Tuesday, 2 June 2020

Brahmin Pandit Don



डकैतो के गुरू #रामआसरे_तिवारी (फक्कड) ✨
 ब्राह्मण ने जब जब हथियार उठाए है लोगो के दिल दहलाए है 💪
बीस साल तक चंबल के बीहड़ों में आतंक का पर्याय रहे कुख्यात डकैत रामआसरे तिवारी उर्फ फक्कड़़ सलाखों से बाहर आकर समाज की मुख्यधारा में आने की संभावना क्षीण होती जा रही है। 2003 में गिरोह के मुख्य सदस्यों के साथ मध्यप्रदेश के रावतपुराधाम में आत्म समर्पण करने के बाद से ही फक्कड़ जेल में हैं। गवाहों के कोर्ट में हाजिर नहीं होने या फिर मुकरने की वजह से दुर्र्दात डकैत मुकदमों में धड़ाधड़ बरी हो रहा था लेकिन सिरसा कलार थाना क्षेत्र के ग्राम गिगौरा में सत्रह साल पहले उसके द्वारा किए गए पिता - पुत्र के अपहरण के मामले में वादी ने गवाही देने का साहस किया। जिसके चलते विशेष सत्र न्यायालय ने रामआसरे कुसुमा नाइन और गिरोह के एक सदस्य को उम्रकैद की सजा सुना दी है।

डाकू से साधू का चोला ओढ़ने वाला यह डकैत गुनाहों की सजा तय होने से विचलित है। खौफ उसके चेहरे पर साफ झलकता है। रामआसरे तिवारी तिवारी उर्फ फक्कड़ ने 1982 में गिरोह गठित किया। करीब 22 साल उसने बीहड़ में समानांतर सरकार चलाई। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीन-तीन राज्यों की पुलिस उसकी घेराबंदी में लगी रही। करोड़ों रुपये गिरोह को नेस्तनाबूत करने की योजना में खर्च हो गए लेकिन पुलिस उसकी परछाई तक नहीं छू पाई। उम्र के आखिरी पड़ाव में रामआसरे उर्फ फक्कड़ ने हथियार डालने का निर्णय लिया। चूंकि मध्य प्रदेश में उसके खिलाफ कम मुकदमे दर्ज थे लिहाजा उसकी गिरफ्तारी का श्रेय लेने के लिए मध्यप्रदेश पुलिस के आला अधिकारियों से उसका गुप्त समझौता हुआ। परिवार वालों के शस्त्र लाइसेंस, सामान्य कैदियों से अलग सहूलियतें और मंदिर में रखने जैसी तमाम शर्र्ते पूरी करने का भरोसा मिलने के बाद वर्ष 2003 में रामआसरे उर्फ फक्कड़़, कुसुमा नाइन समेत गिरोह के छह सदस्यों ने रावतपुरा धाम में मध्य प्रदेश पुलिस के अधिकारियों के समक्ष समर्पण कर दिया। परंतु उसके गुनाहों की फेहरिस्त में अपहरण, हत्या, पुलिस मुठभेड़, गैंगस्टर के 103 मुकदमे दर्ज थे। 90 मुकदमे कुसुमा नाइन के खिलाफ दर्ज हैं। ज्यादातर मुकदमे जालौन, इटावा, औरैया, कानपुर देहात और आगरा जनपद में दर्ज होने के कारण रामआसरे और कुसुमा नाइन को ग्वालियर से उरई जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। इसके साथ ही वे सभी सहूलियतें काट दी

Brahmins Pandits Sena ( Ranveer Sena )



#आधुनिक_भारत_के_परशुराम_बाबा_बरहमेश्वर

अभी देश को आजद हुए दो वर्ष ही हुए थे दसवें महिने के 22 तारीख 1949 ये दिन बिहार के संदेश पाँचायत के खोपिरा गावँ के लिये दिवाली जैसा था!!

गावँ के जमींदार और मुखिया बाबू रामबालक सिंह जी के यँहा आधुनिक भारत के परशुराम और गावँ वालों के लिये छोटे मुखिया और बरहमेश्वर दादा ने जन्म लिया था!!

नाम रखा गया बरहमेश्वर नाथ सिंह !!

बरहमेश्वर दादा से उनकी 1 बड़ी बहन थी बाद में दादा के 2 छोटे भाई भी हुए!!

जिंदगी ने छोटी से उम्र में ही कसौटी पर तोलना सुरु कर दिया जब दादा 4 से 5 साल के थे तब उनकी माता जी ने उनको उस रूम में सुला दिया जिस में अनाजों के बोरे रखे गए थे!!

अनाज की सारी बोरिया दादा के ऊपर गिर गयी लेकिन वो सकुशल बच गये बचते कैसे नही आधुनिक भारत के परशुराम जो थे!!

उनका लालन पालन गावँ में ही हुआ उन्होंने प्रथमिक शिक्षा पास के ही बेलऊर मध्य विद्यालय से प्राप्त किया !!

बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के मालिक थे हमेशा क्लास में अग्रणी आते थे!!

माध्यमिक शिक्षा के बाद वो उच्च शिक्षा आगे के शिक्षा के लिये वो आरा गए  जँहा से कुछ दिनों के पश्चात उनके मौसा जी उनको उच्च शिक्षा के लिये पटना लेकर चले गए!!

उन्होंने दसवीं की परीक्षा HD हरप्रसाद दास जैन कॉलेज से किया!!

इसके बाद बरहमेश्वर नाथ जी ने 11वीं में साइंस से पढ़ाई से पटना के सर ZD कॉलेज पाटलिपुत्र में एडमिशन लिया और 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से उतीर्ण हुए!!

अब तक उनके मन ने देश की सेवा सैनिक बन कर करने की भावना ने दृढ़ संकल्प कर लिया था!!

17 साल की उम्र में दादा N D A के परीक्षा में बैठे और उन्होंने परीक्षा पूरी तरह तय कर ली उनका वायु सेना में बिहार का पहला ऑफिसर बनना तय था लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था !!

उनको तो सदी के सबसे बड़े महानायक और किसान नेता के रूप में स्थापित करने की तैयारी थी नियति की!!

इसी वर्ष आपसी रंजिश के एक मुकदमे में दादा का नाम डाल दिया गया!!

और इस अंधे कानून ने देश सेवा से ओत प्रोत एक 17 साल के नाबालिक बच्चे को जेल भेज दिया!!

इन्ही कारणों से बरहमेश्वर नाथ सिंह जी का वायु सेना में जाने का सपना और उनकी दिन रात की मेहनत बेरंग हो गई!! 

इसी साल वो जेल से बाहर निकले और संदेश पँचायत के लोगों ने सर्वसम्मति से यानी निर्विरोध मुखिया चुन कर अपने छोटे मुखिया को ब्ररहमेश्वर मुखिया बना दिया!!

ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह पूरे बिहार के सब से कम उम्र में मुखिया बन चुके थे वो भी मात्र 17 साल की उम्र में !!

आपको उम्र में टेक्निकल गरबर लेगगा लेकिन उनका सोर्टफिकेट उम्र उनके वास्तविक उम्र से लगभग दो साल जयदा था जो नई नई आजादी पाए देश मे एक सामान्य सी बात थी!!

ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह अब संदेश प्रखंड के खोपिरा पंचायत के साथ साथ अन्य आस पास के जगहों में अपनी न्याय करने की क्षमता और न्याय के लिये किसी भी चट्टान से टकराजाना लोकप्रिय होने लगे !!

उन्होंने अपने पँचायत में दारू गाजा ताश जुआ आदि पर पूर्णतया रोक लगा दी !!

जब कुछ सरकारी कोटे से बटने के लिये आता तो ब्रह्मेश्वर  दादा उनको हमेशा गरीबों के बीच मे बाँटते जिस में वो दलितों का खास ख्याल रखते और हमेशा किसी भी योजना में वो घर से कुछ न कुछ लगा कर खर्च करते!!

एक बार मुखिया लोगों की BDO के साथ मीटिंग चल रही थी जँहा पर किसी अन्य प्रखंड के मुखिया के साथ BDO ने अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया बदले में ब्रह्मेश्वर दादा ने उसे वँही पर पिट दिया!!

यँहा पर उनका प्रतिकार जाती के कारण नही न्याय अन्याय के कारण था बाद में दादा को इस केस में भी जेल जाना पड़ा!!

उन्होंने मुखिया रहते हुए बहुत से आदर्श स्थापित किये जो आज भी किसी नेता के लिये असंभव ही है!!

उन्होंने अपने जवानी के दिनों में जब नक्सल आंदोलन का कोई नाम निशान नही था तब बहुत से ऐसे कार्य किये जो ब्रह्मेश्वर दादा के वास्तविक चरित्र को पहचानने में आपकि मद्दत कर सकते हैं!!

दादा ने मुखिया रहते खोपिरा माध्यमिक स्कूल का निर्माण करबाया खोपिरा पँचायत भवन का निर्माण करवाया साथ मे यात्रियों के ठहरने के लिये भगवानपुर में एक ठहराव केंद्र बनाया जिसमे उन्होंने खुद के देख रेख में घर से टेंडर से ज्यादा पैसे लगा कर इन सब का निर्माण कराया!!

जब कभी देवभूमि जाने का मन हो तो खोपिरा जरूर जाइये आपके सबसे बड़े देवता के क्रर्मों से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा उनकी ईमानदारी और दूरदर्शिता का एक बहुत बड़ा प्रमाण खोपिरा माध्यमिक विद्यालय है जो उनके जवानी के दिनों से लेकर आज तक वैसे का वैसा खड़ा है!!

जबकि उनके श्राद्ध कर्म से 1 दिन पहले वँहा पर अग्नि कांड हुआ था जिसमें 21 सिलेंडर फट गए थे!!

छोटी से उम्र में ही ब्रह्मेश्वर दादा अपने साहस न्याय और दूरदर्शीता के कारण पूरे भोजपुर में प्रशिद्ध हो गये!!

उनके पास किसानों और मजदूरों दोनो के लिये विजन था वो कृषि मजदूरों को मजदूर नही भूमिहीन किसान के नाम से बुलाते थे!!

गरीब दलित वर्ग को अपने पुत्र के समान मानते थे और वो कहते थे कि भूमिहीन किसान का देहरी किसी श्रमिक से ज्यादा होना चाहिये!!

लेकिन न्याय के देवता के रहते सवर्णों के साथ अन्याय का दौर ससस्त्र नक्सल अत्याचार सुरु हो गया जो अब खेत लूटने से बढ़ते हुए नर्षनहारों के दौर तक जा चुका था!!

ब्रह्मेश्वर दादा का कहना था हिंसा को खत्म करना ही सबसे बड़ा अंहिसा है!!

जब हिंसा सरकार और सिस्टम के द्वारा आश्रय प्राप्त हो तो उसके खिलाप चुप रहना नपुंसकता है!!

ब्राह्मणों का गैर ब्राह्मण साम्राज्य निर्माणों में योगदान





ब्राह्मणों का गैर ब्राह्मण साम्राज्य निर्माणों में योगदान :

1. जाट रियासत : जाटों की कुछ समय के लिए रही एकमात्र रियासत भरतपुर जिसके राजा हुए सूरजमल। इस रियासत को जितवाया एक ब्राह्मण दीनानाथ शर्मा ने। दीनानाथ शर्मा को सामन्त राजे पेशवा ने जयपुर भेजा था। यहां उन्होंने एक सैनिक बदन सिंह को शस्त्र में पारंगत किया और एक सेना तैयार की और फिर इतिहास ने देखा कैसे उन्होंने एक जाट का राजतिलक किया और खुद सतारा वापिस लौट गए।

2. सिख रियासत : सामन्त बाजीराव राजे पेशवे के वंशज थे राजे माधवराव पेशवे। इन्होंने ना सिर्फ ब्रज की पवित्र भूमि को मुसलमान शासकों से छुड़वाया बल्कि लाहौर में बड़ी विजय प्राप्त की । लाहौर का वो किला इन्होंने तब "मिसलों" में बंटे सिखों को दिया और यही से एक महाराजा रणजीत सिंह का शासन शुरू हुआ। सिख मिसलें एक हुईं। 

3 . राजपूत साम्राज्य : हालाँकि राजपूत हमेशा अपनी वीरता, अपने साम्राज्यों, अपने बलिदान के लिए जाने जाते रहेंगे। एमजीआर एक समय ऐसा आया जब राजपूत शक्ति आपस में लड़ लड़ कर गौण हो गयी। जब बुंदेलखण्ड की रियासत के राजा महाराज छत्रसाल सिंह की बहू बेटियां मुसलमानों के शिकंजे में आ गयीं। तब उन्होंने भारत के इतिहास के सबसे महान योद्धा सामन्त राजे बाजीराव पेशवे को याद किया। 
इतिहास ने देखा की जब बाजीराव को सन्देश मिला तो  वो भोजन कर रहे थे। भोजन को छोड़ उसे नमस्कार कर खड़े हुए बाजीराव को उनके सलाहकार ने कहा की "राजे भोजन तो पूरा कीजिये"। बाजीराव बोले "आज एक हिन्दू राजा संकट में है। बहन बेटियों की इज़्ज़त दांव पर है। अगर देर हो गयी तो इतिहास लिखेगा की ब्राह्मण भोजन करता रह गया। चलो सेना तैयार करो। 5 दिन का रास्ता 2 दिन में पूरा करेंगे"। और बाजीराव ने ऐसा ही किया। 3 दिन बाद मुगल आक्रमणकारी बंगश जिसे "कसाई" कहा जाता था मारा गया और राजपूत साम्राज्य की सुरक्षा हुई।

4. जब इस्लाम धर्म के संस्थापक मोह्हमद साहब के नवासे हुसैन और उनके परिवार को यजीदी राजा ने इराक के करबला में घेर लिया तो उनकी मदद को वहां पहुंचे भारत के "मोहयाल" ब्राह्मण ही थे। वहां इन 3000 ब्राह्मणों ने 40000 की सेना से युद्ध किया और उनके परिवार की रक्षा की परम् बलिदान देकर। इन्हें शिया "हुसैनी ब्राह्मण" कह कर भी बुलाते हैं। इसी तरह सिख धर्म के मुश्किल समय में गुरु की रक्षा को और उनके परिवार की सुरक्षा को लड़ने वाले और शहीद होने वाले बन्दा बहादुर उर्फ़ लक्ष्मण दास भारद्वाज, उनके पुत्र अजय भारद्वाज, सती दास, मति दास, दयाल दास, कृपा दत्त, भाई पराग दास, भाई मोहन दास आदि सभी पंजाबी ब्राह्मण थे।

5. ऐसे ही इतिहास देखता है की छत्रपति शिवाजी और शम्भा जी के बाद मराठा साम्राज्य ब्राह्मणों के हाथ में ही रहा। 125 साल तक पेशवा साम्राज्य छाया रहा जिसकी सीमाएं दक्षिण में हैदराबाद से पंजाब तक आ गयीं। शाहू जी को सिर्फ शिवाजी के वंशज होने के नाते और शिवाजी की इज़्ज़त के चलते सिंघासन पर बिठाये रखा गया था। पर असली कुर्सी पेशवा की थी। सारी सत्ता, सारी ताकत, सारी सेना पेशवा के एक इशारे पर हिल जाती थी। पेशवा ही निति निर्माता थे। बाहरी दुनिया पेशवा के नाम का ही खौफ खाती थी। पेशवा चाहते तो किसी भी दिन खुद छत्रपति बन जाते पर सच्चे योद्धा कभी ऐसा नही करते। 

समय आने पर महाराज ललितादित्य, सम्राट पुष्यमित्र शुंग, राजा दाहर शाह, अग्निमित्र, बाजीराव वल्लड़ पेशवे, राजा शशांक शेखर, पल्लव सूर्यवंशी, नाना साहेब , तांत्या टोपे, रानी की झांसी और ना जाने कितने ब्राह्मणों ने अपने राजतिलक स्वयं किये हैं और बार बार धर्म के राज्य की स्थापना की है तलवार के जौहर के बल पर। 

जय परशुराम। जय पेशवा।


 क्युकी मेरे पूर्वज योद्धा ब्राह्मण थे ।  पर बचपन से एक खराब आदत रही इतिहास और साहित्य पढ़ने की। इसी चक्कर में यह धुन लगी की पता किया जाए की हमारे पूर्वज असल में थे कौन। आर्यों के इतिहास से लेकर आगे पढ़ते हुए मन में ए सवाल उठता था की आखिर ब्राह्मण कौन थे और समाज में उनको इतना उँचा स्थान क्यूं प्राप्त था। आखिकार शक्ल सूरत और दिमाग में तो वो शेष लोगों की तरह ही थे फिर इतना सामाजिक सम्मान क्यूं मिला हुआ था और साथ ही साथ ब्राह्मणों की हालिया अवस्था पर क्षोभ भी होता था। वैसे तो अब ब्राह्मणों को गाली देना फैशन में शुमार है, परंतु यह बात सोचने की है की कोई भी कौम या किसी समुदाय का 1 वर्ग शेष समुदाय को हज़ारों साल तक मूर्ख नहीं बना सकता। इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा की इतिहास के किसी काल में ब्राह्मणों ने जरूर कुछ ऐसा किया होगा की उन्हे शेष समाज ने इतना उच्च स्थान दिया। ब्राह्मणों की उत्पत्ति की 2 कहानियाँ मैने पढ़ी हैं। पहली की ब्रह्ममा के 9 पुत्र थे और उन्हीं की सन्तान आगे चल कर ब्राह्मण कहलाए और दूसरी कहानी कि सप्तऋषियों ने सर्वप्रथम ब्रह्म का साक्षात्कार किया था इसलिए उनके ही संतती आगे चल कर ब्राह्मण कहलाए। जैसे-जैसे भारतीय इतिहास को पढ़ता गया वैसे वैसे ब्राह्मणों के सम्मान की वजह का बोध होता गया।
 
अगर हम भारतीय इतिहास को वैदिक काल से शुरु करें तब से आज तक के 5000 साल या उससे भी अधिक के इतिहास में धर्म, साहित्य, आध्यात्म, संगीत, राजनीति से लेकर युद्ध कौशल और सेना में और विदेशी आक्रमण से शस्त्र से लेकर और आध्यात्मिक प्रतिरोध तक हर जगह ब्राह्मणों का योगदान है। अगर वैदिक काल में जाएं तो ब्राह्मणों का मुख्या काम था आश्रमों की स्थापना और शास्त्र और शस्त्रा की शिक्षा देना (प्रायः लोग यह सोचते हैं कि ब्राह्मण सिर्फ किताबी ज्ञान देते थे वो सही नहीं है। उस समय आश्रमों में राजपुत्रों और ब्राह्मणों को शस्त्रयुद्ध कौशल की शिक्षा भी दी जाती थी और ब्राह्मण योद्धा थे जैसे आधुनिक मे भूमिहार (योद्धा ब्राह्मण समूह जो काशी नरेश की व्यवस्था मे मुगलों की जमींदार शब्द को छोड़ उसका संस्कृत पर्यायवाची भूमिहार विशेषण लिया )। महाभारत काल में द्रोण और परशुराम इसके उदाहरण हैं।
 
सोचने की बात है जो राजकुमार 25 वर्ष की उम्र तक गुरुकुल मे रहते थे वो सिर्फ शास्त्र की शिक्षा कैसे ले सकते थे ( उन्हें शस्त्रों की शिक्षा भी गुरुकुल में ही मिलती थी) पर इस शिक्षा देने के बदले में ब्राह्मणों को जीविका के लिये भिक्षावृत्ति पर ही निर्भर रहन पड़ता था। यह सामाजिक व्यवस्था इसलिए बनाई गयी थी जिससे शिक्षा व्यवसाय ना बने और शिक्षक लालची और लोभी ना होकर सबको समान रूप से ज्ञान दें। अब अगर कोई भी व्यक्ति समाज में इतना बड़ा त्याग करेगा तो उसे सम्मान मिलेगा ही।
 
वैदिक काल के ब्राह्मणों की उच्च बौद्धिक क्षमता का पता उपनिषद को पढ़कर और समझ कर लगाया जा सकता है मानव इतिहास में में इतने उच्च कोटि की आध्यत्मिक बौद्धिक क्षमता का उदाहरण और कहीं नही है। शायद भारत की अंग्रेज़ों से आज़ादी के पहले का कुछ अपवादों को छोड़कर पूरा साहित्य ब्राह्मणों के द्वारा ही लिखा गया है। इसी तरह चिकित्सा विज्ञान में आज से हज़ारों साल पहले भारत में कई जटिल ऑपरेशन किए जाते थे जिन्हें आज भी चिकित्सा विज्ञान मान्यता देता है।
 
संगीत में तन्ना पाण्डेय (तानसेन) या बैजू बावरा(बैजनाथ चतुर्वेदी) अमर नाम है। हालांकि संगीत की उत्पत्ति सामवेद से ही हो गयी थी पर इसका श्रेय भी ब्राह्मणों को जाता है। भारत पर विदेशी आक्रमण का पुराना इतिहास रहा है एक शक्तिशाली भारत के निर्माण और विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिये चाणक्य-पुष्पमित्रा से लेकर माधवाचर्या विद्यारण्या तक- और उसके बाद मुग़लकाल में भी तुलसीदास एवं अन्या संतों ने हिन्दुओं को धर्म से जुड़े रहने में अहम योगदान दिया और यह बात ब्रिटिश राज के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ किये गये संघर्ष में भी देखी जा सकती है।
 
परंतु ऐसा नही है की सब कुछ इतना ही सुन्दर और शालीन था जितना दिखता है। आप किसी व्यक्ति,वर्ग या समाज को कितना भी आदर्शवादी क्यूं ना बनाएं लोभ, मोह और स्वार्थ से सभी का ऊपर उठ पाना संभव नही होता और यही उत्तर वैदिक काल के ब्राह्मणों के साथ हुआ। पुराणों में भृगु की शिव के गणों के द्वारा दाढ़ी-मूछ उखाड़ कर अपमानित करने का जिक्र है। क्योंकि भृगु ने सत्ताधारी और धनवान दक्ष का साथ दिया था। इसी प्रकार महाभारत में द्रोणाचार्य का धन के लालच में राजगुरु बनना और कुछ विद्याओं का चोरी-छुपे सिर्फ अश्वत्थामा को ज्ञान देना इसका उदाहरण है।
 
यह बात सही है कि ऊंचाई पर बैठे व्यक्ति का चरित्र बहुत महान होना चाहिए अन्यथा उसका और समाज दोनो का पतन हो जाता है और समाज को भी आदर्शवादी और त्यागी पुरुष से सिर्फ अपेक्षा ना रखकर उसे उचित सम्मान देना चाहिये अन्यथा समाज के लिये त्याग करने वाला व्यक्ति विद्रोही और लालची हो जाता है।
 
भारतीय समाज में यहीं गलती हुई आदर्शवाद के शिखर पर बैठे ब्राह्मणों में लालच और भौतिक सुखों के मोह और उनसे सिर्फ अपेक्षा रख कर आए दिन अपमानित करने वाले समाज की वजह से सामाजिक गिरावट आई (राजा नहुष द्वारा सप्तऋषियों से पालकी उठवाने से लेकर, जमदाग्नि-रावण-वृत्तासुर की हत्या और चाणक्य को अपमानित कर राजमहल से बाहर फिंकवाने की घटनाएं और ऐसी ही बहुत सारी घटनाएं इसका उदाहरण हैं ) । यह  गिरावट हालांकि उत्तर वैदिक काल से लेकर मौर्य वंश तक कम थी परंतु उसके पश्चात बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव की वजह से नए और कठोर सामाजिक नियम बढ़ने लगे और साथ ही साथ निचली जातियों पर अत्याचार की प्रेरणा भी और यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा और मुग़ल काल में और विकृत हो गया।
 
अंग्रेजों के शासन को चाहे पूरा विश्व लाख गाली दे लेकिन अफ्रीका के जानवर रूपी मनुष्यों को इंसान बनाने से लेकर भारत के सदियों से शोषित और पीड़ित वर्ग में चेतना का जागृत करने का काम उन्हींने किया और वहीं से ब्राह्मणों के सामाजिक श्रेष्ठता के अहसास को खत्म करने की प्रभावी पहल भी। और आज़ादी के बाद लगातार अनवरत (मास प्रोपगॅंडा) से तो ऐसा ही प्रचार हुआ की इस देश की जो भी समस्या आदि काल से अभी तक हुई है वो ब्राह्मणों की ही देन है।
लगातार चल रहे दुष्प्रचारों से अपने इतिहास के साथ साथ ब्राह्मणों ने अपना आत्म सम्मान और मर्यादा भी पूरी तरह खो दी। वैसे भी ब्राह्मण कोई शारीरिक संरचना या असाधारण तीक्ष्ण बुद्धि की वजह से नही त्याग और समाज के लिए समर्पण की वजह से सम्माननीय थे ।आधुनिक भारत में की आधुनिक परिस्थितियों में ब्राम्हण कहे जाने वाले वैदिक ब्राह्मणों के संस्कारों और सम्मान का पूरि तरह लोप हो गया है। हां इस जातिय नाम की वजह से नौकरी और अन्य सरकारी सुविधाओं में जो भेदभाव का सामना करना पड रहा है वो अलग। अब यह समय ही बताएगा कि आगे चलकर समाज क्या रूप लेगा।

Monday, 1 June 2020

Father of all Gangster Don Sharpshooter Badmash Most wanted Criminal One and Only Brahmin barmeshwar Singh Bhumihar ( A True Kissan Farmer and a warrior Pandit )



रणवीर सेना - भारत का उच्च जातीय संगठन हैं, जिसका मुख्य कार्य-क्षेत्र बिहार है। यह कोई आतंकवादी संगठन नहीं ब्लकि मीलिशिया है, क्योंकि यह मुख्यतः जाति आधारित भूमिहार ब्राह्मण संग़ठन है और इसका मुख्य उद्देश्य सभी प्रकार के किसानों के जमीनों की रक्षा करना है। जिन जमीनों पर नक्सलियों द्वारा अवैध कब्जा कर लिया जाता है और सवर्ण किसानों का सामुहिक नरसंहार कर दिया जाता रहा है।

रणवीर सेना की स्थापना 1994 में मध्य बिहार के भोजपुर जिले के गांव बेलाऊर में हुई। दरअसल जिले के किसान भाकपा माले (लिबरेशन) नामक नक्सली संगठन के अत्याचारों से परेशान थे और किसी विकल्प की तलाश में थे। ऐसे किसानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर छोटी-छोटी बैठकों के जरिये संगठन की रूपरेखा तैयार की। बेलाऊर के मध्य विद्यालय प्रांगण में एक बड़ी किसान रैली कर रणवीर किसान महसंघ के गठन का ऐलान किया गया। तब खोपिरा के पूर्व मुखिया बरमेश्वर सिंह, बरतियर के कांग्रेसी नेता जनार्दन राय, एकवारी के भोला सिंह, तीर्थकौल के प्रोफेसर देवेन्द्र सिंह, भटौली के गुप्तेश्वर सिंह, बेलाउर के वकील चौधरी, धनछूहां के कांग्रेसी नेता डॉ. कमलाकांत शर्मा और खण्डौल के मुखिया अवधेश कुमार सिंह ने प्रमुख भूमिका निभाई। इन लोगों ने गांव-गांव जाकर किसानों को माले के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। आरंभ में इनके साथ लाईसेंसी हथियार वाले लोग हीं जुटे। फिर अवैध हथियारों का जखीरा भी जमा होने लगा। भोजपुर में वैसे किसान आगे थे जो नक्सली की आर्थिक नाकेबंदी झेल रहे थे। जिस समय रणवीर किसान संघ बना उस वक्त भोजपुर के कई गांवो में भाकपा माले लिबरेशन ने मध्यम और लघु किसानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी लगा रखा था। करीब पांच हजार एकड़ जमीन परती पड़ी थी। खेती बारी पर रोक लगा दी गयी थी और मजदूरों को खेतों में काम करने से जबरन रोक दिया जाता था। कई गांवों में फसलें जलायी जा रही थीं और किसानों को शादी-व्याह जैसे समारोह आयोजित करने में दिक्कतें आ रही थीं । इन परिस्थितियों ने किसानों को एकजुट होकर प्रतिकार करने के लिए माहौल तैयार किया। रणवीर सेना के गठन की ये जमीनी हकीकत है

भोजपुर में संगठन बनने के बाद पहला नरसंहार हुआ सरथुआं गांव में, जहां एक साथ पांच मुसहर जाति के लोगों की हत्या कर दी गयी। बाद में तो नरसंहारों का सिलसिला ही चल पड़ा। बिहार सरकार ने सवर्णों की इस किसान सेना को तत्काल प्रतिबंधित कर दिया। लेकिन हिंसक गतिविधियां जारी रहीं । प्रतिबंध के बाद रणवीर संग्राम समिति के नाम से इसका हथियारबंद दस्ता विचरण करने लगा। दरअसल भाकपा माले ही इस संगठन को रणवीर सेना का नाम दे दिया। और इसे सवर्ण सामंतों की बर्बर सेना कहा जाने लगा। एक तरफ भाकपा माले का हत्यारा दस्ता खून बहाता रहा तो प्रतिशोध में रणवीर सेना के लड़ाके भी खून की होली खेलते रहे। करीब पांच साल तक चली हिंसा-प्रतिहिंसा की लड़ाई के बाद घीरे-घीरे शांति लौटी। लेकिन इस बीच मध्य बिहार के जहानाबाद, अरवल, गया औरंगाबाद, रोहतास, बक्सर और कैमूर जिलों में रणवीर सेना ने प्रभाव बढ़ा लिया। बाद के दिनों में राष्ट्रवादी किसान महासंघ नामक संगठन का निर्माण किया गया। महासंघ ने आरा के रमना मैदान में कई रैलियां की और कुछ गांवों में भी बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम हुए। जगदीशपुर के इचरी निवासी राजपूत जाति के किसान रंगबहादुर सिंह को इसका पहला अध्यक्ष बनाया गया। आरा लोकसभा सीट से रंगबहादुर सिंह ने चुनाव भी लड़ा और एक लाख के आसपास वोट पाया। रणवीर सेना के संस्थापक सुप्रीमो बरमेश्वर सिंह उर्फ मुखियाजी पटना में नाटकीय तरीके से पकड़ लिये गये। पकड़े जाने के बाद वे आरा जेल में रहे। जेल में रहते हुए उन्होंने भी लोकसभा का चुनाव लड़ा और डेड़ लाख वोट लाकर अपनी ताकत का एहसास कराया। आज की तारीख में रणवीर सेना की गतिविधियां बंद सी हो गयी हैं। इसके कई कैडर या तो मारे गये या फिर जेलों में बंद हैं। सुप्रीमो बरमेश्वर मुखिया की साल 1 जून 2012 को कुछ कुख्यात अपराधियों ने हत्या कर दी।

ब्रहमेश्वर सिंह उर्फ बरमेसर मुखिया बिहार की जातिगत लड़ाईयों के इतिहास में एक जाना माना नाम है.

भोजपुर ज़िले के खोपिरा गांव के रहने वाले मुखिया ऊंची जाति के ऐेसे व्यक्ति थे जिन्हें बड़े पैमाने पर निजी सेना का गठन करने वाले के रुप में जाना जाता है.

बिहार में नक्सली संगठनों और बडे़ किसानों के बीच खूनी लड़ाई के दौर में एक वक्त वो आया जब बड़े किसानों ने मुखिया के नेतृत्व में अपनी एक सेना बनाई थी.

सितंबर 1994 में बरमेसर मुखिया के नेतृत्व में जो सगंठन बना उसे रणवीर सेना का नाम दिया गया.

उस समय इस संगठन को भूमिहार ब्राह्मण किसानों की निजी सेना कहा जाता था.

इस सेना की खूनी भिड़ंत अक्सर नक्सली संगठनों से हुआ करती थी.

बाद में खून खराबा इतना बढ़ा कि राज्य सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था.

नब्बे के दशक में रणवीर सेना और नक्सली संगठनों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ की बड़ी कार्रवाईयां भी कीं

सबसे बड़ा लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार एक दिसंबर 1997 को हुआ था जिसमें 58 दलित मारे गए थे.

इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की जातिगत समस्या को उजागर कर दिया था. इस घटना में भी मुखिया को मुख्य अभियुक्त माना गया था.

ये नरसंहार 37 ऊंची जातियों की हत्या से जुड़ा था जिसे बाड़ा नरसंहार कहा जाता है. बाड़ा में नक्सली संगठनों ने ऊंची जाति के 37 लोगों को मारा था जिसके जवाब में बाथे नरसंहार को अंजाम दिया गया.

इसके अलावा मुखिया बथानी टोला नरसंहार में अभियुक्त थे जिसमें उन्हें गिरफ्तार किया गया 29 अगस्त 2002 को पटना के एक्सीबिजन रोड से. उन पर पांच लाख का ईनाम था और वो जेल में नौ साल रहे.

बथानी टोला मामले में सुनवाई के दौरान पुलिस ने कहा कि मुखिया फरार हैं जबकि मुखिया उस समय जेल में थे. इस मामले में मुखिया को फरार घोषित किए जाने के कारण सज़ा नहीं हुई और वो आठ जुलाई 2011 को रिहा हुए.

बाद में बथानी टोला मामले में उन्हें हाई कोर्ट से जमानत मिल गई थी.

277 लोगों की हत्या से संबंधित 22 अलग अलग आपराधिक मामलों (नरसंहार) में इन्हें अभियुक्त माना जाता थ. इनमें से 16 मामलों में उन्हें साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया था. बाकी छह मामलों में ये जमानत पर थे.

जब वो जेल से छूटे तो उन्होंने 5 मई 2012 को अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन के नाम से संस्था बनाई और कहते थे कि वो किसानों के हित की लड़ाई लड़ते रहेंगे.

जब मुखिया आरा में जेल में बंद थे तो इन्होंने बीबीसी से इंटरव्यू में कहा था कि किसानों पर हो रहे अत्याचार की लगातार अनदेखी हो रही है.

मुखिया का कहना था कि उन्होंने किसानों को बचाने के लिए संगठन बनाया था लेकिन सरकार ने उन्हें निजी सेना चलाने वाला कहकर और उग्रवादी घोषित कर के प्रताड़ित किया है.

उनके अनुसार किसानों को नक्सली संगठनों के हथियारों का सामना करना पड़ रहा था.

Sunday, 31 May 2020

Brahmin Pandit King Raja Samrat Pushpmitra Sungh ( पुष्पमित्र शुंग )



प्रतीक रचे जाते है ताकि भविष्य में उन्हें देखकर हम अपने महान पूर्वजो के महान कार्यो द्धारा धर्म वा राष्ट्र रक्षण को समझ सकें और उन्हें यथावत रखने हेतु प्रयासरत रहें....

भारत के इतिहास में महाराज पुष्यमित्र शुंग को जो स्थान मिलना चाहिए था उसे India के कथित शिक्षाविद, बुद्धिजीयों ने “एक राजनयिक विश्वासघात” कहकर प्रचारित किया गया।

हिन्दुओं ने इन इतिहासिक गप्पो को पढा लेकिन कभी प्रश्न नही किये.....

चाणक्य द्धारा निर्मित मौर्य राजवंश के अंतर्गत अखंड भारत का भवन किनका घर बना ?

अशोक ने बौद्ध मत स्वीकार करने के उपरांत सनातन वैदिक हिन्दू धर्म के लिए क्या किया ?

कैसे एक सुरक्षित शक्तिशाली मगध बोद्ध मत द्धारा कायरता को आत्मसाध कर “अहिंसा परमो धर्म" का जप करते अखंड राष्ट्र को पुनः खंडित होते देखता रहा ?

बौद्ध भिक्षुओं द्धारा यवन आक्रांताओं को सत्ता हेतु निमंत्रण भेजना कैसे मगध के अमात्य वर्ग पचा रहा था ?

यज्ञ अग्नि की प्रजवलित अग्नि को किसका भय था मौर्य राजवंश में ?

क्यों एक ब्राह्मण को अपने ब्राह्मणत्व को त्याग कर सेनापति पुष्यमित्र ही कहना पड़ा ?

सेनापति पुष्यमित्र शुंग को अपने राजा बृहदत्त का वध कर सत्ता अपने नियंत्रण में क्यों लेनी पड़ी ?

बौद्ध मत के राजा बृहदत्त ने सेनापति पुष्पमित्र को यवनों के विरुद्ध युद्ध ना करने का आदेश दिया क्योंकि बोद्ध मत अहिंसक था लेकिन यवन संकट अब सीमाओं के भीतर आ चुका था ऐसे में “अहिंसक" राजा सिंहों की सेना का नेतृत्व करता एक गधा था तो सेनापति पुष्यमित्र ने सिंह की दहाड़ भरते हुए अपनी तलवार को पूर्ण सेना के मध्य ही राजा बृहदत्त के सीने में उतार कर दहाड़ते हुए कहा ....

“ना बृहदत्त मुख्य था ना पुष्यमित्र होगा मगध मेरी जन्मभूमि है मैं इसको यवनों के अधीन ना होने दूंगा, मैं जा रहा युद्धभूमि में, पीछे कौन-कौन है कौन नही आया है नही देखूंगा।"

हर हर महादेव के जयकारों से कई वर्षों बाद मगध की धरती गुंजायमान हुई, 2300 वर्ष पूर्व यह अंतिम युद्ध था जो यवनों और हिन्दुओं के मध्य हुआ इसके उपरांत फिर कभी यवन भरतीय सीमाओं की और ना आए।

बोद्ध राजवंश के प्रतीक हाथी को दबाते हुए सिंह की यह प्रतिमाएं महाराज पुष्पमित्र शुंग का राज्य प्रतीक है।

महाराज पुष्यमित्र शुंग की जय हो

Saturday, 30 May 2020

Deepak Parashar Royal Pandit





मै दीपक पराशर रोयल पंडित (सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य (1501–1556) का वंसज) एक कट्टर पंडित हू और  मरने और मारने के लिए तेयार रहता हू. ! मुझे गर्व है की मै उस जाती  में  जन्मा हु जिसमे अश्वत्थामा, राजा बाली , व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कंडेय, राजा धीर, राजा पुरुस, रानी लक्ष्मीबाई, भगवन बुद्ध, राजा हरिश्चंदर, राजा रावन,  सम्राट हेमू चन्द्र विक्रमादित्य, राजा बीरबल, चकरवर्ती राजा भरत, राजगुरु , बतुकेश्वार दत्त, सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य (1501–1556), मंगल पाण्डेय, नानाविनायक दामोदर सावरकर , साहिब पेशवा रानी  लक्ष्मीबाई ऑफ़ झाँसी, तात्या टोपे, चन्द्रशेकर आजाद, स्वामी सहजानंद सरस्वती, बालगंगाधर तिलक, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल, गोपाल कृष्ण गोखले, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, चाणक्य, गोस्वामी तुलसीदास, सुरदस, रामदास, रबिन्द्रनाथ तागोरे, रामधारी   सिंह 'दिनकर हजारीप्रसाद द्विवेदी, सुमित्रानंदन पन्त, रामवृक्ष बेनीपुरी, मनोहर श्याम जोशी, सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, दिलीप बलवंत वेंगसरकार, अजित वाडेकर, श्रीनिवासन वेंकत्रघवन, इरापल्ली आनंदरावस प्रसन्ना, बगावत सुब्रमनिया चंद्रशेखर, गुंडप्पा विश्वनाथ, लाक्स्मन सिवारामाकृष्णन, चेतन शर्मा, पर्थासर्ति शर्मा , Ravi शास्त्री, कृष्णामचारी सृक्कंथ, अंजलि, वन्गिपुराप्पू, वेंकट साईं  लाक्स्मन, अनिल कुंबले, श्रीनाथ, Venkatesh Prasad, अजय शर्मा , दिनेश कार्तिक, मुरली कार्तिक, रोहित शर्मा, इशांत शर्मा, अमित मिश्र, योगेश्वेर दत्त (रेसेलेर), सुब्रमण्यम बद्रीनाथ, सुरेश रैना, मनीष पाण्डेय, सदगोप्पन रमेश, अजित अगरकर, हृषिकेश कानिटकर, सुनील जोशी, विश्वनाथन आनंद, कीर्ति अ ज़द, थ्यगाराजा, पुरंदरदस, व्यसतिर्था, राघवेन्द्र स्वामी, मुथुस्वामी  दीक्षित, श्यामा सस्त्री, र.स.प. बलासुब्रह्मन्यम, विष्णुवर्धन, उषा उठुप, मिथुन चक्रबोर्टी, कविता क्रिस ह्नामुर्ति, हृषिकेश मुख़र्जी, हेमा मालिनी, बासु चत्तेर्जी, सुधीर फडके, बालगंधर्व, डॉ. वसंतराव देशपांडे, अशोक कुमार, किशोरे कुमार, मुकेश, श्रेया घोषाल, उदित नारायन, शांतनु मुख़र्जी, अभिजीत, कुमार सानु, अलका याग्निक, माधुरी दिक्सित, अमृता राव, शर्मीला तागोरे, अदिति गोवित्रिकर, गायत्री जोशी, सोनाली बेंद्रे, रानी मुख़र्जी, काजोल, विद्या बालन, सोनल कुलकर्णी, तानसेन, बैजू बावरा, रति अग्निहोत्री, अपूर्व अग्निहोत्री, सुनील दत्त, संजय दत्त, कमल हस्सन, मौसुमी चत्तेर्जी, चंकी पाण्डेय, रेखा, मिनाक्षी शेषाद्री, मणि रत्नम, भीमसेन जोशी, पंडित रवि शंकर, वीणा दोरेस्वमी इयेंगर, मंगलाम्पल्ली बालमुरली कृष्ण, पंडित जसराज, शिवकुमार शर्मा आदि लोग जन्मे है!

" ॐ अश्वत्थामा वलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषण: कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन: सप्तैतांस्स्मरे नित्यं मार्कंडेय तथास्टमम जीवेद वर्ष शतं साग्रमप मृत्यु विवर्जित : . मान्यता है की इस मंत्र का जाप करने से अकाल मृत्यु से रक्षा होती है. आठ नाम इस प्रकार हैं- मतलब ये  8ओ  ब्रह्मिन अमर है  हर एक युग में ये अमर है - अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, मार्कंडेय, कृपाचार्य और परशुराम  ये अमर हैं. मुख में वेद पीठ पर तरकस ,कर में कठिन कुठार विमल शाप और शर दोनों ही थे जिस महान ऋषि के संबल, बाबा परशुराम ने धरती को क्षत्रिय विहीन कर दिया था ये बात अटल सत्य है ...जय बाबा परशुराम ...




धाकड़ छोरा पंडित का ..

.या ते अड़ता नहीं , अड़ता है तो पीछे हटता नहीं ...
या तो मारता नहीं मारता है तो माफ़ करता नहीं

धाकड़ छोरा पंडित का ..

जब टाइम कभी किसी पे बुरा आव्गा ,
तो या पंडित ही मदद ने आव्गा ....
जब यो पंडित छोरा आव्गा तो योहे छावेगा

या धाकड़ छोरा पंडित का

देश में पहला भी पंडित क्रांति में आगे आये थे
तब चंदर शेखर आजाद और पंडित रामप्रसाद बिस्मिल जैसे शेर छाए थे ..
देश को बचने आया था और इब भी बचावेगा

धाकड़ छोरा पंडित का ..

पहला किसी ते कुछ बोले न फेर किसी ने कुछ तोले न
जब यो दीपक पराशर रोयल पंडित सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादित्य का वंसज आव्गा
तो भगवान परशुराम की छवि दिखाव्गा

यो धाकड़ छोरा पंडित का

Deepak Parashar Royal Pandit- 

+91-9416557837

सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य यही पूरा नाम है हेमू का. हेमू इतिहास के भुला दिए गए उन चुनिन्दा महानायकों में शामिल है जिन्होंने इतिहास का रुख पलट कर रख दिया था. हेमू ने बिलकुल अनजान से घर में जन्म लेकर, हिंदुस्तान के तख़्त पर राज़ किया. उसके अपार पराक्रम एवं लगातार अपराजित रहने की वजह से उसे विक्रमादित्य की उपाधि दी गयी.
हेमू का जन्म एक ब्राह्मण श्री राय पूरण दस के घर १५०१ में अलवर राजस्थान में हुआ, जो उस वक़्त पुरोहित (पूजा पाठ करने वाले) थे, किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितो को परेशान करने की वजह से रेवारी (हरियाणा) में आ कर नमक का व्यवसाय करने लगे.
काफी कम उम्र से ही हेमू, शेर शाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट (गन पावडर हेतु) उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे. सन १५४० में शेर शाह सूरी ने हुमायु को हरा कर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था. हेमू ने उसी वक़्त रेवारी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नीव राखी, जो आज भी रेवारी में ब्रास, कोंपर, स्टील के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है.
शेर शाह सूरी की १५४५ में मृत्यु के पाश्चर इस्लाम शाह ने उसकी गद्दी संभाली, इस्लाम शाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचाना और उसे व्यापार एवं वित्त संबधी कार्यो के लिए अपना सलाहकार नियुक्त किया. हेमू ने अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लाम शाह का विश्वासपात्र बन गया... इस्लाम शाह हेमू से हर मसले पर राय लेने लगा, हेमू के काम से खुश होकर उसे दरोगा-ए-चौकी (chief of intelligence) बना दिया गया.
१५४५ में इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसके १२ साल के पुत्र फ़िरोज़ शाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिल शाह सूरी ने मार कर गद्दी हथिया ली. आदिल ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया. आदिल अय्याश और शराबी था... कुल मिला कर पूरी तरह अफगानी सेना का नेतृत्व हेमू के हाथ में आ गया था.
हेमू का सेना के भीतर जम के विरोध भी हुआ.. पर हेमू अपने सारे प्रतिद्वंदियो को एक एक कर हराता चला गया.
उस समय तक हेमू की अफगान सैनिक जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था.. अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासको को विदेशी मानते थे, इसी वजह से हेमू हिन्दू एवं अफगान दोनों में काफी लोकप्रिय हो गया था.
हुमायु ने जब वापस हमला कर शेर शाह सूरी के भाई को परस्त किया तब हेमू बंगाल में था, कुछ समय बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई.. हेमू ने तब दिल्ली की तरफ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की कई रियासतों को फ़तेह किया. आगरा में मुगलों के सेना नायक इस्कंदर खान उज्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया ,इसके बाद हेमू ने 22 युद्ध जीते और दिल्ली सल्तनत का सम्राट बना।
हेमू ने अपने जीवन काल में एक भी युद्ध नहीं हारा, पानीपत की लडाई में उसकी मृत्यु हुई जो उसका आखरी युद्ध था.
अक्टूबर ६, १५५६ में हेमू ने तरदी बेग खान (मुग़ल) को हारा कर दिल्ली पर विजय हासिल की. यही हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया.
लगभग ३ शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार (कम समय के लिए ही सही) कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना. भले ही हेमू का जन्म ब्राह्मण समाज में हुआ और उसको पालन पोषण भी पुरे धार्मिक तरीके से हुआ पर वह सभी धर्मो को समान मानता था, इसीलिए उसके सेना के अफगान अधिकारी उसकी पूरी इज्ज़त करते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेना नायक साबित हो चूका था.
पानीपत के युद्ध से पहले अकबर के कई सेनापति उसे हेमू से युद्ध करने के लिए मना कर चुके थे, हलाकि बैरम खान जो अकबर का संरक्षक भी था, ने अकबर को दिल्ली पर नियंत्रण के लिए हेमू से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया. पानीपत के युद्ध में भी हेमू की जीत निश्चित थी, किन्तु एक तीर उसकी आँख में लग जाने से, नेतृत्व की कमी की वजह से उसकी सेना का उत्साह कमजोर पड़ गया और उसे बंदी बना लिया गया... अकबर ने हेमू को मारने से मना कर दिया किन्तु बैरम खान ने उसका क़त्ल कर दिया.
आज कई लोग इतिहास के इस महान नायक को भुला चुके है, किन्तु मुगलों को कड़ी टक्कर देने की वजह से ही हिंदुस्तान कई विदेशी आक्रमणों से बचा रहा... आप खुद ही सोचिये.. बिना किसी राजनैतिक प्रष्ठभूमि के इतनी उचाईयो को छुने वाले का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा.
आज भी हेमू की हवेली जर्जर हालत में रेवारी में है.... भारत ही शायद एक देश है जहा...सच्चे महानायकों की कोई कदर नहीं होती.

Bahmin Pandit King Samrat Raja The Great Dahir Pushkarna



ब्रह्मवीर ब्राह्मण राजा दाहिर सेन जी पिता चच और माता सुहानादी के घर में जन्मे.

पुष्करणा ब्राह्मण कुल में जन्मे दाहिर सेन सिंध के बादशाह थे बचपने से ही वीर, धीर व शेरों की मानिन्द साहसी बालक दाहिर सेन ने बारह वर्ष की अल्पायु में ही सिन्ध का राजपाठ संभाल लिया था।

सिंध के राजपूत राजा के पीछे कोई वंसज नहीं था इसलिए उन्होंने अपने प्रधान चच को राजा बना दिया जिनके पुत्र हुए दाहिर सेन,राजा चच के बाद उनके छोटे भाई चंदर ने सिंध पर 7 साल राज किया जिसमे उन्होंने बोद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया था जिसके कारन सिंध की जनता में काफी रोष हो गया था 7 साल बाद दाहिर ने सत्ता संभाली और सनातन धर्म को राज्यधर्म घोषित किया पर बोद्ध धर्म को पूर्ण संरक्षण दिया.

प्रजापालक इतना कि दाहिरसेन के शासनकाल में सिन्धु देश का हर नागरिक सुखी सम्पन्न व आनन्द में घूम रहा था।

सिंध का समुद्री मार्ग पूरे विश्व के साथ व्यापार करने के लिए खुला हुआ था। सिंध के व्यापारी उस काल में भी समुद्र मार्ग से व्यापार करने दूर देशों तक जाया करते थे और इराक-ईरान से आने वाले जहाज सिंध के देवल बन्दर होते हुए अन्य देशों की तरफ जाते थे। ईरानी लोगों ने सिंध की खुशहाली का अनुमान व्यापारियों की स्थिति और आने वाले माल अस्बाब से लगा लिया था। हालांकि जब कभी वे व्यापारियों से उनके देश के बारे में जानकारी लेते तो उन्हें यहीं जवाब मिलता कि पानी बहुत खारा है, जमीन पथरीली है, फल अच्छे नहीं होते ओर आदमी विश्वास योग्य नहीं है। इस कारण उनकी इच्छा देश पर आक्रमण करने की नहीं होती, किन्तु मन ही मन वे सिंध से ईष्र्या अवश्य करते थे।
अरब निवासी सिन्ध प्रदेश के लोगों का सुख चैन न देख सके और उन्होने हिंदुस्तान पर जिहाद की घोषणा कर दी.

सिंध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में नौ खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया पर हिंदू बहादुरों से पराजित हुए। जब अरब के खलीफा ने देखा कि उसके सैनिक सिन्धी बहादुरों से जीतने में असमर्थ हैं तो अंत में उस अरब खरीफा ने अपने युवा भतीजे और नाती, इमाम अदादीन मुहम्मद बिन कासिम को 710 ई. में सिन्ध प्रदेश की ओर रवाना किया। यह सेना समुद्री मार्ग से मकरान के रास्ते से सिन्ध राज्य की ओर बढ़ती चली आ रही थी और मोहम्मद बिना कासिम सिन्ध के देवल बंदरगाह पर पहुंचा। वहां पहुंचने के उपरान्त मोहम्मद बिना कासिम ने सोचा कि जांबाज सम्राट दाहर सेन से सीधे तरीके से तो वह कदापि विजयी नहीं हो पाएगा, उसने एक चाल चली.

वह यह कि उस समय भारत देश के अन्य प्रांतों की तरह सिन्ध प्रदेश में भी बौद्ध धर्म का प्रचार हो रहा था। उसने बौद्ध धर्म को मानने वाले मोक्षवास नामक हैदरपोल के राज्यपाल को अपने चंगुल में फंसा लिया, इस कदर कि मोक्षवास और देवल राजा ज्ञानबुद्ध ने अरबी सेनापित मोहम्मद बिन कासिम को अपना क्षेत्र,खाना पानी सौंपने के अलावा सिन्ध पर जीत हासिल करने के लिए अपनी सेनाएं तक सौंप दीं और मोक्ष्वास देशद्रोही हो गया.

मोहम्मद बिना कासिम के वारे-न्यारे हो गए और उसने हैदराबाद सिन्ध के नीरनकोट पर हमला कर दिया। फिर कासिम रावनगर की ओर बढ़ा। तदुपरान्त चित्तौर में बहादुर दाहिर सेने का अरबी सेनाओं से युद्ध हुआ। यह भयंकर युद्ध नौ दिन तक चलता रहा।इसमें क्षत्रिय,जाट और ठाकुरों ने भी सहयोग दिया और इन नौ दिनों में बहादुर सम्राट दाहिर सेन की सेना अरबियों का सफया करती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। अरबी सेना पराजय के कगार पर थी।रात हुई तो युद्ध रुका और सब अपने सूबे में सू रहे थे तभी गद्दार राजा मोक्षवास अरबों की मदद के लिए अपनी फौज लेकर रणभूमि में पहुंच गया। यह युद्ध 21 दिनों तक चलता रहा और अंत में मुघलो की हार हुई.

उसके बाद कासिम ने सोचा दाहिर महिलाओ की इज्जत करते हे इसलिए वो महिला भेष में दाहिर के पास गए और मदद मांगी ये सुनते ही दाहर सेन दुश्मन की चाल को समझ नहीं पाया और अपनी महिला प्रजा की रक्षा के लिए उनके साथ जाते जाते अपनी सेना से काफी दूर आ गया तो गद्दारों ने दाहिरसेन के हाथी के सम्मुख आग के बाणरूपी गोले छोड़ना प्रारम्भ कर दिया।दाहिर सेन हाथी से गिरने पर भी लड़ते रहे पर अंत में शहीद हो गए.

कासिम की सेना उसके बाद सिंध पहुची जहा ब्रह्मिनी रानी और किले की महिलाओ ने तीरों और भालो से किया ये देख कर कासिम की सेना फिर से पीछे हट गयी,पर रानियों को नहीं पता था की मोक्श्वास एक गद्दार हो चूका था उसने महल में प्रवेश किया सहानुभूति लेकर और रात को धोके से अलोर के किले का दरवाजा खोल दिया ये जानकार सभी ब्रह्मिनी रानी और महिलाए जोहर के अग्निकुंड में कूद गयी.पर पीछे रह गयी दाहिर सेन की 2 बेटिया सूर्य अर परमाल.

ब्रह्मकन्य सूर्य और परमल के खून बदले को उबाल खा रहा था कासिम ने सोचा इन दोनों लडकियों को खालिफा को उपहार में भेज देगा तो खुश होंगे,ये सोचकर दोनों लडकियों को अरब भेजा वहा पहुचकर अरब के खलीफा ने दोनों ब्रह्मकन्य को देखा तो फ़िदा हो गया तभी सूर्य और परमाल ने अपनी नीति चलायी और बोली आपके सेनापति केसे हे खलीफा को आपको ये खुबसूरत फुल भेज तो हे पर उससे पहले वो खुद फुल के खुसबू ले चुके हे.

ये सुनकर खलीफा तिलमिला गया और हुक्म दिया की मीर कासिम को चमड़े के बोरी में सी कर अरब लाया जाए पर कासिम का दम घुट गया चमड़े के बोर में जब सीकर लाया गया वो मर गया जब लाश अरब पहुची दरबार में खलीफा के सामने सूर्य और परमाल ने हकीक़त बाताई की ये सब उनकी साजिश थी इतना कहकर दोनों बहेनो ने जय सिंध जय दाहिर बोलते बोलते एक दुसरे को खंजर मार कर शहीद हो गयी.

ये देख कर खलीफा बोला निश्चित ही हमने सिंध जेसा देश नहीं देखा जहा की महिला भी इतनी वफादार हो सिंध को पाने में हमने बहुत कुछ खो दिया.

वीर ब्राह्मण राजा दाहिर सेन उनकी ब्रह्मिनी रानी और वीरांगना सूर्य परमाल ब्राह्मण समाज का गौरव हे.

ब्राह्मण सदा अजय सनातन धर्म की जय
जय परशुराम

ब्राह्मण

ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है। इसका उत्तर इस प्रकार है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी न...