Friday 20 August 2021

बाजीराव पेशवा एक महान योद्धा






मराठा_शासक_वीर_पेशवा_बाजीराव_प्रथम का जन्म सन् 1700 में आज के दिन ही हुआ था ॥

बाजीराव प्रथम मराठा साम्राज्य का महान् सेनानायक था। वह बालाजी विश्वनाथ और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा पेशवा (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को ‘बाजीराव बल्लाल’ तथा ‘थोरले बाजीराव’ के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया।

योग्य सेनापति और राजनायक

बाजीराव प्रथम एक महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-

“आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।”

इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-

“निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।”

राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

दूरदृष्टा

बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ‘हिन्दू पद पादशाही’ स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

साहसी एवं कल्पनाशील

बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है।

साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया।

अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- “हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।” बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया।

उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।

‘हिन्दू सत्ता का प्रचार”

हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा।

गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।

सफलताएँ

बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-

शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।

शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।

जीते गये प्रदेशों को वापस करना।

युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।

छत्रपति शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई।

इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय ‘पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।’ 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।

दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है।

मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।

निज़ामुलमुल्क पर विजय

बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा।

निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-

बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।

बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।

पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।

वीरगति

इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया।

अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, 28 अप्रैल, 1740 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।

मराठा मण्डल की स्थापना

बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था।

इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था।

लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।

मराठा शक्ति का विभाजन

बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए।

इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था।

उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।

विलक्षण व्यक्तित्व

बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था।

उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह ‘लड़ाकू पेशवा’ के नाम से भी जाना जाता है।

#BajiraoPeshwa

Sunday 16 May 2021

आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह या विनिमय विवाह

 

आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह या विनिमय विवाह

                       गरासिया जनजाति

राजस्थान में मीणा तथा भील जनजाति के बाद राजस्थान की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति गरासिया जनजाति है। गरासिया जनजाति को चौहानों का वंशज माना जाता है।

जनसंख्या- जनगणना 2011 के अनुसार राजस्थान में गरासिया जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 3.14 लाख है जो की राजस्थान की कुल जनजातियों का 3.4 प्रतिशत है।

जनसंख्या की दृष्टि से सर्वाधिक गरासिया जनजाति वाले जिले निम्नलिखित है-
1. सिरोही- जनगणना 2011 के अनुसार राजस्थान का सर्वाधिक गरासिया जनजाति वाला जिल सिरोही है। सिरोही जिले में गरासिया जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 1.53 लाख है।

2. उदयपुर- राजस्थान में जनसंख्या की दृष्टि से गरासिया जनजाति का दूसरा सबसे बड़ा जिला उदयपुर है। राजस्थान के उदयपुर जिले में गरासिया जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 1.04 लाख है।

3. पाली- राजस्थान में जनसंख्या की दृष्टि से गरासिया जनजाति का तीसरा सबसे बड़ा जिला पाली है।

कर्नल जेम्स टाॅड- कर्नल जेम्स टोड के अनुसार गरासियों की उत्पत्ति 'गवास' शब्द से हुई है। 'गवास' शब्द का शाब्दिक अर्थ 'सर्वेन्ट' होता है।

भाषा- गरासिया जनजाति की भाषा गुजराती तथा मराठी भाषा से प्रभावित है। गरासिया जनजाति की भाषा को गुजराती, मेवाड़ी, मारवाड़ी तथा भीली भाषा का मिश्रण माना जाता है।

मूल निवास स्थान (मूल प्रदेश)- गरासिया जनजाति का मूल निवास स्थान या मूल प्रदेश राजस्थान के सिरोही जिले का आबूरोड़ का भाखर क्षेत्र माना जाता है।

सहलोत या पालवी- गरासिया जनजाति के लोग अपने मुखिया को सहलोत या पालवी कहते है।

मोर- गरासिया जनजाति में मोर पक्षी को पूजनीय या आदर्श पक्षी माना जाता है।

घेर- गरासिया जनजाति में घर को घेर कहा जाता है।

नक्की झील (माउण्ट आबू, सिरोही, राजस्थान)- गरासिया जनजाति के लोग अपने पूर्वजों की अस्थियों को नक्की झील में विसर्जित करते है। नक्की झील राजस्थान के सिरोही जिले की माउण्ट आबू नामक स्थान पर स्थित है।

हुर्रे (हुरे)- गरासिया जनजाति में मृत व्यक्ति के स्मारक को हुर्रे कहते है। गरासिया जनजाति में मृत्यु के 12 दिन के बाद अन्तिम संस्कार किया जाता है।

मोतीलाल तेजावत- गरासिया जनजाति में एकता का प्रयास करने वाला व्यक्ति मोतीलाल तेजावत है।

फालिया- गरासिया जनजाति में गाँव की सबसे छोटी इकाई को फालिया कहा जाता है।

गरासिया जनजाति के प्रमुख मेले-
1. कोटेश्वर का मेला
2. चेतर विचितर मेला
3. गणगौर मेला
4. मनखां रो मेला- यह गरासिया जनजाति का सबसे बड़ा मेला है।
5. भाखर बावजी का मेला
6. नेवटी मेला
7. ऋषिकेश का मेला
8. देवला मेला

गरासिया जनजाति के प्रमुख वाद्य यंत्र-
1. बांसुरी
2. नगाड़ा
3. अलगोजा

गरासिया जनजाति के प्रमुख नृत्य-
1. लूर नृत्य
2. जवारा नृत्य
3. मांदल नृत्य
4. घूमर नृत्य
5. मोरिया नृत्य
6. गौर नृत्य
7. कूँद नृत्य
8. वालर नृत्य

सोहरी- गरासिया जनजाति के लोग अनाज का भंडारण कोठियों में करते है तथा इन्हीं कोठियों को सोहरी कहा जाता है।

प्रेम विवाह- गरासिया जनजाति में प्रेम विवाह प्रचलन में है। गरासिया जनजाति में पुत्र विवाह के बाद अपने माता पिता से अलग रहता है।  

सेवा विवाह- गरासिया जनजाति में वर, वधू के घर पर घर जंवाई बनकर रहता है उसे सेवा विवाह कहते है।

खेवणा या माता विवाह- गरासिया जनजाति में यदि कोई विवाहित स्त्री अपने प्रेमी के साथ भाग कर विवाह करती है तो उस विवाह को खेवणा या माता विवाह कहा जाता है।

मेलबो विवाह- गरासिया जनजाति में विवाह का खर्च बचाने के लिए वधू को वर के घर पर छोड़ देते है जिसे मेलबो विवाह कहते है।

आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह- गरासिया जनजाति में लड़की के बदले में उसी घर की लड़की को बहू के रुप में लेते है जिसे आटा-साटा या अट्टा-सट्टा विवाह कहा जाता है इस विवाह को विनियम विवाह भी कहते है।

विधवा विवाह- गरासिया जनजाति में विधवा विवाह भी प्रचलन में है। गरासिया जनजाति में विधवा विवाह करने को आपणा करना या नातरा करना या चुनरी ओढाणा कहा जाता है।

भील गरासिया- गरासिया जनजाति में कोई गरासिया पुरुष किसी भील स्त्री से विवाह कर लेता है तो उसके परिवार को भील गरासिया कहा जाता है।

गमेती गरासिया- गरासिया जनजाति में भील पुरुष किसी गरासिया स्त्री से विवाह कर लेता है तो उसके परिवार को गमेती गरासिया कहा जाता है।

सामाजिक परिवेश की दृष्टि से गरासिया जनजाति को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है जैसे-
1. मोटी नियात- गरासिया जनजाति में मोटी नियात वर्ग सबसे उच्च वर्ग माना जाता है। मोटी नियात वर्ग के गरासिया लोगों को बाबोर हाइया कहा जाता है।
2. नेनकी नियात- गरासिया जनजाति में नेनकी नियात वर्ग मध्यम वर्ग होता है। नेनकी नियात वर्ग के गरासिया लोगों को माडेरिया कहा जाता है।
3. निचली नियात- गरासिया जनजाति में निचली नियात वर्ग सबसे निम्न वर्ग माना जाता है।

कोंधिया या मेक- गरासिया जनजाति में मृत्यु भोज को कोंधिया या मेक कहा जाता है।

अनाला भोर भू प्रथा- गरासिया जनजाति में नवजात शिशु की नाल काटने की प्रथा को ही अनाला भोर भू प्रथा कहा जाता है।

गरासिया जनजाति की वेशभूषा-
1. पुरुषों की वेशभूषा- गरासिया जनजाति के पुरुष धोती व कमीज पहनते है। कमीज को झूलकी या पुठियो भी कहा जाता है। तथा सिर पर साफा बांधते है साफा को फेंटा भी कहा जाता है।

2. स्त्रियों की वेशभूषा- गरासिया जनजाति में स्त्रिया कांच का जड़ा हुआ लाल रंग का घाघरा, ओढ़णी व झूलकी, कुर्ता व कांचली मुख्य पुरु पहनती है।

गरासिया जनजाति के आभूषणा-
1. पुरुषों के आभूषण- गरासिया जनजाति में पुरुष हाथ में कड़े (कड़ले) व भाटली पहनते है, गले में पत्रला या हँसली पहनते है तथा कान में झेले या मुरकी, लूंग व तंगल पहनते है।

2. स्त्रियों के आभूषण- गरासिया जनजाति में कुँवारी लड़किया हाथ में लाख की चूड़ियाँ पहनती है तथा विवाहित स्त्रिया हाथों में हाथीदाँत की चूड़ियाँ पहनती है। गरासिया स्त्री सिर पर चाँदी का बोर, कान में डोरणे (टोटी या लटकन), मसिया पहनती है गले में बारली व बालों में दामणी (झेले) पहनती है नाक में नथ (कोंटा) पहनती है तथा हाथों में धातु की गूजरी और पैर में कडुले पहनती है।

हारी-भावरी- गरासिय जनजाति में की जाने वाली सामूहिक कृषि को हारी-भावरी कहा जाता हैं।  

Aata saata tradition back in vogue



Aata saata is a system where a family that enters into an alliance of their daughter only when the other family pledges to give them a daughter to be married in their family


The age old tradition of ‘aata saata’ is now becoming a way of life in Rajasthan rural areas. Experts say it is a fallout of the low sex ratio of girls and the society wants to use a sure shot means to ensure an alliance. Aata saata is a system where a family that enters into an alliance of their daughter only when the other family pledges to give them a daughter to be married in their family. The age of the girls offered for matrimony does not matter.

Radha Sen’s elder son was married eight years ago and she has two granddaughters aged five and three. She has not been able to secure a match for her younger son because there is no girl in the entire clan who can be given in ‘exchange’. “I am now being told to pledge my little granddaughters. I cannot do that even if my son remains unmarried,” she said.

Similar is the case with Mahendra Singh who is unable to find a match for his brother who has crossed thirty five as they have no girl to give in aata saata. “One cannot take a risk with extended families. If they refuse to honour the promise, the bride will be taken away. There have been many such cases in my community,” he said.

According to activists, there are several reasons for this custom gaining prevalence. “Rural people prefer girls from their communities. As a last resort, they pay to get brides from Assam, Jharkhand, Bihar, Chhatisgarh and Andhra Pradesh, which is human trafficking,” says Dr Virendra Vidrohi, a social activist from Alwar.

But concern for keeping property, especially farmlands, safe from outsiders has caused the increase in aata saata. There has been an increase in the child sex ratio after 2011. As per Rajasthan government records, the sex ratio that was 888 females per 1000 males in 2011 has increased to 925 per 1000 in 2015. “This is the major reason why there is growing insistence on promising even newborn girls in marriage under aata saata, said Vidrohi.

While some are succumbing to pressure; there is a glimmer of hope too that there are some will resist; “I plan to bring an orphan as wife for my son. I will put an application with the government homes for this,” said Radha Sen.


ONE OF THE CASES

Radha Sen’s elder son was married eight years ago and she has two granddaughters aged five and three. She has not been able to secure a match for her younger son because there is no girl in the entire clan who can be given in ‘exchange’.


Tuesday 18 August 2020

Baji Rao Peshwa



मराठा_शासक_वीर_पेशवा_बाजीराव_प्रथम का जन्म सन् 1700 में हुआ था ॥

बाजीराव प्रथम मराठा साम्राज्य का महान् सेनानायक था। वह बालाजी विश्वनाथ और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा पेशवा (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को ‘बाजीराव बल्लाल’ तथा ‘थोरले बाजीराव’ के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया।

योग्य सेनापति और राजनायक

बाजीराव प्रथम एक महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-

“आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।”

इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-

“निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।”

राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

दूरदृष्टा

बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ‘हिन्दू पद पादशाही’ स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

साहसी एवं कल्पनाशील

बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है।

साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया।

अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- “हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।” बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया।

उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।

‘हिन्दू सत्ता का प्रचार”

हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा।

गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।

सफलताएँ

बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-

शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।

शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।

जीते गये प्रदेशों को वापस करना।

युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।

छत्रपति शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई।

इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय ‘पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।’ 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।

दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है।

मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।

निज़ामुलमुल्क पर विजय

बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा।

निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-

बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।

बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।

पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।

वीरगति

इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया।

अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, 28 अप्रैल, 1740 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।

मराठा मण्डल की स्थापना

बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था।

इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था।

लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।

मराठा शक्ति का विभाजन

बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए।

इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था।

उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।

विलक्षण व्यक्तित्व

बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था।

उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह ‘लड़ाकू पेशवा’ के नाम से भी जाना जाता है।


Tuesday 11 August 2020

बच्चियों की भ्रुण हत्या होने के क्या कारण है?

हरियाणा मे जमीने काफी महंगी है यहां दिल्ली के नजदीक और भी ज्यादा महंगी जमीने है... कई सालो से यहां लडकी कम पैदा करते है उसका सबसे बडा कारण यही सब यानि लडकी पैदा हो गई माने सारी उमर दान देते रहो ..... और भी कई परेशानी जैसे लफंडरो से बचाओ एसिड आदि ... बच्चियो बुढियो किसी को हवसी भेडिये नही छोडते.... दहेज . जायदाद में हक का केस. साल मे 6 बार सीधा कोथली . पीलीया. भात आदि उपर से यदि मारपीट होने पर लडकी पिहर रहने लगे तो समाज कहता है कि धंधा बना लिया है दहेज केस करके लुटने का..... पहले अपने ही देश मे चैकप करवाकर मार देते थे अब विदेश से चैकप करवा लेते है... यानि अपने घर लडकी पैदा ही ना हो तो दुसरो की बहन बेटियो को कुछ भी कहने का लाइसेंस मिल गया ड्रामा करेंगे कि भगवान ने बेटी ही नही दी.... 

अब कुछ किसान जातियो ने समाधान निकाला कि अट्टा सट्टा शादी करेंगे यानि जिस घर लडकी देंगे उसी घर से लडकी लेंगे... यानि ना कुछ देना ना लेना  ना कोई छोटा ना बडा... परन्तु हिन्दु धर्म के ठेकेदार इसे मुस्लमानी परम्परा कहकर मजाक उडाते है... हरियाणा मे गौत्र मिलाए जाते है कि वो आपस मे ना मिले अट्टा सट्टा मे गौत्र नही मिलते.... हरियाणा मे किसान जातियां ऐसी शादी खुब कर रहे है और कामयाब भी है... लोग लडकी पैदा भी कर रहे है क्योकि नही तो उनके लडके की भी शादी नही होगी...

Thursday 16 July 2020

शहीद चन्द्रशेखर आजाद


क्राँतिकारियों के कुछ एक मार्मिक किस्से आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ...पढ कर जिसकी आँखों में पानी न आए...वो स्वंम को पत्थर दिल घोषित कर ले...!!!

H.R.A जो बाद में H.S.R.A बनी.... के सदस्य और चंद्रशेखर आजाद के साथी विश्वनाथ वैश्मपायन जिन्हें काकौरी कांड में सजा भी हुई थी...उन्हौंने एक किताब लिखी...अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद...उस किताब के कुछ संस्मरण आपके सामने रखता हूँ...!!!

लाहौर षड़यंत्र केस में सहारनपुर से शिव वर्मा,जयदेव कपूर,डा. गया प्रसाद केवल इसलिए पकड़े गए कि कहीं जाने के लिए पैसे नहीं थे...!!!बेचारे पैसों की तंगी में कहीं भाग ही नहीं पाए और दुश्मन गोरी सरकार के जाल में फँस गए...!!!

काकौरी काँड में सजा पाए क्राँतिकारी योगेश चंद्र चटर्जी को छुड़ाने को आजाद,भगत सिँह,बटुकेश्वर,शिव वर्मा,भगवानदास माहौर,सदाशिव सभी कानपुर पहुँचे...मगर कानपुर पहुँच कर आजाद की जेब कट गई...सारे पैसे आजाद जी के पास होते थे योगेश बाबू हथकड़ियां बजाते साथियों के आगे से निकल गए मगर बिना पैसे योगेश बाबू को छुड़ाने का मतलब ये था कि पूरी पार्टी के पकड़े जाने का जोखिम...आजाद के आदेश से सारे क्राँतिकारी वापस आ गए मगर मकान पर आकर सब फूट फूट कर रोए...उस दर्द का अंदाज उनके सिवा और कौन लगा सकता है...!!!

क्राँतिकारियों के पास केवल एक ही जोड़ी अच्छे कपड़े होते थे...अच्छे कपड़े इसलिए रखने पड़ते थे ताकि अंग्रेजों की नजर में ना आएं...Gentleman दिखाई पड़े...!!!

मकान पर आजाद जैसा क्राँतिकारी लंगोटी में ही रहता था...और ठंड में लगोंटी में ही जमीन पर अखबार बिछाकर अपनी धोती ओढकर सो जाया करते थे...!!!जिस सर्दी में बड़े बड़े नेता सर्दी को दूर करने के लिए वाईन का सहारा लिया करते थे उस सर्दी से दो दो हाथ हमारे क्राँतिकारियों की पतली सी धोती ही करती थी...!!!

जब सांर्डस की हत्या की गई तब उन महान क्राँतिकारियों के पास एक चव्वनी तक नहीं थी...जयगोपाल जो बाद में मुखबिर बना वो दस रुपए कहीं से माँग कर लाया और तब कुछ खाना नसीब हुआ...!!!

जब आजाद शहीद हुए तो उनके मृत शरीर को लातें मारी गई...अफसरों ने अपने कुत्तों से मृत देह का खून चटवाया...लाश के अपमान के वास्ते पार्थिव देह को जमीन पर घंसीटा गया...गालियाँ दी गई...!!!

कई बार खाना कम होने के कारण भगत और आजाद यह कहकर भूखे ही सो जाते ताकि बाकी साथियों का पेट भर सके...!!!ज्यादा लंबा लिखकर आपका मन उचाट नहीं करना चाहता...यहाँ उन क्राँतिकारियों के झेले कष्टों का एक प्रतिशत भी वर्णन कर पाया हूँ... इतने में ही उन वीरों के कष्टों को समझ कर दिल से उनको नमन कर देना...मेरा आशय पूर्ण हो जाएगा...!!!


Saturday 11 July 2020

हरियाणा






मेरा_हरियाणा 

क्या आप ऐसी भूमि की कल्पना कर सकते हैं जहां परिवार के धन का निर्धारण इस बात से होता है की परिवार में गायों की संख्या कितनी है! जहां हर सुबह सूरज हरी धान के खेतों पर अपनी किरणों का रंग बिखेरता है और शाम के रंगीन क्षितिज एक अपनी ही तरह की बोली में अनोखी और निर्दोष सौहार्द के गीत गुनगुनाते है।

हुक्के, खाट, पीपल, बरगद, कुए, दामण ……. जी हां, यही है हमारा हरियाणा ।

हालांकि सब कहते हैं कि हरियाणा हमारे देश की “ग्रीन बेल्ट” है, लेकिन हमने यह साबित कर दिया है कि हरियाणा सिर्फ़ देश  का “अन्नदाता” हि नहीं बल्कि औद्योगीकरण के लिए भी एक केंद्रीय बिन्दु बन के उभर रहा है
जहां वेदो का निर्माण हुआ, मिथकों और किंवदंतियों के साथ भरा हुआ, हरियाणा का 5000 साल पुरना इतिहास बहुत समृद्ध है। कुरुक्षेत्र युं तो एक साधारण क्षेत्रीय शहर की तरह दिख सकता है, लेकिन वास्तव में हिंदू शिक्षाओं के अनुसार यहि से ब्रह्मांड का उद्गम हुआ और यहि बुराई पर अच्छाई की विजय हुई। ब्रह्मा ने यहि मनुष्य और ब्रह्माण्ड का निर्माण किया और भगवान कृष्ण ने भगवद गीता का धर्मोपदेश दिया। इस्सी मिट्टी पर संत वेद व्यास ने संस्कृत में महाभारत लिखा। महाभारत युद्ध से भी पहले, सरस्वती घाटी में कुरुक्षेत्र क्षेत्र में दस राजाओं की लड़ाई हुई थी। लेकिन लगभग 900 ईसा पूर्व में, यह महाभारत का ही युद्ध था, जिसने इस क्षेत्र को दुनिया भर में प्रसिद्धि दिलाई। महाभारत ने हरियाणा को बहुधनीयका, भरपूर अनाज और बहुधना की भूमि, विशाल धन की भूमि का पता लगाया। “उत्तर भारत का गेटवे” की तरह खड़े हरियाणा कई युद्धों का साक्षी रहा है। पानीपत की तीन प्रसिद्ध लड़ाईएं हरियाणा के आधुनिक पानीपत शहर के पास हुईं।

हमारे यहां के लोग दुनिया में सबसे जुदा है ….. हम जो करते है खुल के करते हैं हमारा ये अपनापन ही तो है जो लोगो को हमारे पास खींच लता हैं … और हाँ भोजन को कैसे भूल सकता है कोई ?? 🙂 हम खाने के लिए जीते हैं मखण, दूध, खोया, मलाई, चूरमा, लाडू, गुड़, कढ़ी, बथुए का रायता, बाजरे की रोटी ..? “जित दूध दही का खाना इस्सा म्हारा हरयाणा” ….. इसे तो आपने सौ बार सुना होगा। यह वह भूमि है जहां आज भी खेतों में जाने वाले किसान अपने साथ रोटी और प्याज़ ले जाते हैं, जहां नाश्ते में लस्सी के बिना दिन अधूरा है और रात में लोगों को गर्म दूध के गिलास के बिना नींद नहीं आये। हमारे यहाँ हर क्षेत्र में अदालत और पुलिस स्टेशन जरूर है, लेकिन आज भी  हमारा विश्वास पंच-परमेश्वर और पारंपरिक पंचायती राज में ज्यादा हैं, वो कहते हैं न जब आपसी विचार-विमर्श और वार्ता से विवाद सुलझ जाये तो कोर्ट कचेरी के चक्कर कौन काटे। यद्यपि आधुनिक युग ने हरयाणा में भी बहुत कुछ बदला है , लेकिन आज भी हमारे यहाँ  विशेष रूप से गांवों में, हम चाचा-चाची, ताउ-ताई, दादा-दादी, भाई-भाभी ……. एक ही छत के नीचे, संयुक्त परिवार रहते मिल जायेंगे। आज भी हम अपने माता-पिता के परामर्श के बिना, चाहे छोटा हो या बड़ा , निर्णय नहीं लेते। हालांकि हमने आधुनिकीकृत दृष्टिकोण को अपनाया है, लेकिन आज भी हम पहले अपने बड़ों का सत्कार पहले और अपना खाना बाद में ग्रहण करते हैं।

हाँ हम अभी भी पुरानी और  पारम्परिक प्रथाओं को मान्यता देते हैं व् उनका नियमित पालन करते हैं चाहे वो हल हो या कुआँ ……। हरियाणा की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का इतिहास वैदिक काल तक जाता है। राज्य के लोकगीत जिसे रागनी के नाम से भी जाना जाता है बहुत ही प्रसिद्ध है व् हरयाणा के इतिहास को संजोये हुए अनेक किस्से व् कहानिओं को संजोती है। हमारे हरियाणा के लोगों की अपनी परंपराएं हैं।ध्यान, योग और वैदिक मंत्र का जाप जैसी पुरानी परंपराएं आज भी लोगों  द्वारा निभाई व् मनाई जाती है। प्रसिद्ध योग गुरु स्वामी रामदेव हरियाणा के ही महेंद्रगढ़ से हैं। होली, दीवाली, तीज, मकर सक्रांति, राखी, दशहरा …….या फिर सावण का झूला त्यौहार हमारी परंपरा का एक अटूट हिस्सा है … .मेहन्दी हमारे लगभग सभी त्योहारों का एक अभिन्न हिस्सा है। हमारी संस्कृति और कला नाटक, किस्से, कहानी और गीतों के माध्यम से व्यक्त की जाती है जिसे गाँवों की आम भाषा में सांग बुलाते हैं। हमारे यहां लोग गहनों के बहुत शौकीन हैं। गहनों में आमतौर पर सोने और चांदी से बने होते हैं मुख्य वस्तुओं में हार, चांदी से बने हंसली (भारी चूड़ी), झलरा (सोने के मोहर या चांदी के रुपए की बनी लम्बी तगड़ी) करणफुल और सोने की बुजनी और पैरों में करि, पाती और छैल कड़ा पहनते हैं।

हमारी सबसे प्रमुख विशेषता तो हमारी भाषा ही है है या यूँ कहें, जिस तरीके और लहजे से यहाँ बात की जाती हैं वो ही तो अलग बनता है हमे।बंगारु हमारे यहाँ बोली जाने वाली सबसे लोकप्रिय बोली है जिसे आमतौर से हरियाणवी के नाम से जाना जाता है, हमारी बोली संभवतः बाहर के लोगों को ठेठ व उग्र प्रतीत हो, लेकिन इसमें ग्रामीण मिटटी की महक से भरपूर व्यंगात्मक सरलता और सीधापन भरा है। आप क्या बोलेंगे हमारे बारे में जो ऊपर से कठोर, बोली से उग्र लेकिन; दिल इतना साफ़ और मक्खन सा नरम? और इस भाईचारे के मक्खन का आनंद लेने के लिए, आपको हरियाणा आने की जरूरत नहीं है बस किसी रस्ते चलते हरयाणवी से दो बातें कर के देख लीजिये।
हरियाणा ने तेजी से आधुनिकता को अपनाया है;  आज, रिकार्ड समय के भीतर हरियाणा ने अपने सभी गांवों को बिजली, सड़कों और पीने योग्य पानी से जोड़ा है। आज हम भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है, जो हमारे परिश्रम से ही नहीं बल्कि हमारी मिटटी हमारे पूर्वजों के के आशीर्वाद से फलित हो पाया है।
इसमें कोई संदेह नहीं है, यहां कर्म और अनुभव की अपार संभावनाए हैं और रहेंगी 


हरियाणवी संस्कृति – बोलचाल के शब्द

इस पोस्ट में हरियाणा के संस्कृति के आम-बोलचाल के शब्द दिए गए है| जिनका चलन धीरे-धीरे खत्म हो गया है| ये शब्द हमारी हरियाणवी बोली की शान होते थे| आजकल ये शब्द केवल किताबों में ही देखने को मिलते है|
कई बार हरियाणवी बोली के शब्दों से संबन्धित प्रश्न हरियाणा से संबन्धित विभिन्न एक्जाम में पूछ लिए जाते है| हमें उम्मीद है नीचे दी गई जानकारी ऐसे एक्जाम में आपकी मदद करेगी|

हरियाणवी संस्कृति – बोलचाल के शब्द

1 बरही/ नेजू - कुएं से पानी खींचने की मोटी रस्सी|
2 दोघड - सिर पर ऊपर नीचे एक साथ दो घड़े|
3 पनिहारन - कुएं से पानी लाने वाली औरतें|
4 पनघट - वह सार्वजानिक कुआं जहाँ से पीने का पानी लाया जाता था|
5 सूड़ - खेत में हल चलाने से पहले की जाने वाली कटाई- छंटाई| (खरपतवार)
6 न्याणा - गाय का दूध निकालने के पूर्व उसके पिछले पैरों को बांधने का रस्सा|
7 नेता - हाथ से दूध बिलोने की रई को घुमाने वाला रस्सा|
8 नांगला - रई को सीधी रखने के लिए डाले जाने वाले दो रस्से |
9 कढावणी - हारे में दूध गर्म करने का मटका|
10 बिलोवना/ बिलोवनी - दूध बिलोने के लिए प्रयोग होने वाला मटका/
11 जमावनी - दूध जमाने का मटका |
12 घीलडी - घी डालने का मिटटी का पात्र |
13 जामण - दूध ज़माने के लिए डाली जाने वाली छाछ |
14 रई - दूध बिलोने का लकड़ी का यन्त्र|
15 हारी - कपडे या घास से बना गोल घेरा जिस पर गर्म बर्तन रखा जाता था|
16 हारा - गोबर के कंडे (उपले) जलाकर कुछ पकाने का स्थान |
17 बांठ/ चाट/ बाखर - पकाकर पशुओं को डाली जानी वाली खाद्य सामग्री, जैसे बिनोले, ग्वार, चने आदि|
18 गोस्से/ उपले/ पाथिये/ थेपड़ी - गोबर के कंडे|
19 कोठला - अनाज डालने का मिटटी का बड़ा पात्र|
20 कोठली - अनाज डालने का मिटटी का छोटा पात्र
21 कूप/ बूंगा - चारा डालने का सरकंडों/ घासफूस से बना ढांचा|
22 मन्जोली - मुज़ की गठरी|
23 मूंज - सरकंडों में से निकला गया वह हिस्सा जिससे रस्सी बनती है|
24 मोगरी - मूंज. फसल आदि को कूटने की मोटी लकड़ी|
25 खाट - चारपाई|
26 प्लाण - गाडी में जोतने से पहले ऊंट की पीठ पर रखा जाने वाला एक लकड़ी का ढांचा |
27 कजावा - ऊंट की पीठ पर रखकर सामान धोने का एक साधन, जिसे प्लाण पर रखा जाता था|
28 राछ - औजार |
29 कूंची - ऊंट की सवारी करने के लिए उसके ऊपर रखा जाने वाला एक ढांचा|
30 बींड - ऊंट को हल में जोतने के लिए प्रयोग होने वाला रस्सों का जाल |
31 जुआ/ जूडा - ऊंट अथवा बैल को हल में जोतने के लिए प्रयोग होने वाला लकड़ी का ढांचा|
32 कुस/फाल - हल में प्रयोग होने वाला लोहे का उपकरण  |
33 ओरना - बिजाई के काम आने वाला बांस से बना एक उपकरण |
34 बिजंडी - बीज डालने का थैला या अन्य पात्र|
35 हलसोतिया - बिजाई शुरू करने के दिन का उत्सव||
36 हाली - हल चलाने वाला|
37 पंजवाल - खेत में पानी देने वाला|
38 पाली - पशु चराने वाला|
39 चीड़स - चमड़े का एक पात्र जिससे कुएं से पानी निकाला जाता था|
40 पूली - फसल की कटाई से समय कुछ मात्र के एक साथ बांधे गए पौधे |
41 दुबका - ऊंट या किसी अन्य पशु के पैरों को बांधना ताकि वह भाग न सके|
42 झावली - मिटटी का एक पात्र, जिसमें सामान डालते थे|
43 झावला - दूध गर्म करने के मटके (कढ़ावनी) को ढकने का मिटटी का पात्र जिसमें भाप निकलने को छेद होते थे
44 मांडना - गेरू या रंगों से दीवारों पर की जाने वाली चित्रकारी|
45 साथिये - स्वस्तिक आदि |
46 कुंडा - मिटटी का एक पात्र जिसमें आटा गूंथा जाता था|
47 कुलडा - मिटटी का मटके जैसा छोटा पात्र, जो पानी लस्सी आदि डालने के काम आता था|
48 कुलड़ी - कुलडे से छोटे आकर का पात्र|
49 सिकोरा - मिटटी का एक बर्तन|
50 बरवा - मिट्टी का एक बर्तन |
51 सीठना - दामाद को गीत के रूप में दी जाने वाली गालियाँ |
52 खोड़िया - एक नृत्य |
53 बटेऊ - दामाद
54 लनीहार - दुल्हन को लेने आया मेहमान|
55 बधाण - ऊंट/बैल गाडी, ट्रक्टर ट्राली या ट्रक आदि में लादे गए सामान को बांधने का रस्सा
56 सांकल - दरवाजे की कुण्डी|
57 चूरमा - मोटी रोटी का चूरा बनाकर उसमें घी डालकर बनाया गया व्यंजन|
58 लापसी - आटे को भूनकर उसमें मीठा पानी मिलाकर बनाया गया गाढा व्यंजन|
59 पांत/ सीरा - आटे को भूनकर उसमें मीठा पानी मिलाकर बनाया गया पतला व्यंजन
60 कसार/ पंजीरी - आटे को भूनकर उसमें मीठा मिलकर बनाया गया सूखा पाउडर |
61 - सत्तूभूने हुए जौ का आटा|
62 बिजणा पंखी - हाथ से हवा करने का पंखा / हाथ से हवा करने की घूमने वाली पंखी|
63 टोकनी - पीतल का घड़ा|
64 झाल/ मौण - मिटटी का घड़े से बड़े आकार का बर्तन|
65 सुराही - लम्बी गर्दन और बीच में पानी निकालने के छेड़ युक्त घड़े के आकर का मिटटी का पात्र|
66 गिर्डी - पत्थर का गोल आकर का एक उपकरण जो गहाई के काम आता है|
67 रहट - बैलों की मदद से कुएं से पानी निकालने का एक यन्त्र|
68 धोरा/ धाना - खेतों में पानी बहाने का नाला|
69 सरकंडा/ झूंडा/ झूंड - एक प्रकार का पौधा जिस के तने और पत्ते छप्पर आदि बनाने काम में लिए जाते हैं
70 छाज - सरकंडे के उपरी हिस्से तुलियों से बना एक पात्र जो अनाज साफ़ करने के काम आता है|
71 छालनी - लोहे से बना एक पात्र जो छानने के काम आता है|
72 चाकी - पत्थर से बना आटा पीसने का यन्त्र|
73 कीला - हाथ से चलने वाली चक्की का धुरा जिस पर ऊपरी पाट घूमता है|
74 मानी - हाथ चक्की के ऊपरी पाट में लगने वाला लकड़ी का टुकड़ा जो कीले पर टिकता है|
75 - गरंडहाथ चक्की का घेरा जिसमें पिसा हुआ आटा गिरता है|
76 छिक्का - घी, दूध या रोटी रखने का रस्सी का जाला| पशुओं के मुंह पर लगने वाले जले को भी छिक्का कहते हैं
77 रास - ऊंट की लगाम|
78 हाथेली - हल का वह भाग जिसे पकड़ कर हल चलाया जाता है|
79 चाक - लकड़ी का बना वह गोल चक्का जिस पर रस्सी चढ़ा कर कुंए से पानी निकाला जाता है|
80 नोट - मिटटी के मटके आदि बर्तन बनाने का यंत्र भी चाक कहलाता है|
81 कहोड - ऐसी लकड़ी जो ऊपर दो हिस्सों में बंट जाती है और जिस पर चाक लगाकर कुएं से पानी निकाला जाता है
82 ढाणा - कुएं से चीड़स से पानी निकाल कर जिस हौद में डाला जाता है|
83 खेल - पशुओं के पानी पीने की हौद|
84 गूण - कुएं से पानी खींचते समय ऊंट या बैल जिस गढ़े में जाते हैं|
85 मंडासा - कुएं के उपरी हिस्से पर बनायीं गयी दीवार|
86 बिटोड़ा - गोसे/ उपलों का व्यवस्थित ढेर|
87 पराली - चावल के पोधों का भूसा|
88 कड़बी - बाजरे/ज्वार के पोधों का भूसा|
89 तूड़ी - गेंहूँ/जौ के पोधों का भूसा|
90 नलाव/ नलाई/ निनान - फसल में उगी खरपतवार को निकलना


ब्राह्मण

ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है। इसका उत्तर इस प्रकार है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी न...