख सिख धर्म के सर्वेसर्वा हो गए और मोहयाल और सिखों के सम्बंधों में दुरी आ गयी|

Noted Mohyal Brahmins of current era :

Former Army General Arun Vaidya ( who lead operation Bluestar, martyred later in a terrorist attack)

Former Army General G.D. Bakshi

Army Chief General VN Sharma 

Lt_Gen_Praveen_Bakshi

Major General AN Sharma 

Most awareded soldier of Indian army Lt. General Zorawar Bakshi

Former Army General Yogi Sharma

Captain Puneet Dutt (martyred in Jammu)

Lt. Saurabh Kalia (martyred in Kargil war)

Major Somnath Sharma (Martyred in Kahmir Battle, awarded Paramveer Chakra)

Thursday, 18 June 2020

Rani Laxmi Bai



पुण्य तिथि 18 जून पर  पर श्रद्धा सुमन
इस लेख में उन बातो का वर्णन है जिन्हें अधिकाँश भारतीय नहीं जानते.
1-

कम्युनिष्ट इतिहासकारों ने यह अफवाह फैलाई है कि कि रानी का रोबर्ट इलीज नामक ब्रिटिश से प्रेम सम्बन्ध था. निचे दी गई जानकारी से आपको निश्चय हो जाएगा कि ये एक गप्प है.
रानी लक्ष्मीबाई को रूबरू देखने का सौभाग्य बस एक गोरे आदमी को मिला। अंग्रेजों के खिलाफ जिंदगी भर जंग लड़ने वालीं और जंग के मैदान में ही लड़ते-लड़ते जान देने वालीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को बस एक अंग्रेज ने देखा था। ये अंग्रेज था जॉन लैंग, जो मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया का रहने वाला था और ब्रिटेन में रहकर वहीं की सरकार के खिलाफ कोर्ट में मुकदमे लड़ता था। उसे एक बार रानी झांसी को करीब से देखने, बात करने का मौका मिला। रानी की खूबसूरती और उनकी आवाज का जिक्र जॉन ने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में किया था।

जॉन लैंग पेशे से वकील था, और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने उसे लंदन में अपना केस लड़ने के लिए नियुक्त किया था। लेकिन केस को समझने के लिए ये मुमकिन नहीं था कि रानी लंदन ना जाएं और वकील भी बिना यहां आए या उनसे मिले केस पूरा समझ सके। उस वक्त फोन, इंटरनेट जैसी सुविधा भी नहीं थी। सो रानी ने उसे मिलने के लिए झांसी बुलाया। चूंकि रानी जैसे अकेले क्लाइंट से ही लैंग का साल भर का खर्चा निकल जाना था। उन दिनों वो भारत की यात्रा पर ही था, सो वो तुरंत झांसी के लिए निकल पड़ा। इसी तरह की भारत यात्राओं के दौरान लैंग को तमाम तरह के अनुभव हुए और उन्हीं अनुभवों को उसने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में सहेजा है।

उसकी यही किताब भारतीय इतिहासकारों के लिए तब धरोहर बन गई जब पता चला कि ये अकेला गोरा व्यक्ति है जो रानी झांसी से रूबरू मिला था और रानी के व्यक्तित्व के बारे में उसने बिना पूर्वाग्रह के कुछ लिखा है। ऐसे में जॉन लैंग ने उनकी एक दूसरी तस्वीर दुनिया के सामने पेश की, कि वो कैसी दिखती हैं, कैसे बोलती हैं, उनकी आवाज में कितनी शालीनता या गंभीरता है और वो किस तरह के कपड़े पहनती हैं। दिलचस्प बात ये है कि ये भी कभी सामने नहीं आता, अगर युद्ध के दौरान उनकी कमर में बंधे रहने वाले उनके गोद लिए हुए बेटे दामोदर ने अचानक रानी और लैंग के बीच का पर्दा ना हटा दिया होता।

28 अप्रैल 1854 को मेजर एलिस ने रानी को किला छोड़ने का फरमान सुनाया और पेंशन लेकर उन्हें रानी महल में ठहरने के आदेश दे दिए। इस वजह से रानी लक्ष्‍मीबाई को पांच हजार रुपये की पेंशन पर किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। तब झांसी दरबार ने केस को लंदन की कोर्ट में ले जाने का फैसला किया, ऐसे में वहां केस लड़ने के लिए ऐसे वकील की जरूरत थी, जो ब्रिटिश शासकों से सहानुभूति ना रखता हो, उनके खिलाफ केस जीतने का तर्जुबा हो और भारत या भारतीयों को समझता हो, उनके लिए अच्छा सोचता हो। लोगों से राय ली गई तो ऐसे में नाम सामने आया जॉन लैंग का। रानी ने सोने के पत्ते पर लैंग के लिए मिलने की रिक्वेस्ट के साथ अपने दो करीबियों को भेजा, एक उनका वित्तमंत्री था और दूसरा कोई कानूनी अधिकारी था।

बातचीत के वक्त बीच में था पर्दा, शाम का वक्त था। महल के बाहर भीड़ जमा थी। झांसी रि‍यासत के राजस्व मंत्री ने भीड़ को नियंत्रित करते हुए जॉन लैंग के लिए सुविधाजनक स्थान बनाया। इसके बाद संकरी सीढ़ियों से जॉन लैंग को महल के ऊपरी कक्ष में ले जाया गया। उन्‍हें बैठने के लिए कुर्सी दी गई। उन्होंने देखा कि सामने पर्दा पड़ा हुआ था। उसके पीछे रानी लक्ष्‍मीबाई, दत्‍तक पुत्र दामोदर राव और सेविकाएं थीं। अचानक से बच्चे दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया, रानी हैरान रह गईं, कुछ ही सैकंड्स में वो पर्दा ठीक किया गया लेकिन तब तक जॉन लैंग रानी को देख चुका था।

जॉन लैंग रानी को देखकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने रानी से कहा कि, “if the Governor-General could only be as fortunate as I have been and for even so brief a while, I feel quite sure that he would at once give Jhansi back again to be ruled by its beautiful Queen.”। हालांकि रानी ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया के साथ गरिमामयी ढंग से इस कॉम्पलीमेंट को स्वीकार किया। जॉन लैंग ने अपनी किताब में लिखा है कि ‘महारानी जो औसत कद, स्वस्थ, साधारण शरीर और कम आयु में बहुत सुंदर लगने वाली गोल चेहरे वाली महिला थीं। उनकी आंखें काफी सुंदर और नाक की बनावट बेहद नाजुक थी। रंग बहुत गोरा नहीं, लेकि‍न श्‍यामलता से काफी बढ़ि‍या था। उनके शरीर पर कानों में ईयर रिंग के सिवा कोई जेवर नहीं था। सफेद मलमल के कपड़े पहने हुए थीं रानी। उन्‍होंने लि‍खा है कि‍ वो बहुत अच्छी बुनाई की गई सफेद मलमल के कपड़े पहनी हुई थीं। इजो चीज उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ती थी, वो उनकी रूआंसी ध्वनियुक्त एक फटी आवाज थी। हालांकि‍, वो बेहद समझदार और प्रभावशाली महि‍ला थीं।
लक्ष्मीबाई को एक अंग्रेज सर रॉबर्ट हैमिल्टन ने भी देखा था, लेकिन उसने सि‍र्फ मुलाकात और उनसे बातचीत का ही जिक्र किया है। शायद यह बातचीत भी परदे में हुई हो.
2-

ग्वालियर.लक्ष्मीबाई कॉलोनी स्थित गंगादास की बड़ी शाला देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना लक्ष्मीबाई की पार्थिव देह की रक्षा करने वाले 745 साधुओं के पराक्रम की गवाह है, जो बलिदान  हो गए। इतिहास के मुताबिक, इस शाला के साधुओं ने जहां स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया, तो इस पीठ की स्थापना करने वाले महंत परमानंद गोसांई ने अकबर को भी सिर झुकाने पर मजबूर कर दिया था। आज भी इस शाला में साधुओं के पराक्रम की गाथा कहने वाली कई चीजें मौजूद हैं। इन्हें देखने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं। इसी शाला में 745 साधुओं की समाधियां भी बनी हुई हैं। लक्ष्मीबाई समाधि के नजदीक ही मौजूद यह समाधियां स्वाधीनता संग्राम में संतों के पराक्रम की याद दिलाती हैं। वीरांगना और इन साधुओं के बलिदान की याद में यहां अखंड ज्योति भी प्रज्ज्वलित की जाती है। प्रतिवर्ष 18 जून को यहां संत शहीदी दिवस भी मनाया जाता है, जिसमें देशभर से साधु-संत इकट्ठे होकर वीर संतों को श्रद्धांजलि देते हैं।

इस शाला में वर्तमान तलवार, भाले, नेजे, चिमटे जैसे हथियारों का संग्रह है। इसके अलावा 1857 के युद्ध में इस्तेमाल की गई एक तोप भी मौजूद है। प्रतिवर्ष विजयादशमी पर इस तोप को चलाया जाता है। यह तोप 17वीं शताब्दी के अंत में निर्मित बताई जाती है।
1857 की क्रांति के समय इस शाला के नौवें महंत गंगादास महाराज की अगुआई में 1200 साधुओं ने वीरांगना लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर की रक्षा के लिए अंग्रेज सेना से युद्ध किया था। मरने से पूर्व लक्ष्मीबाई ने गंगादास महाराज से दो वचन लिए थे। पहला वचन था अपने पुत्र दामोदर की रक्षा करना और दूसरा वचन था कि वीरांगना का शव भी अंग्रेज सैनिकों को न मिल पाए। इसी वचन के पालन के लिए साधुओं ने युद्ध किया था। इस दौरान 745 संतों ने वीरगति प्राप्त की थी। ( यह जानकारी उनके लिए जो संतों को मुफ्तखोर बताते हैं) 

3-

अम्बेडकर वादियों के महाझूठ  भारत में हमेशा से सभी ऊँची जाति वाले निम्न जाति वालों से छुआछूत करते थे. यह बात सही नहीं है. महारानी लक्ष्मीबाई की सहेली झलकारी बाई इस झूठ की सच्चाई है.
झलकारी बाई का जन्म बुंदेलखंड के एक गांव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवा (उर्फ मूलचंद कोली) और माता जमुनाबाई (उर्फ धनिया) था। झलकारी बचपन से ही साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। बचपन से ही झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देखरेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। वह एक वीर साहसी महिला थी। झलकारी का विवाह झांसी की सेना में सिपाही रहे पूरन कोली नामक युवक के साथ हुआ। पूरे गांव वालों ने झलकारी बाई के विवाह में भरपूर सहयोग दिया। विवाह पश्चात वह पूरन के साथ झांसी आ गई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, वह महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वह लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं, इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ, स्वामीभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था।

रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अपने अंतिम समय अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उस युद्ध के दौरान एक गोला झलकारी को भी लगा और 'जय भवानी' कहती हुई वह जमीन पर गिर पड़ी। ऐसी महान वीरांगना थीं झलकारी बाई। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है।

Thursday, 11 June 2020

ब्राह्मण-विरोध के पीछे क्या कारण है?



ब्राह्मण-विरोध के पीछे क्या है?


हमारे देश में ब्राह्मण-विरोध की पूरी लॉबी है, जो बात-बेबात किसी बहाने ब्रांह्मणों के प्रति घृणा फैलाने में लगी रहती है। ‘हेट स्पीच’ के विरुद्ध नारेबाजी करने वाले ब्राह्मणों के विरुद्ध खुद घृणा फैलाते हैं। कुछ पहले ट्विटर मालिक जैक डोरसी की फोटो के साथ ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को कुचल डालो!’ के आवाहन वाले पोस्टर प्रचारित हुए थे। यह साफ-साफ किसी समुदाय के विरुद्ध घृणा फैलाना (हेट स्पीच) है। मगर ब्राह्मणों के विरुद्ध ऐसे उत्तेजक आवाहनों पर हमारे राजनीतिक लोग आपत्ति नहीं करते।

कुछ लोग इसे ‘विदेशी’, ‘औपनिवेशिक’ मिशनरियों की कारस्तानी मानते हैं।  लेकिन यह केवल ऐतिहासिक आरंभ के हिसाब से सही है। पर स्वतंत्र भारत में यह यहीं के राजनीतिक स्वार्थी, धूर्त या अज्ञानी लोग करते रहे हैं। आज बाहरी लोग हमारे ही प्रतिष्ठित एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों की बातें दुहराते हैं। वेंडी डोनीजर की हिन्दू-विरोधी पुस्तकों में तमाम हवाले भारतीय वामपंथियों और हिन्दू-द्वेषी लेखकों, पत्रकारों के मिलते हैं।

अतः मूल समस्या हिन्दू नेताओं की है। स्वतंत्र होकर भी वे विचारों में गुलाम, नकलची और सुसुप्त बने रहे हैं। वे अपने ऊपर हर लांछन स्वीकार करते और दुहराते भी हैं। उन के शासनों में भी दशकों से पाठ्य-पुस्तकों में ‘वेदों के वर्चस्व’ और ‘ब्राह्मणवाद’ का नकारात्मक उल्लेख बना हुआ है। उन्हें इस से मच्छर काटने जितना भी कष्ट नहीं होता! वास्तव में, ब्राह्मणवाद अनर्गल शब्द है। यह यहाँ का शब्द ही नहीं है! इसे ईसाई मिशनरियों ने भारत के हिन्दू धर्म-समाज को बदनाम करने के लिए गढ़ा था। पर इसे हटाने का काम हम ने नहीं किया। हिन्दू नेताओं ने तो जैसे मान लिया है कि इस पर कुछ करने की जरूरत नहीं।

जैक वाले प्रसंग पर कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने ट्वीट किया था, ‘‘ब्राह्मण विरोध भारतीय राजनीति की सचाई है। मंडल कमीशन के बाद यह उत्तर भारत में और मजबूत हो गया। हम (ब्राह्मण) तो मानो भारत के यहूदी जैसे निशाना बना दिए गए हैं और अब हमें इस के साथ ही रहना सीखना होगा।’’यदि इतने बड़े, तेज नेता ऐसी मानसिकता से ग्रस्त हैं, तो हिन्दू धर्म के शत्रुओं का मनोबल क्यों नहीं बढ़ेगा? ब्राह्मणों को गाली देना राजनीतिक फैशन जरूर है। लेकिन इस के पीछे की झूठी मान्यताओं, तथा इसे हवा देने वाली हिन्दू-विरोधी राजनीति को तो बेनकाब किया जा सकता है। फिर हमारे भ्रमित लोग और विदेशी भी झूठे मुहावरे छोड़ देंगे। यह सामान्य शिक्षा का काम है। यह कठिन भी नहीं है। इस में कोताही के जिम्मेदार सिर्फ भारतीय नेतागण हैं।

दूसरी ओर, ठोस सचाई यह है कि जैसे बदनाम यहूदियों ने ही गत दो सदियों में यूरोपीय सभ्यता की उन्नति में सर्वोपरि भूमिका निभाई, उसी तरह ब्राह्मणों ने तीन हजार से भी अधिक वर्षों से भारत की महान सभ्यता में अप्रतिम योगदान दिया। यहाँ तमाम ऐतिहासिक, लौकिक विवरणों में ब्राह्मणों का उल्लेख विद्वान, मगर निर्धन व्यक्तियों के रूप में आता है।भारत में राज्य-शासन प्रायः क्षत्रियों, जाटों, यादवों, मराठों और मध्य जातियों के लोगों के हाथ था। धन-संपत्ति वैश्यों, व्यापारियों के हाथ थी। ब्राह्मण का काम वैदिक ज्ञान का संरक्षण करना, शिक्षा देना और धर्म-संस्कृति की समग्र चिंता करना रहा। इसीलिए, संपूर्ण भारत में ब्राह्मणों का सम्मान सदैव रहा है। उन्हें कभी, किसी बात के लिए लांछित करने का कोई उदाहरण नहीं है।

ब्राह्मणों को निशाना बनाने का काम ईसाई मिशनरियों और कम्युनिस्टों का शुरू किया हुआ है। इन का घोषित लक्ष्य हिन्दू धर्म को खत्म करना था। अतः यहाँ धर्म-ज्ञाता ब्राह्मणों को निशाना बनाना स्वभाविक था। इस पर अनेक पुस्तकें स्वयं ईसाई मिशनरियों द्वारा लिखी हुई हैं, जिस से पूरा हाल समझा जा सकता है।आज ‘ब्राह्मणवाद’ का लांछन और ब्राह्मणों का विरोध उस वैदिक ज्ञान-परंपरा के खात्मे की चाह है, जिस के खत्म होने से हिन्दू धर्म-समाज खत्म हो जाएगा। अतः ब्राह्मणों से घृणा का अर्थ उन के मूल काम वेदांत और शास्त्र-अध्ययन से घृणा है। क्रिश्चियन और इस्लामी, दोनों साम्राज्यवादी मतवाद खुल कर इस में लगे हैं। उन की यह चाह उत्कट इसलिए भी है, क्योंकि यदि उपनिषदों का ज्ञान विश्व में अधिक फैला, तो स्वयं उन मतवादों का अस्तित्व नहीं रहेगा। वेदांत इतना वैज्ञानिक, सशक्त, और मानव-मात्र के लिए हितकारी है।

अतः ब्राह्मण-विरोध का निहितार्थ हिन्दू धर्म-समाज के खात्मे की चाह है। तमाम एक्टिविस्टों का ब्राह्मणवाद-विरोध अगले ही वाक्य में हिन्दू-विरोध पर पहुँच आता है। इस का नेतृत्व और पोषण सदैव चर्च-मिशनरी संस्थान और वामपंथी करते रहे हैं। वरना, स्वयं देखने की बात है कि भारत में ब्राह्मणों की स्थिति पहले से खराब हुई है। निर्धन तो वे पहले भी थे, पर आज उन्हें वंचित और सताया तक जा रहा है।

अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के बढ़ते वर्चस्व ने शिक्षा में ब्राह्मणों का पारंपरिक उच्च स्थान नष्ट कर दिया। आज वे अपनी रोटी-रोटी किसी भी तरह कमाने को विवश हैं। दिल्ली में 50 से अधिक सुलभ शौचालयों की सफाई में ब्राह्मण समुदाय के लोग कार्यरत हैं। उस शौचालय श्रृंखला के संस्थापक भी ब्राह्मण हैं। अनेक समुदायों की तुलना में ब्राह्मणों की प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है। हमारे नेताओं में भी इक्का-दुक्का ही ब्राह्मण हैं। सभी राज्यों में निचली और मध्य जातियों के लोग सत्ताधारी है। तब किस ‘ब्राह्मणवादी’ वर्चस्व को कुचलने की बात हो रही है?

हमारे मूढ़ एक्टिविस्ट ध्यान दें – यह स्वयं उन के खात्मे की पहली सीढ़ी है। एक हिन्दू के रूप में उन का अस्तित्व दाँव पर है। ब्राह्मण का अर्थ मुख्यतः ज्ञान, सदाचार, सेवा और त्याग रहा है। यही भारत का धर्म था, जिस के वे ज्ञाता और शिक्षक थे। उन के विरुद्ध जहर घोलना बमुश्किल सवा-सौ सालों का धंधा है। यहाँ लोकतांत्रिक के साथ-साथ दुष्प्रचार राजनीति भी शुरू हुई। हल्के नेताओं ने किसी समूह को साथ लाने के लिए दूसरे को लांछित करने का धंधा शुरू कर दिया।

सचाई जानने के लिए स्वामी विवेकानन्द का प्रसिद्ध व्याख्यान ‘वेदान्त का उद्देश्य’ पढ़ें। उस में ब्राह्मणों के गौरव, इतिहास और भूमिका का उल्लेख है। विवेकानन्द ब्राह्मण नहीं थे, किन्तु महान ज्ञानी और दुनिया देखे हुए थे। उन की बातों पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। उन के प्रकाश में हिन्दू-विरोधी बुद्धिजीवियों की लफ्फाजियाँ परखनी चाहिए। वर्ण और जाति का अंतर, सिद्धांत, व्यवहार, बाहरी आक्रमणों के बाद आई विकृतियों को समझना चाहिए। स्वतंत्र भारत में चले नेहरूवादी वामपंथ के दुष्परिणाम भी।

फिर, हिन्दुओं की तुलना में आज भी शेष दुनिया की वास्तविकता भी आँख खोलकर देखनी चाहिए। जिस हिन्दू धर्म-समाज में विविध देवी-देवता, विविध अवतार, विविध गुरू-ज्ञानी, विविध रीति-रिवाज, विविध श्रद्धा प्रतीकों का सम्मान है, उसी को ‘वर्चस्ववादी’, ‘पितृसत्तात्मक’ बताया जाता है! जबकि क्रिश्चियन, इस्लामी मतवादों में खुलेआम एकाधिकार का दावा है, जिस में दूसरे मतवालों को जीने देने तक की मंजूरी नहीं। साथ ही, उन में पुरुष गॉड और पुरुष प्रोफेट हैं। सारे पोप, बिशप, ईमाम और मुल्ले, फतवे देने वाले केवल पुरुष हैं। वहाँ स्त्रियों की स्थिति हाल तक और आज भी नीच है। लेकिन उसे ‘समानता’-वादी बताया जाता है! दोनों बातें एक ही लोग और संस्थाएं प्रसारित करती हैं।

परन्तु यदि कोई पितृसत्तात्मक, वर्चस्ववादी है तो चर्च व इस्लामी संस्थाएं, जिसे आज भी पूरी दुनिया में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। पर हमारी आँखों में धूल झोंक कर हिन्दू धर्म-समाज को ही निशाना बनाया गया है। यह सब मुख्यतः हिन्दू नामों वाले मूढ़ या स्वार्थी भारतीयों के माध्यम से होता है। बाहरी शत्रु इसे बढ़ावा देते हैं, मगर यह संभव इसीलिए होता है क्योंकि हम स्वयं गफलत में हैं। तमाम दलों के नेता इस के उदाहरण हैं। अतः मिशनरियों पर रंज होने के बदले हमें अपना अज्ञान दूर करना चाहिए।

Yoga




"सन्ध्योपासना में एवं यज्ञ के उपरान्त श्रद्धा से परमात्मा के लिए नमस्कार करना अवैदिक या मूर्तिपूजा का द्योतक नहीं।"

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"यज्ञ नमश्च। यज्ञ और नमस्कार" - 

यज्ञ में या यज्ञसमाप्ति पर नमस्कार की क्रिया करनी चाहिए। यज्ञ के साथ नमस्कार क्रिया का सम्बन्ध उक्त वेदवाक्य प्रकट कर रहा है। प्रायः ऐसी विचारधारा लोगों में व्याप्त हो गई है कि यदि यज्ञ में हाथ जोड़कर नमस्कार की क्रिया की जाएगी तो वह वेदि के सामने हाथ जोड़ने की क्रिया हो जाएगी और वह भी मूर्तिपूजा की क्रिया के तुल्य हो जाएगी। यदि परमात्मा के लिए या परमात्मा के नाम पर किसी भी स्थान पर किसी भी प्रकार से हाथ जोड़ने की क्रिया की जाएगी तो उससे अन्धश्रद्धा को बल मिलेगा और वह भी मूर्तिपूजा या जड़पूजा हो जाएगी। मूर्तिपूजा या जड़पूजा के आक्षेप के भय के कारण ही 'हाथ जोड़ झुकाय मस्तक वन्दना हम कर रहे' - इस पंक्ति को यज्ञ की प्रार्थना में से निकाल फेंका है, परन्तु हमारा इस प्रकार का चिन्तन वास्तविक नहीं है, अपितु प्रतिक्रियात्मक है। प्रतिक्रियात्मक चिन्तन से कभी-कभी हम वास्तविकता से भी विमुख हो जाते हैं। 

"परमात्मा के लिए नमस्कार करना मूर्तिपूजा नहीं है" -

एक समय था हम भी ऐसे ही प्रतिक्रियात्मक विचारों से प्रभावित होकर यज्ञवेदि के सम्मुख हाथ जोड़ने आदि शब्दों के उच्चारण का प्रबल विरोध करते थे, परन्तु जब हमें महर्षि दयानन्द का लेख वेदि के सामने हाथ जोड़ने का मिला तो हमें चुप होना पड़ा और मानना पड़ा कि यज्ञवेदि के सामने हाथ जोड़ने का तात्पर्य मूर्तिपूजा से क्यों लें ? हम अपनी उपासना को दूषित या अपूर्ण इसीलिए क्यों करें कि हम हाथ जोड़ेंगे तो दूसरे फिर हमें क्या कहेंगे? हमें अपना सत्य कर्तव्य करना चाहिए। 

"महर्षि दयानन्द जी द्वारा सन्ध्या एवं यज्ञ में नमस्कार का आदेश" -

महर्षि दयानन्दजी सरस्वती ने संस्कारविधि के सन्यास प्रकरण में लिखा है  "आचमन और प्राणायाम करके हाथ जोड़ वेदि के सामने नेत्रउन्मीलन करके मन से मन्त्रों को जपे।" इन शब्दों को पढ़ने के बाद विचारना चाहिए कि महर्षि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, क्योंकि वह वेद में नहीं है, परन्तु परमात्मा के लिए नमस्कार करने का निषेध कभी नहीं करते थे, क्योंकि वेद में  'यज्ञ नमश्च' आता है। अनेक मन्त्रों में नमस्कार है। सन्ध्या के मन्त्रों में भी है और सन्ध्या के अन्त में - नमः शंभवाय च-मन्त्र है ही। इस मन्त्र के ऊपर महर्षि ने लिखा है 'तत ईश्वरं नमस्कुर्यात' - यह समर्पणविधि के पश्चात् है। भाषा में भी वे लिखते हैं कि 'इसके पीछे ईश्वर को नमस्कार करे" और इस मन्त्र के अर्थ के अन्त में वे लिखते हैं --"उसको हमारा बारम्बार नमस्कार है।" 

इसी प्रकार सन्ध्या के उपस्थानमन्त्रों के भाष्य के अन्तिम शब्द विशेष मननीय हैं जो कि निम्न हैं -

सर्वे मनुष्याः परमेश्वरमेवोपासीरन्। यस्तस्मादन्यस्योपासनां करोति स इन्द्रियारामो गर्दभवत्सर्वैशि्शष्टैविज्ञेय इति निश्चयः। कृताञ्जलिरत्यन्तश्रद्धालुर्भूत्वैतैमन्त्रैः स्तुवन् सर्वकालसिद्धत्यर्थं परमेश्वरं प्रार्थयेत् ॥ 

सब मनुष्यों को परमेश्वर की ही उपासना करनी चाहिए। जो कोई उस परमात्मा को छोड़कर अन्य की उपासना करता है वह अपने इन्द्रियसुखों में रत होने से गर्दभपशुवत् सब शिष्टजनों को जानना चाहिए। हाथ की अञ्जलियों को जोड़कर अत्यन्त श्रद्धालु होकर इन (उपस्थान) मन्त्रों से स्तुति करते हुए सर्वकाल में सिद्धि के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे। 

"वेद और महर्षियों के आदेश पर चलें" -

यहाँ कृताञ्जलि शब्द नमस्कार की मुद्रा या हस्ताञ्जलि-मुद्रा का ही वाचक है। यदि महर्षि को हाथ जोड़ने से भय होता और इसे मूर्तिपूजा का ही द्योतक मानते तो वे कभी भी उपर्युक्त स्थलों पर हाथ जोड़ने के लिए नहीं लिखते। संस्कारविधि और पञ्चमहायज्ञविधि दोनों में ही परमात्मा के लिए नमस्कार- मुद्रा का विधान है, अतः हमें अपने प्रतिक्रियावादी चिन्तन- प्रकार में परिवर्तन करना होगा और सोचना होगा कि कहीं हम कुछ विपरीत मार्ग से चिन्तन करके अपनी उपासना को ही तो विकृत एवं नष्ट नहीं कर रहे हैं ? महर्षि के उपर्युक्त वाक्यों के सम्मुख तर्क-वितर्क की आवश्यकता नहीं रहती। इन वाक्यों के देख लेने पर और कई वर्षों तक मन में आन्दोलन होते रहने पर यही निश्चय हुआ कि हमें अपने विचारों के पीछे नहीं चलना चाहिए, अपितु वेद और महर्षियों के पीछे चलना चाहिए। 

"महर्षि कात्यायन का यज्ञाग्नि के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान" -

स्वयं महर्षि दयानन्दजी वेद और महर्षियों के पीछे चलते हैं। महर्षि कात्यायन ने वामदेव्य गान के पश्चात् किस रीति से यज्ञवेदि के सामने प्रार्थना करें, इसके लिए निम्न प्रकार लिखा है - 
'स्पृष्ट्वापो वीक्ष्यमाणोऽग्निं कृताञ्जलिपुटस्ततः। 
आयुरारोग्यमैश्वर्य प्रार्थयेद् द्रविणोदसम्॥ 

यहाँ पर भी उसी यज्ञाग्नि के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान है और उसका फल - 'दीर्घायुर्ह वै भवति' - निश्चय से दीर्घायु प्राप्त होती है, यह बताया है तथा आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य की प्रार्थना करने को कहा है। यज्ञ के श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान से और उसकी किसी क्रिया का अनादर न करने से अवश्य दीर्घायु होती है। 

"महर्षि दयानन्दजी द्वारा वेदभाष्य में यज्ञ को नमस्कार का विधान" - 

यजुर्वेद के [२।२०] के भाष्य में पूर्वमन्त्र की अनुवृत्ति लेकर महर्षि लिखते हैं - 'संवेशपतयेऽग्नये तुभ्यं स्वाहा नमश्च नित्यं कुर्मः' - यह संस्कृत में लिखा है और आर्यभाषा में - "जो आप हैं उसके लिए धन्यवाद और नमस्कार करते हैं" - यह लिखा है, अतः यज्ञ में नमस्कार या यज्ञरूप प्रभु को नमस्कार करना वेदानुकूल है। यज्ञ प्रतिमा-पूजा नहीं है।

"नमस्कारक्रिया श्रद्धापूर्वक करें" -
 
क्या यह सब नमस्कारक्रिया केवल वचन से ही होगी और कर्मरहित ही रहेगी? मन, वचन, कर्म जबतक एक नहीं होंगे तबतक असत्य आचरण होगा। यज्ञ में - इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि - ऐसी प्रतिज्ञा करने के बाद भी यदि असत्य आचरण करें तो प्रतिज्ञा की हानि होगी। अत: मन, वचन, कर्म में एकरूपता लाने के लिए जहाँ सन्ध्या, यज्ञ या अन्य कर्मकाण्ड में नमस्कारक्रिया किसी भी दिशा में या यज्ञवेदि के सामने या अग्नि के सम्मुख करने का विधान हो वहाँ उस विधि को पूर्णरूप से श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। ईश्वर को छोड़कर अन्य को ईश्वर या ईश्वरतुल्य मानकर, व्यक्ति या प्रतिमा आदि के पूजन का निषेध महर्षियों ने किया है, वह नहीं करना चाहिए।

"शतपथ में यज्ञ द्वारा नमस्कार" -

शतपथ [६।१।१।१६] में यज्ञ को ही नमस्कार का रूप बताया है और यज्ञ के द्वारा ही परमात्मा को नमस्कार करना बताया है। जैसा कि - 'यज्ञो वै नमो यज्ञेनैवैनमेतन्नमस्कारेण नमस्यति' - यह लिखा है। पुनः -- 'नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो०'-- यजुर्वेद के १६वें अध्याय के ६४, ६५. ६६वें मन्त्र के बारे में शतपथ [९।१।१।३९] में लिखा है- 'यद्वेवाह दश दशेति दश वा अंजलेरंगुलयो दिशि दिश्येवैभ्य एतदञ्जलि करोति तस्मादु हेतद्भीतोऽञ्जलिं करोति तेभ्यो नमो अस्त्विति तेभ्य एव नमस्करोति' - यहाँ पर हाथ जोड़कर ही यज्ञ में दसों दिशाओं में स्थित रुद्रों को नमस्कार करना बताया है, अतः यज्ञ में नमस्कार की क्रिया असंगत कर्म नहीं है। यदि हमारा मन इसके लिए उद्यत नहीं होता है तो जो व्यक्ति सन्ध्योपासना में एवं यज्ञ के उपरान्त श्रद्धा से प्रभु को नमस्कार करना चाहे उसको अवैदिक मूर्तिपूजा या जड़पूजा में ग्रहण न करे।


Wednesday, 10 June 2020

Brahmin Pandit Freedom Fighter Pt. Ram Prasad Bismil




*रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण*

(11 जून को अमर बलिदानी रामप्रसाद जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रचारित)

🎯नशा छोङ राष्ट्र भक्त कैसे बने🌷

पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित *शाहजहांपुरा* में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम *मुरलीधर* तथा माता का नाम *मूलमती* था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( _परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का_ –आत्मचरित्र)

परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में *आर्यसमाज* के एक बड़े सन्यासी *स्वामी सोमदेव* जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, *बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।* प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक *तवारीखे हिन्द* को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा।

🎯गुरु कौन था?🌷

फाँसी से पुर्व *बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे।* उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर *जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है?* बिस्मिल जी ने कहा कि *जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा*, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि *मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द।*

🎯 *आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद*🌷

*स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे* और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते।

बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। *उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया।* क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा –

*“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”*

इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और *अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये।* इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये।

दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। *मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ* और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे *इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।*तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया।

🎯फाँसी का दिन🌷

19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच , स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और _‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’_ वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।

ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना *‘सरफ़रोशी की तमन्ना’* गाते हुए अपने बलिदान दिये।

पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे।

दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है

अमर बलिदानी रामप्रसाद बिस्मिल के ब्रह्मचर्य पर विचार

(11 जून को अमर बलिदानी रामप्रसाद जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रचारित)

#RamPrasadBismil

(रामप्रसाद बिस्मिल दवारा लिखी गई आत्मकथा से साभार)

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन

वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं । उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें ! मध्यम श्रेणी के व्यक्‍ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फँसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते । सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्‍ट करते हैं । यदि कुछ भगवान की दया हो गई, और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मुहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है । रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं । कालिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं । कालिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्‍ट करना आरम्भ करते हैं । 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं । कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम-कथा कथायें प्रचलित न हों । ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती है । यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं । वे विचारते हैं कि थोड़ा सा जीवन का आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्‍टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे । यह उनकी बड़ी भारी भूल है । अंग्रेजी की कहावत है "Only for one and for ever." तात्पर्य यह है कि कि यदि एक समय कोई बात पैदा हुई, मानो सदा के लिए रास्ता खुल गया । दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती । अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं । सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है । विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करके अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्‍न करें । सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है । बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य-जीवन नितान्त शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं । ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो ।

जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्‍न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश न होना चाहिए । मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है । मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं । क्रिया के बार-बार होने से उसमें ऐच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है । इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं की, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं । मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है । अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, बान है । अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । यदि हमारे मन में निरन्तर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचारों में लिप्‍त रहे, तो निश्‍चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे । मन इच्छाओं का केन्द्र है । उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्‍न करना पड़ता है । अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार, अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है । दूसरे, जैसी परिस्थियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं । तीसरे, प्रयत्‍न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्‍ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है । हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है । यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुखमय प्रतीत होता । लिखने का अभ्यास, वस्‍त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । यदि हमें प्रारम्भिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो । इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्‍ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्‍य मीलों तक चला जाता है । बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं । जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं ।

मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बलपूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी । प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्‍चित करे । खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे । महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे । प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्‍ट न करे । खाली समय अकेला न बैठे । जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जलपान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे । अश्‍लील (इश्कभरी) गजलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुने । स्‍त्रियों के दर्शन से बचता रहे । माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिले । सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डाले।

विद्यार्थी प्रातःकाल सूर्य उदय होने से एक घण्टा पहले शैया त्यागकर शौचादि से निवृत हो व्यायाम करे या वायु-सेवनार्थ बाहर मैदान में जावे । सूर्य उदय होने के पाँच-दस मिनट पूर्व स्नान से निवृत होकर यथा-विश्‍वास परमात्मा का ध्यान करे । सदैव कुऐं के ताजे जल से स्नान करे । यदि कुऐं का जल प्राप्‍त हो तो जाड़ों में जल को थोड़ा-सा गुनगुना कर लें और गर्मियों में शीतल जल से स्नान करे । स्नान करने के पश्‍चात् एक खुरखुरे तौलिये या अंगोछे से शरीर खूब मले । उपासना के पश्‍चात् थोड़ा सा जलपान करे । कोई फल, शुष्क मेवा, दुग्ध अथवा सबसे उत्तम यह है कि गेहूँ का दलिया रंधवाकर यथारुचि मीठा या नमक डालकर खावे । फिर अध्ययन करे और दस बजे से ग्यारह बजे के मध्य में भोजन ले । भोज में मांस, मछली, चरपरे, खट्टे गरिष्‍ट, बासी तथा उत्तेजक पदार्थों का त्याग करे । प्याज, लहसुन, लाल मिर्च, आम की खटाई और अधिक मसालेदार भोजन कभी न खावे । सात्विक भोजन करे । शुष्‍क भोजन का भी त्याग करे । जहाँ तक हो सके सब्जी अर्थात् साग अधिक खावे । भोजन खूब चबा-चबा कर किया करे । अधिक गरम या अधिक ठंडा भोजन भी वर्जित है । स्कूल अथवा कालिज से आकर थोड़ा-सा आराम करके एक घण्टा लिखने का काम करके खेलने के लिए जावे । मैदान में थोड़ा घूमे भी । घूमने के लिए चौक बाजार की गन्दी हवा में जाना ठीक नहीं । स्वच्छ वायु का सेवन करें । संध्या समय भी शौच अवश्य जावे । थोड़ा सा ध्यान करके हल्का सा भोजन कर लें । यदि हो सके तो रात्रि के समय केवल दुग्ध पीने का अभ्यास डाल लें या फल खा लिया करें । स्वप्नदोषादि व्याधियां केवल पेट के भारी होने से ही होती हैं । जिस दिन भोजन भली भांति नहीं पचता, उसी दिन विकार हो जाता है या मानसिक भावनाओं की अशुद्धता से निद्रा ठीक न आकर स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाता है । रात्रि के समय साढ़े दस बजे तक पठन-पाठन करे, पुनः सो जावे । सदैव खुली हवा में सोना चाहिये । बहुत मुलायम और चिकने बिस्तर पर न सोवे । जहाँ तक हो सके, लकड़ी के तख्त पर कम्बल या गाढ़े कपड़े की चद्दर बिछाकर सोवे । अधिक पाठ न करना हो तो 9 या 10 बजे सो जावे । प्रातःकाल 3 या 4 बजे उठकर कुल्ला करके शीतल जलपान करे और शौच से निवृत हो पठन-पाठन करें । सूर्योदय के निकट फिर नित्य की भांति व्यायाम या भ्रमण करें । सब व्यायामों में दण्ड-बैठक सर्वोत्तम है । जहाँ जी चाहा, व्यायाम कर लिया । यदि हो सके तो प्रोफेसर राममूर्ति की विधि से दण्ड-बैठक करें । प्रोफेसर साहब की विधि विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोड़े समय में ही पर्याप्‍त परिश्रम हो जाता है । दण्ड-बैठक के अलावा शीर्षासन और पद्‍मासन का भी अभ्यास करना चाहिए और अपने कमरे में वीरों और महात्माओं के चित्र रखने चाहियें ।

#नमन_रामप्रसादबिस्मिल



Sunday, 7 June 2020

आट्टा साट्टा शादी / अदला बदली शादी / अट्टा सट्टा शादी / अड्डा सड्डा शादी / जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो ( शादी का बेहतरीन तरिका अट्टा-सट्टा )














आट्टे साट्टे शादी रिश्ते - यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो 

हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश यानि उतर भारत में इस तरह की शादी किसान परिवारो, आदिवासी परिवारो, कबिलाई जातियों और धर्मों, गांव - देहातों, कबिलों मे रहने वाले समूहों, पशुपालन और खेती - बाड़ी करने वाले परिवार आदि मे आट्टा साट्टा शादी बहुत पहले से ही होती आ रही है...


इस तरह की शादी करने से दहेज प्रथा और लडकियों की भुर्ण हत्या में कमी आना लाजमी है क्योकि यदि कोई परिवार लडकी पैदा नही करेगा तो उसके लडके की भी शादी नही होगी... इस तरह की शादी मे ना दहेज देना पडता है ना दहेज लेना पडता है.... कोई किसी पर रोब नही जमा सकता...


इस तरह की शादी को  बाल विवाह से जोडकर देखा जाता है जोकि सरासर गलत है क्योकि बाल विवाह जिसको करना है वो तो समान्य विवाह अनुसार भी करवा सकता है और करवा रहे है... बाल विवाह एक अलग कुप्रथा है जिसका अट्टा सट्टा से कोई सम्बन्ध नही है... 


कुछ लोग जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी या जिन लोगो का काम धंधा ही जाति धर्म की ठेकेदारी करके रुपये कमाना है, जो नही चाहते कि लोग दहेज प्रथा को छोडे या अंधविश्वास को त्यागे वे लोग इस तरह की शादी का विरोध करते है और जैसा कि उनका काम धंधा है झुठ बोलकर लोगो को जाति धर्म के नाम पर गुमराह करने का वे कोई भी समाजिक जागर्ति हो ऐसा होने देना नही चाहते 



जिन लोगो की मानसिकता पुरुष प्रधान देश बनाने और औरतो को केवल घर संभालने और बच्चे पैदा करने की मशीन समझने की है वे कोई भी समाजिक बदलाव नही करने देना चाहते उसके लिए वे कोई भी झुठ बोल सकते है...कोई भी षडयन्त्र रच सकते है...


गांव - देहात, पशुपालक - किसान जातियों को कुछ व्यापारी जाति और जाति - धर्म के ठेकेदार और कुछ शहरी वर्ग के लोग अपने आप को सर्वे सर्वा मानते है और ग्रामिणों को अनपढ और गवार बताकर उनके हर फैसले का विरोध करते है... 


अट्टा सट्टा शादी मुख्यतौर पर ग्रामिणों और किसान - पशुपालक परिवारों द्वारा सदियों से की और करवाई जा रही है जोकि काफी सफल भी रही है...


मुख्यतौर पर उत्तर भारत के ग्रामिण इलाको मे गौत्रो को देखा जाता है स्वयं का, मां का, दादी का आदि अब कई जगह दादी का गौत्र नही देखते.. पहले 5 गौत्र देखे जाते थे अब दो ही मुख्यत देखे जाते है कि वे आपस मे दोनो परिवारो के ना मिलते हो... जोकि अट्टा सट्टा शादी मे नही मिलते....



आट्टा साट्टा शादी के कोई भी नुकसान नही है और ना ही किसी भी धर्म - जाति या लडकी आदि का अपमान इस तरह की शादी मे होता है... यह सैकडो सालो से हो रही शादी है जिसे अब पढे लिखे समझदार युवा चाहे गांव से हो या शहर से सब पसंद करने लगे है...


छोटी छोटी बच्चियों को पैदा करके कचरे मे फैक दिया जाता है या बच्चियों की भुर्ण हत्या कर दी जाति हैै आज भी दहेज हत्या हो जाती है इस सभी बुराइयों का समाधान अट्टा सट्टा शादी ही है यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो..... ना कुछ देना ना कुछ लेना... लडके का भी अदला बदला करना और लडकी का भी अदला बदला करना..... कोई किसी पर बेवजह दबाव नही बना सकेगा.... जो लडकी पैदा करेगा वो ही बहु लेगा.....


लडकी पैदा होने का मतलब जाति - धर्म के ठेकेदारो ने दान देना सारी उमर बना दिया है जिस वजह से अधिकांश लोग लडकी पैदा नही करना चाहते....







Friday, 5 June 2020

Mulniwashi kon ? Dalit Muslim Brahmin Jat Rajput Gurjar Yadav Jatav Pathan Meena etc ?



मूल निवासी कौन ?

कई दिनों से देख रहा हूँ कुछ अम्बेडकरवादी लोग आर्यों को विदेशी कह रहे है। ये कहते हैं कि कुछ साल पहले ( 1500 BC लगभग ) आर्य बाहर से ( इरान/ यूरेशिया या मध्य एशिया के किसी स्थान से) आए और यहाँ के मूल निवासियों को हरा कर गुलाम बना लिया. तर्क के नाम पर ये फ़तवा देते हैं कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि सभी विदेशी है. क्या आर्य विदेशी है?

बाबा भीमराव अम्बेडकर जी के ही विचार रखूंगा जिससे ये सिद्ध होगा की आर्य स्वदेशी है।

1) डॉक्टर अम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस खंड 7 पृष्ट में अम्बेडकर जी ने लिखा है कि आर्यो का मूलस्थान(भारत से बाहर) का सिद्धांत वैदिक साहित्य से मेल नही खाता। वेदों में गंगा,यमुना,सरस्वती, के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदी के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नही कर सकता।

2) डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन"? Who were shudras? में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखको की आर्यो के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यताओ का खंडन किया है। डॉ अम्बेडकर लिखते है--

1) वेदो में आर्य जाती के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही है।

2) वेदो में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नही है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यो ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूलनिवासियो दासो दस्युओं को विजय किया।

3) आर्य,दास और दस्यु जातियो के अलगाव को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य वेदो में उपलब्ध नही है।

4)वेदो में इस मत की पुष्टि नही की गयी कि आर्य,दास और दस्युओं से भिन्न रंग के थे।

5)डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से शुद्रो को भी आर्य कहा है(शुद्र कौन? पृष्ट संख्या 80)

अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातो को माने।

वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियो की हिंसा करने से कोई आर्य नही कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व् धर्मात्मा कहलाता है।

यहाँ हम धम्मपद के उपरोक्त बुध्वचन का Maha Bodhi Society, Bangalore द्वारा प्रमाणित अनुवाद देना आवश्यक व् उपयोगी समझते है।.
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विदेशी यात्रिओं के प्रमाण -
अम्बेडकरवादी सभी संस्कृत ग्रंथों को गप्प कहते हैं इसलिए कुछ विदेशी यात्रिओं के प्रमाण विचारणीय हैं...
1- मेगस्थनीज 350 ईसापूर्व - 290 ईसा पूर्व) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त के दरबार में आया था। वह कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने जो कुछ भारत में देखा, उसका वर्णन उसने "इंडिका" नामक पुस्तक में किया है। उसमे साफ़ साफ़ लिखा है कि भारतीय मानते हैं कि ये सदा से ही इस देश के मूलनिवासी हैं.
2- चीनी यात्री फाह्यान और ह्यून्सांग- इन दोनों ने एक शब्द भी नहीं लिखा जो आर्यों को विदिशी या आक्रान्ता बताता हो. ये दोनों बौद्ध थे.
3- इतिहास के पितामह हेरोड़ेट्स - इन्होने भी अपने लेखन में भारत का कुछ विवरण दिया है.परन्तु इन्होने भी एक पंक्ति नहीं लिखी भारत में आर्य आक्रमण पर.
4- अलबेरूनी - यह मूलतः मध्य पूर्व ( इरान+अफगानिस्तान) से महमूद गजनवी के साथ आया. लम्बे समय तक भारत आया. भारत के सम्बन्ध में कई पुस्तकें लिखी. परन्तु एक शब्द भी नहीं लिखा आर्यों के बाहरी होने के बारें में.
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वेद क्या कहता है शूद्र से सम्बन्ध के बारे में

1- हे ईश्वर - मुझको परोपकारी विद्वान ब्राह्मणो मे प्रिय करो, मुझको शासक वर्ग मे प्रिय करो, शूद्र और वैश्य मे प्रिय करो, सब देखनों वालों मे प्रिय करो । अथर्व वेद 19/62/1
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2- हे ईश्वर - हमारे ब्राह्मणों मे कान्ति, तेज, ओज, सामर्थ्य भर दो, हमारे शासक वर्ग (क्षत्रियों) मे तेज, ओज, कान्ति युक्त कर दो, वैश्यो तथा शूद्रों को कान्ति तेज ओज सामर्थ्य युक्त कर दो। मेरे भीतर भी विशेष कान्ति, तेज, ओज भर दो। यजुर्वेद 18/48


ब्राह्मण

ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है। इसका उत्तर इस प्रकार है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी न...