Friday, 19 June 2020

Who is Mohiyal Brahmins Pandits Kastriya Punjabi




भारत में ब्राह्मणों के कई लड़ाकू गोत्र हुए हैं। इनमें से प्रमुख भूमिहार (पूर्वांचल के लड़ाकू ब्राह्मण) और  पेशवा (मराठवाड़ा के देष्ठ और कोंकण ब्राह्मण) हैं जिनमें बाजीराव पेशवा, नानासाहेब पेशवा जैसे कई मशहूर नाम है। ऐसा ही एक लड़ाकू गोत्र ब्राह्मणों का है पंजाब के मोहयाल बामन।  इन मोहयाल पंजाबी ब्राह्मणों को ब्रिटिश और सिख इतिहासकारों ने भारत की सबसे निर्भीक, शेरदिल, लड़ाकू जाति बताया है।

पंजाब में एक कहावत है की अगर आपको गाँव में किसी मोहयाल के घर का पता लगाना हो तो आप देखिये की किस छत पर सबसे ज्यादा कौए बैठे हैं। या देखिये की कहाँ शस्त्र चलाने की प्रैक्टिस हो रही है। ज्यादा कौए का मतलब है की वहां आज मॉस बना है। यह ही मोहयाल का घर है। मोहयाल बामन एक मॉस खाने वाले बामन या लड़ाकू बामन माने गए हैं। इन बामनो की बहुत ही महान विरासत है। यह पंजाब के सरंक्षक माने गए हैं । कुछ इतिहासकारों का यह भी दावा है की विश्व विजेता सिकन्दर महान को हराने वाला राजा पोरस एक मोहयाल था। हालांकि कुछ इतिहासकार उन्हें सारस्वत वंश का ब्राह्मण बताते हैं। मोहयाल ब्राह्मण जरूर हैं और कट्टर हिन्दू रहे हैं इतिहासिक तौर पर इन्होंने कभी भी पाठ पूजा वाला काम नही किया। इनका मुख्य पेशा खेती और सेना में सेवा ही रही है। कुछ मोहयाल पशु पालन का व्यवसाय भी करते रहे हैं।

संक्षेप इतिहास : 

मोहयाल बामनो का इतिहास भारत में तैनात रहे ब्रिटिश अफसर P.T. Russel Stracey की किताब “The History of the Mohiyals, the martial Race of India” में मिलता है जो उन्होंने अपने लाहौर प्रवास के दौरान लिखी थी।

मोहयाल या मुझाल पंजाबी बामन पंजाब का ऐसा सम्प्रदाय है जिसपर पूरा पंजाबी समाज गर्व ले सकता है। इन बामनो का काम कभी पूजा पाठ करना नही रहा। इतिहासिक रूप से यह पंजाब और अफ़ग़ानिस्तान के हुकुमरान रहे हैं जिनकी रियासत अरब और पर्शिया तक रही। गोरा रंग, ताकतवर शरीर, लम्बा कद इन ब्राह्मणों की पहचान है। आज यह बड़े सरकारी ओहदों और बिज़नस पोस्ट्स पर काबिज हैं।

मोहयाल ब्राह्मण सिर्फ हिन्दू ही नही बल्कि मुसबित के समय अपने योगदान और बलिदान के लिए मुस्लिम और सिख समाज में भी सम्मानित रहे हैं। हम सबने करबला के उस युद्ध के बारे में पढ़ा होगा जिसमे हज़रत मुहम्मद साहब की बेटी फातिमा के बेटे हुसैन को शहीद कर दिया गया था अक्टूबर 18, 680 AD में यजीदी सेना द्वारा। इसी युद्ध में एक मोहयाल बादशाह रहीब हुसैन और हसन साहब की तरफ से लड़े और इनके प्राणों की अंत तक रक्षा की।

युद्ध, साम्राज्य और कुर्बानी की मिसालें : 

जब नवम्बर 1675 में सिखों के 9वें गुरु तेग बहादुर को औरंगज़ेब ने दिल्ली में शहीद किया तो उनके साथ शहीदी लेने वाले भाई सती दास, भाई मति दास और भाई दयाल दास तीनों ही मोहयाल बामन थे जो मुगल सेना से युद्ध में सेना का नेतृत्व करते थे।

मशहूर इतिहासकार डॉ हरी राम गुप्ता के अनुसार पंजाब की शाही ब्राह्मण वंशवली जिसने पंजाब, सिंध और अफ़ग़ानिस्तान पर 500 वर्ष तक राज किया वो सभी मोहयाल ब्राह्मण थे।  इन शाही ब्राह्मणों की राजधानी नन्दना ( आज का सियालकोट जो पाकिस्तान में है) थी। मुहम्मद ग़ज़नवी जिसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया वो इन बामनो से अक्सर मार खा कर वापिस जाता रहा। 10वीं शताब्दी में इन ब्राह्मणों का साम्राज्य वजीरिस्तान से सरहिंद और कश्मीर से मुल्तान तक था। इसके अलावा शाहपुर की रियासत के इलाके भी इनके कब्जे में थे।⁠⁠⁠⁠

एक अन्य वंश के मोहयाल ब्राह्मण राजा हुए राजा दाहर शाह। इन्होंने बहलोल लोधी के समय में उसके एक सुलतान को हराया। इनके पिता ने पंजाब और सिंध में अपना साम्राज्य स्थापित किया और राजा दाहर ने इसे यमुना के किनारों से लेकर जम्मू तक फैला लिया और पुरे सिंध को भी अपने कब्जे में ले लिया। जब दाहर शाह राजा बने तब पंजाब और सिंध का यह इलाका बौद्ध था। उन्होंने घोषणा की जो हिन्दू होगा केवल वही जीवित रहेगा। उन्होंने पुरे साम्राज्य को हिन्दू साम्राज्य घोषित कर दिया। इस वंश के वंशजों ने 200 साल से अधिक समय तक राज्य किया।

कुछ ऐसे ही मशहूर मोहयाल लड़ाकू हुए जैसे भाई परागा ( जो चमकौर के युद्ध में लड़े) , मोहन दास, भाई सती दास, भाई मति दास, पंडित कृपा दत्त ( गुरु गोबिंद को शस्त्र विद्या सिखाने वाले), भाई दयाल दास आदि।

सिख इतिहासकार प्रोफेसर मोहन सिंह दावा करते हैं गुरु गोबिंद के बाद सिख सेनाओं का नेतृत्व करने वाले बन्दा बहादुर उर्फ़ लक्ष्मण दास भी एक मोहयाल ब्राह्मण थे। हालाँकि बहुत से इतिहासकार उन्हें सारस्वत पंजाबी ब्राह्मण भी बताते हैं। भाई परागा ने छठे सिख गुरु हरगोबिन्द के समय मुगलों से युद्ध में सेना का नेतृत्व किया। खालसा पन्थ की स्थापना में सबसे आगे यह मोहयाल ब्राह्मण ही थे। उससे पहले भी इन्ही ब्राह्मणों ने अपने कुल से एक बेटा देने की प्रथा शुरू की थी गुरु की सेना में ताकि धर्म युद्ध को ज़िंदा रखा जा सके। यह लोग बहादुर थे और फ़ौज में लड़ना इनका प्रमुख पेशा था। 17वीं शताब्दी की शुरुआत तक मोहयाल ही प्रमुख खालसा लड़ाके रहे और सेनाओं का नेतृत्व भी इनके हाथ में ही रहा। पेशवा ब्राह्मणों की तरह युद्ध करने की जरूरत के कारण यह ब्राह्मण भी मासाहारी थे।

सिख इतिहास का बारीकी से विश्लेषण बताता है की मोहयाल सिर्फ गुरु की तरफ से लड़ने वाके ब्राह्मण नही थे बल्कि इन्होंने सिख धर्म का नेतृत्व भी किया गुरुयों के बाद। 18वीं सदी तक सिखों के बहुत से आंदोलनों का नेतृत्व मोहयाल ही करते रहे। महाराजा रणजीत सिंह की सेना में बहुत से मोहयाल बामन सेना में प्रमुख के तौर पर तैनात रहे। खालसा पन्थ की स्थापना में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा और यह सिख धर्म की रक्षा के लिए भी लड़े और बहुत से बलिदान दिए हालाँकि यह हमेशा कट्टर हिन्दू के तौर पर ही जाने गए।

ब्रिटिश इंडिया के समय और आज़ाद भारत में मोहयाल बामनो का फ़ौज में बहुत बड़ा योगदान रहा है। अंग्रेजों के समय में भारत की आर्मी में ब्राह्मणों की 2 regiments थीं। एक थी “Ist Brahmins Regiment” और दूसरी Bengal Regiment ( जो नाम की ही बंगाल रेजिमेंट थी, यह पूर्वांचल के भूमिहार ब्राह्मण जो आज भी अपनी बहादुरी के कारण अपने नाम के साथ सिंह लिखते हैं, उनके लिए थी और उनकी संख्या इसमें 90% तक थी) ।

ब्राह्मण रेजिमेंटें और मोहियाल :  

ब्रिटिश इंडिया के समय और आज़ाद भारत में मोहयाल बामनो का फ़ौज में बहुत बड़ा योगदान रहा है। अंग्रेजों के समय में भारत की आर्मी में ब्राह्मणों की 2 regiments थीं। एक थी “Ist Brahmins Regiment” और दूसरी Bengal Regiment ( जो नाम की ही बंगाल रेजिमेंट थी, यह पूर्वांचल के भूमिहार ब्राह्मण जो आज भी अपनी बहादुरी के कारण अपने नाम के साथ सिंह लिखते हैं, उनके लिए थी और उनकी संख्या इसमें 90% तक थी) ।

Ist Brahmins Regiment में ज्यादातर सैनिक मोहयाल बामन या सारस्वत पंजाबी बामन ही थे। इस रेजीमेंट को 1942 में बन्द कर दिया गया। ऐसे ही बंगाल रेजिमेंट में भूमिहारों की भरती पर रोक लगा दी गयी । इसका कारण था की 1857 के विद्रोह में इन रेजिमेंटों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबन्द विद्रोह किया। फिर 1942 में इन्होंने आज़ादी मांगते हुए द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेज़ो की तरफ से लड़ने को मना कर दिया। ब्रिटिश यह बात समझ चूके थे की आज़ादी के लड़ाई में बलिदान देने और इसका नेतृत्व करने में ब्राह्मण ही सबसे आगे हैं। 1857 में मंगल पाण्डे का विद्रोह, फिर नाना साहेब ब्राह्मण की सेना का लखनऊ और कानपूर की रियासत पर कब्जा , रानी लक्ष्मी बाई , तांत्या टोपे जैसे ब्राह्मण राजाओं का विद्रोह जो अंग्रेजों पर बहुत भारी पड़ा।  इसके अलावा भारत रिपब्लिकन आर्मी के प्रमुख पंडित आज़ाद, उनके सहयोगी बिस्मिल , राजगुरु ,BK दत्त आदि, महानतम राष्ट्रवादी क्रन्तिकारी सावरकर और ऐसे ही कई अन्य आदि सभी ब्राह्मण थे और इन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को बहुत नुकसान पहुंचाया। इसलिए बामन समाज में अंग्रेओं का विश्वास बिलकुल नही रहा। इसलिए अंग्रेज़ो को लगा की यह बामन अगर सेना में रहे तो बार बार विद्रोह करेंगे, इसलिए Ist Brahmins Regiment को बन्द कर दिया गया और बंगाल रेजिमेंट में सिर्फ मुसलमानों और यादवों की भर्ती रखी गयी।  ब्रिटिश लोगों ने सेना में सिर्फ अपनी वफादार रेजिमेंटों को रखा और दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भारत गणराज्य ने प्रशासन ना चला पाने की अपनी कम समझ की वजह से सेना के ठीक उसी प्रारूप को चालू रखा बिना किसी छेड़ छाड़ के और बामनों को उनकी पहचान यानि उनकी रेजिमेंटों से दूर कर दिया गया।

मोहयालों का सिख धर्म से दूर होना : 

यह जानना काफी रोचक है की मोहयाल सिख धर्म से दूर कैसे हुए। इसका एक कारण था की पंजाब में मोहयाल और सिख समाज ने अंग्रेजों को पुरे भारत के मुकाबले सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाई थी। इसलिए अंग्रेजों ने इनमे फुट डाली। इसके अलावा स्वामी दयानंद ने जब आर्य समाज का प्रचार शुरू किया । तब उन्होंने पाया की सिख धर्म वैदिक सनातन धर्म के विपरीत जा चुका था। इसलिए उन्होंने वैदिक मान्यताओं  को दुबारा लोगों को बताया। आर्य समाज को पंजाब के लाहोर , रावलपिंडी आदि में बड़ा समर्थन मिला।इसके अलावा 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अकाली लहर और सिंह सभा का प्रभाव चला। इसके प्रभाव से कई गुरुद्वारों से ब्राह्मणों को बाहर निकाल दिया गया। यहाँ तक हरिमंदिर साहिब से मूर्तियां निकाल कर बाहर कर दी गयीं। इसका सीधा प्रभाव मोहयालों पर पड़ा। वो सिखों से अलग हो गए। जट्ट सिख सिख धर्म के सर्वेसर्वा हो गए और मोहयाल और सिखों के सम्बंधों में दुरी आ गयी|

Noted Mohyal Brahmins of current era :

Former Army General Arun Vaidya ( who lead operation Bluestar, martyred later in a terrorist attack)

Former Army General G.D. Bakshi

Army Chief General VN Sharma 

Lt_Gen_Praveen_Bakshi

Major General AN Sharma 

Most awareded soldier of Indian army Lt. General Zorawar Bakshi

Former Army General Yogi Sharma

Captain Puneet Dutt (martyred in Jammu)

Lt. Saurabh Kalia (martyred in Kargil war)

Major Somnath Sharma (Martyred in Kahmir Battle, awarded Paramveer Chakra)

Thursday, 18 June 2020

Rani Laxmi Bai



पुण्य तिथि 18 जून पर  पर श्रद्धा सुमन
इस लेख में उन बातो का वर्णन है जिन्हें अधिकाँश भारतीय नहीं जानते.
1-

कम्युनिष्ट इतिहासकारों ने यह अफवाह फैलाई है कि कि रानी का रोबर्ट इलीज नामक ब्रिटिश से प्रेम सम्बन्ध था. निचे दी गई जानकारी से आपको निश्चय हो जाएगा कि ये एक गप्प है.
रानी लक्ष्मीबाई को रूबरू देखने का सौभाग्य बस एक गोरे आदमी को मिला। अंग्रेजों के खिलाफ जिंदगी भर जंग लड़ने वालीं और जंग के मैदान में ही लड़ते-लड़ते जान देने वालीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को बस एक अंग्रेज ने देखा था। ये अंग्रेज था जॉन लैंग, जो मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया का रहने वाला था और ब्रिटेन में रहकर वहीं की सरकार के खिलाफ कोर्ट में मुकदमे लड़ता था। उसे एक बार रानी झांसी को करीब से देखने, बात करने का मौका मिला। रानी की खूबसूरती और उनकी आवाज का जिक्र जॉन ने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में किया था।

जॉन लैंग पेशे से वकील था, और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने उसे लंदन में अपना केस लड़ने के लिए नियुक्त किया था। लेकिन केस को समझने के लिए ये मुमकिन नहीं था कि रानी लंदन ना जाएं और वकील भी बिना यहां आए या उनसे मिले केस पूरा समझ सके। उस वक्त फोन, इंटरनेट जैसी सुविधा भी नहीं थी। सो रानी ने उसे मिलने के लिए झांसी बुलाया। चूंकि रानी जैसे अकेले क्लाइंट से ही लैंग का साल भर का खर्चा निकल जाना था। उन दिनों वो भारत की यात्रा पर ही था, सो वो तुरंत झांसी के लिए निकल पड़ा। इसी तरह की भारत यात्राओं के दौरान लैंग को तमाम तरह के अनुभव हुए और उन्हीं अनुभवों को उसने अपनी किताब ‘वांडरिंग्स इन इंडिया’ में सहेजा है।

उसकी यही किताब भारतीय इतिहासकारों के लिए तब धरोहर बन गई जब पता चला कि ये अकेला गोरा व्यक्ति है जो रानी झांसी से रूबरू मिला था और रानी के व्यक्तित्व के बारे में उसने बिना पूर्वाग्रह के कुछ लिखा है। ऐसे में जॉन लैंग ने उनकी एक दूसरी तस्वीर दुनिया के सामने पेश की, कि वो कैसी दिखती हैं, कैसे बोलती हैं, उनकी आवाज में कितनी शालीनता या गंभीरता है और वो किस तरह के कपड़े पहनती हैं। दिलचस्प बात ये है कि ये भी कभी सामने नहीं आता, अगर युद्ध के दौरान उनकी कमर में बंधे रहने वाले उनके गोद लिए हुए बेटे दामोदर ने अचानक रानी और लैंग के बीच का पर्दा ना हटा दिया होता।

28 अप्रैल 1854 को मेजर एलिस ने रानी को किला छोड़ने का फरमान सुनाया और पेंशन लेकर उन्हें रानी महल में ठहरने के आदेश दे दिए। इस वजह से रानी लक्ष्‍मीबाई को पांच हजार रुपये की पेंशन पर किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। तब झांसी दरबार ने केस को लंदन की कोर्ट में ले जाने का फैसला किया, ऐसे में वहां केस लड़ने के लिए ऐसे वकील की जरूरत थी, जो ब्रिटिश शासकों से सहानुभूति ना रखता हो, उनके खिलाफ केस जीतने का तर्जुबा हो और भारत या भारतीयों को समझता हो, उनके लिए अच्छा सोचता हो। लोगों से राय ली गई तो ऐसे में नाम सामने आया जॉन लैंग का। रानी ने सोने के पत्ते पर लैंग के लिए मिलने की रिक्वेस्ट के साथ अपने दो करीबियों को भेजा, एक उनका वित्तमंत्री था और दूसरा कोई कानूनी अधिकारी था।

बातचीत के वक्त बीच में था पर्दा, शाम का वक्त था। महल के बाहर भीड़ जमा थी। झांसी रि‍यासत के राजस्व मंत्री ने भीड़ को नियंत्रित करते हुए जॉन लैंग के लिए सुविधाजनक स्थान बनाया। इसके बाद संकरी सीढ़ियों से जॉन लैंग को महल के ऊपरी कक्ष में ले जाया गया। उन्‍हें बैठने के लिए कुर्सी दी गई। उन्होंने देखा कि सामने पर्दा पड़ा हुआ था। उसके पीछे रानी लक्ष्‍मीबाई, दत्‍तक पुत्र दामोदर राव और सेविकाएं थीं। अचानक से बच्चे दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया, रानी हैरान रह गईं, कुछ ही सैकंड्स में वो पर्दा ठीक किया गया लेकिन तब तक जॉन लैंग रानी को देख चुका था।

जॉन लैंग रानी को देखकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने रानी से कहा कि, “if the Governor-General could only be as fortunate as I have been and for even so brief a while, I feel quite sure that he would at once give Jhansi back again to be ruled by its beautiful Queen.”। हालांकि रानी ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया के साथ गरिमामयी ढंग से इस कॉम्पलीमेंट को स्वीकार किया। जॉन लैंग ने अपनी किताब में लिखा है कि ‘महारानी जो औसत कद, स्वस्थ, साधारण शरीर और कम आयु में बहुत सुंदर लगने वाली गोल चेहरे वाली महिला थीं। उनकी आंखें काफी सुंदर और नाक की बनावट बेहद नाजुक थी। रंग बहुत गोरा नहीं, लेकि‍न श्‍यामलता से काफी बढ़ि‍या था। उनके शरीर पर कानों में ईयर रिंग के सिवा कोई जेवर नहीं था। सफेद मलमल के कपड़े पहने हुए थीं रानी। उन्‍होंने लि‍खा है कि‍ वो बहुत अच्छी बुनाई की गई सफेद मलमल के कपड़े पहनी हुई थीं। इजो चीज उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ती थी, वो उनकी रूआंसी ध्वनियुक्त एक फटी आवाज थी। हालांकि‍, वो बेहद समझदार और प्रभावशाली महि‍ला थीं।
लक्ष्मीबाई को एक अंग्रेज सर रॉबर्ट हैमिल्टन ने भी देखा था, लेकिन उसने सि‍र्फ मुलाकात और उनसे बातचीत का ही जिक्र किया है। शायद यह बातचीत भी परदे में हुई हो.
2-

ग्वालियर.लक्ष्मीबाई कॉलोनी स्थित गंगादास की बड़ी शाला देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगना लक्ष्मीबाई की पार्थिव देह की रक्षा करने वाले 745 साधुओं के पराक्रम की गवाह है, जो बलिदान  हो गए। इतिहास के मुताबिक, इस शाला के साधुओं ने जहां स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया, तो इस पीठ की स्थापना करने वाले महंत परमानंद गोसांई ने अकबर को भी सिर झुकाने पर मजबूर कर दिया था। आज भी इस शाला में साधुओं के पराक्रम की गाथा कहने वाली कई चीजें मौजूद हैं। इन्हें देखने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं। इसी शाला में 745 साधुओं की समाधियां भी बनी हुई हैं। लक्ष्मीबाई समाधि के नजदीक ही मौजूद यह समाधियां स्वाधीनता संग्राम में संतों के पराक्रम की याद दिलाती हैं। वीरांगना और इन साधुओं के बलिदान की याद में यहां अखंड ज्योति भी प्रज्ज्वलित की जाती है। प्रतिवर्ष 18 जून को यहां संत शहीदी दिवस भी मनाया जाता है, जिसमें देशभर से साधु-संत इकट्ठे होकर वीर संतों को श्रद्धांजलि देते हैं।

इस शाला में वर्तमान तलवार, भाले, नेजे, चिमटे जैसे हथियारों का संग्रह है। इसके अलावा 1857 के युद्ध में इस्तेमाल की गई एक तोप भी मौजूद है। प्रतिवर्ष विजयादशमी पर इस तोप को चलाया जाता है। यह तोप 17वीं शताब्दी के अंत में निर्मित बताई जाती है।
1857 की क्रांति के समय इस शाला के नौवें महंत गंगादास महाराज की अगुआई में 1200 साधुओं ने वीरांगना लक्ष्मीबाई के पार्थिव शरीर की रक्षा के लिए अंग्रेज सेना से युद्ध किया था। मरने से पूर्व लक्ष्मीबाई ने गंगादास महाराज से दो वचन लिए थे। पहला वचन था अपने पुत्र दामोदर की रक्षा करना और दूसरा वचन था कि वीरांगना का शव भी अंग्रेज सैनिकों को न मिल पाए। इसी वचन के पालन के लिए साधुओं ने युद्ध किया था। इस दौरान 745 संतों ने वीरगति प्राप्त की थी। ( यह जानकारी उनके लिए जो संतों को मुफ्तखोर बताते हैं) 

3-

अम्बेडकर वादियों के महाझूठ  भारत में हमेशा से सभी ऊँची जाति वाले निम्न जाति वालों से छुआछूत करते थे. यह बात सही नहीं है. महारानी लक्ष्मीबाई की सहेली झलकारी बाई इस झूठ की सच्चाई है.
झलकारी बाई का जन्म बुंदेलखंड के एक गांव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवा (उर्फ मूलचंद कोली) और माता जमुनाबाई (उर्फ धनिया) था। झलकारी बचपन से ही साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। बचपन से ही झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देखरेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। वह एक वीर साहसी महिला थी। झलकारी का विवाह झांसी की सेना में सिपाही रहे पूरन कोली नामक युवक के साथ हुआ। पूरे गांव वालों ने झलकारी बाई के विवाह में भरपूर सहयोग दिया। विवाह पश्चात वह पूरन के साथ झांसी आ गई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, वह महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वह लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं, इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अग्रेंजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ, स्वामीभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था।

रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अपने अंतिम समय अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उस युद्ध के दौरान एक गोला झलकारी को भी लगा और 'जय भवानी' कहती हुई वह जमीन पर गिर पड़ी। ऐसी महान वीरांगना थीं झलकारी बाई। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है।

Thursday, 11 June 2020

ब्राह्मण-विरोध के पीछे क्या कारण है?



ब्राह्मण-विरोध के पीछे क्या है?


हमारे देश में ब्राह्मण-विरोध की पूरी लॉबी है, जो बात-बेबात किसी बहाने ब्रांह्मणों के प्रति घृणा फैलाने में लगी रहती है। ‘हेट स्पीच’ के विरुद्ध नारेबाजी करने वाले ब्राह्मणों के विरुद्ध खुद घृणा फैलाते हैं। कुछ पहले ट्विटर मालिक जैक डोरसी की फोटो के साथ ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को कुचल डालो!’ के आवाहन वाले पोस्टर प्रचारित हुए थे। यह साफ-साफ किसी समुदाय के विरुद्ध घृणा फैलाना (हेट स्पीच) है। मगर ब्राह्मणों के विरुद्ध ऐसे उत्तेजक आवाहनों पर हमारे राजनीतिक लोग आपत्ति नहीं करते।

कुछ लोग इसे ‘विदेशी’, ‘औपनिवेशिक’ मिशनरियों की कारस्तानी मानते हैं।  लेकिन यह केवल ऐतिहासिक आरंभ के हिसाब से सही है। पर स्वतंत्र भारत में यह यहीं के राजनीतिक स्वार्थी, धूर्त या अज्ञानी लोग करते रहे हैं। आज बाहरी लोग हमारे ही प्रतिष्ठित एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों की बातें दुहराते हैं। वेंडी डोनीजर की हिन्दू-विरोधी पुस्तकों में तमाम हवाले भारतीय वामपंथियों और हिन्दू-द्वेषी लेखकों, पत्रकारों के मिलते हैं।

अतः मूल समस्या हिन्दू नेताओं की है। स्वतंत्र होकर भी वे विचारों में गुलाम, नकलची और सुसुप्त बने रहे हैं। वे अपने ऊपर हर लांछन स्वीकार करते और दुहराते भी हैं। उन के शासनों में भी दशकों से पाठ्य-पुस्तकों में ‘वेदों के वर्चस्व’ और ‘ब्राह्मणवाद’ का नकारात्मक उल्लेख बना हुआ है। उन्हें इस से मच्छर काटने जितना भी कष्ट नहीं होता! वास्तव में, ब्राह्मणवाद अनर्गल शब्द है। यह यहाँ का शब्द ही नहीं है! इसे ईसाई मिशनरियों ने भारत के हिन्दू धर्म-समाज को बदनाम करने के लिए गढ़ा था। पर इसे हटाने का काम हम ने नहीं किया। हिन्दू नेताओं ने तो जैसे मान लिया है कि इस पर कुछ करने की जरूरत नहीं।

जैक वाले प्रसंग पर कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने ट्वीट किया था, ‘‘ब्राह्मण विरोध भारतीय राजनीति की सचाई है। मंडल कमीशन के बाद यह उत्तर भारत में और मजबूत हो गया। हम (ब्राह्मण) तो मानो भारत के यहूदी जैसे निशाना बना दिए गए हैं और अब हमें इस के साथ ही रहना सीखना होगा।’’यदि इतने बड़े, तेज नेता ऐसी मानसिकता से ग्रस्त हैं, तो हिन्दू धर्म के शत्रुओं का मनोबल क्यों नहीं बढ़ेगा? ब्राह्मणों को गाली देना राजनीतिक फैशन जरूर है। लेकिन इस के पीछे की झूठी मान्यताओं, तथा इसे हवा देने वाली हिन्दू-विरोधी राजनीति को तो बेनकाब किया जा सकता है। फिर हमारे भ्रमित लोग और विदेशी भी झूठे मुहावरे छोड़ देंगे। यह सामान्य शिक्षा का काम है। यह कठिन भी नहीं है। इस में कोताही के जिम्मेदार सिर्फ भारतीय नेतागण हैं।

दूसरी ओर, ठोस सचाई यह है कि जैसे बदनाम यहूदियों ने ही गत दो सदियों में यूरोपीय सभ्यता की उन्नति में सर्वोपरि भूमिका निभाई, उसी तरह ब्राह्मणों ने तीन हजार से भी अधिक वर्षों से भारत की महान सभ्यता में अप्रतिम योगदान दिया। यहाँ तमाम ऐतिहासिक, लौकिक विवरणों में ब्राह्मणों का उल्लेख विद्वान, मगर निर्धन व्यक्तियों के रूप में आता है।भारत में राज्य-शासन प्रायः क्षत्रियों, जाटों, यादवों, मराठों और मध्य जातियों के लोगों के हाथ था। धन-संपत्ति वैश्यों, व्यापारियों के हाथ थी। ब्राह्मण का काम वैदिक ज्ञान का संरक्षण करना, शिक्षा देना और धर्म-संस्कृति की समग्र चिंता करना रहा। इसीलिए, संपूर्ण भारत में ब्राह्मणों का सम्मान सदैव रहा है। उन्हें कभी, किसी बात के लिए लांछित करने का कोई उदाहरण नहीं है।

ब्राह्मणों को निशाना बनाने का काम ईसाई मिशनरियों और कम्युनिस्टों का शुरू किया हुआ है। इन का घोषित लक्ष्य हिन्दू धर्म को खत्म करना था। अतः यहाँ धर्म-ज्ञाता ब्राह्मणों को निशाना बनाना स्वभाविक था। इस पर अनेक पुस्तकें स्वयं ईसाई मिशनरियों द्वारा लिखी हुई हैं, जिस से पूरा हाल समझा जा सकता है।आज ‘ब्राह्मणवाद’ का लांछन और ब्राह्मणों का विरोध उस वैदिक ज्ञान-परंपरा के खात्मे की चाह है, जिस के खत्म होने से हिन्दू धर्म-समाज खत्म हो जाएगा। अतः ब्राह्मणों से घृणा का अर्थ उन के मूल काम वेदांत और शास्त्र-अध्ययन से घृणा है। क्रिश्चियन और इस्लामी, दोनों साम्राज्यवादी मतवाद खुल कर इस में लगे हैं। उन की यह चाह उत्कट इसलिए भी है, क्योंकि यदि उपनिषदों का ज्ञान विश्व में अधिक फैला, तो स्वयं उन मतवादों का अस्तित्व नहीं रहेगा। वेदांत इतना वैज्ञानिक, सशक्त, और मानव-मात्र के लिए हितकारी है।

अतः ब्राह्मण-विरोध का निहितार्थ हिन्दू धर्म-समाज के खात्मे की चाह है। तमाम एक्टिविस्टों का ब्राह्मणवाद-विरोध अगले ही वाक्य में हिन्दू-विरोध पर पहुँच आता है। इस का नेतृत्व और पोषण सदैव चर्च-मिशनरी संस्थान और वामपंथी करते रहे हैं। वरना, स्वयं देखने की बात है कि भारत में ब्राह्मणों की स्थिति पहले से खराब हुई है। निर्धन तो वे पहले भी थे, पर आज उन्हें वंचित और सताया तक जा रहा है।

अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली के बढ़ते वर्चस्व ने शिक्षा में ब्राह्मणों का पारंपरिक उच्च स्थान नष्ट कर दिया। आज वे अपनी रोटी-रोटी किसी भी तरह कमाने को विवश हैं। दिल्ली में 50 से अधिक सुलभ शौचालयों की सफाई में ब्राह्मण समुदाय के लोग कार्यरत हैं। उस शौचालय श्रृंखला के संस्थापक भी ब्राह्मण हैं। अनेक समुदायों की तुलना में ब्राह्मणों की प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है। हमारे नेताओं में भी इक्का-दुक्का ही ब्राह्मण हैं। सभी राज्यों में निचली और मध्य जातियों के लोग सत्ताधारी है। तब किस ‘ब्राह्मणवादी’ वर्चस्व को कुचलने की बात हो रही है?

हमारे मूढ़ एक्टिविस्ट ध्यान दें – यह स्वयं उन के खात्मे की पहली सीढ़ी है। एक हिन्दू के रूप में उन का अस्तित्व दाँव पर है। ब्राह्मण का अर्थ मुख्यतः ज्ञान, सदाचार, सेवा और त्याग रहा है। यही भारत का धर्म था, जिस के वे ज्ञाता और शिक्षक थे। उन के विरुद्ध जहर घोलना बमुश्किल सवा-सौ सालों का धंधा है। यहाँ लोकतांत्रिक के साथ-साथ दुष्प्रचार राजनीति भी शुरू हुई। हल्के नेताओं ने किसी समूह को साथ लाने के लिए दूसरे को लांछित करने का धंधा शुरू कर दिया।

सचाई जानने के लिए स्वामी विवेकानन्द का प्रसिद्ध व्याख्यान ‘वेदान्त का उद्देश्य’ पढ़ें। उस में ब्राह्मणों के गौरव, इतिहास और भूमिका का उल्लेख है। विवेकानन्द ब्राह्मण नहीं थे, किन्तु महान ज्ञानी और दुनिया देखे हुए थे। उन की बातों पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। उन के प्रकाश में हिन्दू-विरोधी बुद्धिजीवियों की लफ्फाजियाँ परखनी चाहिए। वर्ण और जाति का अंतर, सिद्धांत, व्यवहार, बाहरी आक्रमणों के बाद आई विकृतियों को समझना चाहिए। स्वतंत्र भारत में चले नेहरूवादी वामपंथ के दुष्परिणाम भी।

फिर, हिन्दुओं की तुलना में आज भी शेष दुनिया की वास्तविकता भी आँख खोलकर देखनी चाहिए। जिस हिन्दू धर्म-समाज में विविध देवी-देवता, विविध अवतार, विविध गुरू-ज्ञानी, विविध रीति-रिवाज, विविध श्रद्धा प्रतीकों का सम्मान है, उसी को ‘वर्चस्ववादी’, ‘पितृसत्तात्मक’ बताया जाता है! जबकि क्रिश्चियन, इस्लामी मतवादों में खुलेआम एकाधिकार का दावा है, जिस में दूसरे मतवालों को जीने देने तक की मंजूरी नहीं। साथ ही, उन में पुरुष गॉड और पुरुष प्रोफेट हैं। सारे पोप, बिशप, ईमाम और मुल्ले, फतवे देने वाले केवल पुरुष हैं। वहाँ स्त्रियों की स्थिति हाल तक और आज भी नीच है। लेकिन उसे ‘समानता’-वादी बताया जाता है! दोनों बातें एक ही लोग और संस्थाएं प्रसारित करती हैं।

परन्तु यदि कोई पितृसत्तात्मक, वर्चस्ववादी है तो चर्च व इस्लामी संस्थाएं, जिसे आज भी पूरी दुनिया में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। पर हमारी आँखों में धूल झोंक कर हिन्दू धर्म-समाज को ही निशाना बनाया गया है। यह सब मुख्यतः हिन्दू नामों वाले मूढ़ या स्वार्थी भारतीयों के माध्यम से होता है। बाहरी शत्रु इसे बढ़ावा देते हैं, मगर यह संभव इसीलिए होता है क्योंकि हम स्वयं गफलत में हैं। तमाम दलों के नेता इस के उदाहरण हैं। अतः मिशनरियों पर रंज होने के बदले हमें अपना अज्ञान दूर करना चाहिए।

Yoga




"सन्ध्योपासना में एवं यज्ञ के उपरान्त श्रद्धा से परमात्मा के लिए नमस्कार करना अवैदिक या मूर्तिपूजा का द्योतक नहीं।"

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"यज्ञ नमश्च। यज्ञ और नमस्कार" - 

यज्ञ में या यज्ञसमाप्ति पर नमस्कार की क्रिया करनी चाहिए। यज्ञ के साथ नमस्कार क्रिया का सम्बन्ध उक्त वेदवाक्य प्रकट कर रहा है। प्रायः ऐसी विचारधारा लोगों में व्याप्त हो गई है कि यदि यज्ञ में हाथ जोड़कर नमस्कार की क्रिया की जाएगी तो वह वेदि के सामने हाथ जोड़ने की क्रिया हो जाएगी और वह भी मूर्तिपूजा की क्रिया के तुल्य हो जाएगी। यदि परमात्मा के लिए या परमात्मा के नाम पर किसी भी स्थान पर किसी भी प्रकार से हाथ जोड़ने की क्रिया की जाएगी तो उससे अन्धश्रद्धा को बल मिलेगा और वह भी मूर्तिपूजा या जड़पूजा हो जाएगी। मूर्तिपूजा या जड़पूजा के आक्षेप के भय के कारण ही 'हाथ जोड़ झुकाय मस्तक वन्दना हम कर रहे' - इस पंक्ति को यज्ञ की प्रार्थना में से निकाल फेंका है, परन्तु हमारा इस प्रकार का चिन्तन वास्तविक नहीं है, अपितु प्रतिक्रियात्मक है। प्रतिक्रियात्मक चिन्तन से कभी-कभी हम वास्तविकता से भी विमुख हो जाते हैं। 

"परमात्मा के लिए नमस्कार करना मूर्तिपूजा नहीं है" -

एक समय था हम भी ऐसे ही प्रतिक्रियात्मक विचारों से प्रभावित होकर यज्ञवेदि के सम्मुख हाथ जोड़ने आदि शब्दों के उच्चारण का प्रबल विरोध करते थे, परन्तु जब हमें महर्षि दयानन्द का लेख वेदि के सामने हाथ जोड़ने का मिला तो हमें चुप होना पड़ा और मानना पड़ा कि यज्ञवेदि के सामने हाथ जोड़ने का तात्पर्य मूर्तिपूजा से क्यों लें ? हम अपनी उपासना को दूषित या अपूर्ण इसीलिए क्यों करें कि हम हाथ जोड़ेंगे तो दूसरे फिर हमें क्या कहेंगे? हमें अपना सत्य कर्तव्य करना चाहिए। 

"महर्षि दयानन्द जी द्वारा सन्ध्या एवं यज्ञ में नमस्कार का आदेश" -

महर्षि दयानन्दजी सरस्वती ने संस्कारविधि के सन्यास प्रकरण में लिखा है  "आचमन और प्राणायाम करके हाथ जोड़ वेदि के सामने नेत्रउन्मीलन करके मन से मन्त्रों को जपे।" इन शब्दों को पढ़ने के बाद विचारना चाहिए कि महर्षि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, क्योंकि वह वेद में नहीं है, परन्तु परमात्मा के लिए नमस्कार करने का निषेध कभी नहीं करते थे, क्योंकि वेद में  'यज्ञ नमश्च' आता है। अनेक मन्त्रों में नमस्कार है। सन्ध्या के मन्त्रों में भी है और सन्ध्या के अन्त में - नमः शंभवाय च-मन्त्र है ही। इस मन्त्र के ऊपर महर्षि ने लिखा है 'तत ईश्वरं नमस्कुर्यात' - यह समर्पणविधि के पश्चात् है। भाषा में भी वे लिखते हैं कि 'इसके पीछे ईश्वर को नमस्कार करे" और इस मन्त्र के अर्थ के अन्त में वे लिखते हैं --"उसको हमारा बारम्बार नमस्कार है।" 

इसी प्रकार सन्ध्या के उपस्थानमन्त्रों के भाष्य के अन्तिम शब्द विशेष मननीय हैं जो कि निम्न हैं -

सर्वे मनुष्याः परमेश्वरमेवोपासीरन्। यस्तस्मादन्यस्योपासनां करोति स इन्द्रियारामो गर्दभवत्सर्वैशि्शष्टैविज्ञेय इति निश्चयः। कृताञ्जलिरत्यन्तश्रद्धालुर्भूत्वैतैमन्त्रैः स्तुवन् सर्वकालसिद्धत्यर्थं परमेश्वरं प्रार्थयेत् ॥ 

सब मनुष्यों को परमेश्वर की ही उपासना करनी चाहिए। जो कोई उस परमात्मा को छोड़कर अन्य की उपासना करता है वह अपने इन्द्रियसुखों में रत होने से गर्दभपशुवत् सब शिष्टजनों को जानना चाहिए। हाथ की अञ्जलियों को जोड़कर अत्यन्त श्रद्धालु होकर इन (उपस्थान) मन्त्रों से स्तुति करते हुए सर्वकाल में सिद्धि के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे। 

"वेद और महर्षियों के आदेश पर चलें" -

यहाँ कृताञ्जलि शब्द नमस्कार की मुद्रा या हस्ताञ्जलि-मुद्रा का ही वाचक है। यदि महर्षि को हाथ जोड़ने से भय होता और इसे मूर्तिपूजा का ही द्योतक मानते तो वे कभी भी उपर्युक्त स्थलों पर हाथ जोड़ने के लिए नहीं लिखते। संस्कारविधि और पञ्चमहायज्ञविधि दोनों में ही परमात्मा के लिए नमस्कार- मुद्रा का विधान है, अतः हमें अपने प्रतिक्रियावादी चिन्तन- प्रकार में परिवर्तन करना होगा और सोचना होगा कि कहीं हम कुछ विपरीत मार्ग से चिन्तन करके अपनी उपासना को ही तो विकृत एवं नष्ट नहीं कर रहे हैं ? महर्षि के उपर्युक्त वाक्यों के सम्मुख तर्क-वितर्क की आवश्यकता नहीं रहती। इन वाक्यों के देख लेने पर और कई वर्षों तक मन में आन्दोलन होते रहने पर यही निश्चय हुआ कि हमें अपने विचारों के पीछे नहीं चलना चाहिए, अपितु वेद और महर्षियों के पीछे चलना चाहिए। 

"महर्षि कात्यायन का यज्ञाग्नि के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान" -

स्वयं महर्षि दयानन्दजी वेद और महर्षियों के पीछे चलते हैं। महर्षि कात्यायन ने वामदेव्य गान के पश्चात् किस रीति से यज्ञवेदि के सामने प्रार्थना करें, इसके लिए निम्न प्रकार लिखा है - 
'स्पृष्ट्वापो वीक्ष्यमाणोऽग्निं कृताञ्जलिपुटस्ततः। 
आयुरारोग्यमैश्वर्य प्रार्थयेद् द्रविणोदसम्॥ 

यहाँ पर भी उसी यज्ञाग्नि के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान है और उसका फल - 'दीर्घायुर्ह वै भवति' - निश्चय से दीर्घायु प्राप्त होती है, यह बताया है तथा आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य की प्रार्थना करने को कहा है। यज्ञ के श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान से और उसकी किसी क्रिया का अनादर न करने से अवश्य दीर्घायु होती है। 

"महर्षि दयानन्दजी द्वारा वेदभाष्य में यज्ञ को नमस्कार का विधान" - 

यजुर्वेद के [२।२०] के भाष्य में पूर्वमन्त्र की अनुवृत्ति लेकर महर्षि लिखते हैं - 'संवेशपतयेऽग्नये तुभ्यं स्वाहा नमश्च नित्यं कुर्मः' - यह संस्कृत में लिखा है और आर्यभाषा में - "जो आप हैं उसके लिए धन्यवाद और नमस्कार करते हैं" - यह लिखा है, अतः यज्ञ में नमस्कार या यज्ञरूप प्रभु को नमस्कार करना वेदानुकूल है। यज्ञ प्रतिमा-पूजा नहीं है।

"नमस्कारक्रिया श्रद्धापूर्वक करें" -
 
क्या यह सब नमस्कारक्रिया केवल वचन से ही होगी और कर्मरहित ही रहेगी? मन, वचन, कर्म जबतक एक नहीं होंगे तबतक असत्य आचरण होगा। यज्ञ में - इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि - ऐसी प्रतिज्ञा करने के बाद भी यदि असत्य आचरण करें तो प्रतिज्ञा की हानि होगी। अत: मन, वचन, कर्म में एकरूपता लाने के लिए जहाँ सन्ध्या, यज्ञ या अन्य कर्मकाण्ड में नमस्कारक्रिया किसी भी दिशा में या यज्ञवेदि के सामने या अग्नि के सम्मुख करने का विधान हो वहाँ उस विधि को पूर्णरूप से श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। ईश्वर को छोड़कर अन्य को ईश्वर या ईश्वरतुल्य मानकर, व्यक्ति या प्रतिमा आदि के पूजन का निषेध महर्षियों ने किया है, वह नहीं करना चाहिए।

"शतपथ में यज्ञ द्वारा नमस्कार" -

शतपथ [६।१।१।१६] में यज्ञ को ही नमस्कार का रूप बताया है और यज्ञ के द्वारा ही परमात्मा को नमस्कार करना बताया है। जैसा कि - 'यज्ञो वै नमो यज्ञेनैवैनमेतन्नमस्कारेण नमस्यति' - यह लिखा है। पुनः -- 'नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो०'-- यजुर्वेद के १६वें अध्याय के ६४, ६५. ६६वें मन्त्र के बारे में शतपथ [९।१।१।३९] में लिखा है- 'यद्वेवाह दश दशेति दश वा अंजलेरंगुलयो दिशि दिश्येवैभ्य एतदञ्जलि करोति तस्मादु हेतद्भीतोऽञ्जलिं करोति तेभ्यो नमो अस्त्विति तेभ्य एव नमस्करोति' - यहाँ पर हाथ जोड़कर ही यज्ञ में दसों दिशाओं में स्थित रुद्रों को नमस्कार करना बताया है, अतः यज्ञ में नमस्कार की क्रिया असंगत कर्म नहीं है। यदि हमारा मन इसके लिए उद्यत नहीं होता है तो जो व्यक्ति सन्ध्योपासना में एवं यज्ञ के उपरान्त श्रद्धा से प्रभु को नमस्कार करना चाहे उसको अवैदिक मूर्तिपूजा या जड़पूजा में ग्रहण न करे।


Wednesday, 10 June 2020

Brahmin Pandit Freedom Fighter Pt. Ram Prasad Bismil




*रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण*

(11 जून को अमर बलिदानी रामप्रसाद जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रचारित)

🎯नशा छोङ राष्ट्र भक्त कैसे बने🌷

पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित *शाहजहांपुरा* में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम *मुरलीधर* तथा माता का नाम *मूलमती* था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( _परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का_ –आत्मचरित्र)

परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में *आर्यसमाज* के एक बड़े सन्यासी *स्वामी सोमदेव* जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, *बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।* प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक *तवारीखे हिन्द* को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा।

🎯गुरु कौन था?🌷

फाँसी से पुर्व *बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे।* उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर *जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है?* बिस्मिल जी ने कहा कि *जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा*, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि *मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द।*

🎯 *आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद*🌷

*स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे* और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते।

बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। *उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया।* क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा –

*“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”*

इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और *अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये।* इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये।

दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। *मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ* और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे *इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।*तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया।

🎯फाँसी का दिन🌷

19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच , स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और _‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’_ वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।

ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना *‘सरफ़रोशी की तमन्ना’* गाते हुए अपने बलिदान दिये।

पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे।

दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है

अमर बलिदानी रामप्रसाद बिस्मिल के ब्रह्मचर्य पर विचार

(11 जून को अमर बलिदानी रामप्रसाद जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रचारित)

#RamPrasadBismil

(रामप्रसाद बिस्मिल दवारा लिखी गई आत्मकथा से साभार)

ब्रह्मचर्य व्रत का पालन

वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं । उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें ! मध्यम श्रेणी के व्यक्‍ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फँसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते । सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्‍ट करते हैं । यदि कुछ भगवान की दया हो गई, और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मुहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है । रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं । कालिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं । कालिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्‍ट करना आरम्भ करते हैं । 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं । कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम-कथा कथायें प्रचलित न हों । ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती है । यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं । वे विचारते हैं कि थोड़ा सा जीवन का आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्‍टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे । यह उनकी बड़ी भारी भूल है । अंग्रेजी की कहावत है "Only for one and for ever." तात्पर्य यह है कि कि यदि एक समय कोई बात पैदा हुई, मानो सदा के लिए रास्ता खुल गया । दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती । अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं । सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है । विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करके अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्‍न करें । सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है । बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य-जीवन नितान्त शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है । संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं । ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो ।

जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्‍न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश न होना चाहिए । मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है । मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं । क्रिया के बार-बार होने से उसमें ऐच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है । इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं की, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं । मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है । अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, बान है । अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं । यदि हमारे मन में निरन्तर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचारों में लिप्‍त रहे, तो निश्‍चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे । मन इच्छाओं का केन्द्र है । उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्‍न करना पड़ता है । अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार, अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है । दूसरे, जैसी परिस्थियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं । तीसरे, प्रयत्‍न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्‍ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है । हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है । यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुखमय प्रतीत होता । लिखने का अभ्यास, वस्‍त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । यदि हमें प्रारम्भिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो । इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्‍ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्‍य मीलों तक चला जाता है । बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं । जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं ।

मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बलपूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी । प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्‍चित करे । खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे । महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन संबन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे । प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्‍ट न करे । खाली समय अकेला न बैठे । जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जलपान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे । अश्‍लील (इश्कभरी) गजलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुने । स्‍त्रियों के दर्शन से बचता रहे । माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिले । सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डाले।

विद्यार्थी प्रातःकाल सूर्य उदय होने से एक घण्टा पहले शैया त्यागकर शौचादि से निवृत हो व्यायाम करे या वायु-सेवनार्थ बाहर मैदान में जावे । सूर्य उदय होने के पाँच-दस मिनट पूर्व स्नान से निवृत होकर यथा-विश्‍वास परमात्मा का ध्यान करे । सदैव कुऐं के ताजे जल से स्नान करे । यदि कुऐं का जल प्राप्‍त हो तो जाड़ों में जल को थोड़ा-सा गुनगुना कर लें और गर्मियों में शीतल जल से स्नान करे । स्नान करने के पश्‍चात् एक खुरखुरे तौलिये या अंगोछे से शरीर खूब मले । उपासना के पश्‍चात् थोड़ा सा जलपान करे । कोई फल, शुष्क मेवा, दुग्ध अथवा सबसे उत्तम यह है कि गेहूँ का दलिया रंधवाकर यथारुचि मीठा या नमक डालकर खावे । फिर अध्ययन करे और दस बजे से ग्यारह बजे के मध्य में भोजन ले । भोज में मांस, मछली, चरपरे, खट्टे गरिष्‍ट, बासी तथा उत्तेजक पदार्थों का त्याग करे । प्याज, लहसुन, लाल मिर्च, आम की खटाई और अधिक मसालेदार भोजन कभी न खावे । सात्विक भोजन करे । शुष्‍क भोजन का भी त्याग करे । जहाँ तक हो सके सब्जी अर्थात् साग अधिक खावे । भोजन खूब चबा-चबा कर किया करे । अधिक गरम या अधिक ठंडा भोजन भी वर्जित है । स्कूल अथवा कालिज से आकर थोड़ा-सा आराम करके एक घण्टा लिखने का काम करके खेलने के लिए जावे । मैदान में थोड़ा घूमे भी । घूमने के लिए चौक बाजार की गन्दी हवा में जाना ठीक नहीं । स्वच्छ वायु का सेवन करें । संध्या समय भी शौच अवश्य जावे । थोड़ा सा ध्यान करके हल्का सा भोजन कर लें । यदि हो सके तो रात्रि के समय केवल दुग्ध पीने का अभ्यास डाल लें या फल खा लिया करें । स्वप्नदोषादि व्याधियां केवल पेट के भारी होने से ही होती हैं । जिस दिन भोजन भली भांति नहीं पचता, उसी दिन विकार हो जाता है या मानसिक भावनाओं की अशुद्धता से निद्रा ठीक न आकर स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाता है । रात्रि के समय साढ़े दस बजे तक पठन-पाठन करे, पुनः सो जावे । सदैव खुली हवा में सोना चाहिये । बहुत मुलायम और चिकने बिस्तर पर न सोवे । जहाँ तक हो सके, लकड़ी के तख्त पर कम्बल या गाढ़े कपड़े की चद्दर बिछाकर सोवे । अधिक पाठ न करना हो तो 9 या 10 बजे सो जावे । प्रातःकाल 3 या 4 बजे उठकर कुल्ला करके शीतल जलपान करे और शौच से निवृत हो पठन-पाठन करें । सूर्योदय के निकट फिर नित्य की भांति व्यायाम या भ्रमण करें । सब व्यायामों में दण्ड-बैठक सर्वोत्तम है । जहाँ जी चाहा, व्यायाम कर लिया । यदि हो सके तो प्रोफेसर राममूर्ति की विधि से दण्ड-बैठक करें । प्रोफेसर साहब की विधि विद्यार्थियों के लिए लाभदायक है । थोड़े समय में ही पर्याप्‍त परिश्रम हो जाता है । दण्ड-बैठक के अलावा शीर्षासन और पद्‍मासन का भी अभ्यास करना चाहिए और अपने कमरे में वीरों और महात्माओं के चित्र रखने चाहियें ।

#नमन_रामप्रसादबिस्मिल



Sunday, 7 June 2020

आट्टा साट्टा शादी / अदला बदली शादी / अट्टा सट्टा शादी / अड्डा सड्डा शादी / जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो ( शादी का बेहतरीन तरिका अट्टा-सट्टा )














आट्टे साट्टे शादी रिश्ते - यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो 

हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश यानि उतर भारत में इस तरह की शादी किसान परिवारो, आदिवासी परिवारो, कबिलाई जातियों और धर्मों, गांव - देहातों, कबिलों मे रहने वाले समूहों, पशुपालन और खेती - बाड़ी करने वाले परिवार आदि मे आट्टा साट्टा शादी बहुत पहले से ही होती आ रही है...


इस तरह की शादी करने से दहेज प्रथा और लडकियों की भुर्ण हत्या में कमी आना लाजमी है क्योकि यदि कोई परिवार लडकी पैदा नही करेगा तो उसके लडके की भी शादी नही होगी... इस तरह की शादी मे ना दहेज देना पडता है ना दहेज लेना पडता है.... कोई किसी पर रोब नही जमा सकता...


इस तरह की शादी को  बाल विवाह से जोडकर देखा जाता है जोकि सरासर गलत है क्योकि बाल विवाह जिसको करना है वो तो समान्य विवाह अनुसार भी करवा सकता है और करवा रहे है... बाल विवाह एक अलग कुप्रथा है जिसका अट्टा सट्टा से कोई सम्बन्ध नही है... 


कुछ लोग जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी या जिन लोगो का काम धंधा ही जाति धर्म की ठेकेदारी करके रुपये कमाना है, जो नही चाहते कि लोग दहेज प्रथा को छोडे या अंधविश्वास को त्यागे वे लोग इस तरह की शादी का विरोध करते है और जैसा कि उनका काम धंधा है झुठ बोलकर लोगो को जाति धर्म के नाम पर गुमराह करने का वे कोई भी समाजिक जागर्ति हो ऐसा होने देना नही चाहते 



जिन लोगो की मानसिकता पुरुष प्रधान देश बनाने और औरतो को केवल घर संभालने और बच्चे पैदा करने की मशीन समझने की है वे कोई भी समाजिक बदलाव नही करने देना चाहते उसके लिए वे कोई भी झुठ बोल सकते है...कोई भी षडयन्त्र रच सकते है...


गांव - देहात, पशुपालक - किसान जातियों को कुछ व्यापारी जाति और जाति - धर्म के ठेकेदार और कुछ शहरी वर्ग के लोग अपने आप को सर्वे सर्वा मानते है और ग्रामिणों को अनपढ और गवार बताकर उनके हर फैसले का विरोध करते है... 


अट्टा सट्टा शादी मुख्यतौर पर ग्रामिणों और किसान - पशुपालक परिवारों द्वारा सदियों से की और करवाई जा रही है जोकि काफी सफल भी रही है...


मुख्यतौर पर उत्तर भारत के ग्रामिण इलाको मे गौत्रो को देखा जाता है स्वयं का, मां का, दादी का आदि अब कई जगह दादी का गौत्र नही देखते.. पहले 5 गौत्र देखे जाते थे अब दो ही मुख्यत देखे जाते है कि वे आपस मे दोनो परिवारो के ना मिलते हो... जोकि अट्टा सट्टा शादी मे नही मिलते....



आट्टा साट्टा शादी के कोई भी नुकसान नही है और ना ही किसी भी धर्म - जाति या लडकी आदि का अपमान इस तरह की शादी मे होता है... यह सैकडो सालो से हो रही शादी है जिसे अब पढे लिखे समझदार युवा चाहे गांव से हो या शहर से सब पसंद करने लगे है...


छोटी छोटी बच्चियों को पैदा करके कचरे मे फैक दिया जाता है या बच्चियों की भुर्ण हत्या कर दी जाति हैै आज भी दहेज हत्या हो जाती है इस सभी बुराइयों का समाधान अट्टा सट्टा शादी ही है यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो..... ना कुछ देना ना कुछ लेना... लडके का भी अदला बदला करना और लडकी का भी अदला बदला करना..... कोई किसी पर बेवजह दबाव नही बना सकेगा.... जो लडकी पैदा करेगा वो ही बहु लेगा.....


लडकी पैदा होने का मतलब जाति - धर्म के ठेकेदारो ने दान देना सारी उमर बना दिया है जिस वजह से अधिकांश लोग लडकी पैदा नही करना चाहते....







Friday, 5 June 2020

Mulniwashi kon ? Dalit Muslim Brahmin Jat Rajput Gurjar Yadav Jatav Pathan Meena etc ?



मूल निवासी कौन ?

कई दिनों से देख रहा हूँ कुछ अम्बेडकरवादी लोग आर्यों को विदेशी कह रहे है। ये कहते हैं कि कुछ साल पहले ( 1500 BC लगभग ) आर्य बाहर से ( इरान/ यूरेशिया या मध्य एशिया के किसी स्थान से) आए और यहाँ के मूल निवासियों को हरा कर गुलाम बना लिया. तर्क के नाम पर ये फ़तवा देते हैं कि ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य आदि सभी विदेशी है. क्या आर्य विदेशी है?

बाबा भीमराव अम्बेडकर जी के ही विचार रखूंगा जिससे ये सिद्ध होगा की आर्य स्वदेशी है।

1) डॉक्टर अम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस खंड 7 पृष्ट में अम्बेडकर जी ने लिखा है कि आर्यो का मूलस्थान(भारत से बाहर) का सिद्धांत वैदिक साहित्य से मेल नही खाता। वेदों में गंगा,यमुना,सरस्वती, के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदी के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नही कर सकता।

2) डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन"? Who were shudras? में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखको की आर्यो के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यताओ का खंडन किया है। डॉ अम्बेडकर लिखते है--

1) वेदो में आर्य जाती के सम्बन्ध में कोई जानकारी नही है।

2) वेदो में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नही है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यो ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूलनिवासियो दासो दस्युओं को विजय किया।

3) आर्य,दास और दस्यु जातियो के अलगाव को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य वेदो में उपलब्ध नही है।

4)वेदो में इस मत की पुष्टि नही की गयी कि आर्य,दास और दस्युओं से भिन्न रंग के थे।

5)डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से शुद्रो को भी आर्य कहा है(शुद्र कौन? पृष्ट संख्या 80)

अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातो को माने।

वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियो की हिंसा करने से कोई आर्य नही कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व् धर्मात्मा कहलाता है।

यहाँ हम धम्मपद के उपरोक्त बुध्वचन का Maha Bodhi Society, Bangalore द्वारा प्रमाणित अनुवाद देना आवश्यक व् उपयोगी समझते है।.
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विदेशी यात्रिओं के प्रमाण -
अम्बेडकरवादी सभी संस्कृत ग्रंथों को गप्प कहते हैं इसलिए कुछ विदेशी यात्रिओं के प्रमाण विचारणीय हैं...
1- मेगस्थनीज 350 ईसापूर्व - 290 ईसा पूर्व) यूनान का एक राजदूत था जो चन्द्रगुप्त के दरबार में आया था। वह कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने जो कुछ भारत में देखा, उसका वर्णन उसने "इंडिका" नामक पुस्तक में किया है। उसमे साफ़ साफ़ लिखा है कि भारतीय मानते हैं कि ये सदा से ही इस देश के मूलनिवासी हैं.
2- चीनी यात्री फाह्यान और ह्यून्सांग- इन दोनों ने एक शब्द भी नहीं लिखा जो आर्यों को विदिशी या आक्रान्ता बताता हो. ये दोनों बौद्ध थे.
3- इतिहास के पितामह हेरोड़ेट्स - इन्होने भी अपने लेखन में भारत का कुछ विवरण दिया है.परन्तु इन्होने भी एक पंक्ति नहीं लिखी भारत में आर्य आक्रमण पर.
4- अलबेरूनी - यह मूलतः मध्य पूर्व ( इरान+अफगानिस्तान) से महमूद गजनवी के साथ आया. लम्बे समय तक भारत आया. भारत के सम्बन्ध में कई पुस्तकें लिखी. परन्तु एक शब्द भी नहीं लिखा आर्यों के बाहरी होने के बारें में.
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वेद क्या कहता है शूद्र से सम्बन्ध के बारे में

1- हे ईश्वर - मुझको परोपकारी विद्वान ब्राह्मणो मे प्रिय करो, मुझको शासक वर्ग मे प्रिय करो, शूद्र और वैश्य मे प्रिय करो, सब देखनों वालों मे प्रिय करो । अथर्व वेद 19/62/1
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2- हे ईश्वर - हमारे ब्राह्मणों मे कान्ति, तेज, ओज, सामर्थ्य भर दो, हमारे शासक वर्ग (क्षत्रियों) मे तेज, ओज, कान्ति युक्त कर दो, वैश्यो तथा शूद्रों को कान्ति तेज ओज सामर्थ्य युक्त कर दो। मेरे भीतर भी विशेष कान्ति, तेज, ओज भर दो। यजुर्वेद 18/48


Thursday, 4 June 2020

Seven stars logic ( सप्तर्षि )



*हर मनवंतर काल में रहे हैंअलग-अलग सप्तर्षि!!!!*

*जानिए कौन किस काल में हुए सप्तर्षि*

आकाश में 7 तारों का एक मंडल नजर आता है। 
उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सप्तर्षि से उन 7 तारों का बोध होता है, जो ध्रुव तारे.की परिक्रमा करते हैं। 

उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान 7 संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। ऋषियों की संख्या सात ही क्यों? ।।

प्रत्येक मन्वन्तर में 7 भिन्न कोटि के सप्तऋषि होते हैं 
''सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:, कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:''

अर्थात : 1.
ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5.
काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं इसलिए इन्हें सप्तर्षि कहते हैं।

भारतीय ऋषियों और मुनियों ने ही इस धरती पर धर्म, समाज, नगर, ज्ञान, विज्ञान, खगोल, ज्योतिष, वास्तु, योग
आदि ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। 

दुनिया के सभी धर्म और विज्ञान के हर क्षेत्र को भारतीय ऋषियों का ऋणी होना चाहिए।  

उनके योगदान को याद किया जाना चाहिए। उन्होंने मानव मात्र के लिए ही नहीं अपितु पशु-पक्षी, समुद्र, नदी, पहाड़ और वृक्षों सभी के बारे में सोचा और सभी के सुरक्षित जीवन के लिए कार्य किया। 

आओ, संक्षिप्त में जानते हैं
कि किस काल में कौन से ऋषि थे। भारत में ऋषियों और गुरु-शिष्य की लंबी परंपरा रही है। ब्रह्मा के पुत्र भी ऋषि थे तो भगवान शिव के शिष्यगण भी ऋषि ही थे।

प्रथम मनु स्वायंभुव मनु से लेकर बौद्धकाल तक ऋषि परंपरा के बारे में जानकारी मिलती है। 

हिन्दू पुराणों ने काल को मन्वंतरों में विभाजित कर प्रत्येक मन्वंतर में हुए ऋषियों के ज्ञान और उनके योगदान को परिभाषित किया है। 



प्रत्येक मन्वंतर में प्रमुख रूप से 7 प्रमुख ऋषि हुए हैं। विष्णु पुराण के अनुसारइनकी नामावली इस प्रकार है-

 1. प्रथम स्वयंभुव
मन्वंतर में- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ। 

2. द्वितीय स्वारोचिष मन्वंतर में-
ऊर्ज्ज,स्तम्भ, वात, प्राण, पृषभ, निरय और परीवान।

 3. तृतीय उत्तम मन्वंतर में- महर्षि वशिष्ठ के सातों पुत्र।

 4. चतुर्थ तामस मन्वंतर में- 
ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर।

 5. पंचम रैवत मन्वंतर में-
हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहु, वेदबाहु, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि।

 6. षष्ठ चाक्षुष मन्वंतर में- सुमेधा,विरजा, हविष्मान, उतम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु।

 7. वर्तमान सप्तम वैवस्वत मन्वंतर में- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।

भविष्य में – 1. अष्टम सावर्णिक मन्वंतर में- गालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृप, ऋष्यश्रृंग और
व्यास। 

2. नवम दक्षसावर्णि मन्वंतर में- मेधातिथि, वसु, सत्य, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, सबन और भव्य।

 3. दशम ब्रह्मसावर्णि मन्वंतर में- तपोमूर्ति, हविष्मान, सुकृत,सत्य, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु।

 4. एकादश धर्मसावर्णि मन्वंतर में- वपुष्मान्, घृणि, आरुणि,नि:स्वर, हविष्मान्, अनघ और अग्नितेजा।

 5. द्वादश रुद्रसावर्णि मन्वंतर में- तपोद्युति, तपस्वी, सुतपा,तपोमूर्ति, तपोनिधि, तपोरति और तपोधृति।

 6.त्रयोदश देवसावर्णि मन्वंतर में- धृतिमान, अव्यय, तत्वदर्शी, निरुत्सुक, निर्मोह, सुतपा और निष्प्रकम्प।

7. चतुर्दश इन्द्रसावर्णि मन्वंतर में- अग्नीध्र, अग्नि, बाहु, शुचि, युक्त, मागध, शुक्र और अजित। 

इन ऋषियों में से कुछ कल्पान्त-चिरंजीवी, मुक्तात्मा और दिव्यदेहधारी हैं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ रचना काल के अनुसार 

1. गौतम,2. भारद्वाज, 3. विश्वामित्र, 4. जमदग्नि, 5. वसिष्ठ,6. कश्यप और 7. अत्रि।

 ‘महाभारत’ काल के अनुसार 1. मरीचि, 2 . अत्रि, 3. अंगिरा, 4. पुलह, 5. क्रतु, 6.
पुलस्त्य और 7. वसिष्ठ सप्तर्षि माने गए हैं।

 *महाभारत* में राजधर्म और धर्म के प्राचीन आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र,
सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज और गौरशिरस मुनि।

 *कौटिल्य के अर्थशास्त्र* रचना काल में
इनकी सूची इस प्रकार है- मनु, बृहस्पति, उशनस (शुक्र), भरद्वाज, विशालाक्ष (शिव), पराशर, पिशुन, कौणपदंत,
वातव्याधि और बहुदंती पुत्र।

 *वैवस्वत मन्वंतर* में वशिष्ठ ऋषि हुए। उस मन्वंतर में उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि मिली। वशिष्ठजी ने गृहस्थाश्रम की पालना करते हुए ब्रह्माजी के मार्गदर्शन में उन्होंने सृष्टि वर्धन, रक्षा, यज्ञ आदि से संसार को दिशाबोध दिया।

Wednesday, 3 June 2020

Manusmriti


मनुष्य ने जब समाज व राष्ट्र के अस्तित्व तथा महत्त्व को मान्यता दी, तब उसके कर्तव्यों और अधिकारों की व्याख्या निर्धारित करने तथा नियमों के अतिक्रमण करने पर दंड-व्यवस्था करने की भी आवश्यकता उत्पन्न हुई। यही कारण है कि विभिन्न युगों में विभिन्न स्मृतियों की रचना हुई, जिनमें मनुस्मृति को विशेष महत्त्व प्राप्त है। मनुस्मृति में बारह अध्याय तथा दो हजार पाँच सौ श्लोक हैं, जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य और नैमित्तिक कर्म, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, राजधर्म, प्रायश्चित्त आदि अनेक विषयों का उल्लेख है। ब्रिटिश शासकों ने भी मनुस्मृति को ही आधार बनाकर ‘इंडियन पीनल कोड’ बनाया तथा स्वतंत्र भारत की विधानसभा ने भी संविधान बनाते समय इसी स्मृति को प्रमुख आधार माना। व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास तथा सामाजिक व्यवस्था को सुनिश्चित रूप देने तथा व्यक्ति की लौकिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण का पथ प्रशस्त करने में मनुस्मृति शाश्वत महत्त्व का एक परम उपयोगी शास्त्र ग्रंथ है।.


मनुस्मृति और नारी जाति


भारतीय समाज में एक नया प्रचलन देखने को मिल रहा है। इस प्रचलन को बढ़ावा देने वाले सोशल मीडिया में अपने आपको बहुत बड़े बुद्धिजीवी के रूप में दर्शाते है। सत्य यह है कि वे होते है कॉपी पेस्टिया शूरवीर। अब एक ऐसी ही शूरवीर ने कल लिख दिया मनु ने नारी जाति का अपमान किया है। मनुस्मृति में नारी के विषय में बहुत सारी अनर्गल बातें लिखी है। मैंने पूछा आपने कभी मनुस्मृति पुस्तक रूप में देखी है। वह इस प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर एक नया कॉपी पेस्ट उठा लाया। उसने लिखा-

"ढोल, गंवार , शूद्र ,पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी।"

मेरी जोर के हंसी निकल गई। मुझे मालूम था कॉपी पेस्टिया शूरवीर ने कभी मनुस्मृति को देखा तक नहीं है। मैंने उससे पूछा अच्छा यह बताओ। मनुस्मृति कौनसी भाषा में है? वह बोला ब्राह्मणों की मृत भाषा संस्कृत। मैंने पूछा अच्छा अब यह बताओ कि यह जो आपने लिखा यह किस भाषा में है। वह फिर चुप हो गया। फिर मैंने लिखा यह तुलसीदास की चौपाई है। जो संस्कृत भाषा में नहीं अपितु अवधी भाषा में है। इसका मनुस्मृति से कोई सम्बन्ध नहीं है। मगर कॉपी पेस्टिया शूरवीर मानने को तैयार नहीं था। फिर मैंने मनुस्मृति में नारी जाति के सम्बन्ध में जो प्रमाण दिए गए है, उन्हें लिखा। पाठकों के लिए वही प्रमाण लिख रहा हूँ। आपको भी कोई कॉपी पेस्टिया शूरवीर मिले तो उसका आप ज्ञान वर्धन अवश्य करना।

मनुस्मृति में नारी जाति

यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः। मनुस्मृति 3/56

अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं।

पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55

जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57

जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62

पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96

ऐश्वर्य की कामना करने हारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। मनुस्मृति

पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है।

पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार मनु ने माना है। मनु के अनुसार पुत्री भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में भागी है। यह प्रकरण मनुस्मृति के 9/130 9/192 में वर्णित है।

आज समाज में बलात्कार, छेड़खानी आदि घटनाएं बहुत बढ़ गई है। मनु नारियों के प्रति किये अपराधों जैसे हत्या, अपहरण , बलात्कार आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड एवं देश निकाला आदि का प्रावधान करते है। सन्दर्भ मनुस्मृति 8/323,9/232,8/342

नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये है।

पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4

मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है -सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य।

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।



Tuesday, 2 June 2020

Dowry System , Girl Child Murder and Abusing , Murder of Bride , Fetal Death or Infant Death of Girl kid ... How can we stop those Ediction?





समाज मे लडकी आमतौर पर अधिकांश लोग पैदा  नही करना चाहते हां लडकी पैदा हो ऐसा दिखावा जरुर करते है... इसी वजह से सरकार की रोक के बावजूद भी लडकी भुर्ण हत्या हो रही है.. ये लडकी पैदा अपने घर नही होने देते ताकि दुसरो की बहन बेटियों के चरित्र पर कुछ भी टिप्पणी करने का अधिकार इनको मिल जाए ...


गरीब या बेरोजगार या कम रोजगार वाले लडके के घर मे शादी करने का ये बिलकूल मतलब नही है कि उस घर मे दहेज हत्या या घरेलू उत्पीडन नही होगा... 


आजकल अधिकांश लोगो को अपने घर की औरते/ लडकी सब देवी और दुसरो के घर की औरते/लडकी सब रंडी नजर आती है...दुसरो की बहन बेटियो को चरित्र प्रमाण पत्र तुरंत लोग दे देते है खासकर वे जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी ....आजकल ये भी देखा जा रहा है  कि जिनको पहली ही संतान लडका हो जाती है तो वे दुसरा बच्चा ही नही बनाते और उनकी तरफ से तर्क दिया जाता है महंगाई का.... जबकि काफी  समर्ध परिवार भी ऐसा कर रहे है कही ना कही दुसरी संतान लडकी ना हो जाए इस वजह से वे दुसरा बच्चा अधिकांशत नही बनाते ....


कोई दहेज कहकर नही मांगता क्योकि लडकियों की वैसे ही संख्या कम है परन्तु शादी होते समय और बाद मे मारपीट या हत्या तक दहेज के लिए कर दी जाती हैै... और लडकी के चरित्र को खराब बता दिया जाता है..


आजकल जहां लडकी वाले दबंग है वे भी कई बार उनकी लडकी को परेशानी होते ही उसके ससुराल वालो की मां बहन एक कर देते है....


दहेज, भात, पीलिया, सीधा कोथली, त्यौहारो आदि के नाम पर मान सम्मान के रुप मे लडकी वालो से रुपये लिये जाते है... लडकी पैदा होने का मतलब दान देना पुरी उमर समझा जाता है...


लडकी की मारपीट को जब उसे माइके वाले समाज मे इज्जत के खातिर नजरअन्दाज कर देते है तो बात हत्या तक पहुच जाती है... क्योकि यदि कोई मां बाप लडकी को पडताडित होने पर उसे अपने घर रख ले या घरेलू हिंसा का केस कर दे तो लडकी वालो को बोला जाता है कि ये तो लडकी का धंधा कर रहे है..... 


इन सारी समस्याओं का एक समाधान है अन्टा सन्टा शादी यानि जिस घर लडकी दो उसी घर से लडकी लो... इस तरह की शादी मे गोत्र भी नही मिलते जोकि आमतौर पर देखा जाता है.. ना कुछ देना ना लेना... ना किसी पर कोई दबाव... लोग लडकी भी पैदा करेंगे क्योकि नही तो उनके लडके की भी शादी नही होगी...


जिन्होने अपने घर लडकी पैदा ही नही होने दी या जिनका काम-धंधा ही दहेज या रुढिवादी कुप्रथाओ आदि से चल रहा है वे तो इस शादी का विरोध करेंगे ही....


वैसे ये अदला बदली शादी काफी हो रही है और कामयाब भी है.....





Brahmin Pandit Kings ( Bhumihar / Tyagi Brahmins )





14वीं व 15वीं शताब्दी में यूपी के पूर्वांचल से जाकर बंगाल भूमि में अपनी रियासत स्थापित करने वाले सभी #कश्यप_गोत्रिय_राय_सरनेम वाली बहुचर्चित राजाओं को क्यूँ भूल जाता आज का हाईटेक भू समाज ..? 

■ #राजा_योगेन्द्र_नारायण_राय - लालगोला के बहुचर्चित राजा जिनके महल में "आनंदमठ" व राष्ट्रीय गीत "बन्देमातरम्" की रचना हुई ... देशभक्तों के आश्रयदाता 

■ #राजा_बीरेंद्र_नारायण_राय - लालगोला के राजा सह दिग्गज वामपंथी नेता , मुर्शिदाबाद ज़िले के #नाबाग्राम_विधानसभा क्षेत्र से वामदल/निर्दलीय 8 बार विधायक 

■ #राजा_भैरवेंद्र_नारायण_राय  - सिंहाबाद रियासत के राजा जिन्होंने बंगाल में कला संस्कृति व संगीत के क्षेत्र में नयी आधारशिला रखी ..

■ #राजा_रमाकांत_राय - नटौरा स्टेट के राजा जिन्होंने नटौरा को नया भौगोलिक आधार दिया ... इनकी पत्नी #रानी_भवानी बड़ी वीरांगना थी ... काशी नरेश से बेहद मधुर रिश्ते थे .. इनकी व इनकी पुत्री #तारा_सुंदरी के जीवन के आख़री दौर काशी नरेश के यंहा ही गुजरे ... बंगाल के सूबेदार सिराजोदौला द्वारा तारा सुंदरी को विवाह प्रस्ताव के बाद रानी भवानी गंगा जलमार्ग से ही बंगाल से काशी पहुँच गयी थी ... 

इन सबों के वंशजों ने बंगाली संस्कृति को adopt कर लिया है ... परन्तु इनके पुरखों का अपने परिवार व क्षेत्र गाजीपुर बनारस से गहरा जुराव हुआ करता था ... पूर्वांचल से लोग रियासत में 20वीं सदी तक कई पीढी से बड़ी जिम्मेदारी सँभालते मिले 😊 

अलग थलग पड़े #भू_समाज के इन हस्तियों को शत शत नमन 


#बंग_भूमि 

जैसा की सर्वज्ञात है गाजीपुर ज़िले के #कश्यप_किनवारों ने मुर्शिदाबाद में लालगोला और मालदा में सिंहाबाद रियासत की नींव रखी ..😊 

उसी तरह पश्चिम से आये एक एक अन्य ब्रह्मर्षि #कामदेव_भट्ट ने  15वीं शताब्दी में बंगाल के #नदीया_ज़िले में 
#ताहिरपुर_स्टेट की नींव रखी ... 

फिर #नदिया_और_नटौरा ज़िले में मुगल काल में इसी शाखा से .. 
#नटौरा_स्टेट 
#पोठिया_स्टेट
#नदिया_स्टेट की नींव रखी गयी .... 

पोठिया राज से उभरकर #राज_नटौरा ने एक समय में बेहद ख्याति  अर्जित की ... 
चूँकि कामदेव भट्ट #कश्यप_गोत्रिय_ब्रह्मर्षि थे इस लिए ताहिरपुर से उद्गमित रियासत "कश्यप" ही हुए ... 
 
नटौरा के #राजा_रमाकांत_राय की पत्नी #रानी_भवानी बहुचर्चित हुई ... 
काशी नरेश से रानी भवानी की जातिय रिश्ता होने की वजह से सम्बन्ध बेहद मधुर थे ... रानी भवानी ने काशी में दुर्गामन्दिर , धर्मशाला सहित कई गाँव दान में दिया था ... 

एक बार जब  बंगाल सूबेदार सिराजौदुल्ला रानी भवानी की पुत्री #तारा_सुंदरी से विवाह करना चाहता था और जबरदस्ती नटौरा को घेरे हुए था ... 
रानी भवानी जलमार्ग से ही बंगाल से काशी पहुँच गयी .... गंगा के राश्ते रानी के पहुँचने से पूर्व ही तारा सुंदरी ने #जल_समाधी ले ली थी ...

#काशी_और_नटौरा में अटूट रिश्ता था ... 
आजकल नटौरा महल बांग्लादेश का हिस्सा है .... इनके वंशजों ने पूर्ण बंगाली कल्चर adopt कर लिया है ... 
आज भी ये लोग बंगाल में कुलीन भूमिहार ब्राह्मण खुद को मानते हैं


 

मिथिला क्षेत्र के बहुचर्चित ओइनवार वंश में प्रतापी राजा शिवा सिंह हुए ... ओइनवार कश्यप गोत्रिय ब्राह्मण थे ...

#ओइनवारों_के_भूमिहार_ब्राह्मण_समाज_में_वंश 

■ #बरुआर - बरुआर कश्यप गोत्रिय भूमिहार ब्राह्मण होते हैं .. ओइनवार वंश की राजा भैरव सिंह ने 1480 ई में अपनी राजधानी बछौर परगने के "बरुआर गाँव" में बनायी थी ... राजा भैरव सिंह के पीढी से बरुआर डीह से आने वाले कश्यप गोत्रिय बरुआर भूमिहार कहलाये ■ 

ओइनवारों के वंशज के रूप में कश्यप गोत्रिय #बेतिया_राज को कई इतिहासकारों ने अपने मत के रूप में रखे हैं ... 

बेतिया राज की उतपत्ति के किस्से अब भी विवादित हैं ... कई मत हैं इनके प्रति ... 

■ बेतिया राज के संस्थापक मोहयाल शाखा के वैद क्लेन से आते थे जो कि विकिपीडिया भी दर्शा रहा .. 
मैं इसका खण्डन करता हूँ ... वैद क्लेन के गोत्र धन्वन्तरी होते हैं कश्यप नही ... बेतिया राज कश्यप थे .. 
भूमिहार शाखा में मोहयाल के बालि क्लेन से पराशर गोत्रिय #इकशरिया_भूमिहार ही सिर्फ हैं ... ■ 

■ एक किवदन्ती ये है कि "गोरख राय" पृथ्वीराज चौहान के सेनापति थे ... जो कि निराधार है 

■ सबसे महत्वपूर्ण मत जिसे कई इतिहासकारों ने सरहाया है ... वो है "ओइनवार वंश का विघटन व बेतिया (सुगौना) वंश का उदय .. कई शोधकर्ता मानते हैं .. ओइनवारों को चम्पारण क्षेत्र से बेहद लगाव हुआ करता था ...वँहा मजबूत सरदार की आवश्यकता होती थी ...चम्पारण क्षेत्र में ओइनवार अपने ही पीढी से लड़ाकू योद्धा को अपना सरदार नियक्त करते थे ... जिसमे "राजा पृथ्वी नारायण सिंहः देव" चम्पारण के बहुचर्चित सरदार थे (1436) ... वो भी ओइनवार के कश्यप कूल से थे ... 
ओइनवार कूल का विघटन होने के बाद इनकी पीढी ने अपना राज चम्पारण के हिस्से में कायम किया .... 
कलांतर में मुगल बादशाह अकबर को अफगानों के खिलाफ मदद की एवज में इनके पीढी के #उग्रसेन को राजा की उपाधि मुगलों द्वारा मिली ... उसके बाद उनके पुत्र गज सिंह बेतिया स्टेट के राजा हुए ...😊😊 

हालांकि कश्यप गोत्रिय ओइनवार और कश्यप गोत्रिय बेतिया राज के जुड़े इतिहास को लेकर मतभेद तो होना लाजमी है ... लेकिन ये मत सबसे पुख्ता प्रमाणिक भी सिद्ध होते हैं ... 
जुझौतिया (कश्यप) को लेकर भी यही मत है ... 



#च्यार_भूमिहार 

जब च्यार भूमिहारों के आदि पुरुष #महर्षि_च्यवन ने क्षत्रिय राजपुत्री सुकन्या से विवाह कर भृगु वंशी #चैयार_भूमिहार_वंश की नींव रखी ..😊 
#चयव्न्_प्रास औषधि की खोज इन्होंने ही की थी 

औरंगाबाद ज़िले के रफीगंज में #लट्टागढ़_स्टेट इन्ही च्यारों का था .... आज जे तारीख में ये ग्राम बेहद प्रभावशाली है ... यंहा च्यवन ऋषि का आश्रम है ..😊 

#लट्टागढ़_की_कथा 
 #ब्रह्मर्षि_च्यवन_आश्रम 
जहां आकर लोगों को एक सुकून और शांति मिलती है। जिला औरंगाबाद जिला मुख्यालय से 42 किमी दूर बसा है गांव लत्ता। इसी गांव मे वधूसरा नदी के किनारे अवस्थित है—महर्षि च्यवन आश्रम। इस आश्रम को महर्षि च्यवन की तपोस्थली माना जाता है। लोगों की मान्यता है कि इसी आश्रम में महर्षि च्यवन ने कुछ दिव्य जड़ी-बूटियों की खोजकर कायाकल्प की एक दवा तैयार की थी। इस दवा को आज च्यवनप्राश के रूप में जाना जाता है। यानी च्यवनप्राश का आविष्कार इसी च्यवन आश्रम में हुआ था। आश्रम में पर्व त्यौहार के मौके पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दराज से श्रद्धालु भाग लेते हैं। च्यवन ऋषि के आश्रम के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है, जिसका जिक्र कई धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। इस कथा के अनुसार महर्षि च्यवन ने लट्टा मे वधूसरा नदी के निकट अपना तपोस्थली बनाया था। इस के किनारे पर बैठकर वे गहन तपस्या में लीन हो गए। लगातार तप में लीन होने के कारण उनके शरीर पर मिट्टी का आवरण जमा हो गया था। एक दिन महान सूर्यवंशी राजा शर्याति अपने परिवार सहित नदी के किनारे पर भ्रमण के लिए आये। उनकी युवा पुत्री राजकुमारी सुकन्या भी उनके साथ थी। सुकन्या खेलते-खेलते उस स्थान पर आ गयी, जहां महर्षि च्यवन तपस्यारत थे। तपस्या की मुद्रा में बैठे च्यवन ऋषि की मिट्टी से ढकी आकृति में सरकंडे घुसा दिए। ये सरकंडे महर्षि च्यवन की आंखों में घुस गए। मिट्टी की आकृति से खून बहता देखकर राजकुमारी डर गयी और उसने अपने पिता राजा शर्याति को वहां बुलाया। जब शर्याति ने मिट्टी को वहां से हटाकर देखा तो उन्हें वहां महर्षि च्यवन बैठे दिखाई दिये, जिनकी आंखें राजकुमारी सुकन्या ने अज्ञानवश फोड़ दी थी। सच्चाई जानकर सुकन्या आत्मग्लानि से भर गयी। सुकन्या ने वहीं आश्रम में रहकर च्यवन ऋषि की पत्नी बनकर उनकी सेवा कर पश्चाताप करने का निर्णय लिया। बताया जाता है कि बाद में देवताओं के वैद्य आश्विन कुमारों ने अपने आशीर्वाद से महर्षि च्यवन को युवा बना दिया। युवावस्था प्राप्त कर महर्षि च्यवन ने उस क्षेत्र को अपने तप के बल पर दिव्य क्षेत्र बना दिया। आज महर्षि च्यवन आश्रम के कारण पूरा क्षेत्र प्रसिद्ध तीर्थस्थान के रूप में माना जाता है। यहां महर्षि च्यवन का प्राचीन मंदिर अवस्थित है, जिसमें महर्षि च्यवन, सुकन्या व ग्राम देवीकी मूर्तियां स्थित हैं। यहीं पर एक गुफा है, । इसके अतिरिक्त यहां स्थित चवधूसरा नदीभी आकर्षण का केंद्र है। इसका जिक्र महाभारत के वन पर्व में भी मिलता है। 

हाँ मैं संस्कार हूँ।
हाँ मैं च्यवनियार(चैयार) हूँ
भाष्कर संहिता का आधार हूँ
अश्वनी द्वय का अधिकार हूँ
भृगुकुल का उदगार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ।।

देवी भागवत का प्रचार हूँ।
राजा कुशिक पर प्रहार हूँ
च्यवन स्मृति का आधार हूँ
ब्रह्मर्षि वंश विस्तार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
हाँ मै च्यवनियार हूँ।।

पुलोमन का सँहार हूँ।
माँ सुकन्या का अभिसार हूँ
इन्द्र का स्तम्भकार हूँ
वेदों का पारावार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ

राजा शर्याति का सत्कार हूँ
ब्रह्मर्षि का संस्कार हूँ
सहजानंद का ग्रंथागार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ।।

वत्स भार्गव आप्रवान
जामदग्न्य का प्रचार हूँ
महर्षि च्यवन का वंशाधार हूँ
हाँ मैं च्यवनियार हूँ
हाँ मैं संस्कार हूँ
है मैं भूमिहार हूँ।।


1857 की क्रान्ति में ब्राह्मणों का योगदान ( Bhumihar / Tyagi Brahmins )






1857 महासमर मे भूमिहार ब्राहमणों का योगदान! 



मध्य और दक्षिण बिहार, और आज के झारखंड-उड़ीसा तक, के इलाकों मे 1857 के महासमर मे भूमिहार-ब्राहमणो की भूमिका अद्भुत रही। 

नवादा-नालांदा-राजगीर-बिहारशरीफ 

14-15 अगस्त को भागलपुर मे 5वी घुड़सवार पलटन ने विद्रोह किया था। इस पलटन का बड़ा हिस्सा नालांदा और नवादा की तरफ बढ़ा। 24 अगस्त तक नवादा और नालंदा का बड़ा हिस्सा (हिलसा) क्रांतिकारियों के कब्ज़े मे आ गया। नवादा और फतेहपुर थानो के अंग्रेज़ अफसर और अंग्रेज़ परस्त पुलिस के अधिकारी मार डाले गये। नवादा जेल मे बंद कैदियों को रिहा किया गया। गरीब जनता ने कचहरी पर हमला कर कंपनी राज के कागज़ात जला दिये। हिलसा मे क्रूर महाजनों, सूदखोरों और ज़मींदारों को सज़ा दी गयी। अंग्रेज़ो के कारिंदों को मौत के घाट उतार दिये गये। 

नालंदा-नवादा की आग जल्द ही बिहारशरीफ, राजगीर, अरवल, जहानाबाद, अमरथू और गया पहुंच गयी। अक्टूबर मे देवघर स्थित 32वी पैदल सेना ने विद्रोह कर दिया। फिर क्या था--ऐसी लड़ाई हुई की अंग्रेज़ और उनके सामंत-महाजन पिट्ठू दुहाई भूल गये। 

1857 मे शुरू हुई जंग 1867--यानी दस साल--तक चली।

नाना सिंह और हैदर अली खान 

नालंदा, नवादा खास और राजगीर मे अंग्रेज़ विरोधी जंग का नेतृत्व हैदर अली खान और भूमिहार ब्राहमण नाना सिंह ने किया। मध्य दक्षिण बिहार मे कई जगह भूमिहार ब्राहमण 'सिंह' टाईटिल इस्तेमाल करते थे। इसी वजह से गदर के रिकार्डों मे अंग्रेज़ो ने यहां के भूमिहारों को 'राजपूत' लिख दिया है। पर नाना सिंह जैसे अनेक ज़मींदार, भूमिहार ब्राहमण थे। सब से खास बात है कि इस इलाके मे 1857 विद्रोह ने सामंतवाद विरोधी रूप ले लिया। भूमिहारों के नेतृत्व मे बड़ी संख्या मे आज की पिछड़ी-दलित जनता संहर्ष मे उतरे। 

नाना सिंह अमौन के थे।  अगस्त-सितंबर मे उनको पकड़ने की अंग्रेज़ो ने अथक प्रयास किया। पर नाना सिंह चकमा दे कर निकल गये। हैदर अली खान के साथ अहमद अली, मेंहदी अली, हुसैन बख्श खान, गुलाम अली खान, नक्कू सिंह (भूमिहार), फतेह अली खान जैसे दिग्गज योद्धा थे। 

हैदर अली खान और नक्कू सिंह (भूमिहार) की पूरी टीम अंतूपुर मे इकट्ठा हुई। कंपनी-अंग्रेज़ी राज के अंत की आधिकारिक घोषणा हुई। बहादुर शाह ज़फर को मुल्क का बादशाह और कुंवर सिंह को बिहार का राजा स्वीकृत किया गया। 

नवादा मे नामदर खान और वारसलीगंज मे कामगार खान के वंशजो ने भी विद्रोही बिगुल बजा दिया। 

8 सितंबर को भागलपुर से और एक भारतीय फौज नवादा पहुंची। उधर पटना से चली अंग्रेज़ फौज भी नवादा पहुंची। नवादा के प्रमुख विद्रोही भागलपुर की फौज के साथ मिल गये। नवादा कचहरी फूंक दी गयी। स्थानीय जनता ने अंग्रेज़ी राज के सभी चिन्ह मिटा दिये। 8 से 30 सितंबर तक विद्रोहियों का नवादा पर कब्ज़ा रहा।  30 सितंबर को अंग्रेज़ो और भारतीय फौजों मे भंयकर युद्ध हुआ। दलाल महाजनों और ज़मीदारों ने अंग्रेज़ो का साथ दिया। पर निचली जातियों के लड़ाके, अंग्रेज़ परस्त ज़मीदारों का विरोध कर, भारतीय फौज से जा मिले। 

नवादा की जंग इतनी भीषण थी कि गोला-बारूद मे अव्वल होने के बावजूद, अंग्रेज़ो आगे नही बढ़ सके। उनको भारी क्षति उठानी पड़ी। भारतीय विद्रोही गया की तरफ बढ़ गये। 

नवादा मे मुस्लिम क्रांतीकारी ज़्यादातर घुड़सवार थे।  वहीं भूमिहार नेतृत्व मे दलित-पिछड़े पैदल योद्धा एक-आध मैचलोक छोड़, तलवारों और भालों ही से लैस थे। इनकी समूह मे इकट्ठा हो कर हमला करने की बहादुराना नीति की अंग्रेज़ो ने भी तारीफ की। 

नादिर अली खान, जो रांची-झारखंड मे तैनात रामगढ़ बटालियन के नेता थे, और जो उस छेत्र मे 1857 बगावत के बड़े सूत्रधार बने, बिहारशरीफ के समीप चरकौसा गांव के निवासी थे। ये इलाका GT रोड के नज़दीक था। GT रोड से अंग्रेज़ कलकत्ता से बिहार/UP  के बाग़ी इलाकों तक रसद और कुमुक पहुंचाते थे। GT रोड अंग्रेज़ो के लिये नर्व-सेंटर थी। बिहारशरीफ के क्रांतीकारियों ने GT रोड पर कई दिनो तक अपना कब्ज़ा बनाये रखा। 

मांझी नादिरगंज मे दलित रजवारों की संख्या अच्छी-खासी थी। एक बड़ा क्रांतीकारी जत्था यहां से राजगीर की पहाड़ियों मे घुस गया। 

राजगीर विद्रोह का नेतृत्व हैदर अली खान करते रहे। उनकी गिरफ्तारी के बाद, 9 अक्टूबर को अंग्रेज़ो ने उन्हे  फांसी दे दी। राजगीर के मुहम्मद बख्श, ओराम पांडे (भूमिहार), दाऊद अली, सुधो धनिया, भुट्टो दुसाध, सोहराई रजवार, जंगली कहार, शेख जिन्ना, सुखन पांडे (भूमिहार), देगन रजवार और डुमरी जोगी को 14 साल की सज़ा हुई। हिदायत अली, जुम्मन, फरजंद अली और पीर खान की संपत्तियां जब्त हुईं। अंग्रेज़ परस्त कारिंदो को बड़े-बड़े पुरुस्कार दिये गये। 

गया-वज़ीरगंज की लड़ाई 

इस छेत्र मे जनवरी, 1858 से प्रारम्भ वज़ीरगंज का विद्रोह खास अहमियत रखता है। यहां भूमिहार लड़ाके खुशियाल सिंह, कौशल सिंह और राजपूत यमुना सिंह ने नेतृत्व संभाला। 

वज़ीरगंज की लड़ाई बिहार मे भूमिहार-राजपूत एकता की मिसाल बनी। यह इलाका आज गया जिले की एक विधान सभा है। वज़ीरगंज विद्रोह मे 15 से अधिक गांव शामिल थे। कौशल सिंह का गांव खबरा, क्रांतीकारी गतिविधियों का केन्द्र था। 

वज़ीरगंज महीनो आज़ाद रहा। यहां शहीदों और कालापानी भेजे जाने वालों की लिस्ट लंबी है: रणमस्त खान और नत्थे खान, ग्राम-समसपुर, थाना-बेलागंज; मनबोध दुसाध, ग्राम-ऐरू, थाना-वज़ीरगंज; मोती दुसाध, सहाय सिंह एवं चरण सिंह, ग्राम- बभंडी, थाना-वज़ीरगंज; बुल्लक सिंह, केवल सिंह, ग्राम-कढ़ौनी, थाना-वज़ीरगंज; बुधन सिंह एवं मोती सिंह, ग्राम-दखिनगांव, थाना-वज़ीरगंज; दुखहरण सिंह, ग्राम-सिंधौरा, थाना-वज़ीरगंज; चुलहन सिंह, ग्राम-प्रतापपुर, थाना-अतरी; अमर सिंह, ग्राम-दशरथपुर, थाना-वज़ीरगंज; मोती साव, ग्राम-दखिनगांव, थाना- वज़ीरगंज; जयनाथ सिंह, ग्राम-बेला, थाना-वज़ीरगंज; मिलन सिंह एवं नेउर सिंह, ग्राम-सिंगठिया, थाना-वज़ीरगंज; जिया सिंह, ग्राम-चमौर, थाना-वज़ीरगंज; जेहल सिंह, ग्राम-नवडीहा, थाना-वज़ीरगंज। इसके अलावा अन्य 40 की संपत्ती जप्त हुई। 

ग्राम पुरा, थाना-वज़ीरगंज के महावीर सिंह, जुमाली सिंह, रामदेव सिंह, विद्याधर पांडे, चमन पांडे और कोलहना को पीपल के पेड़ पर फांसी हुई। 

राजगीर की पहाड़ियों मे 1859 तक युद्ध चलता रहा। कई सिक्ख बटालियन के लोग भी विद्रोहियों से आ मिले! लोदवा और सौतार मे अंग्रेज़ परस्त कारिंदो और सामंतो को पीछे हटना पड़ा। अंग्रेज़ दरोगा 48 घंटे मे 90 मील तक मार्च करते रहे। पर विद्रोही, लखावर, किंजर और अरवल से होते हुए, सोन नदी के पास महाबलीपुर पहुंच गये! इस दौर के विद्रोहियों मे लक्ष्मण सिंह (राजपूत), भरत सिंह (राजपूत), लाल बर्न सिंह (भूमिहार), करमन सिंह (भूमीहार), हुलास सिंह (भूमिहार), जुम्मन खान और मेघू ग्वाला प्रमुख रहे। 

नवादा-अरवल-गया-जहानाबाद और दलित आंदोलन

नवादा-अरवल-गया-राजगीर मे 1857 ही वो घड़ी थी, जब दलित आंदोलन लिखित रूप मे दर्ज हुआ। इसके पहले, दलित विद्रोह का कोई रिकार्ड उपलब्ध नही है। इस छेत्र के दलित रजवार अंग्रेज़ो और सामंतो, दोनो के खिलाफ लड़े। उच्च और OBC जाति के विद्रोहियों ने दलितों का पूर्ण समर्थन किया। 

19 जून, 1857 को मौजा ओसदुरा, परगना गोह के सामंत इनामुल अली के घर रजवार लड़ाकों ने धावा बोला और 36 मन धान उठा ले गये। 5 अगस्त, 1857 को 30 सवार (राजपूत) और 300 रजवारों के दल ने मौजा साकची, परगना बिहार के अमीर भोजू लाल वकील के यहां रेड डाल कर 2019 रू की संपत्ती क्रांतीकारी खजाने मे जमा करने हेतु
उठा ली। 6 अगस्त, 1857 को रजवार गुरिल्ला squad ने घोसरनवा के सामंत के ठेकेदार गणेश दत्त के घर हमला किया। बिहार थाने का अंग्रेज़ो के लिये काम कर रहा दरोगा जब दल-बल के साथ यहां पहुंचा, तो 1200 ग्रामीणों से उसकी भिड़ंत हुई। कई घंटो तक लड़ाई चली। सामंत के आदमी दरोगा के पक्ष मे उतरे, तो क्रांतीकारियों ने आधा दर्जन लठैतों को मार गिराया। 

मौजा सत्तवार और हुसैपुर के ज़मींदारों ने जवाहर और एटवा रजवार नाम के दो गुरिल्ला units के नेताओं का समर्थन किया। 

20 सितंबर, 1857 के दिन, जमादार रजवार के नेतृत्व मे रजवारों ने मौजा उर्सा के गया प्रसाद और ख्वाजा वज़ीर के यहां हमला किया। सकरी नदी के किनारे, खरगोबीघा, खुरारनाथ, पुसई मे भीषण संग्राम हुऐ। रजवार इलाकों ने देवघर की विद्रोही 32वी पैदल पलटन का पूरा समर्थन किया। लड़ाई हज़ारीबाग तक चली जहां खड़गडीहा ग्राम मे मुखो और झूमन रजवार के नेतृत्व मे बाबू राम रतन नागी और नंदेर के आदमी सांमतो से भिड़ गये। और हज़ारीबाग मे पहली बार भूमि वितरण को अंजाम दिया। 

28 सितंबर 1857 को दोना के सामंत नंदकिशोर सिंह ने जवाहर रजवार की हत्या की साज़िश रची। जवाहर रजवार के साथ जो 5 अन्य शहीद हुऐ, उनमे भूमिहार ब्राहमण केवल सिंह, समझू ग्वाला और कान्यकुब्ज ब्राहमण बंसी दिक्षित प्रमुख थे। बंसी दिक्षित 7वी पैदल सेना के सिपाही थे। बक्सर के रहने वाले थे। जिनको राजा कुंवर सिंह ने खास मध्य बिहार मे क्रांती की ज्वाला भड़काने भेजा था। 

एकतारा के सामंत टीप नारायण अलग से रजवारों पर हमला करते रहे। इसी छेत्र के सांमत गंगा प्रसाद ने भी गद्दारी की। 

भूमिहारों/रजवारों को 'देखते ही गोली मारो' का आदेश 

रजवार-विरोधी अभियान जल्द ही भूमिहार-विरोधी अभियान बन गया। अंग्रेज़ अफसर वर्सली ने रजवारों के गांव के गांव जला डाले। भूमिहारों को देखते ही गोली मारने का आदेश पारित हुआ। वर्सली ने माना कि, "और कोई चारा नही था। भूभिहार ब्राहमणो ने इस इलाके (मगध) को बसाया है--यहां के जंगल साफ कर, खेती योग्य बनाया। इनका छोटी जातियों मे प्रभाव है। मुसलमानो से इनके रिश्ते अच्छे हैं। यह हमारी सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। यही काम सुल्तानपुर, फ़ैजाबाद और गोरखपुर मे सरयूपारी ब्राहमणो ने किया। सरयूपारियों ने  सुल्तानपुर-गोरखपुर बसाया। हमारी फौज मे भरती हुऐ। और हमारे खिलाफ विद्रोह कर दिया। कान्यकुब्ज ब्राहमणो तो और भी दोषी हैं। ये सबसे प्राचीन हैं। हमने इनपर भरोसा किया। बंगाल आर्मी की दिल्ली से पेशावर तक तैनात बड़ी-बड़ी रेजीमेंटो मे अवध और द्वाबा के कान्यकुब्जों का ही ज़ोर था। हमने इनपे सबसे अधिक विश्वास किया। और इन्होंने हमारे राज को धूल मे मिला दिया"। 

वर्सली ने मौजा ताजपुर और करनपुर जला कर राख कर दिया था। उसके जाने के बाद कैंपबल मध्य-बिहार आया। कैंपबल ने मुरई को आग के हवाले किया। जिसको पाया फांसी दे दी। फिर भी विद्रोह काबू मे नही आया। 24 मार्च 1858 को अपने सीनीयर अफसर को पत्र मे उसने माना कि "मै तीन महीने टेंट मे रह रहा हूं। रजवारों और भूमिहारों ने जीना हराम कर दिया है। कचहरी और मजिस्ट्रेट के बंगलो को जला दिया है। हम नई पुलिस चौकियां बनाते हैं और वे धवस्त कर देते हैं"। 

अंग्रेज़ो ने 4 छोटी कोठरियों मे सैंकड़ों कैदी ठूस दिये थे। कमरों के कोने मे मिट्टी पड़ी रहती, जिसमे कैदी पेशाब करते। पुआल भी नही पड़ा! इस भंयकर बदबू से कई कैदी बेहोश हो जाते। कई प्रतिष्ठित भूमिहार परिवारों के औरतें और बच्चों को अकथनीय यातना दी जाती। 

असाढ़ी गांव के रजवारों ने भूमिहारों और अपनी जाति पर हो रहे अत्याचार  का बदला लिया। नेहालुचक गांव के सांमतो पर हमला कर के! 

तब तक दिल्ली और लखनऊ दोनो गिर चुके थे। अप्रैल 1858 मे राजा कुंवर सिंह जगदीशपुर की अंतिम जंग जीत गये--पर वीरगति को प्राप्त हुऐ। नाना साहब पेशवा के नाम क्रांती आगे बढ़ रही थी। 

जून-जुलाई 1858 के बीच भूमिहारों-रजवारों और मुस्लिम लड़ाकों ने फिर तारतम्य बैठाया। अंग्रेज़ परस्त सामंतो पर फिर हमले तेज हुए। उत्तम दास की कचहरी पर हमला; पतरिहा के करामत अली की संपत्ती की लूट; भवानीबीघा, मोहनपुरवा, मौलानागंज, गोपालपुर, दौलतपुर, खुशियालबीघा मे लड़ाई--एक नया उबाल आ गया। रजवारो, भूमिहार, और कुछ कुर्मी, कुशवाहा तथा ग्वालों (यादव) के गांवो को जलाया गया। कैंपबल ने अपने एक पत्र मे साफ किया कि, "सिर्फ रजवारों को दोशी ठहराना ठीक नही है। इनके साथ बड़ी मात्रा मे राजपूत, भूमिहार तथा मुसलमान शामिल हैं"।

रजवार और अन्य क्रांतीकारीयों ने अंग्रेज़ो की नाक मे ऐसा दम किया कि ब्रिटिश प्रशासन मे आपसी विवाद पैदा हो गया। एटवा रजवार और कई कमांडर पुलिस की गिरफ्त मे आ ही नही रहे थे। गुरिल्ला दस्तों से निपटने के लिये 1863 मे 10 हज़ार की फौज मैदान मे उतारनी पड़ी! 

पश्चिम मे बसगोती और पूरब मे कौआकोल की ओर से घेराबंदी की गयी। सामंतो को हज़ारीबाग, दक्षिण की तरफ से हमला करना था। 

पर ये घेराबंदी फेल हो गयी। कई जगह क्रांतीकारियों के खिलाफ हिंदुस्तानी सिपाहियों ने हथियार चलाने से मना कर दिया। सौतार के सामंत फूल सिंह की सेना मे विद्रोह हो गया। एटवा रजवार फूल सिंह के एस्टेट का ही था। अंग्रेज़ो ने फूल सिंह को खिल्लत बख्शी थी। पर 1863 अभियान की असफलता के बाद, अंग्रेज़ फूल सिंह के 'दोहरे चरित्र' की बात करने लगे।

अवध और मगध

1867 तक मध्य बिहार-मगध के छेत्र मे अंग्रेज़-विरोधी/सामंतवाद विरोधी संहर्ष चलता रहा। अवध मे अंग्रेज़ो ने किसानो-ज़मीदारों की सारी ज़मीन जब्त कल ली। पर 1858 मे अंग्रेज़ो को घुटने टेक दिये--किसानो की जब्त ज़मीने लौटाईं--और पट्टीदारी व्यवस्था--जो सामंतवाद-विरोधी थी--बहाल की। 

अवध के बाद मगध ही मे अंग्रेज़ो को मुंह की खानी पड़ी। मगध-बिहार मे बंगाल की तर्ज पर, कुछ फेर-बदल के साथ, अंग्रेज़ो ने permanent settlement यानी यूरोपीय सामंतवाद लागू किया था। जहां अधिकतर किसान tenants थे। बंधुआ मज़दूरी और बेगार, कमियाटी प्रथायें चल निकली थी। 

मगध किसान विद्रोह और सामंतवाद विरोधी क्रांती 

अवध की तरह मगध की अपनी भाषा-संस्कृति रही है। मान-सम्मान का मनोवैज्ञानिक ढांचा और आत्म-सम्मान/राजनीतिक सत्ता का आर्थिक ढांचा सदियों से मौजूद रहा है। 

मगध किसान विद्रोह के बाद अंग्रेज़ो को अपने थोपे गये सामंतवाद मे सुधार लाना पड़ा। 1867 मे आये सुझावों के अनुसार: 
1. बंधुआ प्रथा खत्म होनी चाहिये। बाज़ार के दर पर मज़दूरी तय की जानी चाहिये। 
2. ज़बरदस्ती करने वाले सामंतो पर धारा 374 के हिसाब से कार्यवाही होनी चाहिये। 
3. किसानो के कर्ज़ के जो बांड्स (bonds) हैं, उन्हे एक वर्ष के अंदर खत्म किया जाना चाहिये। 
4. रजवारों और गरीब किसानो के लिये रोज़गार की व्यवस्था होनी चाहिये। 
मगध के अन्य क्रांतीकारीयों जिनको सज़ा हुई: 
जोधन मुसहर, उग्रसेन रजवार, घनश्याम दुसाध, गोविन्द लाल, पुनीत दुसाध, शिवदयाल, बंधु, रुस्तम अली, रज्जू कहार। 

अलीपुर कैदियों की लिस्ट यूं थी: 
लच्छू राय (भूमिहार-ब्राहमण), सीरू राय (भूमिहार-ब्राहमण), रामचरण सिंह (राजपूत), रातू राय (भूमिहार-ब्राहमण), बोरलैक (कुर्मी), हरिया (चमार), रामटहल सिंह (राजपूत), दुल्लू ( भोक्ता-जन जाति), झंडू अहीर, शिवन रजवार, भुट्ठो रजवार, सोनमा दुसाध, चुम्मन रजवार, कारू रजवार, दरोगा रजवार, मेघु रजवार, लीला मुसहर, गुनी कहार, गछमा कहार, गणपत सेवक, मनोहर (चमार), जेहल मुसहर, मेघन रजवार। 

 गया और जिवधर सिंह 

3 अगस्त 1857 से लेकर, करीब दस दिनो तक गया आजाद रहा। विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों की कचहरी-दफ्तर सब कुछ जला दिया। जेलखाना तोड़ दिया गया। अंग्रेज़ गया किले मे घुस गये। विद्रोहियों ने कई बार किले की घेराबंदी की। 8 सितंबर 1857 को अंग्रेज़ो और विद्रोहियों मे भिड़ंत हुई, जिसमे अंग्रेज़ो को भारी क्षति पहुंची। 

1857 की लड़ाई मे गया, नवादा, जहानाबाद, अरवल और औरंगाबाद मे अंग्रेज़ विरोधी लड़ाई के प्रमुख किरदार भूमिहार-ब्राहमण जिवधर सिंह थे। बिक्रम थाना क्षेत्र में जिवधर के भाई हेतम सिंह ने विद्रोह का झंडा बुलंद रखा। एक समय था जब आधे जिले पर जिवधर सिंह का सिक्का चलता था। कलपा के राम सहाय सिंह, सिद्धि सिंह और जागा सिंह, जिवधर सिंह के प्रमुख सहयोगी थे। टेहटा की सारी अफीम एजंसियों को जिवधर सिंह ने कब्ज़े मे कर लीं। जिवधर सिंह ने नालंदा मे हिल्सा तक कब्ज़ा जमाया। अंग्रेज़ो ने कालपा, टेहटा और कई गांव के गांव जला दिये। 

कंपनी-अंग्रेज़ राज के खात्मे के ऐलान के साथ, जिवधर सिंह ने कर वसूली की सामांतर व्यवस्था कायम की, जिससे किसानो को राहत मिली। वहीं सामंत वर्ग पर अंकुश लगा। अरवल, अनछा, मनोरा और औरंगाबाद के सीरीस परगने मे गरीब-भूमिहीन किसानो मे भूमि वितरण हुआ। 

29 जून 1858 को मद्रास आर्मी की बड़ी टुकड़ी जिवधर सिंह के खिलाफ भेजी गई। जिवधर सिंह पुनपुन नदी पार निकल गये। निमवां गांव मे विद्रोहियों ने अंग्रेज़ फौज को ऐसा रोका कि तीन अंग्रेज़ अफसर मारे गये! एक छोटे से गांव से अंग्रेज़ों ने ऐसे प्रतिरोध की उम्मीद नही की थी। 

अरवल घाट की लड़ाई मे भी अंग्रेज़ मात खा गये। जहानाबाद के दरोगा को जिवधर सिंह ने मार कर उसकी लाश को टांग दिया। 

अंग्रेज़ों ने जिवधर सिंह के गांव खोमैनी पर अंग्रेज़ों ने हमला किया। यहां भी जिवधर सिंह अंग्रेज़ों को हराने मे सफल रहे।  

सरयूपारी ब्राहमण लाल भूखंद मिश्र जिवधर सिंह के एक कमांडर थे। उस समय बिहार मे कान्यकुब्जों के मुकाबले, सरयूपारी संख्या मे कम थे। लाल भूखंद मिश्र बहादुरी से लड़ते हुऐ, वीरगति को प्राप्त हुऐ। 

जिवधर सिंह का पीछा अंग्रेज़ों ने पलामू के अंटारी गांव तक किया। पलामू मे क्रांति का नेतृत्व भूमिहार ब्राहमण नीलांबर-पीतांबर शाही और और चेरो जन जाति के सरदार कर रहे थे। 

जिवधर सिंह दाऊदनगर और पालीगंज तक लड़े। अनेक अंग्रेज़ बरकंदाज़ों और प्लांटरों को मार गिराया। अंग्रेज़ परस्त सामंत उनके खौफ से भाग खड़े हुऐ। आर. सोलांगो इंडिगो प्लांटर की पटना और गया-जहानाबाद मे फैक्ट्रियों को जला दिया गया। जिवधर सिंह ने शेरघाटी को liberated zone बनाया और कई वर्षो तक युद्ध किया।

झारखंड/छोटा नागपुर

वर्तमान झारखंड 1857 मे छोटा नागपुर ऐजंसी के रूप मे जाना जाता था। दानापुर, शाहबाद, सुगौली, सारण, सिवान, मुज़फ्फ़रपुर, भागलपुर, गया आदि मे विद्रोह का सीधा असर छोटा नागपुर मे पड़ा। 

इस इलाके मे 8वी पैदल सेना, जिसने 7वी, 40वी के साथ, 25 जुलाई को दानापुर मे विद्रोह कर बिहार मे अंग्रेज़-विरोधी लड़ाई की बागडोर राजा कुंवर सिंह के हाथ सौंपी, की एक टुकड़ी, हज़ारीबाग मे तैनात थी। बाकी चायबासा, पुरुलिया, रांची और संभलपुर मे रामगढ़ बटालियन सबसे बड़ी ताकत थी। 

रामगढ़ बटालियन मे भागलपुर, मुंगेर, सारण, शाहबाद-आरा-बक्सर और मगध के सिपाही ज़्यादा थे। 

30 जुलाई को हज़ारीबाग मे 8वी रेजीमेंट की टुकड़ी ने हज़ारीबाग मे विद्रोह किया। जेल से कैदियों की रिहाई और अंग्रेज़ी खज़ाने को कब्ज़े मे लेने के बाद, हज़ारीबाग के विद्रोही रांची की तरफ चले। उधर रांची से रामगढ़ बटालियन की टुकड़ी ले कर, अंग्रेज़ अफसर हज़ारीबाग के विद्रोह को कुचलने निकल पड़ा। पर बीच ही मे, रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया! बुरमू मे रामगढ़ बटालियन और हज़ारीबाग के सिपाही मिले--और दोनो रांची की ओर चल दिये! 

रांची पहुचते ही वहां मौजूद रामगढ़ बटालियन के बाकी सिपाहियों ने भी विद्रोह कर दिया। जल्द ही, विश्वनाथ साही के नेतृत्व मे रांची क्रांतिकारी सरकार की स्थापना हुई। 

विश्वनाथ साही जाति के भूमिहार थे। विकिपीडिया इत्यादी मे विश्वनाथ साही को 'नागवंशी राजपूत' कहा गया है। छोटा नागपुर मे नागवंशी राजपूत थे और हैं। 1857 मे लड़े भी। जैसे पोरहट के राजा अर्जुन सिंह जिन्होनें 1857 क्रांती की बागडोर चायबासा-सिंहभूम मे संभाली। 

अंग्रेज़ अफसर डाल्टन जो छोटा नागपुर छेत्र मे सबसे उच्च अंग्रेज़ अफसरों मे था, ने अपनी पुस्तक, Mutiny in Chota Nagpur मे साफ-साफ विश्वनाथ साही को 'बाभन' या भूमिहार ब्राहमण बताया है। बल्कि रांची मे क्रांतीकारी सेना के चीफ राय गणपत को भी 'बाभन' कहा गया है। 

विश्वनाथ साही के नेतृत्व मे सभी अंग्रेज़ विरोधी सामंतो की ज़मीन जप्त  कर, भूमिहीनो और छोटे किसानो मे बांटी गई। छोटे ज़मीदारों और किसानो पर जो अंग्रेज़ो और साहूकारों ने कर्ज़ लादा था, माफ किया गया।

रांची क्रांतिकारी सरकार ने बहादुर शाह को अपना बादशाह और राजा कुंवर सिंह को बिहार सूबे का वज़ीर घोषित किया। सैनिक मामलों का नेतृत्व शाहबाद/आरा के सिपाही माधो सिंह, रामगढ़ बटालियन के भागलपुर निवासी सूबेदार जय मंगल पांडे (कान्यकुब्ज ब्राहमण) तथा नादिर अली के हाथ मे था। योजना थी कि रांची से सीधे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हेडक्वार्टर कलकत्ता, जहां गवर्नर-जर्नल कैनिंग विराजमान था, कि ओर कूच किया जाये। कलकत्ता और दिल्ली-लखनऊ के बीच की ग्रांड ट्रंक रोड भी क्रांतिकारियों के कब्ज़े मे आ गयी।  

उड़ीसा 

हज़ारीबाग के विद्रोह के समय, संभलपुर, जो आज उड़ीसा मे है, छोटा नागपुर का हिस्सा था। संभलपुर गद्दी के अंग्रेज़ विरोधी वारिस, सुरेंद्र साही, उस समय हज़ारीबाग जेल मे थे। विद्रोहियों ने उन्हे मुक्त किया। 

सुरेंद्र साही भूमिहार ब्राहमण ही थे, जिनका राज अंग्रेज़ो ने छीन लिया था। लेकिन संभलपुर के भूमिहार, आदिवासियों के राजा थे। अंग्रेज़ अफसर डाल्टन के अनुसार, "सुरेंद्र साही कोई भगवान नही, अपतु भूमिहार ब्राहमण है, जो 17वी सदी मे उड़ीसा की तरफ पलायन कर गये थे। आदिवासियों ने इन्हे अपना देवता माना। और ये भी आदिवासियों से इतना घुल-मिल गये, कि साही की जगह 'साई' लिखने लगे--और बाद के लोगों ने इन्हे 'आदिवासी देवता' मान लिया। पर उड़ीसा के गैर-भूभिहार उत्कल ब्राहमण, जैसे पंडा, पाणिग्रही और 'मिस्र' उपाधि इस्तेमाल करने वाले उत्कल ब्राहमण, इनको ब्राहमण के रूप मे ही जानते हैं।" 

यही वजह थी कि संभलपुर मे 1864 
मे सुरेंद्र साही कि गिरफ्तारी के बाद भी, 1867 तक अंग्रेज़ विरोधी चला। आदिवासी और उड़िया ब्राहमण, पूरी तरह से इस संहर्ष मे शामिल थे। उड़ीसा की 'पटनायक' जाति भी, जो छत्रिय और कुर्मी-पटेल की बीच की सथिति मे थे, सुरेंद्र साही के नेतृत्व मे लड़ी। 

चतरा 

रांची के क्रांतीकारी सिपाहीयों के नेता, जयमंगल पांडे और नादिर अली, हिंदू-मुस्लिम एकता की अदभुत मिसाल पेश करते हुऐ, अक्टूबर 1857 मे चतरा की लड़ाई मे शहीद हो गये। 
आज भी वहां स्मारक जहां लिखा है: 
"जयमंगल पांडे नादिर अली"
दोनो सूबेदार रे
दोनो मिलकर फांसी चढ़े 
हरजीवन तालाब रे" 

माधो सिंह रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हो गये। 

सिंहभूमी 

नागवंशी राजपूत अर्जुन सिंह और कोल आदिवासी लड़ाकू गन्नू के नेतृत्व मे सिंहभूम और चायबासा मे 1858-59 तक अंग्रेज़-विरोधी युद्ध चलता रहा। 14 जनवरी 1858 को मोगरा नदी की लड़ाई मे कोल और अर्जुन सिंह की सेना मे मुकुंद राय के नेतृत्व मे भूमिहार लड़वैय्ये जुड़ गये। 

मोगरा नदी की लड़ाई मे अंग्रेज़ अफसर लशींगटन को मुंह की खानी पड़ी। अंग्रेज़ो ने सपने मे भी नही सोचा था कि वो आदिवासी कोलों, अर्जुन सिंह और मुकुंद राय की सयुंक्त सेना से हार जायेंगें। 

मानभूमि

आज के बंगाल मे स्थित मानभूम मे 5 अगस्त 1857 को वहां के रामगढ़ बटालियन के सिपाहियों ने विद्रोह किया। पांचेट के नागवंशी राजपूत निलोमणि सिंह ने मानभूम की कमान संभाली। मानभूम के संथालों ने कई बड़े सामंतो पर हमला किया। हज़ारीबाग के संथालों ने पुनः विद्रोह किया। 

पलामू

पलामू ने एक नये अध्याय को जन्म दिया। पलामू मे दो ऐसे शख्स थे, जिन्होंने इतिहास की धारा मोड़ने मे अदभुत भूमिका निभाई। नीलांबर और पीतांबर साही भूमीहार थे। जिनका परिवार वहां के आदिवासियों के लिये संभलपुर की तरह देव तुल्य था। अक्टूबर 1857 से लेकर 1858-,59 तक, नीलांबर-पीतांबर के नेतृत्व मे भोगता, चेरो और खरवार आदिवासी जन-समूह जम कर लड़े।

पलामू की लड़ाई ने भी सामंतवाद-विरोधी रूख अपनाया। ठकुराई रघुबीर दयाल सिंह और ठकुराई किशुन दयाल सिंह पलामू के बड़े, अंग्रेज़-परस्त सामंत थे। आदिवासियों से इनकी सीधी लड़ाई थी। 

अक्टूबर 1857 मे क्रांतीकारीयों ने चैनपुर, शाहपुर और लेसलीगंज पर हमला कर दिया। नीलांबर/पीतांबर के नेतृत्व मे आदिवासी फौज ने चैनपुर मे लेफ्टिनेंट ग्राहम को घेर लिया। जब तक मेजर कोटन एक बड़ी फौज लेकर ग्राहम को बचाने नही पहुंचा, घेरेबंदी चलती। देवी बख्श राय नामका भूमिहार योद्धा इस लड़ाई मे गिरफ्तार हो गया। 

क्रांतीकारीयों ने फिर बांका और पलामू के किलों पर हमला किया। ठाकुर किशुन दयाल सिंह ने अगर गद्दारी न की होती तो बांका किला क्रांतीकारियों के कब्ज़े मे आ जाता। नकलौत मांझी भी पलामू मे एक बड़े क्रांतीकारी नेता के रूप मे उभरे। नकलौत ही शाहबाद मे जारी राजा कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह की सरपरस्ती मे चल रही लड़ाई और पलामू के बीच की कड़ी थी। भूमिहार राय टिकैत सिंह और उनके मुसलमान दीवान शेख बिखारी भी पलामू मे खूब लड़े। दोनो को एक साथ फांसी पर लटकाया गया। 

1858 के मध्य तक विश्वनाथ साही, राय गणपत, उनके सहयोगी, नीलांबर-पीतांबर साही--सभी फांसी पर चढ़ा दिये गये थे। पर आंदोलन नही रूका। 

आज़मगढ़-गाज़ीपुर-बलिया-इलाहाबाद 

उधर अप्रैल 1858 मे लखनऊ के पतन के बाद, कुंवर सिंह अपनी फौज के साथ वापिस जगदीशपुर, बिहार की ओर पलटे। अतरौलिया, आज़मगढ़ मे दो बार कुंवर सिंह की बिहारी फौज का अंग्रेज़ों की गोरी पलटनो से सामना हुआ। और दोनो बार अंग्रेज़ पराजित हुए। कुवंर सिंह ने सिकंदरपुर, बलिया के पास गंगा पार की और एक बार फिर अंग्रेज़ो को हराते हुऐ, जगशदीशपुर पहुंच कर ही दम तोड़ा। 

कुंवर सिंह के बलिया-गाज़ीपुर आगमन पर, वहां के सरयूपारी ब्राहमण, राजपूत, मुसलमान, अहीर और भूमिहार ब्राहमण सक्रिय हुए। गहमर, गाज़ीपुर के भूमिहार ब्राहमण मेघार राय ने कमान संभाली। 
गाज़ीपुर, विशेषकर जमानियाँ क्षेत्र, मार्च, 1858 तक बहुत उग्र हो गया। मेघार राय की फौज ने सैदपुर-वाराणसी सड़क की घेराबंदी कर दी और बनारस के लिए 'खतरा' बन गए। 

इस नये पूर्वांचल-संघर्ष में भूमिहार ब्राहमणों ने मेघार राय के नेतृत्व में शाहाबाद और गाजीपुर से अधिकतम लड़ाकों को संघर्ष में झोंक दिया। यहां के भूमिहार, राजपूत और पठान--तीनो--सकरवार शाखा से थे। और तीनो ही अपना संबंध कन्नौज-उन्नाव के कान्यकुब्ज ब्राहमणो से जोड़ते थे। 

भूमिहार ब्राहमणों एवम पठानों ने संग्राम सिंह के नेतृत्व में मड़ियाहूं (जौनपुर) पर धावा बोल दिया। निचलौल (गोरखपुर जिला) और सलेमपुर, देवरिया में इंडियन कैवेलरी (घुड़सवार सैनिक दस्ता और तोपखाना) अंग्रेजों के खिलाफ हो गयी। अंग्रेज़ यूनिट का नेतृत्व सर राटन कर रहा था। वहां राजपूतों तथा भूमिहार ब्राहमणों ने अफीम एजेंटों तथा अंग्रेजों का कत्ल कर दिया।

इसके बाद, दिलदारनगर संघर्ष (Dildarnagar Stand off) हुआ।  मेघार राय के साथ भूमिहार सरदार विशेषकर शिवगुलाम राय, रामप्रताप राय, शिवचरण राय, रामजीवन राय, शिवपाल राय, रोशन राय, मोहन राय तथा तिलक राय कंधे से कंधा मिला कर लड़े। 

ब्रिटिश इतिहासकारों ने अपने अभिलेखों में भूमिहार ब्राह्मणों का बहुत 'खतरनाक' एवम आक्रामक व्यक्तित्व दर्ज किया है।

उत्तर-प्रदेश और मध्य प्रदेश के जालौन, गुरसराय तथा सागर के चितपावन ब्राहमण अपने को भूमिहारों से जोड़ते थे। इनहोने भी बाजीराव प्रथम के वंशज नाना साहब के नेतृत्व मे मुसलमानो से मिल कर 1857 मे अथक संहर्ष किया। 

पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के त्यागी ब्राहमण 

1857 की क्रांती में डासना तहसील का भी महत्पूर्ण स्थान रहा है। यहां गूजरों के साथ, भूमिहारों की शाखा,
त्यागी ब्राहमणों ने फिरंगियों से लोहा लिया। अंग्रेज़ों ने त्यागी ग्रामीणों को सबक सिखाने के लिए डासना से मंसूरी तक की उनकी ज़मीन जब्त कर ब्रिटिश इंजीनियर के हाथों बेच दी। मंसूरी नहर के पास बनी ब्रिटिश हुकूमत की कोठी आज भी इसका प्रमाण है। डासना में जिस समय जमीन नीलामी के आदेश की मुनादी हो रही थी, तो बशारत अली और कुछ अन्य ग्रामीणों ने ढोल फोड़ दिया। उन्होंने लगान देने से भी इनकार कर दिया। इस पर सभी को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। 

पिलखुवा के मुकीमपुर गढ़ी और धौलाना में भी ब्रिटिशों के खिलाफ राजपूतों के साथ-साथ त्यागी भी लड़े। इसके अलावा सपनावत, हापुड़, गढ़मुक्तेश्वर, मोदीनगर क्षेत्र में त्यागी बाहुल्य गांवों में फिरंगियों के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजा। इसमे बड़ी संख्या मे मुस्लिम त्यागी भी शामिल हुए। 

सीकरी खुर्द गांव में स्थित मन्दिर परिसर में वट वृक्ष है। इस पेड़ पर लगभग 100 हिंदू और मुस्लिम त्यागी क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी गई थी। गाज़ियाबाद जिले में कैप्टन एफ एंड्रीज, सार्जेंट डब्ल्यू एमजे पर्सन, सार्जेेंट आर हेकेट, जे डेटिंग, कारपोरल प्रियर्सन, जे जेटी वगैरा की कब्र भी है। 

इलाहाबाद एवं झूंसी में विद्रोह की अगुआई मौलवी लियाकत अली तथा भूमिहार ब्राह्मण सुख राय ने की। इनके साथ मेजा और बारा क्षेत्र के भूमिहार ब्राह्मण एवम मुसलमान सिपाही थे। सुख राय का साथ राजपूतों, कुर्मियों, ब्राह्मणों, कलवारों और चमारों ने दिया था। सुख राय करछना पहुंचे और वहां पर उभार का नेतृत्व  संभाला जो 1860 तक चला 

वाराणसी, गाज़ीपुर, बलिया, जौनपुर, आज़मगढ़, यानी रूहेलखंड, अवध और पूर्वांचल मे 1857 महा-समर के दौरान, भूमिहार ब्राहमणो की लड़ाकू, अंग्रेज़-विरोधी भूमिका चिन्हित की गई थी। 

अब बिहार की तरफ बढ़ते हैं। 

25 जुलाई 1857 को दानापुर, बिहार मे बंगाल सेना की तीन रेजीमेंटो ने विद्रोह किया। इसके पहले, 12 जून को रोहिणी, देवघर मे 5वी अनियमित (irregular) घुड़सवार दस्ते (cavalry regiment) के मुसलमान सिपाहियों ने अंग्रेज़ अफसरों पर हमला बोला। देवघर मे स्थित 32वी पैदल पलटन उस समय खामोश रही। 

3 जुलाई को पटना मे मौलवी पीर अली के नेतृत्व मे एक उभार आया। लेकिन वो व्यापक स्वरूप नही पकड़ पाया। अंग्रेज़ो ने patna uprising को कुचल दिया। पटना के कमिशनर विलियम टेलर ने गांधी मैदान को लाशों से पाट दिया। औरतों और बच्चों तक को नही छोड़ा। 

दानापुर मे सेना की 7वी, 8वी और 40वी रेजीमेंट के नेता शाहबाद के हरे कृष्ण सिंह थे। ये बाबू कुंवर सिंह की तरह उज्जैनी राजपूत थे। इन तीनो पलटनो ने एक साथ विद्रोह कर दिया। 

इसमे ज़्यादातर सिपाही शाहबाद इलाके--आरा, रोहतास, कैमूर, बक्सर, भोजपुर--से थे। अब पूरे बिहार मे आग फैल गयी। बाबू कुंवर सिंह ने नेतृत्व सम्भाला और 30 जुलाई 1857 को मेजर डनबार की लीडरशिप मे पटना से आरा की ओर बढ़ती अंग्रेज़ फौज को रात के अंधेरे मे हई भंयकर लड़ाई मे शिकस्त दी। इसमे 180 से ज़यादा अंग्रेज़ सिपाही/अफसर और उनके साथ सैकड़ों सिख सिपाही मारे गये। 

सिखों का बड़ा हिस्सा कुंवर सिंह से आ मिला। 

अंग्रेज़ों की आरा की लड़ाई जैसी बुरी हार इतिहास मे शायद ही कभी हुई थी। 

30 जुलाई के बाद शिवराज और अचरज राय के नेतृत्व मे आरा-बक्सर के भूमिहार-ब्राहमणो ने कुंवर सिंह की सेना मे बड़े स्तर पर अपनी जाति विशेष की भर्ती शुरू कर दी। विंसट आयर की फौजें आरा पहुचने के बाद, गोली-बारूद की कमी के कारण, आयर से कई बार युद्ध करते हुऐ, कुंवर सिंह रीवा होते हुए, लखनऊ की तरफ कूच कर गये। 

कुंवर सिंह के लखनऊ की तरफ बढ़ने के बाद, आरा से लेकर कैमुर तक छापामार युद्ध का नेतृत्व मुखयतः भूमिहार और ग्वाला-अहीर जाति के लड़वैयों ने किया। 

सारण और तिरहुत छेत्र मे जून ही मे वारिस पठान नाम के क्रांतिकारी को अंग्रेज़ो ने पकड़ा। उस समय मे सुगौली मे 12वी अनियमित घुड़सवार पलटन तैनात थी। इसने 12 अगस्त को विद्रोह कर दिया। 

15 अगस्त को भागलपुर मे स्थित 5वी अनियमित घुड़सवार पलटन, जिसके कुछ सिपाही रोहिणी, देवघर मे फांसी पर चढ़ाये जा चुके थे, ने संपूर्ण रूप से बग़ावत कर दी। 

इधर दानापुर विद्रोह के कई भूमिहार और मुस्लिम सिपाही, कुंवर सिंह के लखनऊ कूच के बाद, तिरहुत और गया-जहानाबाद की तरफ आ धमके। 

बिहार मे अब civil rebellion यानी सिपाहियों से इतर, लेकिन उनके मार्गदर्शन मे, नागरिकों और किसानो का विद्रोह शुरू हो गया।

सारन, छपरा, गोपालगंज, महराजगंज और सिवान मे महाबोधी राय, रामू कोईरी और छप्पन खान ने संभाला। इनके साथ पासवान, अहीर, कुर्मी और चमार बिरादरी के लड़ाकों का बड़ा हिस्सा था। महाबोधी राय अपनी हाथी ब्रिगेड के लिये प्रसिद्ध थे। अंग्रेज़ परस्त ज़मीदारो को वो हाथी से कुचलवाते थे। 

तिरहुत मे अंग्रेज़ों की अफीम और नील की कोठियां थी। 1857 में नील की कोठियों में कितनी पूंजी लगी थी, इसका अंदाजा दानापुर के कमांडर ब्रिगेडियर क्रिस्टी के इस पत्र से होता है जो उसने पटना के कमीशनर को लिखा था। उसने कहा था कि "तिरहुत और चंपारण जिले नील के उन कारखानों से भरे पड़े हैं, जो डाई की पैदावार शुरू ही करने वाले हैं। इन दो जिलों में इतनी पूंजी लगी है, जितनी देश के किसी हिस्से में नहीं लगी है। इसलिए अगर विद्रोहियों की मौजूदगी की वजह से इन दो जिलों में अराजकता फैलती है तो इसके परिणाम बहुत भयावह होंगे।"

मुज़फ्फ़रपुर जिले के बड़कागांव ने 1857-1858 मे अदभुत वीरता दिखाई। वारिस पठान भी इसी इलाके के थे। 

बड़कागांव मे 80% से ज़्यादा भूमिहार-ब्राहमण आबादी थी। इस इलाके के जांबाज़ो ने धरमपुर-तरियानी परगना के ग्वालों और मुसलमानो से मिलकर तिरहुत के बड़े हिस्से को अंग्रेज़ो से मुक्त कराया। कैमुर-शाहबाद और सारण के छापामारों से संबंध बनाये रखा। और कलकत्ता से लखनऊ की तरफ बढ़ती हुई ब्रिटिश फौजों को पटना से आगे नही बढ़ने दिया। 

बड़कागांव और तिरहुत 1858 तक लड़ता रहा। नीलहों, अंग्रेज़ व किसानों में रस्साकशी चलती रही।

अंग्रेज़ो ने इतने ज़ुल्म ढाये कि बड़कागांव का नाम आज तक लोग कम ही लेते हैं। 

अंग्रेज़ी persecution से बचने के लिये इस गांव का नाम पछियारी पड़ गया। 

बड़कागांव संघर्ष मे भूमिहार, जो शाही या साही सरनेम लिखते थे, मुख्य भूमिका मे थे ... यहां के लड़वैयों की सूची चौंका देने वाली है:
 
1. रामदीन शाही
2. केदई शाही
3. छद्दु शाही
4. कृष्णा शाही
5. नथु शाही 
6. छटठु शाही 
7. हंसराज शाही 
8. शोभा शाही 
9. बैजनाथ तिवारी (कान्यकुब्ज ब्राहमण)
10. तिलक शाही
11. पुनदेव शाही 
12. कीर्तिन शाही 
13. छतरधारी शाही
14. दर्शन शाही
15. रौशन शाही 
16. तिलक तिवारी (कान्यकुब्ज ब्राहमण)
17. मो. शेख कुर्बान अली 
 18. शिवटहल कुर्मी 

धरमपुर तरियानी परगना के: 
1. भागीरथ ग्वाला 
2. राधनी ग्वाला 
3. राज गोपाल ग्वाला
4. तूफानी ग्वाला 
5. रणजीत ग्वाला 
6. संतोषी ग्वाला 
7. खीरासी खान पठान 
8. बन्टूखी ग्वाला 
9. रामटहल ग्वाला



अवध से लेकर मगध-झारखंड-- पूरबियों की धरती है। भारत को आज़ाद कराने की पूरी मुहिम पूरबियों ने ही चलाई। पूरबिये सभी धर्म-जाति के हैं। दरअसल ये एक कौम और मिनी-राष्ट्रीयता है।
1857 मे पूरबियों का मिलन पश्चिमियों--हरियाणा और पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के हिंदू-मुसलमानो--से हुआ। और इस्ट इंडिया कंपनी का खात्मा हुआ।

मुगल काल से ही भूमिहारों को 'भूमिहार ब्राहमण' कहा गया। इसके प्रमाण आईने-अकबरी मे मिलते हैं। बिहार के मगध और तिरहुत इलाके से मुगल सेना के लिये यहां से भारी मात्रा मे सैनिक जाते थे।
'कवि विद्यापति और बिहारी साहित्य' पर OUP द्वारा प्रकाशित, पंकज झा की किताब, तथा अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य, साफ करते हैं कि तिरहुत इलाके के भूमिहार-ब्राहमण मगध की तरफ बढ़े और जंगल साफ कर झारखण्ड और उड़ीसा की ज़मीन को खेती लायक बनाया।

ये प्रक्रिया अकबर के जीते जी काफी हद तक पूरी हो गयी थी। अकबर के ज़माने से भू-कर देने वालों मे भूमिहार नही, बल्कि भूमिहार-ब्राहमण दर्ज है। और ये उड़ीसा के कुछ हिस्से तक फ़ैलें हैं।
अकबर के नौरतनों मे से एक, कान्यकुब्ज ब्राहमण बीरबल तिवारी, की वंशावली मे इस बात का ज़िक्र है कि पंच गौड़ मे कान्यकुब्ज ब्राहमण सबसे प्राचीन हैं। सरयूपारी (मंगल पांडे सरयूपारी थे) भी प्राचीन हैं--पर कान्यकुब्ज ब्राहमणो की उपशाखा हैं। और भूमिहार ब्राहमण कान्यकुब्जों की सबसे नवीनतम शाखा है।
बहरहाल, 1857 मे बंगाल ईस्ट इंडिया कंपनी सेना मे 40% प्राचीन कान्यकुब्ज, सरयूपारी और भूमिहार ब्राहमण, 20% राजपूत, 20% मुस्लिम और 20% आज की पिछड़ी-दलित जातियों के सिपाही थे। पैदल और घुड़सवार मिला कर सेना की संख्या 1 लाख, 30 हज़ार थी।
आज तक इतिहास मे ये बात दबी है कि 31 मई 1857 को शाहजहांपुर मे क्रांति का नेतृत्व जवाहर राय नाम के भूमिहार ब्राहमण ने किया था, जो जिला आज़मगढ़ से थे। जवाहर राय ने अन्य ब्राहमण, मुस्लिम और दलित सिपाहियों से मिल कर चर्च मे ऐसा कत्ले-आम मचाया कि पूरे रोहिलखंड मे अंग्रेज़ी राज की चूलें हिल गयीं।
3 जून को आज़मगढ़ मे भोंदू सिंह अहीर के नेतृत्व मे 17वी रेजीमेंट ने अंग्रेज़ी राज उखाड़ फेंका।
4 जून को 37वी रेजीमेंट ने बनारस मे, कान्यकुब्ज ब्राहमण गिरिजा शंकर त्रिवेदी के नेतृत्व मे विद्रोह किया।
15 जून को 17वी की एक टुकड़ी ने सिकंदरपुर, बलिया मे विद्रोह किया।
17वी के दो सिपाही--शंकर और भूमि राय--गाज़ीपुर के भूमिहार ब्राहमण थे।
गहमर, गाज़ीपुर के कई भूमिहार ब्राहमण, काशी नरेश के समर्थक थे। काशी नरेश, जो खुद भूमिहार-ब्राहमण कहलाते थे, तब तक अंग्रेज़ो के साथ थे।
शंकर और भूमि राय उनके पास पहुंचे। राजा ने अंग्रेज़ो के खिलाफ विद्रोह करने से इंकार किया। और शंकर और भूमि राय से कहा कि उनको मुसलमान बहादुर शाह ज़फर का साथ नही देना चाहिये। इस बात पर दोनो सिपाहियों ने राजा के गले पे तलवार रख दी और कहा कि बहादुर शाह ज़फर को हिंदू धर्मगुरूओं ने बादशाह माना है। और सवाल यहां देश को अंग्रेज़ो से आज़ाद कराना है--जिन्होंने भारत को कंगाल कर दिया।
शंकर और भूमि राय ने काशी नरेश को याद दिलाया कि उन्ही के पूर्वज राजा चेत सिंह ने 1770s मे ब्रिटिश गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग के छक्के छुड़ा दिये थे। और 
हुस्सेपुर, सारन (बिहार) के राजा, भूमिहार-ब्राहमण फतेह बहादुर शाही, ने तो 1765 मे बक्सर की लड़ाई के बाद, अंग्रेज़ो के खिलाफ ऐसा गुरिल्ला युद्ध छेड़ा, जो 1790s तक चला।
मामला यहां तक आ पहुंचा कि भूमिहार ब्राह्मण सिपाहिगण काशी नरेश के विरूद्ध सशत्र संघर्ष पर आमादा हो गए। काशी नरेश मान गए कि वह क्रांति के दौरान तटस्थ रहेंगे।
बनारस से भदोही तक मोने राजपूत, जिनसे काशी नरेश की 18वी सदी से लड़ाई थी, खुल कर अंग्रेज़ो से लोहा ले रहे थे। शंकर और भूमि राय ने काशी नरेश को मोना राजपूतों से समझौता करने पर मजबूर किया।
मोना राजपूतों और भूमिहारों ने फिर नील कंपनियों के अंग्रेज़ मालिक, जो किसानो का शोषण करते थे, के खिलाफ भंयकर युद्ध छेड़ दिया। कई नील मालिकों का सर धड़ से अलग कर, भदोही-बनारस मे घुमाया गया। ब्रिटिश खजाने को लूट लिया गया। अंग्रेजों के बंगले जला दिए गए।
आजमगढ़ तथा बलिया के अंग्रेज अधिकारी और निलहे जमींदार गाजीपुर में शरण लिए हुए थे, तभी सेना की 65वी रेजीमेंट ने गाज़ीपुर में विद्रोह कर दिया। इस रेजीमेंट के अधिकाधिक सैनिक भूमिहार ब्राह्मण थे। इन सिपाहियों ने क्षेत्र के भूमिहार ब्राह्मणों को अपने पक्ष में कर लिया और अंग्रेजों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। अचरज राय, शिवराज राय, बोदी राय, बालक राय और देवी राय ने इसका नेतृत्व किया।
शिवराज राय ने अंग्रेज़ रोबर्ट स्मिथ कुम्ब को बक्सर भगा दिया। फलस्वरूप भूमिहार ब्राह्मणों तथा राजपूतों ने भदौरा तथा चौसा स्थित अंग्रेजों के नील कारखानों में आग लगा दी। उन्होंने अंग्रेजों के सभी प्रतीकों को मिटा दिया।
अंग्रेज़ कुम्ब की ज़मीन भूमिहार ब्राह्मणों तथा दलित-चमारों में बांट दी गयी।
भूमिहार ब्राह्मणों की प्रोपगंडा पार्टी ने इस घटना को देवरिया, चंपारण, बेतिया तथा छपरा तक फैला दिया गया जिससे क्रांति और भड़क गई।
यह प्रकरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे साफ होता है कि किसान वर्ग से आये भूमिहार-ब्राहमण क्रांतिकारी थे और सामंत वर्ग वाले यथास्थितवादी।
20वी सदी मे यह फर्क फिर सामने आया जब सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व मे किसान भूमिहार-ब्राहमणो ने अंग्रेज़ी-सामंती प्रथा के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया और प्रगतिशील आंदोलन की रीढ़ बने!

ब्राह्मण

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